विसंगति की विडंबना
इसे विडंबना ही कहेंगे कि विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं पर लिखे गये
अधिकांश निबन्ध निष्कर्षात्मक हैं. वे उनकी कविता, उनके कवि-व्यक्तित्व के विषय में
निर्णय रखती हैं. लेकिन वह ये खुलासा नहीं करती कि वे इन निष्कर्षों पर किस तरह
पहुंचे? इसके क्या कारण हो सकते हैं? यह प्रश्न कविता को पढने समझने और विश्लेषण की
जरूरतों से जुड़ा है. यह एक विचारोत्तेज़क प्रश्न तो है ही कि किसी कवि को समझने के
हमारे तरीके उनके विषय में मान लिए गये या कुछ रख दिए गये निष्कर्ष भर क्यों हैं.
उनकी कविताओं की बुनावट और उसके विश्लेषण की तरफ हम क्यों नहीं गये ? यह तो स्पष्ट
ही है कि विनोद कुमार शुक्ल की कवितायेँ हिंदी कविता में चली आ रही परिपाटी का
अनुसरण नहीं करती, यह बात एक हद तक शमशेर के संदर्भ में भी कही जा सकती है. हिंदी
आलोचना में शमशेर के विषय में भी कुछ निष्कर्ष बना लिए गये हैं. उदाहरण के तौर पर
शमशेर की शमशेरियत जैसे मुहावरों ने शमशेर की व्याख्या को अधिक अमूर्त और
निष्कर्षात्मक बनाया है. शमशेर की कविता के केंद्र में बिम्ब रचना है तो विनोद
कुमार शुक्ल के यहाँ भाषिक संरचना की विशिष्टता.
1971 में उनका पहला काव्य संग्रह
‘लगभग जयहिंद’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ. लगभग जयहिंद शीर्षक कविता 1965 की है. हमें
नहीं भूलना चाहिए कि 1964 का वर्ष हिंदी कविता में तीव्र परिवर्तन की लहर पैदा करने
का वर्ष है. इसी वर्ष नेहरु की मृत्यु, मुक्तिबोध की मृत्यु और भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी का विभाजन हुआ. इन घटनाओं का सम्यक एक तीक्ष्ण प्रभाव हिंदी कविता पर पड़ा.
फलस्वरूप कुछ कवि समय समाज की विडम्बना को अकविता की भाषा में व्यक्त करने लगे तो
कुछ कवि भाषा के सीमित अर्थों का अतिक्रमण कर भाषिक अभिव्यक्ति के नये अभिप्रायों
की खोज में लग गये. अतिक्रमण करने वाले कवियों में रघुवीर सहाय श्रीकांत वर्मा,
राजकमल चौधरी और विनोद कुमार शुक्ल प्रमुख थे. 1967 में ही आत्महत्या के विरुद्ध,
मायादर्पण एवं मुक्तिप्रसंग कविता का प्रकाशन हुआ. इन कविताओं के समक्ष अगर हम लगभग
जयहिंद को रखे और पढ़कर देखने की कोशिश करें तो यह स्पष्ट होता है कि विनोद कुमार
शुक्ल की कविताओं में भाषा का मूल उद्देश्य चित्रात्मकता है, रघुवीर सहाय के यहाँ
संवेदनाओं के विविध आयाम, श्रीकांत वर्मा के यहाँ तीव्र आवेग तो राजकमल के यहाँ
भाषा अंतर बाहय की विडंबनाओं का तीखा मगर बेलौस क्रम प्रस्तुत करती है.
भाषा के
स्तर पर विनोदकुमार शुक्ल सर्वाधिक सजग नज़र आते हैं. इस हद तक सजग कि अक्सर कविता
कहन के अर्थ और संवेदना के मार्ग को छोड़कर कहन के वैचित्र्य को ही उद्देश्य मान
लेती है.
फिर जीवित दिखने के लिए
इधर-उधर हिलते हुए
थोड़ी-बहुत कोशिश
छलाँग लगाने
की
जिसमें ख़ास-ख़ास लोगों के लिए
दीवाल के बीच चार क़ीलों से ठुका
अपना ही इकतीस
साल पुराना
कपड़े पहने हुए
मात्र छलाँग लगाता हुआ एक फ़ोटो ही।
फ़ोटो में बाएँ हाथ
से
क़मीज़ की जेब दबाए हुए।
जेब में अठन्नी थी
या फ़ोटो में बचत की
आठ आने की
स्थिरता!
और सामने चहल-पहल करती आबादी
आठ बजे रात को चली गई
यह मोहभंग की कविता है.
यहाँ जीवन की इच्छा-आकांक्षा, उम्मीद और संभावनाएं ताकत और वर्चस्व, हिंसा और दमन
के रूपाकारों में ढल रही है. एक विशाल दीवार है, जिसे न तो पार पाया जा सकता है और
न ही उसे तोड़ा जा सकता है. ऐसे में चल रहे सतत संघर्ष को लेकर एक तरह का विद्रूप,
निरर्थकता और अकर्मण्यता से उपजा हास्य बोध, इस कविता के केंद्र में है. सवाल यह है
कि ताकत के समक्ष सतत संघर्ष की निरुपायता करुणा और क्रोध उत्पन्न क्यों नहीं करती.
वह एक खिलंदर किस्म की जुगुप्सा पैदा करने तक ही सीमित क्यों रह जाती है? विनोद
कुमार शुक्ल की आरंभिक कविताओं से लेकर हाल की कविताओं तक में मानवीय स्थितियों की
गतिशीलता की जगह, उसकी स्थिरता, उसकी निरुपायता, असहायता ही दिखाई देती है .
यह
जरुरी नहीं कि कवि नकली विश्वास जगाये या झूठा आशावाद फैलाये लेकिन यह तो जरुर है
कि वह मानवीय संघर्ष की निरंतरता को विद्रूप से उपजे हास्यबोध में न बदले. अब
प्रश्न उठता है कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता करुणा या तनाव अथवा क्रोध के स्थान
पर विद्रूपता से उपजे हास्यबोध को क्योंकर चुनती है? क्या उनकी काव्यभाषा में इसकी
शिनाख्त की जा सकती है? आखिर कोई कवि एक सी स्थितियों से भिन्न दृष्टियों पर किस
तरह पहुँचता है? ध्यान से देखें तो कवि के पास जो भाषा है, वही उसकी कुल पूंजी है.
वह भाषा ही उसकी दृष्टि, उसकी कल्पनाशीलता और उसकी वैचारिकता को दर्शाती है.
विनोद
कुमार शुक्ल गतिशील एवं जीवंत दृश्यों -स्थितियों को एक स्थगित और निर्जीव
दृश्यों-स्थितियों में बदलते हैं. यह रूपांतरण उनके काव्य विवेक के मूल में है.
