Sunday, September 27, 2020

आलोचना की आलोचना : फ़ासीवाद सम्बंधी अंक पर कृष्ण मोहन की समीक्षा

 


पिछले दिनों नामवर सिंह पर हिन्दी के `विद्वानों` के ताबड़तोड़ लाइव कार्यक्रमों के दौरान किसी ने उनके संपादन में `आलोचना` का पुनर्प्रकाशन शुरू होने पर पहला अंक (फ़ासीवाद और संस्कृति का संकट') फ़ासीवाद पर केंद्रित किए जाने को उनकी प्रमाणिकता के तौर पर पेश किया था। इस अंक पर 2000 में छपी आलोचक कृष्ण मोहन की विस्तृत समीक्षा (उदारवादी भ्रमों का पुलिंदा - आलोचना का फ़ासीवादी अंक) पढ़ी। यह अंक `फ़ासीवाद संबंधी लेखों का दिशाहीन और भ्रामक ढेर` क्यों है, इस पर उन्होंने गंभीरता से विभिन्न लेखों के उदाहरण सामने रखते हुए विचार किया है। यूँ यह एक ज़रूरी बात है कि लेखक जैसा समझता है, उसे ईमानदारी से लिखे पर जैसा कि साहित्य की दुनिया का पावर स्ट्रक्चर है और जवाब में विमर्श के बजाय हिसाब चुकता करने का रिवाज़ है, एक साथ इतने सारे प्रभावशाली और फ़ितरती लेखकों से बेबाकी के साथ तीखी असहमति व्यक्त करन साहस की बात है।

बेहतर तो यह होता कि इस लेख से एक के बाद एक कई हिस्से यहाँ उद्धृत करता या पूरा लेख ही यहाँ देता। फ़िलहाल, लंबा टाइप न कर पाने की स्थिति से यह संभव नहीं है। आलोचना के फ़ासीवादी अंक में एजाज़ अहमद के एक पूर्व प्रकाशित लेख को भी शामिल किया गया था जिसे कृष्ण मोहन सबसे महत्वपूर्ण और विचारणीय मानते हैं और पर विस्तार से बात करते हुए अपनी असहमतियां भी जताते हैं। लेकिन खिन्नता पैदा करने वाले वे हिस्से हैं जिन्हें हिन्दी के विद्वानों के लेखों से लिया गया है। यह अंक `आलोचना` का है लेकिन जो विशेषांक लेखक संगठनों द्वारा निकाले जाते रहे हैं, उनमें भी यही लेखक अपनी फ़ासिस्ट समर्थक, कम्युनल, सेमी-कम्यूनल या सवर्ण अवधारणाओं के साथ उपस्थित रहते आए हैं और सर्व-स्वीकार्य रहे हैं। कृष्ण मोहन इस अंक के संपादक और प्रभाष जोशी के `रेनेसां पर्सन` नामवर सिंह की `मासूम` शिकायत का ज़िक्र भी करते हैं कि पटेल तो नेहरु की बात मान लेते थे पर अटल की बात आड़वाणी नहीं मानते। जसम के विचारक रविभूषण आरएसएस द्वारा ही पेश किए जाते रहे जुमले `वस्तुत; संघ परिवार जिस `हिन्दुत्व``को धर्म मानता है, वह एक जीवन-शैली है`, दोहरा रहे हैं उनके लेख से ऐसे वाक्य उद्धृत कर कृष्ण मोहन जो सवाल उठाते हैं, वे असल में हिन्दी के पूरे बौद्धिक समाज से हैं। प्रभाष जोशी फ़ासीवाद से लड़ने के लिए सनातन धर्म का सहारा लेने और संघ के स्वयंसेवकों से प्रेरणा लेने की सीख देते हैं।

खगेंद्र ठाकुर के लेखन का अद्भुत कमाल तो जलेस के `1857 पर आए विशेषांक` में देखा था। भारतेंदु की जिन पंक्तियों को फेरबदल कर रामविलास शर्मा ने 1857 से जोड़ दिया था, उनका असल रूप वीरभारत तलवार सप्रमाण हिन्दी वालों के सामने रख चुके थे पर खगेंद्र ठाकुर ने उन्हें बदले हुए रूप में ही इस्तेमाल किया। अकारण नहीं कि ऐसे झूठे उद्धरणों और विवादित अवधारणाओं से भरा वह (खगेंद्र ठाकुर का) लेख, उस अंक के कुछ बेहतरीन लेखों का प्रतिपक्ष ही था। फ़ासीवाद सम्बंधी `आलोचना` में छपे खगेंद्र ठाकुर के लेख से कृष्ण मोहन ने कुछ उद्धरण देते हुए लिखा है,-

``खगेंद्र ठाकुर और उनके भाकपाई मित्रों की यह पुरानी कमज़ोरी है कि वे शासक वर्ग से बार-बार उसका अंध-राष्ट्रवादी हथियार उधार मांगते हैं ताकि वे उनसे भी बड़े `राष्ट्रवादी` दिखें और एक ही झटके में पूरे राष्ट्र के नेता बन जाएँ।``

राजकिशोर के लेख से उद्धृत अंश देखिए- ``दुर्भाग्य यह है कि इतिहास फ़ासीवादियों के साथ है। भारत में मुस्लिम शासन के बारे में सेकुलरवादियों का नज़रिया साफ़ नहीं है। वे यह नहीं देख पाते कि शासन जैसा भी रहा हो, मूलत: एक अल्पसंख्यक शासन था। भारत की बहुसंख्या हिन्दुओं की थी, अत: यहाँ का सामंतवाद भी हिन्दू सामंतवाद होना चाहिए।``

