Wednesday, August 18, 2010

तब इतना करना!




जब मैं न रहूँ इस अस्तित्व शून्यता में
तब इतना करना
बेहिचक तुम पोंछ लेना अपनी आँखें
ठीक ही है, चार दिन-
धड़केगा कलेजा, दम घुटने लगेगा.
सँभाल लेना भर भर आती हिचकियों को,
रुन्धने न देना गले को.
फिजूल ही घावों की पीड़ा के चक्कर में न पड़ना
ख़ुशी से, ख़ुशी से बसा लेना एक आशियाँ जो तुम्हें रुचे
मुझे याद करके,
और ज़रूरत पड़े तो मुझे भुलाके.

-नारायण सुर्वे

मराठी से अनुवाद: भारतभूषण तिवारी

(जनकवि नारायण सुर्वे का लम्बी बीमारी के बाद सोमवार, १६ अगस्त को ठाणे में निधन हो गया.चिंचपोकली महानगर पालिका की इमारत में स्थित नारायण सुर्वे के सरकारी क्वार्टर की तस्वीर मराठी समाचारपत्र सकाळ की वेबसाइट से साभार)

Monday, August 9, 2010

विभूति नारायण राय की टिप्पणी पर प्रो. इलिना सेन


इस बात से मुझे गहरा दुख पहुँचा है कि हमारे कुलपति श्री विभूति नारायण राय महिला लेखकों और महिलावादी विमर्श पर की गई अपनी टिप्पणी को लेकर अशोभनीय विवाद में उलझ गए हैं. एक सार्वजनिक हस्ती के तौर पर श्री राय को इस बात का कहीं ज्यादा ध्यान रखना चाहिए था कि हिंदी महिला लेखकों द्वारा उठाये गए विषयों से उनकी असहमतियाँ और उन पर उनकी टिप्पणियाँ संसदीय भाषा की सीमाओं में बनी रहें.

आज महिलावादी विमर्श सत्ता की संरचनाओं और संबंधों को चुनौती देने वाले सर्वाधिक शक्तिशाली बौद्धिक विमर्शों में से एक है, और इसमें समाज और राजनीति को देखने के पूर्णतः अभिनव तरीके तैयार करने का सामर्थ्य वाकई है. यह विरोधाभास ही है कि इस विमर्श की शुरुआत इस समझ के साथ हुई थी कि हम जैविक विभेदों के सामाजिक ढाँचे तक अपने आपको सीमित नहीं रखेंगे. इसलिए यह कहना कि कुछ लेखिकाओं के लिए महिला मुक्ति का अर्थ मात्र 'दैहिक' मुक्ति और बेवफाई के उत्सव तक सिमट कर रह गया है, महिलावादी विद्वत्ता की गहराई और विस्तार को नज़रअंदाज़ करता है. अलग अलग लोगों ने जिन विषयों को अपने सृजनात्मक लेखन के लिए चुना यह उनका विशेषाधिकार है. फिर भी हमें यह मानना होगा कि व्यक्तिगत जीवन और अनुभवों से जुड़े मुद्दों पर बात करने में पुरुषों के मुकाबले महिला लेखकों ने कहीं ज्यादा ईमानदारी और स्पष्टवादिता दिखाई है. उनके लेखन ने बहुत से संवेदनशील क्षेत्रों को चर्चा में लाया है जिसमें लैंगिकता का मुद्दा भी शामिल है . साहित्यालोचना के लोकतांत्रिकरण के किसी भी प्रयास में इस बात का उपहास नहीं बल्कि सराहना की जानी चाहिए. बहुत कर के इस तरह की टिप्पणियाँ महिलाओं की लैंगिकता को लेकर पुरुषों और पितृसत्तात्मक समाज में हमेशा से रहे डर और व्यग्रता की ही सूचक हैं.