मूलतः शुक्ल की भाषा सजीव वस्तुओं को, गतिशील दृश्यों को, निर्जीव परिघटनाओं एवं
स्थगित रूपाकारों में ढालती है. उनकी कल्पनाशीलता जीवित वस्तुओं का किन्हीं खास
प्रसंग स्थितियों एवं वस्तुओं से तादात्म्य निर्मित करती है. यही वह प्रक्रिया है,
जहाँ विनोद कुमार शुक्ल आन्तरिक परिघटनाओं का बाह्यकरण करते हैं. वे तादात्म्य की
भाषा खोजते हैं, लेकिन इस भाषा के मूल में उनका यह विश्वास कार्य करता है कि हर
विषय, विषयगत स्थितियों का एक वस्तुगत चित्र, प्रारूप बाह्य वस्तुगत संसार में
मौजूद है. कल्पना के रास्ते वे गणित के सूत्रों की तरह इस अंतर बाह्य का मिलान करते
हैं. इस प्रक्रिया में उनकी काव्य भाषा सूत्रात्मक अधिक होने लगती है. वह सतत,
बाह्य प्रतीकों की खोज का एक जखीरा पैदा करती है, लेकिन ऐसा करते हुए वह विषय और
वस्तु के बीच के तनाव को, तादात्म्य न बन पाने की मुश्किलों को छोड़ देती है. इसलिए
यह कविता भाषिक प्रारूप में तो चमत्कृति पैदा करती है, परन्तु अर्थ के स्तर पर
उच्चतर की परिकल्पना तथा संवेदना के स्तर पर सूक्ष्मतम की धारणा प्रस्तुत नहीं करती
है. उनकी कविता भाषिक प्रारूप की संगति पर अधिक बल देती है. अर्थ और संवेदना के
द्वैत को काव्योप्लब्धी या कविता के साध्य के तौर पर नहीं देखती.
इसे स्पष्ट करते
हुए उनकी एक अन्य प्रसिद्ध लम्बी कविता `रायपुर विलासपुर संभाग` पर विचार किया जाना
चाहिए-
पच्चासों घुसने को एक साथ एक ही डिब्बे में
लपकते वही फिर एक साथ दूसरे
डिब्बे में
एक भी छूट गया अगर
गाड़ी में चढ़ने से तो उतर जाएँगे सब के सब।
डर उससे
भी ज़्यादा है
अलग-अलग बैठने की बिल्कुल नहीं हिम्मत
ग्रामीण मजदूरों का वर्णन
है. जो रेलगाड़ी में सवार हो रहे हैं. परिवेश से अलगाव, उनके भीतर भय, आश्चर्य और
झिझक पैदा करता है. उनकी मनःस्थिति का वर्णन करते हुए कवि बताता है कि वे इतने
भयाक्रांत है कि अगर एक भी डब्बे में चढ़ सकने में असमर्थ रहा तो सब के सब उतर
जायेंगे. हालाँकि यह प्रसंग अतिरिक्त नाटकीय प्रतीत होता है, क्योंकि अगर ट्रेन के
चलने की वजह से एक का चढ़ना संभव नहीं हो सका तो उसके उपरांत बाकियों का उतरना उस
चलती ट्रेन से किस तरह संभव होगा. बहरहाल इसे कवि की कल्पना द्वारा विसंगति उत्पन्न
करने की चेष्टा मान ले और कविता में आगे बढे तो हम देखते हैं कि कवि इस अ-यथार्थ का
विस्तार करते वह एक ऐसे बिंदु तक चला जाता है जो उस जत्थे को मानवीय प्रक्रियाओं से
ही रिक्त कर देता है. हालाँकि इस कविता में उसे समूह के मानवीय विवेक की झलक हमें
बार बार दिखाई देती है, जब कवि उनकी सामूहिक चेतना की समग्रता को उनके भय निवारण की
चेष्टाओं, उनकी गतिशीलता आदि संदर्भों में व्यक्त करता है. हम देखते हैं कि आरम्भ
में वे स्थिर नहीं है. वे अपने घरों से चलकर एक समूह में शामिल हो रहे हैं. वे अपने
विषय में निर्णय ले रहे हैं. वे तटस्थ और निष्क्रिय मनुष्यों का जत्था भर नहीं हैं.
लेकिन रेल के डब्बे में उनके प्रवेश के पश्चात, कवि इस गतिशील समूह की गतिशीलता की
उपेक्षा कर, उसे एक स्थिर, प्रतिक्रियाविहीन दृश्य में बदलता है. ऐसा करने के लिए
वह इस समूह की आन्तरिकता को, उनकी विषयवत्ता को नकारते हुए उसे एक निष्क्रिय
वस्तुपरकता में बदल देता है. वे यह दिखाते हैं कि वे-
घुस जाएँगे डिब्बों में
ख़ाली
होगी बेंच
यदि पूरा डिब्बा तब भी
खड़े रहेंगे चिपके कोनों में
या उकड़ूँ बैठ जाएँगे
थककर नीचे
डिब्बे की ज़मीन पर।
निष्पृह उदास निष्कपट इतने
कि गिर जाएगा उन पर केले
का छिलका
या फल्ली का कचरा
तब और सरक जाएँगे
वहीं कहीं
जैसे जगह दे रहे हों
कचरा
फेंकने की अपने ही बीच।
यह कैसे संभव होता है? क्या वे सब मानवीय प्रतिक्रियाओं
से रिक्त हो चुके हैं? अगर यह महज़ कवि की कल्पना है, उसकी वैचारिक दृष्टि है तो ऐसा
क्यों है ? वह एक गतिशील जनसमूह की ऐसी निष्क्रिय प्रतीति क्यों प्रस्तुत करता है?
यहाँ भी स्पष्ट तौर पर ट्रेन में घुसने से पूर्व और ट्रेन में घुसने के पश्चात् जो
काव्य प्रक्रिया घटित होती है, वह काबिले गौर है. एक सतत सक्रिय, गतिशील जन समूह,
जिसकी अपनी विषयवत्ता है, जो अपनी वैयक्तिक विशिष्टताओं के साथ समूह में शामिल है,
जो निर्णय लेता है, अपने घर से, परिवेश से, अपनी चौहद्दी से बाहर निकलने का पराक्रम
मंसूब करता है, वही जन समूह बाद में कवि की निगाह में एक स्थिर चित्र (स्टिल
फोटोग्राफ ) में बदल जाता है. एक प्रतिक्रियाविहीन जत्थे में रूपांतरित हो जाता है.
एक ऐसे समूह चित्र में वह रूढ़ हो जाता है जहाँ सारी गतिशीलता, मानवीय दृष्टि एक
अमानवीय परिकल्पना में ढल जाती है. कवि उस जन समूह की वैयक्तिक विशिष्टताओं को,
उनकी विषयवत्ता को नज़रंदाज़ करता है .