इस पर कृष्ण मोहन टिप्पणी करते हैं-

``मध्यकाल के बारे में औपनिवेशिक इतिहास लेखन की इसी साम्प्रदायिक दृष्टि में साझा करने के कारण उदारवाद अपने को कट्टरवाद के सामने कुंठित पाता है। उसे लगता है कि एक बार इस दृष्टि को सर्वस्वीकृति मिल जाए तो वह अपने ही जैसे उदार हिन्दू मन को भूल जाने और माफ़ करने के लिए मना लेगा। उसका सरल चित्त यह नहीं समझ पाता कि वह जितनी बार इस झूठ को शिरोधार्य करता है, उतनी ही बार कट्टरवादी शक्तियों को बल प्रदान करता है। उसकी वह मांग संघ परिवार की उस बुनियादी मांग से अलग नहीं है कि अगर अयोध्या, काशी, मथुरा पर उनका दावा मान लिया जाए तो वे बाकी मसले छोड़ देंगे। सामंतवाद सिर्फ़ सामंतवाद होता है। वह हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता। और वह अनिवार्यत: अल्पसंख्यक का शासन होता है। राजकिशोर आधुनिकता की बातें बहुत करते हैं लेकिन धर्म के परदे के पार कुछ देख नहीं पाते। उनकी उदारता उन्हें बहुसंख्यकवाद की वक़ालत तक ले जाती है जो फ़ासीवादियों का एक प्रिय तर्क है। वे इतिहास की न्यूनतम आवश्यक छानबीन भी नहीं करते वरना उनके विश्वास भी ख़ुद ब ख़ुद खंडित हो जाते। संख्या की दृष्टि से उन्हें लगता है कि शासन तंत्र में मुसलमानो का बहुमत होता होगा जबकि मध्यकाल के सबसे मजहबी माने जाने वाले शासक औरंगेजेब के समय उसके सामंतों में लगभग अस्सी प्रतिशत हिन्दू थे।``  

कृष्ण मोहन के लेख से ही हमें विष्णु खरे के इस `जागरूक समर्थन` का पता चलता है - ``सिनेमा, टी.वी. में भारतीय मानव-मूल्य बनाए रखने का बीजेपी का नारा भी प्रबुद्धता से फ़ासिज़्म-विरोध के पक्ष में लेने में कोई हर्ज नहीं है। उनका हिंसा और सेक्स में डूबी अमेरिकी फिल्मो के विरोध का हमें जागरूक समर्थन करना चाहिए।``

खरे के इस आह्वान पर कृष्ण मोहन लिखते हैं, ``इसे कहते हैं प्रबुद्धता और जागरूकता। सिनेमा में `भारतीय` मूल्यों को बचाने के भाजपाई नारे का समर्थन! हिंसा और अश्लीलता अमरीकी मूल्य हैं, भारतीय समाज में हिंसा और अश्लीलता कहाँ। भारतीय संस्कृति के स्वयंभू, लंपट ठेकेदारों के सुर में सुर मिलाने वाले खर साहब किसे धोखा देने चले हैं। सवाल यह है कि भारतीय फ़ासीवाद के सांस्कृतिक एजेंडे का समर्थन करने वाला यह लेख कहीं आलोचना की संपादकीय नीति का हिस्सा तो नहीं है।``

जाहिर है कि इस अंक के संपादक नामवर सिंह की नीति तो कहीं ज़्य़ादा भयानक रही ही है। खरे के बाद के हुसेन पर लिखे गए हमलावर लेख को `अरे, उन्हें क्या हुआ` कहकर हैरान होने वालों को इस टिप्पणी में उनके दिल-दिमाग़ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। मीर पर उनके लिखे को भी। इस टिप्पणी में उनके तर्क के आधार पर तो यह भी लगता है कि वे आज होते तो बॉलीवुड में दीपिका वगैराह के ख़िलाफ़ चल रही कार्रवाइयों के `जागरूक समर्थन` में भी खड़े मिल सकते थे।

भगवान सिंह हिन्दी के वामपंथियों के प्रिय लेखक रहे हैं और अपने खुले साम्प्रदायिक लेखन के बावजूद अभी भी हैं। नामवर के फ़ासीवाद सम्बंधी अंक में वे न हों और अपने इसी रंग में न हों तो इस अंक की सार्थकता ही भला क्या होती? कृष्ण मोहन लिखते हैं-

``भगवान सिंह ने अपने लेख में मार्क्सवाद को दुनिया का सबसे नया, वैज्ञानिक और प्राधिकारवादी धर्म माना है तथा `एक ही सामाजिक वातावरण में उपजे होने के कारण` इसे ईसाइयत औऱ इस्लाम के समतुल्य कहा है। साम्प्रदायिकता की आलोचना करने के लिए उन्होंने मार्क्सवादियों की खिंचाई की है। उनका ख़याल है कि इसी वजह से साम्प्रदायिक पार्टियों की ताक़त बढ़ी है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को वे दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं, लेकिन `राजनीतिक लाभ` के लिए उसकी बरसी मनाने को उससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण। वे मुसलमानों को भारत में अल्पपसंख्यक नहीं मानते और चिंता व्यक्त करते हैं कि अगर यही रवैया रहा तो भारत में ख़ुद हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे। यह लेख शुरू से अंत तक ऐसी ही भ्रामक अवधारणाओं और आत्ममुग्ध लफ़्फ़ाज़ी से भरा पड़ा है।``

असल में भगवान सिंह के लेख की ये अवधारणाएं और `आत्ममुग्ध लफ़्फ़ाज़ी` उनकी अपनी हैं ही नहीं। `मार्क्सवाद भी ईसाइयत और इस्लामियत के समतुल्य धर्म है` या `भारत में ख़ुद हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे` जैसी बातें आरएसएस के प्रचारकों के `बौद्धिकों` में प्रमुखता से बताई जाती रही हैं। यहाँ तक कि ऐसे वचनों की कवरेज मैंने ही कई बार की है। यह बात अलग है कि हिन्दी के वामपंथी कवि-लेखक यह जानना-मानना नहीं चाहते हैं।

