Friday, February 25, 2011

जाने - माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे


लखनऊ, 25 फरवरी। जाने माने लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा नहीं रहे। आज 25 फरवरी को दिन के 12 बजे पटना के मगध अस्पताल में उनका निधन हुआ। 22 फरवरी को जब वे दिल्ली से पटना आ रहे थे, ट्रेन में ही उन्हें ब्रेन स्ट्रोक हुआ। उन्हें पटना के मगध अस्पताल में अचेतावस्था में भर्ती कराया गया। तीन दिनों तक जीवन और मौत से जूझते हुए अखिरकार आज उन्होंने अन्तिम सांस ली। उनका अन्तिम संस्कार पटना में ही होगा। उनके निधन की खबर से पटना, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद आदि सहित जमाम जगहों में लेखको, संस्कृतिकर्मियों के बीच दुख की लहर फैल गई। जन संस्कृति मंच ने उनके निधन पर गहरा दुख प्रकट किया है। उनके निधन को जन सांस्कृतिक आंदोलन के लिए एक बड़ी क्षति बताया है।
ज्ञात हो कि अनिल सिन्हा एक जुझारू व प्रतिबद्ध लेखक व पत्रकार रहे हैं। उनका जन्म 11 जनवरी 1942 को जहानाबाद, गया, बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विशविद्दालय से 1962 में एम. ए. हिन्दी में उतीर्ण किया। विश्वविद्दालय की राजनीति और चाटुकारिता के विरोध में उन्होंने अपना पी एच डी बीच में ही छोड़ दिया। उन्होंने कई तरह के काम किये। प्रूफ रीडिंग, प्राध्यापिकी, विभिन्न सामाजिक विषयों पर शोध जैसे कार्य किये। 70 के दशक में उन्होंने पटना से ‘विनिमय’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो उस दौर की अत्यन्त चर्चित पत्रिका थी। आर्यवर्त, आज, ज्योत्स्ना, जन, दिनमान से वे जुड़े रहे। 1980 में जब लखनऊ से अमृत प्रभात निकलना शुरू हुआ उन्होंने इस अखबार में काम किया। अमृत प्रभात लखनऊ में बन्द होने के बाद में वे नवभारत टाइम्स में आ गये। दैनिक जागरण, रीवाँ के भी वे स्थानीय संपादक रहे। लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उन्होंने वह अखबार छोड़ दिया।

अनिल सिन्हा बेहतर, मानवोचित दुनिया की उम्मीद के लिए निरन्तर संघर्ष में अटूट विश्वास रखने वाले रचनाकार रहे हैं। वे मानते रहे हैं कि एक रचनाकार का काम हमेशा एक बेहतर समाज का निर्माण करना है, उसके लिए संघर्ष करना है। उनका लेखन इस ध्येय को समर्पित है। वे जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में थे। वे उसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे। वे जन संस्कृति मंच उत्तर प्रदेश के पहले सचिव थे। वे क्रान्तिकारी वामपंथ की धारा तथा भाकपा(माले) से भी जुड़े थे। इंडियन पीपुल्स फ्रंट जेसे क्रान्तिकारी संगठन के गठन में भी उनकी भूमिका थी। इस राजनीति जुड़ाव ने उनकी वैचारिकी का निर्माण किया था।

कहानी, समीक्षा, अलोचना, कला समीक्षा, भेंट वार्ता, संस्मरण आदि कई क्षेत्रों में उन्होंने काम किया। ‘मठ’ नम से उनका कहानी संग्रह पिछले दिनों 2005 में भावना प्रकाशन से आया। पत्रकारिता पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास, स्वरूप एवं संभावनाएँ’ प्रकाशित हुई। पिछले दिनों उनके द्वारा अनुदित पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का विरोध और जतियों का उन्मुलन’ छपकर आया थ। उनकी सैकड़ों रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में छपती रही है। उनका रचना संसार बहुत बड़ा है , उससे भी बड़ी है उनको चाहने वालों की दुनिया। मृत्यु के अन्तिम दिनों तक वे अत्यन्त सक्रिय थे तथा 27 फरवरी को लखनऊ में आयोजित शमशेर, नागार्जुन व केदार जन्तशती आयोजन के वे मुख्य कर्ता-धर्ता थे।

