Tuesday, January 24, 2017

अतीत की सच्चाई का निर्धारण : रोमिला थापर






इंडियन सोसायटी ऐंड द सेक्युलर 
 
थ्री एसेस प्रकाशन से आई ये किताब प्रख्यात इतिहासविद् रोमिला थापर के लेखों और भाषणों का संकलन है. रोमिला थापर ने लाहौर लिटरेरी फेस्टिवल में अतीत और वर्त्तमान के संबंधों पर एक महत्त्वपूर्ण भाषण दिया था.पास्ट ऐज़ प्रजेंट और प्रजेंट ऐज़ पास्ट. मूल अंग्रेज़ी से इस भाषण के एक अंश का अनुवाद. थ्री एसेस से साभार. 
(अनुवाद और प्रस्तुति: शालिनी जोशी)

इतिहासकार ईएच कार ने कहा था कि इतिहास अतीत और वर्त्तमान के बीच वार्तालाप है. अवधारणा ये है कि हम अतीत को उसके परिप्रेक्ष्य में देखते हैं लेकिन उसकी विवेचना करते हुए हम वर्तमान से संचालित होते हैं. लेकिन शायद ये कहना बेहतर होगा कि इतिहास वर्त्तमान और एज्यूम्ड अतीत (पहले से मान्य) के बीच वार्तालाप है, जहां ये एजंप्शंस या मान्यताएं आंशिक रूप से वर्त्तमान की ज़रूरतों के हिसाब से प्रचलित की जाती हैं.
यहां हिस्टोरियोग्राफ़ी यानी कि इतिहासकारों के इतिहास की पड़ताल जरूरी हो जाती है. किसी भी ऐतिहासिक दस्तावेज के लेखक का परीक्षण करना आवश्यक है. उस लेखक का बौद्धिक फ्रेमवर्क क्या है? उसने किस डिग्री तक ऐसे प्रमाणों का उद्धरण दिया है जिन्हें विश्वसनीय माना जा सकता है?  क्या उसने ऐसे तर्कसंगत निष्कर्षों की व्याख्या की है जिनसे अतीत की घटनाओं और व्यक्तियों के बारे में तर्कसिद्ध विवरण मिलते हैं? 
वर्त्तमान विचारधाराओं के निर्माण और उनको वैधानिक आधार देने के लिये इतिहास को जरिया बनाया जाता है. एरिक हॉब्सबाम ने इस प्रवृत्ति पर एक यादगार टिप्पणी की है- इतिहास राष्ट्रवादी, जातीय (एथनिक) और कट्टर विचारधाराओं के लिये कच्चा माल है ठीक उसी तरह से जैसे अफ़ीम के बीज हेरोइन के नशे के लिये कच्चा माल हैं. इन विचाराधाराओं के लिये अतीत एक अनिवार्य तत्त्व है. अगर एक अनुकूल अतीत नहीं है तो भी उसका हमेशा आविष्कार तो किया ही जा सकता है........
.......भारतीय उपमहाद्वीप में जिन विचारधाराओं ने राष्ट्र राज्य के निर्माण को प्रोत्साहन दिया उनके पुनर्आकलन की जरूरत है. आज वे राष्ट्र अस्तित्व में आ चुके हैं. इसलिये आज हमारी चिंता उन औपनिवेशिक स्टीरियोटाइप्स के पुनर्परीक्षण को लेकर होनी चाहिये, अब भी जिनके तयशुदा खांचे में ही हम ये तय कर रहे हैं कि हम कौन हैं और कहां जा रहे हैं. औपनिवेशिक नजरिये और अध्ययनों को इस लिहाज़ से देखना चाहिये कि उसके परिणाम क्या हुए. औपनिवेशिक दृष्टिकोण के स्थान पर आज ऐसी संवेदनशीलता को बढ़ावा देने की ज़रूरत है जिससे हम अतीत और वर्त्तमान के बीच वार्तालाप को सही परिप्रेक्ष्य में सुन सकें. अतीत की सच्चाई का निर्धारण कर सकें और साथ ही हम ये पहचान सकें कि कब अतीत का हवाला सिर्फ इस बात के लिये दिया जा रहा है कि वर्तमान उसका इस्तेमाल कर सके न कि अतीत को समझने के लिये उसका अन्वेषण किया जा रहा है.      
और सिर्फ हाल के अतीत को ही नई दृष्टि से देखने की ज़रूरत नहीं है. हमें ये भी समझना होगा कि आज की घटनाओं में भी ऐसे तत्त्व हैं जिनके बीज कई सदियों के कालक्रम में छुपे है. शायद हमें ये समझना ज़रूरी है कि अतीत और वर्त्तमान के बीच संबंधों की व्याख्या में दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करने और एक दूसरे का अतिक्रमण करने की कोशिश करते हैं. ऐसी अंतर्दृष्टि सिर्फ अध्ययन के लिये ही ज़रूरी नहीं बल्कि इसी अंतर्दृष्टि से तय होगा कि हम भविष्य में कैसे दाखिल होंगे. 
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Thursday, January 5, 2017