एक ज़माने के वामपंथी और साम्प्रदायिकता विरोधी कार्यशालओं के आयोजक पुरुषोत्तम अग्रवाल इन दिनों मुख्य रूप से कबीर विशेषज्ञ हैं। नामवर सिंह पर लाइव श्रृंखला में ही कुछ महीने पहले रामजन्मभूमि शिलान्यस की वेला में उन्होंने घोषणा की थी कि `गुरुजी` की इच्छा के अनुरूप उनकी अगली किताब तुलसी पर होगी। यूँ, कबीर भी उनके लिए तुलसी ही हैं। इस बात को आलोचना के फ़ासीवाद अंक के कबीर खंड में छपे पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेख पर कृष्ण मोहन की यह टिप्पणी पढ़कर समझा जा सकता है-

पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर की कविता को दलितों की पहचान के साथ जोड़ने को अस्मितावाद क़रार देते हुए उसे मूलत: आध्यात्मिक अनुभव की कविता कहते हैं। ``कवि कबीर की संवेदना का सत्य है वह अमरलोक जिसकी कसौटी पर वे जगत के तथ्य को कसते हैं…इस असीमित ब्रह्मांड में अपनी असीमित सत्ता के साथ होने का अनुभव;इस सीमित सत्ता के निस्सीम ब्रह्मांड के साथ सम्बद्ध होने की महिमा का अनुभव। ` `शंभुनाथ ने अपने लेख में समग्र का अंश होने के जिस अनुभव को सामाजिक अनुभव माना है और कबीर की कविता की रहस्यवादी व्याख्या से इनकार किया है, उस श्री अग्रवाल अध्यात्म की चाशनी में लपेटते हैं। इसका नतीज़ा निकालते हुए वे कहते हैं, ``कबीर अपने ख़ास दो-टूक ढंग से बताते हैं कि अनुभव का अपरिहार्य, अंतिम सत्य है मृत्यु। एक नाम-अनाम ही नित्य है बाक़ी सब अनित्य।`` श्री अग्रवाल ने अपने लेख में जिन यथास्थितिवादी आचार्यों को बार-बार कबीर निंदा का दोषी ठहराया है उनका भी विरोध कबीर के सामाजिक सरोकारों से ही था। हाँ, वे इतने कुशल अवश्य ही नहीं थे कि कबीर के नख-दंत तोड़कर उन्हें अपने ब्राह्मणवादी प्रोजेक्ट में शामिल करने की सोचते।

`परख` में छपा यह लेख `आलोचना` में छपता तो क्या हिन्दी विद्वानों, विद्यार्थियों और शोधार्थियों का नज़रिया अपने इन विद्वानों को लेकर कुछ अलग होता? नहीं, क्योंकि ऐसी बातें या तो कही नहीं जातीं और कही जाती हैं तो उन पर चर्चा नहीं की जाती। यह भी कह दिया जाता है कि ऐसी बातें लड़ाई को कमज़ोर करती हैं। हालांकि, रघुवीर सहाय की पंक्ति ``अगर वही हो तुम जिससे तुम लड़ते हो तो लड़ते क्यों हो`` उनके सामने होती है। इस लेख का महत्व यही है कि बातें कही ज़रूर गई थीं। नामवर सिंह और उनके संपादन में निकले उस अंक की याद में `आलोचना` के वर्तमान संपादक चाहें तो इस लेख को अब प्रकाशित कर सकते हैं।

Thursday, August 13, 2020

अमर शायरों की सफ़ में है राहत इंदौरी की जगह -धीरेश सैनी

 


अपनी विद्वता के `आइवरी टावर्स` में बैठे कवि-बुद्धिजीवी जो भी समझें, पर सच यही है, इत्ते बड़े मुल्क में, एक सीधी सी बात को ऐसे खरेपन से कह देना, राहत इंदौरी के ही हिस्से में आया था। हिर्स करो, पारसाई भी तो हासिल करो। बे-शक, उन्हें आप लोगों के मेयार से नहीं तौला जा सकता है, पर वे जिस सफ़ में हैं, उस में वे ग़ैर-मामूली शायर हैं, जिनके पास प्रतिरोध की कोई एक ही सही, पर ला-ज़वाल लाइन है।


शायर राहत इंदौरी ने मर कर बहुत से लोगों के लिए अजीब मुश्किल पैदा कर दी है। उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि इस शायर को लेकर ऐसी दीवानगी क्यों है। दीवानगी, एक अलग चीज़ है जो बहुत सारे घटिया और जनद्रोहियों को भी अक्सर नसीब हो जाया करती है। राहत इंदौरी से परेशानी की वजह कुछ और है। इसमें कोई शक नहीं है कि वे मुशायरों में बेहद पॉपुलर थे। उनके अपने लटके-झटके थे, एक पूरा ड्रामाई अंदाज़ भी था जो बहुत से लतीफ़-नफ़ीस लोगों के लिए झुंझलाहट का बाइस भी हुआ करता था। राहत इंदौरी को पॉपुलर स्पेस में ही बेतरह याद किया जा रहा होता, तो मेयारी अदीबों को तकलीफ़ न हुई होती। रंज यही है कि बुद्धिजीवियों को भी इस शायर के जाने का इतना ग़म क्यों है। हालत यह है कि एक तरफ़, सोशल मीडिया पर शायर से मुहब्बत करने वाले हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हें लेकर ज़हर उगला जा रहा है। इसी के बीच में ऐसे झुंझलाए बौद्धिक स्वर हैं जो कह रहे हैं कि बौद्धिक हलक़े में राहत को इतना महत्व क्यों या उनकी क्या साहित्यिक औक़ात।