प्रतिक्रियाविहीन समूह की परिकल्पना कहीं
अति-यथार्थ को तो इंगित नहीं करती? इसके विपरीत हम देखते हैं कि उनकी कविता में
यथार्थ का अतिक्रम नहीं, नकार है. दरअसल समूह की परिकल्पना कवि के मष्तिष्क में
व्यक्ति की परिकल्पना (वैयक्तिक विशिष्टता नहीं) भर है, ऐसा इसलिए कि समूह की
विषयसत्ता (अलग उम्र और संवेदना से बने लोग एक ही जीवन स्थिति में भिन्न भिन्न
प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं) को व्यक्ति की वस्तुपरकता में बदल देते हैं. विनोद
कुमार शुक्ल विद्रूप से उत्पन्न हास्यबोध से इस कदर संचालित होने लगते है कि वे उस
दृश्य की गतिशीलता, उसकी मानवीय प्रतिक्रिया की उपेक्षा कर देते हैं.
जब बाह्य
जगत के अनुभव ऐन्द्रिक चेतना में ढलकर भाषिक अभिव्यक्ति का स्वरुप अख्तियार करते
हैं तो सामान्य अनुभव काव्य अनुभव में परिवर्तित हो जाता है. ऐंद्रिकता, बाह्य
वस्तु जगत को विषयगत अंतर्जगत में रूपांतरित करती है. विनोद कुमार शुक्ल की अधिकांश
कविताओं में ऐन्द्रिक अनुभव से गुजरे बगैर भाषिक अभिव्यक्ति का कौशल हम देखते हैं.
अब प्रश्न उठता है कि कवि इसे कैसे संभव करता है? वह रूपांतरण की प्रक्रिया में
संलग्न होने की जगह बुद्धि के रास्ते भाषिक अभिव्यक्ति की खोज करता है.
इसलिए
अधिकांश कवितायेँ भाषिक अभिव्यक्ति का कौशल बनकर रह जाती हैं. उनमें पाठकीय अनुभव
या सहृदय की सहानुभूति का उभार संभव नहीं हो पाता. इस समस्या को किसी एक कवि तक
महदूद न कर रचना प्रक्रिया की बुद्धिजन्य विसंगति के तौर पर समझने की जरुरत है .
आधुनिकता के विकास के फलस्वरूप मनुष्य ह्रदय के बजाय बुद्धि पर अधिक यकीन करता है.
आधुनिकता का यह विकास मनुष्य के अंतर्जगत, उसकी विविध प्रातक्रिया, उसकी संवेदना
आदि आदि चीज़ों को नकारने की दिशा में उद्धत होता है. आधुनिक चेतना संसार को प्रकट
तार्किकता और रूपगत भाषिक अभिव्यक्ति के तौर पर देखने की दृष्टि बन जाती है. कविता का काम आधुनिकता की इस विसंगति के विरुद्ध संघर्ष के तौर पर अथिक कठिन होता जाता
है. आधुनिक समय समाज में कवि कर्म की कठिनता इस बात में परिलक्षित होती है कि कविता
का काम बुद्धि और संवेदना के द्वैत से संचालित होता है. जबकि जीवन व्यापार में सतत
गतिशीलता और सफलता बुद्धि की मांग करती है. यही वजह है कि आधुनिकता जीवन और कविता
में फांक उत्पन्न करती है. एक तरह का अलगाव निर्मित होता है. कामायनी में प्रसाद ने
इस समस्या को व्यापक स्तर पर प्रस्तुत किया था. जीवन के केंद्र में बुद्धि का
आधिपत्य बना रहता है. कविता उसके प्रति आलोचना की दृष्टि उत्पन्न करती है और बुद्धि
के साथ मानवीय संवेदना के सह-अस्तित्व की परिकल्पना प्रस्तुत करती है. कहना न होगा
कि कविता द्वारा प्रस्तुत इस जीवन दृष्टि को उत्तर-औद्योगिक और सूचना समाज में
हास्यास्पद मान लिया जाता है. यह प्रक्रिया कठिन से कठिनतर होती जाती है.
अन्तः
जगत और बाह्य जगत के संघर्ष से रूप और अंतर्वस्तु का सतत संघर्ष निर्मित होता है.
मुक्तिबोध के यहाँ यही कवि का आत्मसंघर्ष है, जहाँ वह बुद्धि की चरम सार्थकता को
सतत प्रश्नांकित करता है. वह ऐन्द्रिक अनुभव और अन्तः जगत की क्रियाशीलता को नकारता
नहीं है और बाह्य जगत को बाह्य की प्रतिक्रिया के रूप में नहीं देखता. इस संदर्भ
में अगर हम विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को देखें तो हम पाते हैं कि उनके उनके
यहाँ ऐन्द्रिक अनुभव की जगह सापेक्ष अनुभव पर बल है. सापेक्ष अनुभव चीज़ों के बाह्य
संदर्भ पर, रूप, आकार ,गति पर बल देती है. वह एक तुलनात्मक दृष्टि का निर्माण करती
है. प्रश्न यह है कि आधुनिक समाज में यह दृष्टि किस तरह आकार लेती है. तुलनात्मक
दृष्टि का निर्माण बाइनरी निर्माण की प्रक्रिया के द्वारा होता है. विनोद कुमार
शुक्ल की कविताओं में बाइनरी की यह चेतना सर्वत्र विद्यमान है. वे सतत भाषिक
-युग्मों का निर्माण करते हैं. मसलन
नींद बहुत थकने के बाद
जगे रहने की ताकत का
समाप्त होना है
और मृत्यु स्वप्न देखने की ताकत का―
इस तरह किसी भी बात को
ताकत से
जोड़ कर देखने लगा हूँ
कि घर में रहने की ताकत जब समाप्त हो जाती
तो बाहर निकल जाता
बाहर रहने की ताकत समाप्त होने पर लौट आता
XXXX
जाते-जाते ही मिलेंगे लोग उधर के
जाते-जाते जाया जा सकेगा उस पार
जाकर ही वहाँ पहुँचा जा सकेगा
जो बहुत दूर संभव है
पहुँचकर संभव होगा
जाते-जाते छूटता रहेगा पीछे
जाते-जाते बचा रहेगा आगे
इन
काव्यांशों में बाइनरी की सरल गणितीय चेतना और तुलनात्मक सापेक्षवादी दृष्टि
व्याप्त है. यह अनुभवजन्य दृष्टि नहीं है. बुद्धि के द्वारा कुछ स्थितियों को बेहतर
मान लिया जाता है. वर्चस्व की चेतना तथा उपयोगितावाद की दृष्टि उन वस्तुओं,
स्थितियों के मूल में कार्य करती है. वह उनको बेहतर मूल्य के रूप में स्थापित करती
है. भाषा के सहज संस्कार इस चेतना को स्वीकार कर लेते हैं. वे इस मूल्य-व्यवस्था को
सच की तरह आत्मसात करते हैं. उदाहरण के तौर पर काला-गोरा, स्त्री-पुरुष, आगे-पीछे,
अंदर-बाहर. इन तमाम युग्मों में हम श्रेष्ठता की दृष्टि को स्पष्ट तौर पर देखते
हैं. यह पूछा जा सकता है कि इन युग्मों के मध्य एक का महत्वपूर्ण होना दूसरे का गौण
होना किस तरह होता है और हमारी बुद्धि इसे प्रश्नांकित क्यों नहीं करती है? यह अपने
आप में कितना हैरतंगेज़ तथ्य है कि जो आधुनिकता आलोचना का विवेक जाग्रत करती है, वही
आलोचनात्मक विवेक को वर्चस्व की चेतना में बदल देती है.