जॉन बर्जरः वक़्त को टटोलती निगाह - शिवप्रसाद जोशी

John Berger (5 November 1926 – 2 January 2017)

अरुंधति रॉय 2009 के दरम्यान जॉन बर्जर से मिलने गई थीं. बर्जर ने बस उनसे पूछा कि तुम अभी अपना कम्प्यूटर खोलो और अपना लिखा कुछ फ़िक्शन मुझे पढ़कर सुनाओ. अरुंधति के मुताबिक, “ऐसा पूछ सकने वाला वो दुनिया का शायद अकेला शख़्स था, मैंने एक छोटा सा पीस पढ़कर सुनाया जिसे सुनकर बर्जर ने लगभग आदेश देते हुए कहा, तुम फ़ौरन दिल्ली लौटो और ये किताब पूरी करो.”इस धक्के के क़रीब आठ साल बाद अब  2017 में बहुप्रतीक्षित उपन्यास आ रहा है अरुंधति का जिसका नाम है- “द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस.” अगर जॉन बर्जर न होते तो शायद ये उपन्यास न आ पाता या पता नहीं कब तक आ पाता जिसका बेसब्री से इंतज़ार अरुंधति के पाठक प्रशंसक एक्टिविस्ट करते रहे हैं जो उनके लेखन के ताप, उद्विग्नता और एक्टिविज़्म के साथ साथ बड़े हुए या निखरे हैं.
अरुंधति के साथ साथ पंजाबी कवि और सार्वजनिक बुद्धिजीवी, चिंतक अमरजीत चंदन का ज़िक्र करना यहां ज़रूरी है. उनकी कविता पुस्तक आ गयी है, “सोनाटा फ़ॉर फ़ोर हैंड्स.” अमरजीत ब्रिटेन में रहते हैं और यूरोप-अमेरिका-एशिया के साहित्यिक-सांस्कृतिक हल्कों में जानेमाने हैं. उनकी कविताओं के पहले फ़ुललेंथ कलेक्शन की एक सबसे ख़ास बात ये है कि इसकी भूमिका जॉन बर्जर ने लिखी है जो अमरजीत की कविता और विचार के मुरीदों में शामिल हैं. अगर आप यूट्यूब पर जाने की ज़हमत उठाएं तो वहां आपको बर्जर, लसन- गार्लिक (लहसुन) कविता का पाठ करते दिखेंगे. ये अमरजीत चंदन की एक प्रतिनिधि कविता है. बर्जर, चंदन की कविता के बारे में कहते हैं कि, “उनकी कविता अपने श्रोताओं या पाठकों को समयहीनता के विस्तार में ले जाती है. समय वहां एक कामदार पर्दे की तरह है. उनका कविता अभ्यास बताता है कि दिक् काल की चार विमाओं, जिन्हें हम आदतन पहचानते हैं, के अलावा और भी विमाएं हैं.”
ये दो ज़िक्र लाने का मक़सद ये दिखाने का था कि 90 साल की भरीपूरी उम्र के बाद इस दुनिया से रुख़्सत हुए जॉन बर्जर का देखने का तरीक़ा कितना अलग और ख़ास था. ये कोई लेखकीय और अप्रतिम या दैवीय विशिष्टता नहीं थी जो बर्जर को हासिल थी, ये एक बहुत ही साधारण जन की नज़र थी जो पिछली 20वीं सदी और इधर 21वीं सदी के शुरुआती डेढ़ दशकों में तेज़ी से परिदृश्य से धकेली जाती रही. इतना तीव्र भूमंडलीकरण और नया पूंजीवादी हमला हुआ है (ज़ाहिर है फ़ाशीवाद के साथ ये गठजोड़ पूरी रंगत में है.)