साहित्यिक श्रेणियों में राहत इंदौरी का स्थान तय करने की हड़बड़ी वाले लोग असल में भूल कर रहे हैं। वे हल्कापन कहें या प्रतिक्रियावाद कहें या मामूली- ग़ैर मामूली की बहस में उलझे रहें, इस शायर को उनकी एक ग़ज़ल ने, एक शेर ने या एक लाइन ने ही अमरत्व प्रदान कर दिया है। इतने बड़े मुल्क में यह कहना उन्हीं के हिस्से में आया था - ``सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में/किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है``। एक सच को कहने की यह सलाहियत, यह मोराल और यह बेधड़क अंदाज़ उन्होंने ही पाया था। इस लिहाज़ से उनका कोई हमवार है तो वो हबीब जालिब हैं। आंदोलनों में उनकी लाइनें हबीब जालिब की लाइनों के साथ ही दिखाई देती रहेंगी।


बे-शक, हबीब जालिब की तरह राहत इंदौरी लाठियां खाते हुए सड़कों पर नहीं थे, न उनका वक़्त जेलों में बीता था, पर ऐसे अशआर के लिए दिल को जिस बेकली और जिस अज़ीयत से गुज़रते रहना होता है, वे उसी में जी रहे थे। वे 1950 के शुरुआती दिन पैदा हुए थे और एक मुसलमान होने के नाते 11 अगस्त 2020 तक अपने शहर और अपने मुल्क में क्या कुछ देखते-महसूस करते हुए नहीं गए? बात यह थी कि जो बात एक मुसलमान के लिए कहनी मुश्किल होती है, उसे वे बेख़ौफ़ कहते रहे। यह समझने के लिए एक साफ़ दिल ज़रूरी है। 1992 के बाद वे एक शेर पढ़ा करते थे- ``टूट रही है हर दिन मुझमें एक मस्जिद/इस बस्ती में रोज़ दिसम्बर आता है``। हर दिन का यह जो टूटना है, वे इसे कभी कलंदराना अंदाज़ में, कभी सिर्फ़ अफ़सोस में और कभी रेटरिक और चुनौती में तब्दील कर शायरी में दर्ज कर अवाम के बीच ले जाते थे। ज़ुल्म-ओ-सितम के बीच बेसहारा छोड़ दिए गए लोगों के लिए यह कितनी बड़ी राहत होती थी, कितना बड़ा सहारा, यह महसूस करने के लिए शास्त्रीय आलोचकों को हिक़ारत छोड़ कर मज़लूमों की भीड़ तक जाना पड़ेगा। यह बात अलग है कि वे साहित्य के मसीहाओं से भी न यह मांग करते हैं, न उम्मीद, न कोई ऐसा विद्वान उन्हें किसी महान शायर के रूप में देख रहा था। जो उन्हें करना था, वे खुद ही कर रहे थे, एक पॉपुलर स्पेस में कर रहे थे और असरदार ढंग से कर रहे थे। उन का एक शेर है - ``हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे / कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते``। उनके मक़ाम को तय करने के लिए ज़ल्दी में लग रहे हिन्दी के बुद्धिजीवी चाहें तो उनके इस शेर को देख सकते हैं और सोच सकते हैं कि अपनी `अच्छाइयों` के साथ वे लोग कैसे-कैसे खल-पत्थरों को राह के पहाड़ जैसे महानायक स्थापित करने में मदद करते रहे है।



राहत इंदौरी के पास और शायरी किस स्तर की है, ऐसे सवालों में सिर खपाने के बजाय मुशायरों की यादों को ताज़ा कर लेना चाहिए। हिन्दी कवि सम्मेलनों की भी। हिन्दी कवि सम्मेलन पूरी तरह फूहड़ चुटकुलों और उन्मादी तुकबाजियों के अड्डे बनते गए पर मुशायरों में शायरी का एक स्तर हमेशा क़ाएम रहा। यही वज़ह है कि एक पॉपुलर और एक प्रोपर शायर के बीच में एक फ़र्क़ होते हुए भी हिन्दी कविता की दुनिया जैसा फ़र्क़ कभी नहीं रहा। बाकी, हिन्दी कवि सम्मेलन के उन्मादी आह्वानों को लेकर जोश में रहने वाले लोग मुशायरों में सियासी सवाल उठा देने वाले एकाध शायर को कट्टर या साम्प्रदायिक बताते घूमा ही करते हैं। हिन्दी की लिबरल दुनिया के बीच यह मर्ज़ इस हद तक न भी हो पर दुचित्तेपन या बेलैंसवाद के रूप में तो वहाँ भी पलता ही रहा है।


“मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना/लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना", इस शेर को जिस धूम के साथ राहत इंदौरी की हिन्दुस्तानियत के प्रमाण की तरह पेश किया जा रहा है, असल में वह भी एक बीमारी का ही नतीजा है। बेधड़क और बेख़ौफ़ लगने वाले राहत इंदौरी को भी ऐसे शेर कहने पड़ते रहे। यह वही विडंबना है जिसमें एक मुसलमान को हमेशा जीना पड़ता है। उनके इस शेर को सेकुलर बुद्धिजीवियों ने भी उत्साह से कोट किया है । बाज़ लोगों ने तो फोटोशॉप के जरिये शायर की तस्वीर में माथे पर इसे चिपका भी दिया।


आगे मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से निकले मूलत: गाज़ीपुर निवासी युवा बुद्धिजीवी सुनील यादव की फेसबुक वॉल से उनकी एक पोस्ट उद्धृत कर रहा हूँ-

