Friday, June 15, 2012

गुलों और दिलों में रंग भरकर चले गए मेहदी.....-शिवप्रसाद जोशी



भारत पाकिस्तान के बीच सियाचिन से सेनाएं लौटाने के स्थूल कूटनीतिक क़िस्म के प्रस्तावों और बातचीत की पेशकशों के बीच दोनों देशों के रिश्तों की तल्खी को मिटाने और एक दूसरे से फिर से जुड़ जाने की बड़ी कोशिश या कमसेकम उसका छोटा सा मुज़ाहिरा ये होता अगर मेहदी हसन साब को हिंदुस्तान इलाज के लिए ले आया जाता या दोनों देश संयुक्त रूप से उनका इलाज कराने की पेशकश करते हुए उन्हें किसी तीसरी बड़ी जगह भेजते.

लेकिन ऐसा हो न सका. लंबी बीमारी के बाद भारतीय उपमहाद्वीप को अपनी रागदारी वाली ग़ज़ल गायकी से मोहित करते रहने वाले मेहदी न रहे. कई दशकों से वो गहरी बीमारियों से तड़प रहे थे. अगले महीने 18 जुलाई को वो 85 साल के हो जाते. गाना वो काफ़ी पहले छोड़ चुके थे, 2009 में अलबत्ता एक रिकॉर्डिंग में शामिल थे.

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में हमारे समय के एक बहुत बड़े उस्ताद अमीर ख़ान ने संगीत के बारे में कहा था कि बिना पोएट्री के क्या गाना. मेहदी उनके इस कथन पर खरा उतरने वाले चुनिंदा गायकों में थे. भले ही वो विशुद्ध क्लासिक गायकी से अलग था लेकिन उन्होंने रागों से कभी परहेज़ नहीं किया बल्कि शास्त्रीय संगीत के अपने सबक को ग़ज़ल गायकी में ढाल दिया. शब्दों पर ज़ोर, उनके घुमाव और उनके रहस्य रोमांच और दर्द के क़रीब मेहदी हमें ले जाते थे. गुलों में रंग भरे...इसकी एक मिसाल है.

उनकी गायकी में रागों के रंग भरे थे. वो एक प्यास में भटकती हुई आवाज़ थी. एक इंतज़ार में. मेहदी इसी इंतज़ार को देखते रहे साधते रहे और इसी को बरतते रहे. वो हमारे वक़्तों की एक तड़प थी जो ग़ज़ल में नुमायां होती रही और हमें किसी कथित चैनोसुकून से ज़्यादा तड़पाती रहेगी. रचना के साथ ऐसा घुलमिल जाना और फिर सुनने वालों को भी उस अनुभव के भीतर ले आना, ये मेहदी साब की गायकी की ख़ूबी थी.

मेहदी हसन की आवाज़ सुनने वालों को लिए एक रुहानी अनुभव इसीलिए थी कि वो गहरे उतरकर वहां तैरती रहती थी. उसे सुनने के लिए आपको अपने भीतर तमीज़ पैदा करनी होती थी. आप यूं फ़ॉर्मूलाबद्ध पोप्युलिस्ट तरीक़ों आस्वादों से उससे रीझने उसपर झूमने जैसी कवायदें नहीं करते रह सकते. मेहदी हसन की गायकी में ऐसी दुर्लभ ईमानदारी थी कि वो सुनने वालों से भी एक अलग क़िस्म की नैतिकता और ईमानदारी चाहती थी. उसे दाद की कभी परवाह नहीं थी, दर्द उसका सबसे बड़ा हासिल था.


Sunday, June 10, 2012

हुसेन की पहली पुण्यतिथि और शर्मिंदगी गहरी -शिवप्रसाद जोशी



मक़बूल फ़िदा हुसेन को गुज़रे एक साल हुआ. कल्पना करें कि याद में एक खुली प्रदर्शनी लगाई है और हुड़दंगियों की धमकी भी आ गई है. वे कहेंगे हुसेन मत दिखाओ. आयोजन को भंग कर देंगे, हिंसा करेंगे. धमकाएंगें. फिर आने को कहेंगे. तो आप रस्मी तौर भी अगर हुसेन को याद करेंगे तो ज़रा देखसंभाल कर करना होगा. कहीं आपको या आपके आयोजन को चोट न आए. ये अच्छा हुआ और सोचिए कितना अच्छा हुआ कि हुसेन को यहां हिंदुस्तान में दफ़ना देने की कुछ नकली उत्साही प्रगतिशीलों की मांग न मानी गईं. वे कुछ कभी न करते अपमान हो जाने देते, मरकर भी पीछा करते रहने वालों के पीछे दुबक जाते या घर चले जाते. आवाजाही का ढोल बेशक बजता रहता. इस शोर में तो फेफड़े तक सिकुड़ जाते हैं. क्या ये महज़ किसी बीमारी का जानलेवा लक्षण है. 95 साल के हुसेन को फेफड़ों में संक्रमण हो गया था. बीमारियां और भी थीं. एक तरह का देश निकाला और अपमान- अफ़सोस और उदासी ने हुसेन को जकड़ लिया था.