उनके निधन पर शेक प्रकट करने वालों में मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, प्रणय कृष्ण, रामजी रायअशोक भैमिक, अजय सिंह, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, राजेन्द्र कुमार, भगवान स्वरूप् कटियार, राजेश कुमार, कौशल किशोर, गिरीष चन्द्र श्रीवास्तव, चन्द्रेश्वर, वीरेन्द्र यादव, दयाशंक राय, वंदना मिश्र, राणा प्रताप, समकालीन लोकयुद्ध के संपादक बृजबिहारी पाण्डेय आदि रचनाकार प्रमुख हैं। अपनी संवेदना प्रकट करते हुए जारी वक्तव्य में रचनाकारों ने कहा कि अनिल सिन्हा आत्मप्रचार से दूर ऐसे रचनाकार रहे हैं जो संघर्ष में यकीन करते थे। इनकी आलोचना में सृजनात्मकता और शालीनता दिखती है। ऐसे रचनाकार आज विरले मिलेंगे जिनमे इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और सृजनात्मकता हो। इनके निधन से लेखन और विचार की दुनिया ने एक अपना सच्चा व ईमानदार साथी खो दिया है।


कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ

Wednesday, February 2, 2011

इन्द्रेश कुमार आरएसएस के सेक्युलर दोस्त

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है` जैसे सवाल अधिकतर लोगों को हमेशा ही असुविधाजनक लगते आये होंगे, पर इन दिनों हमारे `वामपंथी`, `गांधीवादी` और `डेमोक्रेटिक` साथियों को ऐसे सवाल पूरी तरह फिजूल नज़र आने लगे हैं. वैसे भी करियरवादी दौर में खुलकर फलने-फूलने के लिये गैर-आलोचनात्मक संबध ही मुफ़ीद साबित होते हैं. कलावाद की आड़ में छुपकर दक्षिणपंथ की मदद करने वाले भी शायद बदले वक़्त पर हैरान होंगे कि कैसे सब कुछ `खुला खेल फर्रुर्खाबादी` की तर्ज़ पर होने लगा है. इन्टरनेट की दुनिया ने ऐसी दोस्तियों की दुनिया को अभूतपूर्व विस्तार दिया है. ब्लॉग, फेसबुक और ऐसी दूसरी `सोशल` साइट्स में एक हत्यारा और एक गांधीवादी मजे-मजे में साथ रहते हैं, एक क्रांतिकारी वामपंथी जाने-अनजाने आसानी से एक दक्षिणपंथी आतंकवादी का दोस्त हो सकता है. मतलब इस नई `सामाजिकता` में सब कुछ संभव है.
अजमेर शरीफ ब्लास्ट के अभियुक्त और राष्ट्रीय सवयंसेवक संघ के एक्टिविस्ट इन्द्रेश कुमार जिससे दूसरे आतंकवादी कारनामों के बारे में भी पूछताछ जारी है, का प्रोफाइल फेसबुक पर मौजूद है और उसके दोस्तों की सूची भी ऐसी ही अजब-गजब है. फेसबुक पर उसके दोस्तों की संख्या २९ जनवरी २०११ तक करीब ४००० तक पहुँच चुकी थी और इन दोस्तों में तमाम कट्टरवादियों, `हिन्दुत्ववादियों` और `राष्ट्रवादियों` के साथ वामपंथी, गांधीवादी और आंबेडकरवादी सितारे भी `जगमगा` रहे हैं। इस सूची में कवि कुमार मुकुल, शिरीष कुमार मौर्य, आर. चेतान्क्रान्ति, अनिल जनविजय, पत्रकार-लेखक दिलीप मंडल, हरि जोशी, जयप्रकाश मानस, प्रदीप सौरभ, अजित वडनेरकर, आलोक तोमर, राजकुमार केसवानी, शहरोज़ कमर सईद, अंशुमाली रस्तोगी, नवीन कुमार नैथानी, मनीषा भल्ला,विनीता यशस्वी, मृत्युंजय, विप्लव विनोद, सागर जेएनयू आदि ऐसे बहुत से नाम एकबारगी हैरत पैदा करते हैं।