(राहत इंदौरी साहब की ये पंक्तियां मुझे बिलकुल पसंद नहीं हैं, जैसे महान कथाकार गुलशेर खान शानी को राही मासूम रज़ा का बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को गुदगुदाने वाली सेकुलरिज्म पसंद नही आता था। शानी ने लिखा है कि ''अगर आप भारतीय मुसलमान हैं और चाहते हैं कि आपकी बुनियादी ईमानदारी पर शक न किया जाए तो देश प्रेम और राष्ट्रीयता का झुनझुना बहुत ज़रूरी है ।’’ शानी ने इसी छद्म सेक्युलरिज़्‍म के लिए राही मासूम रज़ा की आलोचना करते हुए लिखा था कि ''भूख, भय, असुरक्षा, आतंक, नफ़रत और विभेदीकरण जैसे सच आपके अपने सच नहीं थे-ये रूमान के पंखों से उड़कर ऊपर से उतारे हुए दूसरे की सोच थे। विभाजित भारत में मुसलमान के लिए यह बहुत चमकीला और अभेद्य कवच होता है। उस पर कोई संदेह नहीं करता। वह सेक्यूलर कहलाने लगता है। उसे राष्ट्रीयता का प्रमाण पत्र अपने आप मिल जाता है। बहुसंख्य‍क समाज में अल्संख्यसक की तरह जनमने और जीने की नियति में ऐसे कवच बहुत काम आते हैं मासूम भाई।’’ वास्तव में ऐसी सेक्यूलर विचारधारा जो जीवन की वास्तविकता से कटकर सेक्यूलर होने का डंका बजाती है, वह कहीं न कहीं व्यापक स्तर पर हिंदू सांप्रदायिकता को गुदगुदाने का काम ही करती है। किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल उसके अपने अंतर्विरोधों के भीतर ही सुलझाए जा सकते हैं। इसीलिए शानी लिखते हैं कि ''अगर दस-पाँच पीढ़ियों से हमारा परिवार हिंदुस्तान में रह रहा है तो मैं उतना ही राष्ट्रीय हूँ जितने कि आप। फिर क्या ज़रूरी है कि आप तभी मुझे अपनाएंगे जब मैं आपके कानों में राष्ट्रीयता का झुनझुना बजाऊँ। यदि मैं सांप्रदायिक हूँ तो आप मुझसे ज्यादा सांप्रदायिक हैं जिन्होंने मुझे सांप्रदायिक बनाया है।`` दरअसल राहत इंदौरी साहब कई मौकों पर इस तरह की बातें लिख जाते थे। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि मैं राहत इंदौरी साहब का कोई विरोधी हूँ। वे मेरे प्रिय फ़नकार रहे हैं, जैसे राही मासूम रज़ा मेरे प्रिय फ़नकार रहे हैं। - सुनील यादव की पोस्ट)


(जनचौक वेबसाइट पर प्रकाशित होने के बाद वहाँ से साभार)

Sunday, August 9, 2020

रैना महाराज के हाथों प्रेमचंद का शुद्धिकरण!

प्रेमचंद की एक बड़ी मज़े की कहानी है, 'बड़े भाई साहब'। थियेटर वालों को भी यह काफ़ी पसंद रही है। दो अभिनेताओं के द्वारा बिना किसी तामझाम के, बल्कि बिना किसी प्रॉप के, इस कहानी के शानदार मंचन भी देखे हैं और इन दिनों एक्सप्लोर के नाम पर ज़बरन कुछ भी जोड़कर टीम और तामझाम वाली प्रस्तुतियां भी। दूरदर्शन आर्काइव्ज के सौजन्य से भी इस कहानी की नाट्य प्रस्तुति बल्कि फिल्मांकन यूट्यूब पर उपलब्ध है। मशहूर रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी एम. के. रैना के निर्देशन में।

'बड़े भाई साहब' कहानी के बारे में हिन्दी के पाठक जानते ही हैं। शहर में पढ़ने के लिए भेजे गए दो भाइयों में बड़ा किताब से चिपका रहने वाला गम्भीर युवक है पर फेल होता जाता है। छोटा लापरवाह, खेल-कूद में रमने वाला मगर होशियार है और इम्तिहान में अव्वल आता है। बड़े भाई साहब पर बड़े होने के नाते छोटे को नसीहतें देते रहने और बिगड़ने से बचाए रखने की जिम्मेदारी है। तंज़-ओ-मिज़ाह की शैली में लिखी गई यह कहानी आज भी जीवंत है। रैना ने दूरदर्शन के लिए इस कहानी पर जो कुछ तैयार किया है, उसकी क्वालिटी की बात छोड़ कर उनकी कल्पना की उस उड़ान को देखते हैं जो प्रेमचंद की  कहानी के साथ भद्दे मज़ाक़ की तरह है। रैना ज़बरन कुछ दृश्य अपनी तरफ़ से ठूंसते हैं। वे जो स्कूल पेश करते हैं, वह कहानी से मेल नहीं खाता। बेहतर होता कि वे किसी ज़िले के गवर्नमेंट इंटर कॉलेज में शूटिंग कर लेते। लेकिन यह इतनी बड़ी बात नहीं है। बात यह है कि रैना स्कूल प्रार्थना सभा का दृश्य क्रिएट करते हैं और पूरे गायत्री मंत्र का पाठ कराते है।

प्रेमचंद की कहानी से कहीं अहसास नहीं होता कि विद्यार्थी बंधु किसी आर्य समाज के स्कूल के विद्यार्थी हैं। कहानी ऐसे किसी 'धार्मिक-आध्यात्मिक' उद्देश्य का संकेत तक नहीं करती है। इस दृश्य का कहानी के साथ कोई मेल भी नहीं है। फिल्मांकन में विधा के लिहाज से छूट की मांग अक्सर की जाती है पर ऐसा भी कोई तर्क यहाँ महसूस नहीं होता। तो फिर रैना को गायत्री मंत्र का पाठ कराने की क्या खुड़क उठी होगी? प्रेमचंद को ज़रा आध्यात्मिक टच देना चाहते होंगे? कहानी में शिक्षा व्यवस्था को महान भारतीय आर्य संस्कृति से जोड़कर संदेश देना चाहते होंगे? प्रेमचंद का, उनकी कहानी का या उनके बहाने भारतीय समाज का सांस्कृतिक परिष्कार करना चाहते होंगे? आखिर, प्रेमचंद सहज पहुँच वाले कहानीकार हैं और दूरदर्शन इस पहुंच की रेंज को बहुत बढ़ा देता है। रैना इस तरह इस रेंज का क्या इस्तेमाल करना चाह रहे होंगे?