हुसेन का कांटा इस राष्ट्र से निकल गया. जुनूनियों को ये सुकून हो चला था. लेकिन उसे हमारी सामुहिक स्मृतियों से कैसे निकालेंगे. उस बूढ़े दाढ़ी वाले नंगे पांवों वाले लंबी कूची हाथ में लेकर डोलते से रहने वाले शख़्स को. उसकी छवि ही समाई हुई है याद में ही नहीं परंपरा में लोक में कला में जीवन में मिट्टी में. कहां कहां से क्या क्या उखाड़ेगें. फेंकेंगे. उसके रंग तो जहांतहां बिखरे हैं. अपना पीछा करने वालों का पीछा अब हुसेन कर रहा है. अपनी उम्र से भी लंबी ख़ामोशी में और एक बहुत गहरी निश्चल नींद में.

ये करेंगे संवाद. हुसेन को देश छोड़ने पर विवश कर देंगे, उन्हें जान से मारने की फ़िराक में घूमेंगे और कहेंगे हम तो सभी विचारों सभी विवादों पर संवाद करने वाली जमात हैं. विराट हिंदु दर्शन के हम प्रतिनिधि. कितना नकली भोथरा और बेशर्मी से भरा हुआ समय है. अश्लील. सरेआम घिनौना. मंचों पर आवाजाही की बात करते हैं. कि बात बनेगी, नवसाम्राज्यवाद का मुक़ाबला होगा. विचारों की धूल छंटेगी. विचारों का विकास होगा. एक ही धुन में क्यों बोले चले जा रहे हैं. सांप्रदायिकता पर चोट करेंगे या छोड़ो कल देखते हैं कहेंगे. एक साल पहले देश के एक सम्मानित बुज़ुर्ग रचनाधर्मी के निधन की वजहें गिनने जाएंगे तो हमारी कायरता का भी नंबर आता है.

किस प्रतीक की रक्षा पहले करेंगे. धार्मिक या आस्था का भावनापरक होगा वो प्रतीक या वो आत्मा का प्रतीक होगा. नैतिकता का. मनुष्यता के प्रतीक की रक्षा होगी या नहीं. एक साल बाद कहां से कहां पहुंच गए हम. अग्नि पांच हो गई. आईपीएल पांच हुआ. इतने नामुराद घोटाले हो गए. चंद गिरफ़्तारियां और रिहाइयां हो गईं. सरकारें बदल गईं, अण्णा आंदोलन का मोह हुआ फिर भंग हो गया. बड़े हिस्से में लाचारी और वेदना बढ़ गई तो एक हिस्से में खुमारी और डकारें घनी हुई.

लिहाज़ा ऐसे इस बेरहम वक़्त में हुसेन की इस पहली पुण्यतिथि पर उनका ख़ामाख़्वाह शोक और भाषण न करें, आवाजाही रोक दें, ख़ातिर जमा रखें और कुछ इतना भर ऐसा करें कि हुसेन की बनाई छवियों को फिर से देखें दिखाएं, समझे समझाएं. हमसे छूटती जाती हुई मनुष्यता शायद इस तरह कुछ रुके. शायद हमारे पास ही रह जाए.
----

(हुसेन की पहली पुण्यतिथि कल 9 जून को थी। शिवप्रसाद जोशी कई दिन पहले ही यह लेख मेल कर चुके थे पर मेल देरी से देख पाने की वजह से यह पोस्ट एक दिन की देरी से लगा पा रहा हूं।- धीरेश)

Saturday, June 2, 2012

कार्टून विवाद और एक कट्टरपंथी दलित के मन की हलचल : अनूप कुमार


“मेरा दिमाग खुला है पर खाली नहीं. खुले दिमाग वाला आदमी हमेशा ही स्वागत योग्य होता है. पर जब मै ऐसा कह रहा हूँ वहाँ आपको यह भी समझना होगा कि खुला दिमाग कभी खाली भी हो सकता है. यदि एक खुला दिमाग खुशहाल स्थिति में है तो वह मानव के लिए घातक हो सकता है. वह किसी दुर्घटना का शिकार भी हो सकता है. ऐसा व्यक्ति बिना पतवार की नाव पर सवार हैं. उसके पास कोई दिशा नहीं. वह बह सकता है पर यदि वह चट्टान की दिशा में बहने लगे तो वह इससे टकरा कर नष्ट हो जायेगा.”
- डॉ. बी आर आंबेडकर उनकी किताब ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इण्डिया की प्रस्तावना का अंत करते हुए.