उदय प्रकाश गोरखपुर जाकर आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कृत हो आये थे तो इन्टरनेट की हिन्दी दुनिया में कुछ हो-हल्ला मचा था, पर तब यह भी माना गया था कि उदय प्रकाश ने एक तरह से बहुत से लोगों को दुविधामुक्त कर दिया है और उन्हें `सेक्युलरिज्म` का बोझ नाहक ढ़ोते रहने की मजबूरी से `आजादी` का रास्ता दिखा दिया है. बाद में हुसैन प्रकरण हो या बाबरी मस्जिद पर यूपी हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला हो, इन्टरनेट की हिन्दी दुनिया लगभग खामोश ही रही. अलबत्ता उसे `अशोक वाटिकाओं` में कोई कोना पा लेने के लिये अज्ञेय के साथ `अन्याय` जैसे दुःख जरूर सताते रहे.
बहरहाल, फेसबुक पर दोस्ती के लिये या तो कोई आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता है या आप किसी व्यक्ति को दोस्ती का निमंत्रण देते हैं. अगर कोई शख्स आपको दोस्ती का निमंत्रण भेजता है तो उसे कन्फर्म करना या करना आपके हाथ में होता है. इन्द्रेश कुमार का नाम ही इन दिनों खासा कुख्यात है और फिर उसके प्रोफाइल में उसका बड़ा सा फोटो मौजूद है. लेकिन ऐसी सोशल साइट्स पर दोस्ती की दुनिया काफी दिलचस्प होती है. अक्सर यह भी होता है कि सोशल सर्कल बढाने की चाहत या ढेरों लोगों में मकबूल होने की लालसा हमारे सजग साथियों में भी आँखें मूंदकर हर निमंत्रण को कन्फर्म करने की होड़ पैदा करती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि कम से कम खुद को मार्क्सवादी, सेक्युलर या डेमोक्रेटिक कहने वाले साथियों ने अनजाने में ही इन्द्रेश की दोस्ती कबूल की होगी और अपनी दीवार पर छपने वाले उसके कंटेंट को अनजाने में ही वे नज़रअंदाज करते रहे होंगे. गौरतलब यह है कि इन इन्द्रेश कुमार के प्रोफाइल को चेक किये बिना ही उनके बारे में उनके नाम से पाता चल जा रहा कि वे क्या हैं. उन्होंने अपना नाम Indresh Kumarrss दिया है.
मैंने कई दोस्तों को इस बारे में फ़ोन किया और अपने मित्रों को इस बारे में आगाह करने का निवेदन किया. शुक्र है कि इस सूची से जगदीश्वर चतुर्वेदी, गीत चतुर्वेदी, अविनाश दास, प्रभात डबराल, अजय ब्र्ह्मात्ज, बोधिसत्व, अनीता भारती, सत्यानन्द निरुपम, कुणाल सिंह, युनुस खान आदि कुछ लोगों ने पिछले दो दिनों में अपने नाम हटा लिये हैं. उम्मीद है कि बाकी साथी भी भूल सुधार करेंगे. उम्मीद यह भी की जानी चाहिए कि ऐसी गफलत बरती जाये जो उनके लेखन के कद्रदानों को निराश करती हो और कट्टरपंथियों को मजबूत करती हो.