विनोद कुमार शुक्ल की
काव्यभाषा इन बाइनरी युग्मों के तहत कार्य करती है. वे कुछ सूत्रात्मक वाक्य या
स्थितियों का निर्माण करते हैं, जिनमें सहज गणितीय या तुलनामक दृष्टि सक्रीय रहती
है. उनके यहाँ इन सूत्रात्मक वाक्यों की निर्मित में उक्तिवैचित्र्य पर बहुत अधिक
जोर रहता है, लेकिन कवि का आत्मसंघर्ष जो इन वस्तुगत स्थितियों को ऐन्द्रिक बोध में
बदल सके, अनुपस्थित ही रहता है. पहले काव्यांश में कवि ताकत के स्वरुप को रखता है.
वह उसके व्यापक प्रभाव को नींद, स्वप्न से जोड़ते हुए तर्क की भाषा में घर और बाहर
को रखता है, लेकिन वह ताकत के आंतरिककरण, उसके सार्वभौमिक होने की प्रक्रिया, उसके
आत्मघाती होने के स्वरुप को नहीं देख पाता. वह सिर्फ ताकत को एक बाह्य परिघटना के
रूप में देखता है. वह कुछ स्थितियों से उनकी तर्कपूर्ण स्थिति का मिलान करता है. एक
तुलनात्मक स्थिति को प्रस्तुत करता है, जिसके मूल में बाह्य तार्किकता सक्रिय रहती
है. आंतरिक गुणों और परिघटनाओं को वह बहुत महत्व नहीं देता. प्रसंगवश रघुवीर सहाय
की कविता के एक अंश पर विचार करने से यह स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी-
मैं कभी ताक़त
से नहीं बोला
उम्मीद से बोला हूँ
कि शायद मैं सही हूँ
अगर इन पंक्तियों पर विचार
करें तो यहाँ ताकत के बरक्स उम्मीद को रखा गया है. अगर बुद्धि को ही चुनना होता तो
वह ताकत के विरुद्ध असाहयता, निरुपायता, क्षीणता ,हीनता आदि आदि को रखती, लेकिन
रघुवीर सहाय ताकत के विरुद्ध उम्मीद को रखते हैं. यहाँ यह चयन मात्र बुद्धि पर ही
निर्भर नहीं है, कवि के संवेदनात्मक बोध पर भी निर्भर है. ताकत और उम्मीद बाइनरी
युग्म नहीं बनाते. वे किसी तुलनात्मक अनुभव को नहीं रखते. एक का दूसरे पर वर्चस्व
या अख्तियार नहीं है. ताकत के क्रियाशील होने के सबसे सघन क्षणों में भी मनुष्य का
उम्मीद बनाये रखना, उसके आंतरिक जगत के प्रतिरोध और सक्रियता को दिखाता है. यह
सक्रियता जब कवि के अनुभव जगत से, उसकी ऐन्द्रिक चेतना से तादात्म्य स्थापित करती
है तो वह उसे काव्यानुभव में बदलता है. यह अनुभव साधारणीकृत होकर पाठक की चेतना से
एकाकार हो जाती है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कविता का अंतिम और अनिवार्य लक्ष्य
कवि की चेतना और पाठक की चेतना का एकाकार होना है. अगर कोई कविता ऐसा नहीं करती है
या कर सकने में समर्थ नहीं दिखाई देती है यानि वह कवि की चेतना और पाठक की चेतना के
मध्य अन्तराल पैदा करती है, तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि उस कविता ने
काव्यानुभव का निर्माण नहीं किया. पाठकीय संवेदना का विस्तार करने में वह असफल रही.
सच्ची कविता पाठक और कवि को अनुभव की सामान्य जमीन पर ला खड़ा करती है. हम यह प्रश्न
पूछ सकते हैं कि विनोद कुमार शुक्ल की कविता पढ़ते हुए क्या पाठक स्वयं को अनुभव की
उसी जमीन पर पाता है, जहाँ कवि विराजमान है?
दूसरे काव्यांश में भी उधर-इधर, इस
पार-उस पार, पीछे-आगे आदि बाइनरी युग्म देखे जा सकते हैं. इनमे भी वही सरल गणितीय
युक्तियाँ दिखाई देती हैं. पाठक इन उक्तियों पर चमत्कृत तो हो सकता है क्योंकि वे
सहज ही उसकी प्रकट तार्किकता को प्रभावित करती हैं पर क्या वह किसी सूक्ष्म
काव्यानुभूति को भी अर्जित करता है? विनोद कुमार शुक्ल की कवितायेँ पढ़ते हुए हम इस
प्रश्न से सहज ही बावस्ता होते हैं.
प्रश्न यह है कि युक्ति या उक्तिवैचित्र्य क्या
कविता को सार्थक नहीं बनाता? वास्तव में युक्ति या उक्तिवैचित्र्य का उद्देश्य
कविता की संप्रेषणीयता और सार्थकता को बढ़ाना है. चमत्कृति पाठकीय अनुभव को विस्तृत
और संभाव्य बनाती है. मगर यह तब होगा जब किसी संवेदनात्मक धरातल पर इसे संभव किया
जाए. सिर्फ युक्ति या उक्तिवाचित्र्य के द्वारा कविता संभव नहीं हो सकती है. रसायन
की भाषा से दृष्टान्त ले- हम जानते हैं कि रासायनिक क्रिया को शीघ्र और सहज संभाव्य
बनाने के लिए उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) की जरूरत रहती है, मगर सिर्फ उत्प्रेरक के
रास्ते रासायनिक क्रिया संभव नहीं. विनोद कुमार शुक्ल की कविता उत्प्रेरक के रास्ते
ही काव्यबोध निर्मित करने का प्रयत्न करती है. वह लगातार कुछ युक्तियों को दुहराती
है. भाषिक चमत्कृति में पाठक उलझ जाता है और इसी उलझन को कई बार वह काव्य-बोध मान
बैठता है.
विनोद कुमार शुक्ल की कविता, उस चमकदार फल की तरह है, जो बाहर से रसदार
और गूदादार प्रतीत होती है. पर उसे काटने पर मालूम होता है, रस और गूदा का भ्रम
उसके मोटे चमकदार छिलके की वजह से है. यह कम दिलचस्प नहीं कि उनकी कविता के अधिकांश
पाठक चमत्कृति पर ही मुग्ध रहते हैं, उसके भीतर प्रवेश नहीं करते. वे वास्तविक
काव्यबोध से महरूम रहते हैं. आस्वाद के परिवर्तित रूपों ने मानवीय सभ्यता के समक्ष
सौन्दर्यबोध के नये प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं. हालाँकि उत्तर-औद्योगिक समाज में
जहाँ मनुष्य का विवेक आत्मघाती होता जा रहा है, कविता और काव्यबोध का यह हश्र
युगानुरूप ही प्रतीत होता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि कविता का काम चेतना में आये
इस अनुकूलन के प्रति सचेत करना है. संवेदना के संसार का सजग और क्रियाशील नागरिक
बनाये रखना, कविता का अंतिम मगर अनिवार्य लक्ष्य है.