करीब एक महीने पहले की बात है मेरे कुछ दलित मित्रों ने मुझे एन.सी.ई.आर.टी की टेक्स्ट बुक के एक कार्टून के बारे में बताया कि उसमें डॉ. आंबेडकर पर एक अपमानजनक कार्टून है. उन्होंने मुझे इस किताब का पीडीएफ फोर्मेट भी ईमेल किया और कहा कि हम दलितों को इस  किताब के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए.
पर मैंने उनके इस सुझाव को तवज्जो नहीं दिया, क्योंकि मुझे यह विश्वास था कि  एन.सी.ई.आर.टी  जैसी संस्था अपनी किसी किताब में डॉ. आंबेडकर को अपमानित करने वाला कोई कार्टून शामिल नहीं करेगी, खासकर ऐसे समय जब दलित आंदोलन अपने उफान पर है. यही सब सोच कर मैंने इस कार्टून पर विशेष ध्यान नहीं दिया.
ईमानदारी से कहूँ तो मैंने इसमें ना पंडित नेहरु को देखा था ना उनके हाथ के कोड़े को. इसलिए मेरे मन में यह ख्याल ही नहीं आया कि एक ‘कश्मीरी ब्राह्मण डॉ आंबेडकर पर कोड़े चला रहा है’ (जैसा कि इस कार्टून पर टिपण्णी करने वाले लोग मज़ाकिया अंदाज़ में कहते हैं).
मुझे तो इस कार्टून में डॉ आंबेडकर एक घोंघे पर बैठे भर दिखाई दिए और स्वभाविकतः मन में ख्याल आया कि शायद संविधान निर्माण में होने वाली देरी की तुलना घोंघे की चाल से की गई है. वास्तव में, यदि एन.सी.ई.आर.टी. की मंशा अगर इतना भर ही दिखाने की होती तो इसे बर्दाश्त किया जा सकता था. आखिर,कुछ आलोचनाओं के साथ, संविधान निर्माण समिति पर धीमी रफ़्तार से काम करने का एक प्रमुख आरोप तो तब लगा ही था. शायद यह चित्र हमारे विद्यार्थियों को यह बात बताने में सफल हो सकता था. इस आरोप का उत्तर स्वयं डॉ. आंबेडकर ने 26 नवंबर 1949 को अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में दिया भी था.
हालांकि मुझे इसमें डॉ आंबेडकर को अपमानित करने वाला कुछ नहीं लगा, फिर भी व्यक्तिगत तौर मुझे यह कार्टून पसंद नहीं आया क्योंकि, भले ही  एन.सी.ई.आर.टी के विद्वान, इस माध्यम से, हमारे विद्यार्थियों को सविधान-निर्माण प्रक्रिया में होने वाले विलम्ब के कारणों से ही अवगत कराना चाहते हो, लेकिन संविधान निर्माण की प्रक्रिया की तुलना घोंघे की चाल से करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है.
मेरी नज़र में, फिलहाल, वह स्थिति ही आदर्श होगी कि स्कूली टेक्स्ट बुक में (मैं दोहरा रहा हूँ किसी भी टेक्स्टबुक में) डॉ आंबेडकर के संघर्ष और उनकी उपलब्धियों के अतिरिक्त कोई अन्य कुछ भी किसी भी रूप में ना हो.
आप चाहे इसे मेरी हठधर्मिता कहें या नायक-पूजा या फिर दोनों ही, पर इस विरोध के पीछे मेरी तरह सोचने वाले अन्य दलितों के अपने कारण है, जिसे मानने के लिए  एन.सी.ई.आर.टी  पर कोई बाध्यता नहीं है. उसे हमसे ज्यादा ऑब्जेक्टिव होने की आज़ादी है.
भारतीय अकेडीमिशिंअस ने डॉ. आंबेडकर को ‘ऑब्जेक्टिव तरीके से’ देखने का जो आह्वान किया है, यदि हम उस आह्वान के खिलाफ खड़े दलितों के विरोध को नज़रंदाज़ कर दें तो भी आप पाएंगे कि दलितों ने तो पिछले पांच दशकों से स्कूली पुस्तकों के सन्दर्भ में डॉ आंबेडकर की अनदेखी पर धारण मौन के खिलाफ कभी कोई विरोध प्रगट नहीं किया है. हम लोग तो आरक्षण, शिक्षा, नौकरी, सामजिक भेदभाव हिंसा और शोषण जैसे ज़रुरी मुद्दों पर विभिन्न प्रकार के राजनीतिक और सांस्कृतिक  संघर्षों से ही जूझ रहे थे. इसलिए स्कूल और कॉलेज का पाठ्यक्रम तो कभी भी दलितों की प्राथमिकता बन ही नहीं पाया, हालाँकि दलितो के मन में हमेशा ही इस बात का क्षोभ रहा है कि डॉ. आंबेडकर को कभी भी किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बनाया गया. इसलिए आज जब हमारे महापुरुषों को  एन.सी.ई.आर.टी  की पाठ्यपुस्तकों में स्थान मिलने लगा है तो यह हमारे लिए हर्ष का विषय है.