महिला आन्दोलन एक राजनीतिक हलचल के तौर पर बहुत सारे मुद्दों और घटक-समूहों से सम्बद्ध रहता है और अन्य मुक्ति संघर्षों से हमेशा ही उसका करीबी नाता रहा है. एक अकादमिक विधा के तौर पर महिला अध्ययन इसी आन्दोलन से शक्ति ग्रहण करता है और एक गहन बौद्धिक विरासत महिला अध्ययन को बहुत सी विधाओं से प्राप्त हुई है जिनमें एक विधा हिंदी साहित्य भी है. इस विविधता और गहनता का भारतीय महिला अध्ययन संघ के "हाशियाकरण का प्रतिरोध: अधिपत्य का विरोध" विषय पर वर्धा में होने वाले राष्ट्रीय सम्मलेन में प्रतिबिंबित होना अपेक्षित है. मैं वर्धा विश्वविद्यालय समुदाय के सभी सदस्यों को इस सम्मलेन में हिस्सा लेने, बहसों में शामिल होने, और महिलावादी विमर्श वास्तव में क्या है यह जानने हेतु आमंत्रित करती हूँ.

इलिना सेन
वर्धा, 1 अगस्त, 2010

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(वक्तव्य की मूल अंग्रेजी प्रति नीचे दी जा रही है)
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I am deeply saddened that Shri VN Rai, our Vice Chancellor, has got embroiled in an unseemly controversy over his remarks on women writers and the feminist discourse. As a public figure, he should have taken far greater care to ensure that his remarks and differences with the themes that women writers in Hindi may have chosen to address, stayed within parliamentary limits.

The feminist discourse today is one of the most powerful intellectual discourses that challenges structures and relationships of power, and truly has the potential to develop entirely new ways of looking at society and politics. Paradoxically, it all began with the understanding that we would not be limited by the social construction of biological differences. Therefore , to say that for some writers women's liberation is reduced to 'bodily' liberation and a celebration of infidelity alone, ignores the depth and range of feminist scholarship. What individual creative writers chose to write about is their prerogative. However, we must recognize that by and large , women writers have shown far greater honesty and forthrightness in discussing issues relating to personal lives and experiences than men. Their writings have opened up for discussion many sensitive areas including issues of sexuality. In any attempt to democratize literary criticism, this should be appreciated, not ridiculed. In many ways comments like this are symptomatic of the fear and anxiety regarding women's sexuality that men and patriarchal society have always had.

The women’s movement as a political ferment deals with a large number of issues and constituencies and has always had a close relationship to other liberation struggles. Women’s studies as an academic discipline draws its strength from this movement and a deep intellectual heritage drawn from many disciplines, Hindi literature being only one of them. The forthcoming national conference at Wardha of the Indian Association of Women’s Studies on the theme “Resisting marginalization: challenging hegemonies” is expected to reflect this diversity and depth. I would invite all members of the Wardha University community to participate in the conference, join in the debates , and learn what the feminst discourse is actually about.


Ilina Sen
Wardha , 1 August, 2010.

Friday, August 6, 2010

रंग हिरोशिमा - लाल्टू की एक कविता



रंग हिरोशिमा


ब्लैक ऐंड ह्वाइट फोटोग्राफ में गुलाबी
जो भाप बन कर उड़ गया

आँखें फाड़ हम देखते हैं रंग हिरोशिमा
जानते हैं कि हमारे चारों ओर फैला रंग अँधेरा

हिबाकुशा रंग है जीवन का
स्लाइड शो से परे सीटों पर से उड़ते हुए
हमारे प्यार के रंगीन टुकड़ों का

हमारे ही जैसे दिखते हैं दानव
जिनका कोई देश नहीं, नहीं जिनकी कोई धरती
वाकई रंगहीन वे जो धरती से छीन लेना चाहते हैं हरीतिमा
रुकते ही नहीं सवाल
अनजाने ही रंगे गए हमारी चितकबरी चाहतों से
देर तक बहती है हिरोशिमा की याद
एक नितांत ही अँधेरे कमरे में फैलती
भोर की सुनहरी उमंग।