विनोद कुमार शुक्ल का दूसरा
संग्रह `वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह` बहु चर्चित रहा है. इस
संग्रह की कविताओं में भी उनका रुख पूर्ववत ही रहा है . भाषिक स्फीति पर बल यहाँ भी
उसी तरह है. इस संग्रह को पढ़ते हुए कुछ बिन्दुओं पर विचार किया जा सकता है. सबसे
पहले संग्रह के शीर्षक पर. विनोद कुमार शुक्ल की अगर समग्र कविता पर विचार करें तो
यह कहना सही होगा कि उनकी कविताओं के केंद्र में निम्न मध्यवर्ग और श्रमिक समूह है,
जिसकी अपनी कुछ निजी विशिष्टताएं हैं. कवि उन विशिष्टताओं के प्रति बहुत सपाट और
सर्व-स्वीकार्य दृष्टिकोण के साथ मगर विशिष्ट प्रतीत होती, बेतरतीब होने का भ्रम
रचती हुयी भाषा में वर्णन करता है. सवाल यह है कि वह जिनकी कविता लिख रहा है,
उन्हें एक भाषिक वैशिष्ट्य के साथ कहने की अनिवार्यता वह क्योंकर मानता है ? इसके
मूल में विषय और कहन के बीच के अलगाव और इस अलगाव के मूल में उसकी दृष्टि का प्रश्न
काबिले गौर है. कहीं उसकी विशिष्ट भाषा उस अनुभव की न्यूनता को उजागर न करने के
चिंता से तो निर्मित नहीं है, जहाँ वह विषय के प्रति अपनी संवेदना को अपनी वर्गीय
ढर्रे से अलग नहीं कर पाता? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह जिस समाज समुदाय की कविता लिख
रहा है, उसके साथ उसकी चेतना का एकाकार संभव नहीं हो पाता. मुक्तिबोध की तो अधिकांश
कवितायेँ इसी जद्दोजेहद को कहने और समझने की इमानदार अभिव्यक्ति प्रतीत होती है. पर
इस तरह की कोशिश अगर हम विनोद कुमार शुक्ल के यहाँ नहीं देखते तो इस पर विचार करने
की जरुरत है.
जब वे कहते हैं - वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह तो
वह आदमी कौन है? जैसा कि ऊपर कहा गया है वह आदमी निम्न वर्गीय समाज का प्रतिनिधि
चरित्र है. कवि की दृष्टि उस आदमी के जाने की तरफ है. नया गरम कोट क्या है? मनुष्य
की नई विचार संपदा, नई भावयात्रा, नया प्रस्थान है, जिसमें मानवीय ऊष्मा का
संस्पर्श विद्यमान है. कवि उस विचार संपदा, उस भावयात्रा, उस प्रस्थान की तरफ से
चले जाने को एक वैचारिक निष्पत्ति की तरह देखता है. एक असाहयता बोध की तरह,
असफलता की तरह, पराजय की तरह, परन्तु वह इस परिघटना से पूर्व उस आदमी के आने को
दर्ज नहीं करता. वह इस बात को महत्व नहीं देता कि वह शख्श अपनी यथास्थिति से संघर्ष
कर, अपनी वर्गीय चेतना से संचालित होकर, बार-बार नये गरम कोट की तरफ आता है. सवाल
यह है कि कवि को सिर्फ उसका जाना ही क्योंकर दिखता है? वह उसके आने को नज़रंदाज़
क्यों करता है? क्या यह बार-बार आना उन तमाम असफलताओं, असहायताओं के प्रति मनुष्य
के सतत संघर्ष का जीवंत दस्तावेज़ नहीं? कवि का यह नकार उसकी स्वतः स्फूर्त
मनःस्थिति, उसकी वैचारिक दृष्टि उसकी वर्गीय मान्यता, उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
तथा उसकी सामाजिक चेतना का प्रतिफल नहीं है?
मनुष्य ने कला और संस्कृति को रचा. यह
जरुर है कि रचने की इस प्रक्रिया में वह उतरोत्तर अधिक मानवीय होता गया, परन्तु
इसका यह अर्थ नहीं है कि कला और संस्कृति द्वारा मनुष्य की रचना हुयी है. मनुष्य की
रचना श्रम और प्रकृति के साथ संघर्ष और साहचर्य से हुयी है. इसी संघर्ष और साहचर्य
के फलस्वरूप संस्कृति और कलाओं का निर्माण हुआ है. कला को ही सबकुछ मान लेना कलावाद
की तरफ ले जाता है. कला का अतिरेक यह भ्रम रचता है कि कलाओं ने ही मनुष्य को रचा
है. विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं को पढ़ते हुए बार-बार यह बोध और गहरा होता जाता
है. यह भ्रम एक छद्म बोध में रूपांतरित होने लगता है.
मनुष्य के रोजमर्रा का जीवन
संघर्ष और सतत क्रियाशील विवेक, सामाजिक जीवन के संसर्ग से कलाओं का विकास करता है.
यह एक गतिशील प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया हमें अधिक मानवीय बनाती है, साथ ही
सौन्दर्यबोध को बनाये रखने की चुनौती भी पेश करती है. कला के मूल में मनुष्य है,
उसका श्रम है, उसकी सक्रिय और जागरूक चेतना है. इसके अतिरिक्त कला का कोई और उद्गम,
कोई अन्य श्रोत नहीं है. मनुष्य के बगैर, जीवन की गति के बगैर, सामाजिक व्यापार के
बगैर कला की कोई जमीन निर्मित नहीं हो सकती. इसीलिए मनुष्य तमाम असफलताओं के बाद,
निराशा और ना-उम्मीदी के बाद भी नये गरम कोट की तरफ आता है. यह आना सच्ची कला से
छिपा नहीं रहा सकता. बकौल रघुवीर सहाय-
वह उठी
अरे वह कितनी सुंदर लगती थी.
इस
सौन्दर्य को स्वीकारना, आत्मसात करना, मानवीय होना है. कला इस अर्थ में हमें अधिक
मानवीय, अधिक सुंदर, अधिक मनुष्य बनाती है, लेकिन अगर कोई कला इस आने को, इस जागने
को, इस उठने को नज़रंदाज़ करे तो हमें उसकी कला चेतना और मानवीय दृष्टि पर संशय करना
चाहिए ,प्रश्न उठाना चाहिए.