****

इस कार्टून से जुड़ी मेरी व्यक्तिगत असहमति मुझे कार्टून को  एन.सी.ई.आर.टी  की किताबों में शामिल करने से नहीं रोकती है. ना ही मुझे इस कमेटी से जुड़े अकेदेमिशियनो की मंशा पर कोई शक है.
लेकिन एक दशक से अधिक समय से उच्च शिक्षा एवं दलित और आदिवासी विद्यार्थियों से भेदभाव के मुद्दों पर कार्य करने के अनुभव के चलते इस कार्टून पर मेरी कुछ वाजिब चिंताए हैं. इनमें सबसे अहम चिंता इस बात की है कि इस कार्टून पर कक्षा के गैर-दलित छात्रों और शिक्षकों का क्या रुख होगा? क्या यह कार्टून इन्हें डॉ आंबेडकर पर कोई घटिया कमेन्ट करने के लिए बाध्य तो नहीं करेगा? क्या वे लोग संविधान निर्माण में हुई इस देर के लिये डॉ. आंबेडकर को ‘घोंगा’ मानते हुए ज़िम्मेदार तो नहीं ठहराएंगे? क्या यह कार्टून, छात्रों और अध्यापकों के मन में व्याप्त जातिगत पूर्वग्रहों को बाहर तो नहीं ले आएगा? हमारे दलित विद्यार्थी जो वैसे ही सवर्ण छात्रों के अनुपात में बेहद कम संख्या में होते हैं, ये उनके मन पर क्या प्रभाव छोड़ेगा! ऐसे में वे इसका सामना कैसे कर पायेंगे? क्या इस कार्टून के साथ लिखा टेक्स्ट विद्यार्थियों के मन में उपजी धारणा को हटा पाएगा जो इस कार्टून से व्यक्त हो रही है?
एक दलित के रूप में मैंने गैर-दलितों के मन में डॉ आंबेडकर के प्रति व्याप्त द्वेष देखा है. उनकी यह दुर्भावना डॉ. आंबेडकर के हर कार्य को ख़ारिज करने के रूप में प्रकट होती है और अक्सर डॉ. आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़ने की घटना के रूप में हमारे समाज में, वैसे भी, प्रो. योगेन्द्र यादव और प्रो. सुभाष पल्शिकर जैसे बुद्धिजीवियों की कमी है जो डॉ आंबेडकर के कार्य से वाकिफ  हो. लेकिन यदि हमारे पाठयक्रमों में पिछली पीढ़ी के समय ही डॉ. आंबेडकर के संघर्ष और दलित हकीकतों को शामिल कर लिया जाता तो माहौल कुछ और होता. ऐसी स्थिति में, निश्चित ही, हमारे पास वास्तविकता को व्यक्त करने वाले प्रोफ़ेसर बड़ी संख्या में होते.
देश को आज़ाद हुए पांच दशक बीत चुके हैं लेकिन समाज में ये द्वेष और दुर्भावना कम होने के बजाय ना केवल बढ़ी बल्कि और मज़बूत हुई है. मैं इस बात का गवाह रहा हूँ कि कैसे डॉ आंबेडकर के प्रति घृणा, आसानी से, दलितों के प्रति द्वेष में बदल जाती है और कैसे दलितों के प्रति घृणा डॉ. आंबेडकर के प्रति द्वेष में तब्दील होती है. इसके पीछे पहचान-की-राजनीति काम करती है. इस सम्बन्ध में, एम ऍफ़ हुसैन के चित्रों से उपजी घृणा को हम आम मुस्लमान के प्रति फलती नफरत के रूप में देख चुके हैं.
आप ज़रा अगस्त 1991 में घटी आंध्र प्रदेश के सुंदरू की घटना को याद कीजीये कि किस तरह डॉ. आंबेडकर की मूर्ति लगाने के प्रयास में लेकिन यह तो सिर्फ एक भोला-भाला कार्टून है. परन्तु क्या कक्षा में पड़ने वाले इसके संभावित परिणाम को नज़रंदाज़ किया जा सकता है? बहरहाल, इस परिणाम को आप मेरी कट्टरता की उपज मान सकते है. लेकिन इस पर सोचिये ज़रूर!
इन्हीं सब बातों के बीच मैं अपने, क्लास रूम में हुए, एक अनुभव को बांटना चाहता हूँ. यह वर्ष 1995 की बात है जब मायावती ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप कार्यभार ग्रहण किया था. इसी साल अगस्त में अपनी बारहवीं पास करने के बाद मैंने देश के एक पुराने व् प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया. यहाँ के विद्वान प्रोफेसरों में से एक ने हमारे इंट्रोडक्शन के समय 80 विद्यार्थियों की क्लास में हम 8 दलित और आदिवासी छात्रों की ओर उंगली दिखाते हुए कहा, “नंबर हासिल करने के लिए तुम्हें ठीक से पढना होगा. तुम्हें नंबर मायावती नहीं, मै दूँगा.” इस पर मुझे और उस प्रोफ़ेसर को छोड़ कर पूरी क्लास हंसने लगी. मै अपने बाकि दलित-आदिवासी सह्पाठियों से नहीं पूछ सका कि वे भी उस हँसी के साझीदार बने या नहीं? मै यह भी नहीं समझ पाया कि प्रोफ़ेसर का यह मजाक कोई कटाक्ष था या कुछ  और! लेकिन इतना तय है कि यह, मेरे अलावा, सभी विद्यार्थियों को हंसी दिलाने में कामयाब रहा. इस एक कथन ने मुझे स्पष्ट कर दिया था कि मैं बाकी क्लास से अलग हूँ. यहाँ मेरी पहचान को इन्होंने एक ऐसी राजनेता के साथ जोड़ दिया जिससे वह प्रोफ़ेसर नफरत किया करता था, इसीलिए उस नफरत का तार स्वाभाविक रूप से मुझसे भी आ जुड़ा, भले ही उस वक्त मेरा मायावती से कोई सम्बन्ध नहीं था.
गौरतलब है कि उस समय मायावती ने मूर्तियां और आंबेडकर पार्क नहीं बनवाये थे. तब उन पर किसी किस्म के भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे थे और ना ही उन्होंने नोटों की कोई माला ही पहनी थी. फिर भी, ऐसी किसी भी कथित बदनामी के ना चलते हुए भी मायवती आज की तरह वहाँ, मेरे इंजीनियरिंग के बाद के वर्षों में क्या हुआ, वह बताने में मुझे बहुत वक़्त लगेगा. लेकिन इस पर मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि यह एक  बुरा अनुभव था और किसी दलित और आदिवासी विद्यार्थी को ऐसे अनुभव से नहीं गुज़रना चाहिए.
[दरअसल जाति की समस्या को एक ‘समस्या’ के रूप में तब तक नहीं देखा जाता जब तक कि इसके तार आरक्षण या मायावती के भ्रष्टाचार या उसकी मूर्तियों से न जुड़ जाएँ. अधिकांश लोग तो जाति-समस्या, जाति-भेदभाव से जुड़े तजुर्बों और दलित-मुद्दों से मुहँ मोड़ कर चुप्पी ही साधे रहते हैं. इस कार्टून विवाद से तीन साल पहले तहलका द्वारा प्रकाशित एक आलेख को आप देख सकते हैं.]