Wednesday, August 4, 2010

ग़लती ने राहत की साँस ली




एक अफसोसनाक और शर्मनाक हादसा जो सदियों से बदस्तूर जारी है, उसे कैसे प्रहसन में तब्दील कर दिया जाता है, उसका ताजा उदहारण विभूति प्रकरण है. अफ़सोस यह है कि इसमें वो लोग भी शामिल हैं जो बड़े साहसी है और सांस्कृतिक-साहित्यिक जगत के नेता और बेहद सुलझे हुए व्यक्ति माने जाते हैं. बेशक इनकी अपने दिल में ख़ास कद्र है. कद्र तो विभूति के भी कई कामों की है. मगर होता यही आया है कि हर `चेम्पियन` पुरूष औरतों से बदतमीजी करना अपना विशेषाधिकार मानता है. गिल के पी एस इसी समाज में हैं और बड़ी शान से हैं.
बहरहाल, जो इस मसले को जाने-अनजाने अमूर्त बना देना चाहते हैं और जो हर असहमति को हमले की तरह मान रहे है, निश्चय ही उन्होंने अपना नुकसान विभूति से ज्यादा कर लिया है. माफियों और लीपापोती का दौर चल रहा है. बाद में सेमिनारों और दारू के दौर बदस्तूर जारी रहेंगे.
फिर भी गौरतलब है कि प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थकों को इस बात का अहसास है कि उनकी छवि पर भी आंच आ रही है और अब वो ज्यादा संभलकर आगे आ रहे हैं. लड़ाई जहाँ तक पहुँची है, उसके नेतृत्व के लिए कृष्णा सोबती की साहसिक पहल का शुक्रगुजार तो होना ही चाहिए.

बहरहाल, मनमोहन की एक छोटी सी कविता साझा करने को जी चाहता है -
ग़लती ने राहत की साँस ली




उन्होंने झटपट कहा
हम अपनी ग़लती मानते हैं

ग़लती मनवाने वाले खुश हुए
कि आख़िर उन्होंने ग़लती मनवाकर ही छोड़ी

उधर ग़लती ने राहत की साँस ली
कि अभी उसे पहचाना नहीं गया

Monday, August 2, 2010

विभूति के बयान पर जसम

जन संस्कृति मंच पिछले दिनों म. गा हिं. वि. वि. के कुलपति श्री विभूति राय द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान हिंदी रत्री लेखन और लेखिकाओं के बारे में असम्मानजनक वक्तव्य की घोर निंदा करता है. यह साक्षात्कार उन्होंने नया ज्ञानोदय पत्रिका को दिया था. हमारी समझ से यह बयान न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है , बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक हैं. इतना ही नहीं बल्कि बयान हिंदी के स्त्रीलेखन की एक सतही समझ को भी प्रदर्शित करता है. आश्चार्य है की पूरे साक्षात्कार में यह बयान पैबंद की तरह अलग से दीखता है क्योंकि बाकी कही गई बातों से उसका कॊई सम्बन्ध् भी नहीं है. अच्छा हो कि श्री राय अपने बयान पर सफाई देने की जगह उसे वापस लें और लेखिकाओं से माफ़ी मांगें. नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींद्र कालिया अगर चाहते तो इस बयान को अपने सम्पादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे. लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन के लिए, चर्चा के लिए उपयोगी समझा. आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई सम्पादक , लेखक बेचैन हैं. इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्रकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएँ हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री-अस्तित्व. रवींद्र कालिया को भी इसके लिए माफी माँगना चाहिए. जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिंता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते. साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री-विरोधी, अराजक भाषा की ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन संभव है और न विमर्श. जसम हिंदी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धनजन कॆ साथ है जिन्हॊनॆ इस बयान पर अपना रॊष‌ व्यक्त किया है.
-प्रणय कृष्ण, महासचिव, जसम