पिछले कई दिन मैं इस बारे में सोचता रहा हूँ। एनएसडी से निकले रैना लेफ्ट के ख़ासकर सीपीआइएम के सांस्कृतिक संगठनों के प्रिय इंटलेक्चुअल और संस्कृतिकर्मी हैं। एक तरह से लेफ्ट-एडॉप्टेड। 'सहमत' के तो मुख्य चेहरों में से माने जाते हैं। 'सहमत' द्वारा ज़ारी किए गए प्रेमचंद के पोस्टरों का उपयोग उन्होंने अपने इस कार्यक्रम में भी किया है। वे प्रेमचंद का ऐसा अपमान क्यों करेंगे?

आज मैंने यूँ ही गूगल पर खोज़ कर उनका परिचय पढ़ा। महाराज कृष्ण रैना, कश्मीरी पंडित। तो मसला संस्कारों का है जो प्रेमचंद को भी अपने रंग में रंगना चाहते हैं? 'बड़े भाई साहब' की शुरुआत में डायरेक्टर एमके रैना से पहले दो और प्रमुख सहयोगी रैना लिखे हुए आए। एक जोशी, एक झा और एक शर्मा। तो क्या यह ब्राह्मण आर्टिस्ट्स का ब्राह्मणद्रोही कहे गए प्रेमचंद से अपनी तरह का बदला है? हेजेमनी ऐसे ही काम करती है।

एक अकेली प्रस्तुति, हालांकि भयानक, को लेकर मैं शायद न लिखता। लेकिन, आज रैना के ही निर्देशन में 'दूरदर्शन' के ही लिए तैयार की गई 'मंत्र' कहानी की प्रस्तुति देखी तो लगा कि यह निश्चय ही प्रग्रेसिव रैना के ब्राह्मण संस्कारों का ही मसला है। 'मंत्र' कहानी में डॉ. चड्ढा एक ग़रीब आदमी के बीमार बेटे को अपने खेलने के वक़्त का हवाला देकर देखने से इंकार कर देता है। ग़रीब दंपती की सात बेटों में से अकेली जीवित बची यह संतान भी मर जाती है। एक वक़्त आता है, जब डॉ. चड्ढा के जवान बेटे कैलाश को साँप डस लेता है और उसे बचाने के सारे उपाय बेकार हो जाते हैं। जिस ग़रीब आदमी के मरणासन्न बेटे को कभी डॉ. चड्ढा ने एक नज़र देखने तक से मना कर दिया था, वही 'भगत' अपनी 'विद्या' से चड्ढा के बेटे को बचा लेता है। 

मंत्र फूँक कर सर्प दंश के इलाज के नाते कहानी पूरी तरह अवैज्ञानिक है और यह सवाल भी उठता है कि कहानी एक ऐसे अंधविश्वास को मज़बूत करती है जो लोगों की जान लेता है। बहरहाल, बेहद ख़ूबसूरती से लिखी गई यह कहानी मनुष्य के अंतर्द्वंद्व को दिखाती है और उसकी अच्छाई को स्थापित करती है। 

सभी जानते हैं कि ब्राह्मणों की 'विद्या' के समानांतर झाड़-फूंक कमज़ोर तबकों की 'विद्या' रही है। पिछड़े-दलित तबकों के ये 'भगत' सभी इलाक़ो में रहे हैं। इनके 'मंत्र' वेदों-शास्त्रों के 'मंत्र' नहीं होते थे। शास्त्रों के मंत्रों के उच्चारण की उन्हें अनुमति भी नहीं थी। कहानी में 'भगत' कहारों से पानी मंगवाने के लिए कहता है। कैलाश की प्रेमिका मृणालिनी भी कलश से पानी ढोती है। भगत मंत्र पढ़ता है और कोई जड़ी कैलाश के सिर पर रखता है। 

रैना के यहाँ यह दृश्य विशुध्द ब्राह्मणवादी अनुष्ठान में बदल जाता है। पानी का काम तो एक लोटे से चल जाता है। भगत के हाथ में आरती का एक भव्य थाल सा पकड़ा दिया जाता है जिसमें ज्योति और धूपबत्तियां प्रज्ज्वलित हैं। भगत इसे लिए कैलाश की परिक्रमा करता है। इस दौरान पीछे से मंत्रोच्चार होता रहता है। वैदिक मंत्रोच्चार, इस दृश्य का जो कहानी से विपरीत अनुष्ठान है, सबसे प्रभावी हिस्सा है।

वही सवाल, रैना ऐसा क्यों कर रहे हैं? मैं तो वही जवाब समझता हूँ जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। सवाल यह है कि प्रग्रेसिव हलकों में सरकारी पैसे से ये कैसी प्रगतिशीलता फैलाई जा रही थी। यब सवाल आप उस प्रग्रेसिव सांस्कृतिक धारा से पूछिए जिसकी ग्रांट्स तक पहुंच थी और जिसके आइकन ऐसा कर रहे थे।

-धीरेश

Sunday, August 2, 2020

अपने विद्वेषी पूर्वजों के मोह में धूर्तता कर रहे हैं अपूर्वानंद?