जी हाँ, पिछले 15 वर्षों के मेरे अनुभव और अगर इसमें डॉ आंबेडकर के ज़माने को भी शामिल कर लिया जाए तो भारत में दलितो के प्रति माहौल क्या आज हमारे क्लास रूम जाति पूर्वग्रह से मुक्त हो गए है? 
क्या अब वहाँ गैर-दलित विद्यार्थी और शिक्षक, डॉ.आंबेडकर और संविधान निर्माण जैसे विषय पर क्रिटिकल विचार रख सकते है?

****

जहाँ हमारे सांसद इस बात पर एकमत थे कि इस उम्र में विद्यार्थी परिपक्व नहीं होते इसलिए उनके पाठ्यक्रम में ऐसे कार्टून शामिल करना उचित नहीं. वहीँ हमारे अकेडेमिशिअनों ने भी एकमत से संसद का विरोध करते हुए इस कार्टून को शिक्षा पाठ्यक्रम में नया उत्साह और समझ  तथा आलोचनात्मक बुद्धि को विकसित करने के लिए ज़रूरी बताया.
मै ना ही ग्याहरवी क्लास के बच्चों को इतना कच्चा मानता हूँ कि उन्हें किसी संरक्षण की ज़रूरत है. ना ही मुझे उनकी या उन्हें पढ़ाने वालों की ‘जाति’ और ‘डॉ. आंबेडकर’ से जुड़ी उनकी आलोचनात्मक समझ पर कोई खास विश्वास है. हालाँकि इस बात पर मुझे पूरा यकीन है कि कार्टूनों को शामिल किये जाने से पढ़ाने की विधा में ताज़गी आएगी और स्कूली पाठ्यक्रम की नीरसता खत्म होगी तथा स्कूली-बच्चे किताबों को निजी जीवन के यथार्थ से साथ जोड़ पाएंगे.
और यहीं से मेरे फ़िक्र भी उठते हैं. फ़िक्र यह कि जब विद्यार्थी इस कार्टून को देखकर इसे अपने व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर देखेंगे तब क्या वैसे भी ग्याहरवी की कक्षा या इस उम्र के छात्र जाति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं. उन्हें जातिप्रथा में निहित ऊंच-नीच की जानकारी होती है. उन्हें छुआछूत के नियमों की भी खासी जानकारी होती है, तथा वे अपने क्षेत्र के सरनेम से भी भली-भांति परिचित होते हैं
कि कौन सा सरनेम किस जाति का होता है, और साथ ही वे जाति के आधार पर बंटे मोहल्लों और बस्तियों से भी वाकिफ़ होते है.
हमारे अकेडेमिशियंस की सोच के विपरीत ये बच्चे नादान नहीं होते हैं. वे महज विद्यार्थी नहीं होते, बल्कि हकिक़त ये भी है कि वे सभी, किसी न किसी जाति के भी होते हैं और उन्हें दैनिक जीवन में हो रही जातिगत उठापटक की भी ठीकठाक जानकारी होती है. दलित विद्यार्थियों के लिए क्लास रूम ही एक ऐसी जगह होती है जहाँ वे गैर-दलित विद्यार्थियों के साथ वक्त साझा करते हैं अन्यथा शेष कहीं भी इन दोनों तबको का कोई मेल नहीं होता है.
यदि कोई दलित-अनुभवों को सुने तो उनमें उनके स्कूली दिनों की जाति-पीड़ा की ध्वनि अक्सर सुनाई देती है - कि कैसे सहपाठी, अध्यापक उनसे भेदभावपूर्ण व्यवहार किया करते थे!