इसी संग्रह की एक अन्य कविता है- `प्यारे नन्हे बेटे
को`. यह कविता देश भर के अनेक विद्यालयों के पाठ्क्रम में शामिल है. इस कविता का
रचनाकाल 1978 का है. कविता एक निम्न-वर्गीय परिवार का वितान रचती है. स्त्री-पुरुष
एक बेटा और एक बेटी. सबके हिस्से में कुछ काम है. उस काम को करने से उनकी पहचान
है. यह पहचान ही उनके भीतर की ताकत है. उनका लोहा है -
इसी तरह
घर भर मिलकर
धीरे
धीरे सोच
सोचकर एक साथ ढूंढेंगे
कहाँ कहाँ है लोहा-
इस घटना से
उस घटना तक
कि हर वो
आदमी
जो मेहनतकश
लोहा है
हर वो औरत
दबी सतायी
बोझ उठाने वाली, लोहा !-
पहले पाठ में
यह एक सरल और मार्मिक कविता प्रतीत होती है. इन पंक्तियों से पूर्व घर के लोग एक-एक
कर रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली लोहे की चीजों की सूची बनाते हैं. अंतिम
पंक्तियों तक पहुँचने से पूर्व कवि निम्न वर्ग के जीवन सघर्ष और उस संघर्ष की सादगी
और सौदर्य को काव्यात्मक अनुभव की ऊँचाई तक ले जाता है. यह कविता इसी धरातल पर
समाप्त नहीं होती. कवि की वर्गीय चेतना के अन्तर्विरोध उभरते हैं. संघर्ष-शील समाज
के प्रति उसकी स्वानुभूति सहानुभूति में रूपांतरित होने लगती है.
किसी रचनाकार की
सबसे बड़ी चुनौती कायांतरण ही है. कला का जादू परकाया प्रवेश कर सकने की क्षमता में
ही मौजूद रहती है. यहाँ तक कि वे ही आत्मकथाएं बड़ी कलाओं का रूप ले पाती हैं जहाँ
लेखक आपनी काया से बहार आकर अतीत की काया में प्रवेश कर पाता है. अन्य होते हुए भी
लेखक विषय के साथ एक जादुई तादात्म्य निर्मित करता है. रचना का जादुई प्रभाव इसी
तादात्म्य पर निर्भर करता है. अगर पाठक लेखक को उसकी रचना में पहचान ले तो रचना
असफल हुयी. हर बड़ी और सार्थक रचना भ्रम रचती है. अरस्तु का यह कथन कि होमर ने ही
संसार को सर्वप्रथम झूठ बोलना सीखाया उसकी कला की सार्थकता का स्वीकार है. प्रकट
अर्थों में रचना में रचनाकार की अनुपस्थिति ही उसकी सार्थकता है. इस कविता के अंतिम
हिस्से में रचनाकार अपनी वर्गीय चेतना एवं सामाजिक पृष्ठभूमि के साथ प्रकट हो जाता
है. वह यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए सदिच्छा व्यक्त करता है. वह कहता है -
जल्दी
जल्दी मेरे कंधे से
ऊँचा हो लड़का
लड़की का हो दूल्हा प्यारा.
यहाँ बेटे के लिए
ऊंचाई तक पहुँचने की कामना है. हर सुख सुविधा और ऐश्वर्य तक पहुँचने की सदिच्छा है,
लेकिन बेटी के लिए एक दूल्हा प्यारा. क्योंकि कवि का वर्गीय बोध, उसकी सामाजिक
चेतना, उसकी सांस्कृतिक दृष्टि स्त्री-पुरुष को, बेटे-बेटी को इसी तरह देख पाती है.
वह बेटी की सार्थकता की कामना इसी अर्थ में करता है. वह श्रम के सौन्दर्य की बात
भले करता हो, लेकिन वह श्रम के विभाजन की सामाजिक संकुचनवादी दृष्टि से खुद को बचा
नहीं पाता. ज्योंही कवि यथार्थ का अतिक्रमण करता है, वह अपनी वास्तविक जमीन पर लौट
आता है. वह पहिचान लिया जाता है. उसके नये गरम कोट का टूटा बटन दिख जाता है.
1992
में उनका सबसे महत्वपूर्ण संग्रह सब कुछ होना बचा रहेगा प्रकाशित होता है. इस
संग्रह की कविताओं में भी कवि की सदिच्छा बरक़रार रहती है. वह कल्पनालोक में विचरता
है. वह भाषा के बड़े से ढेर पर खड़े होकर संकल्प व्यक्त करता है कि
मुझे बचाना है
एक
एक कर
अपनी प्यारी दुनिया को
बुरे लोगों की नज़र है
इसे खत्म कर देने को
कवि का यह
सहज सरल संकल्प- क्या दुनिया को बचा सकेगा? क्या यह दुनिया उतनी ही बुरी या अच्छी
है, जितनी की उसके मष्तिष्क में ? कवि अपने आस पड़ोस, अपने घर परिवार के विषय में
सोचते हुए महसूस करता है कि दुनिया बच जायेगी.
50 से भी अधिक वर्षों के विस्तार में
फैली उनकी कविताओं में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखाई नहीं देता. करुणा, आवेग, तनाव
उनकी कविताओं में लगभग नहीं है. कवितायेँ एक ही धरातल पर मौजूद रहती है. भाषिक
विन्यास के करतब से वे बार-बार कविता को सफल बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सवाल
यह है की क्या कविता में भाषा एक सजावटी आवरण भर है? क्या वह कवि के अन्तःस्थल तक,
हमें नहीं ले जाता?
विनोद कुमार शुक्ल बार बार किसी विचार को, युक्ति को, तार्किक
संगति के सतत क्रम को भाषा के वैचित्र्य के साथ कविता में रूपांतरित करते हैं,
लेकिन ऐसा करते हुए जिस चीज़ को वे बार बार छोड़ देते हैं वह है- मार्मिकता, आक्रोश,
वेदना. इसलिए उनकी अधिकांश कवितायेँ बुद्धि द्वारा निर्मित होकर बुद्धि के द्वारा
ही ग्रहण की जा सकती हैं. वहां ह्रदय से ह्रदय का मार्ग नहीं दिखाई देता. इस संदर्भ
में उनके इस संग्रह की भी बहुत सी कविताओं पर विचार किया जा सकता है, मसलन -जाते
जाते ही मिलेंगे लोग उधर के, सबसे गरीब आदमी की, चलने के लिए, अभी अपनी पचास की
उम्र में, पंजाब के किसी गांव में, ज़िन्दगी में दर्द बेहद आदि. इन कविताओं में
भी वही भाषिक खिलंदरपन दिखता है. कवि के भीतर दुनिया को भाववादी दृष्टि के तहत बचा
लेने की आकांक्षा बार बार परिलक्षित होती है .एक मस्तिष्कीय विचार की तरह, जिसका
व्यवहारिक जीवन बोध से, संघर्ष के भीतरी बाहरी रूपों से, गहरा सम्बन्ध नहीं है. वह
सदिच्छाओं और सदकामनाओं की फेहरिश्त बनाता है. लेकिन दुनिया स्थिर नहीं है, वह
गतिशील है. वह जितना हमारे मष्तिष्क में है, उससे कहीं अधिक हमारे मस्तिष्क के
निर्माण की प्रक्रिया में मशगूल है. इसलिए दुनिया को समझने जानने का रास्ता सिर्फ
मस्तिष्क से होकर नहीं गुजरता. कलाएं इसी अर्थ में संसार के प्रति हमारे दृष्टिकोण
को अधिक सूक्ष्म जीवंत और गतिशील बनाती हैं.