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अपूर्वानंद से बात कर रहे युवकों ने एक सीधे सवाल के जवाब में `कलाकार के अपने भीतर रहने` जैसी तमाम बातें झेलने के बाद फिर से अपने सवाल पर लौटने की कोशिश की। दब्बूपन से ही सही पर अपना सवाल और साफ़ करने की कोशिश करते हुए मेजबान युवा ने पूछा, ``…हम लोग एक्चुअली सवाल के जरिये जानना चाहते थे कि जहाँ कुछ लोग इस पर सवाल उठाते हैं कि वो एक फेक राष्ट्रवाद था, उन्होंने क्यों लिखा, लोग ये देखना भूल जाते हैं कि उस वक़्त और भी लेखक थे जो बिल्कुल जैसा आपने कहा, खुद में जीकर, आर्ट में छुपकर जो उस समय की सरकार थी, उस समय अंग्रेज थे, उनको बढ़ावा देने वाली, उस समय की जो पार्टी इन्वॉल्व थी, उनको बढ़ावा देने वाला लिटरेचर लिख रहे थे…``
सवाल में और भी तमाम बातें थीं पर शायद अपूर्वानंद के सीने में लगने वाली बात यही थी। वे बोले, देखिए पहले तो हम इसको समझ लें कि ऐसा शायद ही कोई लेखक था जो ब्रिटिश हुकूमत के लिए काम कर रहा हो। ब्रिटिश हुक़ूमत के बारे में हम अभी जैसा सोचते हैं, उस वक़्त के सारे लोग उसी तरह नहीं सोचते थे। यह कहकर अपूर्वानंद का हृदय अपने `पूर्वजों` से एकमेक होने लगा और वे मुग़ल सल्तनत में जा पहुंचे। अपूर्वानंद बोले, जैसे मुग़लिया-मुग़ल सल्तनत थी  या कोई और राज्य, वो तो आख़िर राज की ही चीज़ थी। बादशाह की चीज़ थी। उसमें जनता की तो भागीदारी नहीं थी। फिर उन्होंने तुलसी द्वारा मंथरा के मुँह से बुलवाई गई उस मशहूर पंक्ति का सहारा लिया कि कोई भी नृप हो, हम को क्या फ़र्क़ पड़ता है। अपूर्वानंद बोले कि मैं तो तय नहीं कर सकता कि राज्य कैसा हो। तो मुग़ल बादशाहों की जगह अगर अंग्रेज आ गए तो उसे हमारे गाँव की ज़िंदगी, बाकी ज़िंदगियों पर बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा।
यह एक ऐसा आदमी बोल रहा था जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग का प्रोफेसर है और जिसने हिन्दी के बाहर अपनी अच्छी-ख़ासी नेटवर्किंग करके अपनी पहचान एक बड़े सुलझे हुए विद्वान की बना रखी है। आख़िर उसे यह बताने में क्या दिक्कत थी कि प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन में घुसे हुए थे। मुग़ल शासन और अंग्रेजी राज के बीच 1857 की क्रांति भी हुई थी। जनता में गहरा उबाल था और उसे राजनीतिक नेतृत्व भी मिल रहा था। आंदोलन की भी कई धाराएं थीं और अंग्रेजों के पिट्ठुओं की भी जमात थी। हिन्दी लेखक भी थे जो अपूर्वानंद जैसी ही बातें करते थे और मुगल सल्तनत जैसे धूर्त तर्कों के जरिये अंग्रेजों के राज को फायदा पहुँचाने वाली साम्प्रदायिक और विद्वेषी चालें चला करते थे। प्रेमचंद ऐसे अभियानों से भी गुत्थमगुत्था थे। अपूर्वानंद ने धूर्तता और निर्लज्जता का अपूर्व परिचय देते हुए पहले मुगल काल में छलांग लगाई और फिर राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही चल रहे समाज सुधार आंदोलनों को सवाल के बरक्स खड़ा करने लगे। राजा राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्या सागर का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि बाल विवाह समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू करने या विधवा विवाह शुरू करने की प्रक्रिया अंग्रेजी राज के बाद लोगों ने उनकी सहायता से ही शुरू की। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के साथ थे या नहीं थे, इस तरह देखने से महात्मा फुले, रमाबाई, आंबेडकर आदि के साथ अन्याय होगा। सवाल को उसकी जगह से हटाकर कहीं और ले जाने के पीछे अपूर्वानंद का मकसद क्या था? हिन्दी में प्रेमचंद अपने लेखन के जरिये राष्ट्रीय आंदोलन में मुब्तिला थे और उनके समकालीन क्या कर रहे थे या नहीं कर रहे थे, इस पर बात करने के बजाय सवाल को ही संदिग्ध बनाकर जो ओट लेने की कोशिश अपूर्वानंद ने की, वह इतनी धूर्तता भरी थी कि समझ तो बातचीत कर रहे युवा भी गए होंगे पर अपने ही सीनियर्स के द्वारा गोबर को देवता बना कर खड़ा कर देने की वजह से बोल नहीं पा रहे थे।
क्या मेजबान युवाओं का सवाल और अपूर्वानंद के जवाब में कोई तअल्लुक़ बनता है? अगर प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा थे तो क्या वे समाज सुधार आंदोलनों या बराबरी के दूसरे संघर्षों के ख़िलाफ़ खड़े थे या अगर उनके कोई समकालीन विभाजनकारी राह पर चलकर राजसत्ता को फायदा पहुँचा रहे थे तो क्या इसलिए कि राजा राम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, आंबेडकर, फुले, रमाबाई आदि शख़्सियतें विभिन्न मसलों पर सक्रिय थीं? प्रेमचंद के यहाँ तो उनकी समझ और सीमाओं के साथ सामाजिक भेदभाव, छुआछूत, साम्प्रदायिकता, स्त्रियों की स्थिति आदि सवाल केंद्रीयता पा रहे थे। राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी का मतलब भी इन सभी बातों से मिलकर बनता है। अपूर्वानंद को बताना चाहिए था कि हिन्दी में वे कौन लोग थे जो साम्प्रदायिकता, छुआछूत, स्त्री शोषण आदि मसलों पर प्रेमचंद्र के ही विरोध में खड़े थे। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उनके वे कौन पूर्वज थे जो बाल विवाह और विधवा विवाह का उग्र विरोध कर रहे थे। हिन्दी की गौरवाशाली परंपरा के ज़िक्र से उन्हें सांप क्यों सूंघ गया और विभाजनकारी `पुरोधाओं` के बचाव में वे शातिराना कुतर्कों पर क्यों उतर आए? और अपूर्वानंद फिर से उसी ज्ञान पर लौट आए कि प्रेमचंद की दिलचस्पी ज़िंदगी में थी। लोग कैसे जी रहे हैं, वे बहुत रुचि के साथ देख रहे थे और उनका चित्रण करने की कोशिश कर रहे थे। उस जीवन के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास कर रहे थे।