[यदि कोई इनकी जानकारी चाहता हो तो वह Dalits & Adivasi students’ portal में उपलब्ध युवा दलित-आदिवासी विद्यार्थियों के साक्षात्कारों को पढ़ सकता है जिसमे उन्होंने बताया कि किस तरह उन्हें, अपने सहपाठियों और शिक्षकों से, जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ा. आज ये सभी युवा अपने-अपने क्षेत्रो में सफल हैं. लेकिन वहीँ कुछ विद्यार्थी ऐसे भी हैं जो इस पीड़ा को नहीं झेल पाए और
मजबूरन उन्हें अपनी जान गंवाने पर मजबूर होना पड़ा. ऐसे कुछ प्रकरणों की जानकारी The Death of Merit in India पर उपलब्ध है]

****
इस सन्दर्भ में हमें समझना होगा कि जहाँ हमारा समाज वैसे ही जाति-पूर्वग्रह की आग से ग्रस्त है उसपर यह कार्टून घी डालने का काम कर सकता है. जाहिर है कि इस मानसिकता से हमारे समाज का महत्वपूर्ण तबका - छात्र और शिक्षक - भी ग्रसित है. पंडित नेहरु या अन्य राजनेताओं पर बने कार्टून इन नेताओं की जाति से आने वाले विद्यार्थियों के मन पर कोई विपरीत असर नहीं डालेंगे पर 
क्या प्रो. योगेन्द्र यादव और सुभाष पल्शिकर मुझे और दलित समुदाय को इस बात का आश्वासन देंगे कि डॉ आंबेडकर के सन्दर्भ में ऐसा क्या वे मुझे आश्वस्त करेंगे कि इस कार्टून से विद्यार्थियों में दलितों के प्रति जातिगत पूर्वग्रह नहीं बढ़ेगा? क्या उन्हें अब डॉ. आंबेडकर को कोसने के लिए एक और मुद्ददा नहीं मिलेगा कि इसी व्यक्ति के कारण हमारे संविधान निर्माण में इतनी देरी हुई? क्या अब गैर-दलित  छात्रों को दलित विद्यार्थियों को चिढ़ाने का एक और अवसर नहीं मिलेगा?
क्या ये फ़िक्र आपको ‘कट्टरवाद’ लगती हैं? क्या यह चिंताए आपको डॉ. आंबेडकर को पैगम्बर मानने से उपजी लगती हैं? क्या ये चिंताए डॉ. आंबेडकर के प्रति व्याप्त मेरी असहनशीलता से उभरी है?
क्या ये चिंताए इसलिए उभरी हैं कि मैं इस कार्टून को डॉ आंबेडकर का अपमान मानता हूँ और यह समझता हूँ कि इस 63 वर्षीय कार्टून से डॉ. आंबेडकर के योगदान और कार्यों पर कोई प्रभाव पड़ेगा?
इस कार्टून पर मेरी इतनी सारी चिंताओं के बावजूद भी मै इसे  एन.सी.ई.आर.टी  की पाठ्य पुस्तकों में शामिल किये जाने का विरोध नहीं करूँगा. पर समाज में डॉ. आंबेडकर और दलितो के विरोध में इतनी घृणा और इतने द्वेष को देखकर मै इतना ज़रूर कहूँगा कि यदि इसे शामिल करने से बचा जाता तो मुझे इस कार्टून से ज्यादा चिंता इस बात की है कि प्रो योगेन्द्र यादव और प्रो सुभाष पल्शिकर भारत के क्लास रूम की सच्चाई से अवगत  ही नहीं हैं और उन्हें दलित और दलित-प्रेरको की सामाजिक सच्चाई की तो थोड़ी भी जानकारी नहीं है, जबकि वे एक अच्छे शोधार्थी हैं और जाति मुद्दे पर लंबे समय तक कार्य कर चुके है.