`मजदूरों उस तरफ चलो` शीर्षक कविता
मजदूरों के जीवन का एक स्टीरियोटाइप चित्रण करती है. यहाँ भी कवि का भाववादी
दृष्टिकोण उसकी दृष्टि को निर्धारित करता है. वह मजदूरों के जत्थे का एक स्थिर
चित्र निर्मित करता है, और उसे अपने बोध के अनुरुप संचालित करता है. इसलिए यह कविता
भी सतही भावुकता की कविता बनकर रह जाती है.
यह दिलचस्प है कि तकरीबन आधी सदी के
अपने काव्य व्यापार में विनोद कुमार शुक्ल की काव्य चेतना अपरिवर्तित नज़र आती है.
उनकी भाषा एक सतही खिलंदरपन और स्थिर दृश्यात्मकता के निर्माण और निर्धारण में खप
जाती है. जीवन का संगीत, उसका संघर्ष, उसके आरोह-अवरोह, उसकी ऊष्मा, उसकी गरिमा,
उसकी ऊंचाई, उसकी महान पराजय, उसका ऐतिहासिक विलाप, उसकी कोमल तान, उनके यहाँ
अनुपस्थित है.
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं में मनुष्य, स्त्री, बच्चा, लड़की ,शहर
देश आदमी आदि अमूर्त अवधारणायें हैं, कोटियाँ हैं. अमूर्त इसलिए कि कवि उन्हें किसी
देश-काल में प्रस्तुत नहीं करता. उनके नाम, उनकी पहचान और उनका समय विशेष से जुड़ा
विशेष अर्थ प्रकट नहीं होता. उनकी बहुत सी कवितायेँ ऐसी हैं जो उन विषयों,
अवधारणाओं का कोई वर्तमान, वर्तमान से उसके अन्तर्विरोध को प्रस्तुत नहीं करती.
इसके क्या मायने हो सकते हैं? क्या यह कवि का पलायन तो नहीं, जहाँ वह यथार्थ से
सीधे मुकाबला न करना चाहता हो? वक्त की आँख में आँख डालकर, उसके प्रश्नों पर विचार
न करना चाहता हो ? उससे भरसक बचने की कोशिश करता हो?
इस बात को और अधिक स्पष्ट करने
के लिए उनकी आदिवासी और छत्तीसगढ़ विषयक कवितायेँ देखनी चाहिए. वर्ष 2000 में
छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण के पश्चात् आदिवासियों के जीवन को, उनकी बसावट और उनके
रहने सहने के ढंग को बार-बार सरकारों ने, सरकारी संस्थाओं ने, एन. जी. ओ. समूहों ने
अपने आर्थिक फायदे के लिए तबाह किया. आदिवासी जीवन का सीधा अर्थ है प्रकृति से
सहयोग, साहचर्य और संघर्ष .शुक्ल इस सहयोग, साहचर्य और संघर्ष की जटिलता और
व्यापकता को न देखकर, उसे कुछ चिन्हों प्रतीकों में बदल देते हैं.वे बार-बार उसे
वर्तमान समय के पार किसी अमूर्त अतीत में ले जाते हैं.
इसका नक्शा संयोग से
जंगली फूल हो जाता
या फूल की कली
पकते हुए भात की हांडी हो जाती घर-घर में
परन्तु
उजाड़ जंगल,खेतों, गरीब भूखों का यहाँ आदि दृश्य है
जैसा कि है.
कवि इसे समय-समाज की
उपभोगवादी, वर्चस्ववादी चेतना से जोड़कर नहीं देखता. वह यह नहीं कहता कि आदिवासियों
के जीवन में हाहाकार का नया संदर्भ इधर विकसित हुआ है, विकास की अंधी दौर ने उन्हें
उपभोग की वस्तु बनाकर छोड़ दिया है. ताकतवर समू,ह उन्हें मुर्गे की तरह पकड़कर हलाक
कर देते हैं. उनका लहू उनकी हड्डियाँ सब चाट कर जाते हैं. बाँध बनाने से लेकर
कारखाने बनाये जाने तक, देशी विदेशी पूंजीपतियों के हाथों जंगलों को आदिवासियों की
हजारो बरस पुरानी रिहाइस को नष्ट भ्रष्ट किया जा रहा. उनकी तबाही को सभ्यता और
विकास का नाम दिया जा रहा. कवि इस सबकी चर्चा नहीं करता, बल्कि उलटे वह उन्हें
जाहिर करने से बचता है. वह इस तबाही को, बर्बादी को वर्तमान की उपज न बताकर आदि
दृश्य बताता है. और इस तरह वह अपनी कविता में उन गुनहगारों को पनाह देता है, जो
आदिवासियों के जीवन को तहस नहस करते हैं. उनके बच्चो को मारते हैं. सवाल यह है कि
कवि ऐसा क्यों करता है? वह समय समाज के प्रति, शोषण के प्रति, अपमान और हिंसा के
प्रति एक मूकदर्शक की भूमिका निभाता है. वह हर तूफान को ,बवंडर को, चुपचाप देखता
है. वह भूल जाता है कि कविता के शब्द अनुपस्थिति को चुप्पी को उजागर करते हैं. वे
कवि के विरोध में गवाही देते हैं.
जब भी कवि यथार्थ के प्रति सजग होकर चयनित विवेक
से चीज़ों को दर्ज करता है तो भाषा का तापमान बुझने लगता है, शब्द निरर्थक से जान
पड़ते हैं. वे अपनी जादुई आभा और प्रश्नाकुलता खो देते हैं. वे अर्थ से च्युत होकर
मलिन होते जाते हैं. ऐसे बेजान और अर्थहीन शब्दों से कवि का काम नहीं चल सकता.
परन्तु 1 नवम्बर 2000 को
जब 36 गढ़ राज्य बना
तब मैं 63 वर्ष का छत्तीसगढ़ी हुआ
36 के
विपरीत के आंकड़े में 63 का –
अपनी ही आड़ से निकल
अपनी तरफ घुमा हुआ सम्मुख
सयाना या
जवाबदेह.