1926 में ब्रिटेन में पैदा हुए बर्जर कला की पढ़ाई पूरी कर मार्क्स की ओर मुड़े. अपने मशहूर उपन्यास “जी” के लिए उन्हें बुकर पुरस्कार भी मिला और इनाम की आधा रकम उन्होंने कैरेबिया के आंदोलनकारी समूह ब्लैक पैंथर्स को दान कर दी. शेष राशि अपनी एक वृहद रिसर्च परियोजना में खर्च की. 1962 में लंदन छोड़ा और फ़्रांस के पेरिस के पास क्विऩज़ी नाम के देहात में 1974 में अपनी रिहायश बनाई, वहीं से लिखते पढ़ते सोचते और देखते रहे. वहां के किसानों कामगारों के साथ काम किया, घुलेमिले. वहीं पर उन पर एक वृहद वृत्तचित्र बनाया गया, “द सीज़न्स इन क्विनज़ी” के नाम से टिल्डा स्विंटन और कोलिन मैककेब की बनाई चार अलग अलग छोटी फ़िल्मों का एक सेट है. इस फ़िल्म का हमें इंतज़ार है. कुछ लोग शायद देख भी चुके हों. सात महीने पहले इसका ट्रेलर जारी हुआ. अद्भुत दृश्य हैं. इसी में लगभग मंत्र की तरह जॉन बर्जर ने कहा था, अगर मैं किस्सागो (स्टोरीटेलर) हूं तो इसलिए कि मैं सुनता हूं.
फ़िल्म देखने के बाद ही पता चल सकता है कि देखने पर ज़ोर देने वाले बर्जर ने सुनने पर ज़ोर आख़िर किन संदर्भों में दिया होगा. एक अनुमान ये है कि सुनते हुए को भी देखने की बात वो कर रहे हों, बात अटपटी लग सकती है कि लेकिन आधुनिक क्लासिक्स में शुमार बर्जर की “द वेज़ ऑफ़ सीइंग” पढ़ने के बाद आपको ये बात शायद उतनी अटपटी न लगे. इसलिए इसे पढ़ने से पहले बीबीसी की 1972 की वो ऐतिहासिक सीरिज़ देखना भी महत्त्वपूर्ण है जिसके बाद ये किताब आ गई और जॉन बर्जर न सिर्फ़ कला आलोचना में बल्कि एक राजनैतिक बुद्धिजीवी के रूप में दुनिया में मान लिए गए. अरुंधति रॉय कहती हैं, “जॉन बर्जर हमें सिखाते हैं कि कैसे सोचना है. कैसे महसूस करना है. कैसे चीज़ों को टकटकी लगाए देखते रहना है जब तक हम ये देख लें कि जो हम सोच रहे थे वो वहां नहीं है. सबसे बढ़कर वो हमें सिखाते हैं कि विपत्ति के हालात में हम कैसे प्रेम करें. वो मास्टर हैं.”
90वें साल के अवसर पर उन्हें सलाम करते हुए दो किताबें आईं. इनके विमोचन के लिए वो मौजूद नहीं हैं. “द लॉंग व्हाइट थ्रेड ऑफ़ वर्ड्स” जिसमें उनके चाहने वाले विश्व कवियों की रचनाएं शामिल हैं. इस किताब की संपादक त्रयी में अमरजीत चंदन, गैरेथ इवांस और यास्मीन गुनारत्नम हैं. दूसरी किताब है,  “अ जार ऑफ़ वाइल्ड फ़्लावर्स” जिसमें नामचीन लेखकों के निबंध शामिल हैं. इसके संपादक अमरजीत चंदन और यास्मीन गुनारत्नम हैं. 2016 की ये अंग्रेज़ी किताबें विकट ऑनलाइन बाज़ार में हैं, हिंदी एक बहुत दूर का बिंदु है.