****

बहरहाल, मुझे ये कार्टून, डॉ. आंबेडकर के प्रति मेरी नायक-पूजा के बावजूद, जातीय हिन्दुओं की दलितों के प्रति असंवेदनशीलता का एक और उदहारण मानते हुए,  एन.सी.ई.आर.टी  की टेक्स्ट बुक में बर्दाश्त करना होगा. पिछले दिनों संसद के इस प्रस्ताव के खिलाफ जो तीखी प्रतिक्रिया हुई, और हमारे अकेडेमिशिअनों, पत्रकारों और टिप्पणीकारों ने यह कहकर जो गुस्सा दिखाया कि वे इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर करारी चोट मानते हैं, उनकी नजरो में डॉ. आंबेडकर, असहनशील लोगों के पैगम्बर हो गए. उन्हें संसद का यह कदम वोट बैंक पोलिटिक्स लगने लगा. उन्होंने इसे दलित-कट्टरवाद का उभार और जाने क्या क्या नाम दे अखबारों ने इन आवाज़ों को खूब स्पेस दिया. राष्ट्रिय स्तर की मैगज़ीनों ने भी इसे अपनी कवर स्टोरी बनाया जिसमें कि डॉ. आंबेडकर को पैगम्बर के रूप में दर्शाया गया. इन्टरनेट ने गुस्से भरे संदेशो को अपने फेसबुक, ब्लॉग, और ईमेल के माध्यम से खूब फैलाया. हर जगह इस  कुछ लोग तो इतने अधिक आक्रोशित हो गए कि उन्होंने दलितों द्वारा कार्टून विरोध को खाकी-चड्डी वालों से भी घटिया बता डाला. एक व्यथित अकेमिडीशियन, जो अपना ब्लॉग भी चलाते हैं, ने एक कदम आगे बढ़ कर यहाँ तक कह डाला कि अब तो दलितों को ही आंबेडकर की धरोहर का विवेचन करने दो. दलितों के लिए यह दिन लगभग, माया केलेंडर अनुसार वर्ष 2012 के, संसार विनाश के किसी विशेष दिन सरीखी ही बन गया.
लेकिन जिस तरह हर बुराई में भी कहीं न कहीं, कुछ न कुछ अच्छाई छिपी रहती है. उसी तरह इन विवादों और चर्चाओं से मुझे ऐसा लगा मानो अंततः इस देश में डॉ आंबेडकर स्थापित हो गए.
गौरतलब है कि असंख्य दलितों ने डॉ आंबेडकर की मूर्तियों का निर्माण कर अपने संघर्ष का सूत्रपात किया और उन्होंने अपने सभी दर्द, तकलीफों और विद्रोह को दलित साहित्य में प्रस्फुटित किया. डॉ आंबेडकर के जन्म और परिनिर्वाण के अवसर पर उमडने वाली लाखों लोगों की भीड़, उनके नाम पर बने अनेक राजनीतिक और सामाजिक समूह, छात्र संगठन और कर्मचारी संगठन उनके कारवां को आगे बढ़ा रहे हैं.
सभी प्रयास कर रहे हैं उन सार्वजनिक स्थानों पर दावेदारी के लिए, जहाँ से उनको अब तक मना किया जाता रहा था. आज, उनके यह सब प्रयास डॉ आंबेडकर को सीमान्त दायरे से बाहर लाकर उन्हें राष्ट्रिय नेताओ, चिंतकों और महान क्रांतिकारियों की श्रेणी से भी ऊपर लाने साक्ष्य एकदम साफ़ हैं. इस विवाद पर आज हर एक लेखनी चाहे वह अख़बारों या मैगजीनों में कोई लेख हो या टीवी और इन्टरनेट पर इस
बारे में बातचीत, सबकुछ निरपवाद रूप से, डॉ आंबेडकर को आभामयी श्रद्धांजलि से शुरू हो रही है. अब हर कोई इस मुल्क को बनाने में उनके किरदार, उनकी विरासत की महत्ता और उनके महत्वपूर्ण दृष्टिकोण, किसी भी नायक-पूजा के खिलाफ उनकी फटकार और सविधान में उनकी भूमिका पर बात कर रहा है. वहीँ लगातार ये भी दोहराया जा रहा है कि ‘कट्टरपंथी’ दलितो को डॉ आंबेडकर के नाम पर ऐसी शर्मनाक हरकत  कर पाठ्य पुस्तक से कार्टून हटवाकर उन्हें अपमानित नहीं करना चाहिए.
यहाँ तक कि वे अकेदेमिशियन, जिन्होंने डॉ. आंबेडकर को कभी पाठयक्रमों में शामिल नहीं होने दिया और हमेशा ही उनका विरोध करते हैं, आज अपना राग बदल कर अचानक डॉ. आंबेडकर द्वारा तस्दीक ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बात याद दिलाने लग गए हैं. वैसे उनकी पिछली लेखनी देखने के बाद अब उनके मुहँ से डॉ. आंबेडकर के कार्यों की तारीफ! सच कहे तो बहुत सुकून दे रही है. 
मै यह भी समझता हूँ कि अभी जो भी शोधार्थी जाति विषय पर कार्य कर रहे हैं उनके लिए हमारे अकेडेमिशिअनों के इन तर्कों का डाक्यूमेंनटेशन करना उचित होगा कि आज दलित प्रतिरोध के दौर में इन लोगों के विचारों में आखिर कितनी ईमानदारी है!