क्या यह गणितीय उठा-पटक यह सतही चमत्कृति आदिवासिय्यों के जीवन से उनके
जीवन संघर्ष से कोई विशेष अर्थ रखती है ? लेकिन विनोद कुमार शुक्ल की कवितायेँ इन
प्रश्नों का जवाब नहीं देती. उलटे उनकी कविता सायास वर्तमान को, वर्तमान के
हाहाकार को, झुठलाने के लिए उसे अतीत की क्रमिकता में बार-बार दर्ज करती है-
हो सकता
था की –
इस छोटी सी कथा में
एक पाठ्यक्रम है
कि हाथी पर बैठा
एक राजा है
और
जय-जयकार करती
गरीब प्रजा
जो शुरू से है
क्या कवि की निश्चिन्तता के मूल में यही
मान्यता है कि यह शोषण अन्याय, गरीबी, बेकारी, भुखमरी इसलिए समाप्त नहीं हो सकते
क्योंकि वे शुरू से है ? शुरू से कबसे ? जब ईश्वर(?) ने इस धरती को बनाया तभी उसने
आमिर गरीब पैदा कर दिए और चूँकि ईश्वर प्रदत्त इस संसार को ईश्वर ही बदल सकता है
इसलिए वर्तमान से परेशान होने की जरुरत नहीं. अन्याय से लड़ने की जरुरत नहीं है. भूख
शाश्वत है, इसलिए उसे मिटाने के संघर्ष में शामिल होने की कोई अनिवार्यता नहीं हैं.
विनोद जी कविताओं से उसकी एक रैखिकियता से यही निष्कर्ष निकलता है. यह
दुर्भाग्यपूर्ण है मगर सच्चाई है कि उनकी कविताओं में जो आसपास के स्थिर दृश्य हैं
जो समय और संसार के पार की अनुभूति पैदा करने की चेष्टा करते हैं वस्तुतः एक ऐसे
कवि का दृष्टिकोण व्यक्त करती है जो अपने समय की सच्चाई से मुंह फेरता है. कविता को
मात्र मनोरंजन एवं बुद्धि विलास की चीज़ समझता हैं.
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद
भोपाल जाते हुए
यह नहीं लग रहा है
कि छत्तीसगढ़ से मद्यप्रदेश जा रहे हैं
संक्षिप्त
में म.प्र.
कोष्ठक का (म.प्र.) भी नहीं.
शब्दों के खिलवाड़ से उनकी कविता भरी पड़ी
है. उनके यहाँ बुद्धि, वह भी जो कॉमन सेंस तक महदूद हो- सतह पर उठते पानी के
बुलबुलों की मानिंद- का ही प्रयोग सर्वत्र दिखाई देता है. बुद्धि भी सूक्ष्म और
मानवीय तभी होती है, जब वह संवेदनात्मक लगाव से पैदा हो. उसके बगैर वह शुष्क और
सतही होती जाती है. संवेदनात्मक विलगाव उसे एक चालाकी में, चुनी हुयी चुप्पियों में
बदल देता है.
उनके संग्रह `अतिरिक्त नहीं` में उनकी अर्थपूर्ण कविता `हताशा से एक
व्यक्ति बैठ गया था` संकलित हैं. यह कविता मनुष्यता के संवेदन का इतिहास दर्ज करती
है. वह उस गरिमा और ऊष्मा को पहचानती है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है. यह कविता
उनकी अनेक कविताओं से भिन्न है. इसमें न तो वह भाषिक खिलंदरपन है और न ही चीज़ों को
एक दूसरे का निरर्थक प्रतीक बनाकर, विसंगति उत्पन्न करने की अतिरिक्त कोशिश. वह
वायवियता भी नहीं जो चुनौती देती हो कि बुझों तो जाने. ऐसी कवितायेँ विनोद कुमार
शुक्ल के यहाँ कम हैं, जहाँ भाषा का मानवीय ताप और जीवन के समुद्र की लहरों का
गर्जन दोनों हो.
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं पर गंभीरता के साथ चर्चा होनी चाहिए.
उनकी कविताओं के बारे में मान ली गयी, स्वीकार कर ली गयी तथा निर्धारित कर दी गयी
मान्यताओं से ऊपर उठकर, बुनियादी प्रश्नों के साथ विचार करने की जरुरत है. उनकी
कविताओं में विसंगतियों की भरमार है. यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि दुनिया भर के
कवियों ने विसंगति का रचनात्मक उपयोग किया है. विसंगति का प्रयोग करते हुए वे अर्थ
और संवेदना के उच्चतर धरातल पर पहुँचने की चेष्टा करते रहे हैं. क्या यह बात हम
विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं के विषय में भी कह सकते हैं ? क्या उनके यहाँ विसंगति
अर्थ और संवेदना का उच्चतर स्तर को प्रस्तुत करती है? कहीं वह विसंगति की ओट में
सिर्फ विचित्र सी प्रतीत होती चीज़ों का जमावड़ा तो बनकर नहीं रह जाती. कविता में
विसंगति का अर्थ पहेलियाँ बुझाना नहीं है, बल्कि संवेदना के उन महीन तंतुओं को
उजागर करना है, जिसे भाषा की प्रकट निगाहों से देखना संभव नहीं. उनकी कविताओं के
आशय, मंतव्य और अभिव्यक्ति कौशल की छानबीन होनी चाहिए. किसी पूर्वग्रह के बिना उनके
निहितार्थों पर विचार किया जाना चाहिए.
अगर लेखकीय कौशल, पाठकीय संवेदना में दाखिल
न हो तो क्या कविता को पूर्ण माना जा सकता है ? क्या कविता का काम किसी सामूहिक
जिम्मेवारी का काम नहीं है. वह भाषा जो कवि समाज से, अपने परिवेश से, अपने इर्द
गिर्द के लोगों से ग्रहण करता है- क्या कविता में उसे लौटाने का दबाव कवि पर नहीं
होता? क्या लिखते हुए कवि पाठक की निगाहों से बचकर रह सकता है? क्या कविता का
सम्बन्ध लिखने की कुशलता भर है?
यह नहीं भूलना चाहिए कि समय की गर्द में कवियों का
यश, प्रशस्ति, चर्चा ,पुरस्कार सब नष्ट होकर रह जाता है .पाठकों के साथ कवितायेँ
अमर रहती हैं. हताशा और निराशा के बावजूद सच्ची कवितायेँ अपना रास्ता ढूंढ लेती
हैं. किसी स्त्री की आँखों के कोर में दबे आंसू की एक अदेखी सी बूंद में, किसी
बच्चे की निश्छल मुस्कराहट में,
कवितायेँ देश काल के पार अपना रास्ता ढूँढ़ लेती हैं. वे किसी अनाम कवि की अमर कवितायेँ बनकर असंख्य हृदयों में वास करती हैं.
कवितायेँ देश काल के पार अपना रास्ता ढूँढ़ लेती हैं. वे किसी अनाम कवि की अमर कवितायेँ बनकर असंख्य हृदयों में वास करती हैं.
(हिन्दी के सुपरिचित कवि-आलोचक अच्युतानंद मिश्र का यह लेख `अन्विति` पत्रिका के जून 2025 अंक से साभार लिया गया है।)