“वेअज़ ऑफ़ सीइंग” को कला, संस्कृति और राजनीति के अंर्तसंबंधों पर एक दस्तावेजी किताब माना जाता है. बर्जर की दृष्टि के निर्माण में इन तीनों अवधारणाओं का योगदान है. बर्जर ने कला के स्थापित आलोचना कर्म और देखने के पैमानों को भारी चोट पहुंचाई. उन्होंने अपने अकाट्य तर्कों के सहारे साबित किया कि एक पेंटिग क्योंकर एक बुर्जुआ गतिविधि है और क्योंकर वो अभिजात हितो और स्वार्थों की हिफ़ाज़त करती हुई रह जाती है. बर्जर ने देखने के तरीके से इलीटिज़्म का चश्मा उतारने को कहा. उन्होंने ये नहीं बताया कि आप इस तरह किसी चित्र को देखो या इस तरह न देखो. उन्होंने बस ये बताया कि आप कैसे देखो, क्या देखो. मिसाल के लिए स्त्री शरीर की नग्न चित्र परंपरा पर बर्जर ने ये कहकर हमला किया कि ये सिर्फ मर्दवादी यौनेच्छा की भूख है. वो दर्शक के सामने पेश की गई स्त्री की देह है. उन्होंने कला में नेकड और न्यूड के फ़र्क को समझाया.
अपनी इसी अवधारणा को बर्जर कला से आगे भूमंडलीकृत पूंजीवाद की अन्य विडम्बनाओं और विज्ञापन और उपभोक्तावाद की आततायी संस्कृति तक ले गए और बताया कि स्त्री देह का जो चित्रण कला में था वो विज्ञापन में उस भूख को एक नये विस्तार की ओर ले गया. ये एक भीषण चाक्षुष अनुभव से भीषण उपभोग के अनुभव की ओर जाने की तीव्र फ़िसलन थी. इस तरह बर्जर ही हमें सबसे पहले ये बताते हैं कि कलाएं पहले अपने प्रदर्शन में फिर अपने निरूपण में और फिर अपने आगामी इस्तेमालों में कितनी मनुष्यविरोधी, अमानवीय और पतन की ओर ले जाने वाली हो सकती हैं.
लेकिन बर्जर सिर्फ़ इस नैतिक विचलन को नोट करने वाले या उस पर चोट करने वाला या उससे सावधान करने वाले चिंतक नहीं थे, उन्होंने कला को एक मानवीय और एक मार्क्सवादी सौंदर्यबोध के रास्ते से समझने के तरीक़े भी समझाए हैं. उनके पास बदलाव के टूल्स थे. उन्होंने दुनिया को बदलने के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों को मनुष्य चेतना से जोड़ने के तरीक़े भी बताए. उन्होंने बताया है कि कला से हम कैसे राजनीति की ओर रुख़ कर सकते हैं. हम कैसे कला को मानवीय चेष्टा का हथियार बना सकते हैं. भूमंडलीय पूंजीवाद के प्रतीकों की बर्जर की प्रखर छानबीन ही हमें और जागरूक और सचेत बनाती है.  
जॉन बर्जर ने कहा था, “आधुनिक विश्व में जहां राजनीति की वजह से हर घंटे हज़ारों लोग मारे जाते हैं, वहां कोई भी लेखन प्रामाणिक और विश्वसनीय नहीं होगा अगर वो राजनैतिक जागरूकता और सिद्धांतों से सचेत लेखन न हो.” आख़िरकार जॉन बर्जर एक उपयोगी द्वंद्व के हवाले से ही कह देते हैं और हमें भी उसके साथ छोड़ देते हैं कि, जो हम देखते हैं और जो हम जानते हैं, इनके बीच का संबंध कभी निर्धारित नहीं होता है. हर शाम हम सूरज को डूबता देखते हैं. हम जानते हैं कि पृथ्वी उससे दूर जा रही है. फिर भी ये ज्ञान और ये व्याख्या, हमारे देखने को और उस दृश्य को मुकम्मल नहीं बना पाती.”