*****

जब कोई युवा दलित किसी प्रतिष्ठित सरकारी नौकरी जैसे आई.ए.एस. के लिए इंटरव्यू की तैय्यारी करता है तो उसके मन में हमेशा ही दो प्रश्न पूछे जाने का भय रहता है. इनमे एक आरक्षण से जुड़ा है और दूसरा संविधान के जनक के रूप में डॉ.  आंबेडकर के मुद्दे के समकालीन होने और दलितों के जीवन से सीधे जुड़े होने के कारण ऐसा पूछा जाना स्वाभाविक है, पर संविधान निर्माण में डॉ आंबेडकर की भूमिका के बारे में पूछने के पीछे भला क्या तर्क है?
आप किसी दलित प्रतियोगी से पूछिए कि वह इस तरह के व्याप्त माहौल में अपने आप को कैसे तैयार करता है - कि उसे गलती से भी डॉ. आंबेडकर को संविधान का जनक या निर्माता नहीं कहना है, बल्कि ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमेन भर कहना डॉ. आंबेडकर को संविधान के जनक कहलवाने का मिथक तो कांग्रेस ने पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से गढा है, जिसके पीछे उसकी सोच थी कि हमारे छात्र डॉ. आंबेडकर के जाति के खिलाफ क्रांतिकारी विचारों से अवगत न हो सकें और वे डॉ. आंबेडकर-गांधी विवाद से भी अनभिज्ञ ही रहें.
हालाँकि डॉ. आंबेडकर के अनुयायी, कांग्रेस के इस प्रचार को बहुत खूबसूरती के साथ उनकी हर मूर्ति, जिसमें उनके हाथ में सविधान है, बनाकर प्रदर्शित करने में कामयाब रहे हैं. डॉ. आंबेडकर के अन्य संघर्ष को याद दिलाते हुए उन्होंने इस मिथक  का देश पर अपने अधिकार के लिए भरपूर इस्तेमाल किया. कुछ हद तक यह प्रतीक सवर्णों की मेरिट को भी चुनौती देने में वैसे ऐसा नहीं कि गैर-दलितो ने डॉ. आंबेडकर के संविधान निर्माता के रूप में प्रदर्शित किये जाने का विरोध नहीं किया बल्कि इस सन्दर्भ में प्रो. योगेन्द्र यादव और प्रो. सुहास पल्शिकर के द्वारा तैयार टेक्स्ट और कार्टून पर दलितों की संवेदनशीलता इस आलेख  मैं इस मुद्दे के बहुत से भागों पर अपने विचार रखना चाहता हूँ- जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दलित नेताओं का रुख, दलित कट्टरवाद का उदय, कार्टून पर वोट बैंक पोलिटिक्स, दलितो का डॉ. आंबेडकर को उनके पैगम्बर मानने के चलते उन्हें आलोचनाओ से ऊपर रखना, एन.सी.ई.आर.टी  सलाहकार समिति से कुछ लोगों का इस्तीफा आदि.
इस बीच मै पाठकों से उन्नामती स्याम सुन्दर के कार्टून पर नज़र डालने का अनुरोध करता हूँ. मै समझता हूँ कि उनकी कार्टून कला और राजनीतिक मुद्दों पर कटाक्ष उन्हें सही रूप में शंकर पिल्लई का उत्तराधिकारी बनाता है. मै समझता हूँ कि यदि इस कार्टून को भी ने इस बात के खिलाफ खासे लेख भी लिखे. पाठ्यपुस्तक का अंग बनाया जाए तो यह समकालीन भारत की वास्तविकता का सही प्रदर्शन होगा. जय भीम!



(इस आलेख का संक्षिप्त/सम्पादित रूप जनसता, 1 जून 2012 में 'कार्टून विवाद और दलित' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है; मूल अंग्रेजी आलेख यहाँ है)