अपूर्वानंद ने प्रेमचंद की कहानी `मंदिर और मस्जिद` पर चर्चा करते हुए अज्ञेय वगैराह के हवाले दिए और कहा कि प्रेमचंद को इंसानियत की अच्छाइयों में यक़ीन है। कोई अपने धर्मस्थल की नहीं बल्कि दूसरे के धर्मस्थल की भी बेइज़्ज़ती बर्दाश्त न करे, खून खौल उठे। अगर ऐसा हो सकता है तो आप पूरे इंसान हैं और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो आप की इंसानियत में कुछ कमी है। यह है ज़िंदगी का वो पैमाना है जो प्रेमचंद पेश करते हैं।  लेखिका सुसेन का हवाला देकर उन्होंने कहा कि इतना ऊंचा पैमाना जिस पर खरा उतरना मुमकिन न हो, उससे लोग चिढ़ जाते हैं और कहते हैं कि ऐसा करने वाला या तो मूर्ख है या इलीट। इस से वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों लोग चिढ़ जाते हैं। आखिर, अपूर्वानंद अपने इन दिनों के अपने मुख्य एजेंडे पर आए और बोले कि (बहुत लोग मानते हैं) जो मेरे मुताबिक नहीं होता तो उसे मारना ही पड़ेगा न! मेजबान युवा ने मूर्खता से हामी में सिर हिलाते हुए कहा, और कोई रास्ता ही नहीं है। अपूर्वानंद ने कहा कि सत्ताएं निरंकुश हो जाती हैं, वो लेनिन की हों, स्टालिन की हों, माओजेजोंग की हों या हिटलर की हों। वे विश्वास करतीं हैं कि मैं जिस तरह देख रहा हूँ, आपको जिस ढांचे में डाल रहा हूँ, आप बस वही हैं। चूंकि मैं अच्छा हूँ और आप अच्छे नहीं हैं तो आपको खत्म होना चाहिए। प्रेमचंद कहते हैं कि मनुष्य वह है जिसको अहसास है कि वह अधूरा है…।
तो इस धूर्तता भरे प्रवचन के आयोजन के लिए और ऐसे धूर्तों के लिए सीढ़ी बनते रहने वाले वाम बुद्धिजीवियों को बधाई देनी चाहिए?
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अपू्र्वानंद की नई उपलब्धि : वाम के मंच से वाम पर हमला

भारत में वाम और उसकी सांस्कृतिक इकाइयां क्या बौद्धिक रूप से इतनी दरिद्र हो चुकी हैं कि वे लेनिन के विरुद्ध घृणा भरे अभियान चलाकर राजसत्ता की चापलूसी पर उतारु शख़्स को ही अपना मेंटर बना लें? इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) के लाइव में अपूर्वानंद को देखकर मैं चौंक पड़ा। तीन महीने पहले जो शख़्स `अक्तूबर क्रांति` और उसके नायक लेनिन को लेकर विष-वमन कर रहा था, भारतीय वाम उसके लिए लाल कालीन बिछा रहा हो तो मेरा चौंकना ग़ैर-वाजिब नहीं कहा जा सकता। अपूर्वानंद के लिए तो यह एक मज़ेदार उपलब्धि की तरह रही होगी कि वह वाम के मंच से ही वाम विरोधी दुष्प्रचार कर आया हो।
31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती के मौके पर बिहार इप्टा के ऑनलाइन आयोजन ('एक सौ चालीस वर्ष के प्रेमचंद' संवाद और कहानी पाठ) के संवाद सत्र में अपूर्वानंद को आमंत्रित किया गया था। इप्टा की केंद्रीय इकाई के पेज पर इस लाइव को शेयर किया जा रहा था। आज़ादी के आंदोलन के दौरान इंडियन प्रग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के गठन के सिलसिले में ही इंडियन पीपल्स थियेटर असोसिएशन (इप्टा) की स्थापना हुई थी। प्रेमचंद पीडब्ल्यूए की स्थापना में शामिल थे। कहना न होगा कि लेनिन और उसके साथियों ने दुनियाभर में राजनीतिक और सांस्कृतिक हलकों में जो प्रगतिशील तड़प पैदा की थी, पीडब्ल्यूए और इप्टा उसी की देन थे। इप्टा की धूम, धमक और इसका शानदार प्रभाव इतना व्यापक रहा कि उसने आज़ादी की लड़ाई से लेकर राजनीतिक व सामाजिक बराबरी की तमाम लड़ाइयों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उसका असर सिनेमा जैसे मनोरंजन के पॉपुलर और ताक़तवर माध्यमों को भी किसी हद तक सेकुलर और ग़रीबों का हिमायती बनाए रहा। उसकी रौशनी अभी तक चली आती है। कहते है कि इप्टा के पराभव की वजह भी भारतीय वाम नेतृत्व के विवादास्पद फ़ैसले ही थे। अफ़सोस कि ऐसे जगमग आंदोलन के मंच पर एक ऐसा शख़्स प्रवचन दे रहा था जिसका मुख्य एजेंडा ही इस आंदोलन को रौशन बनाने वाले विचार पर हमला करना हो। हाल ही में 23 अप्रैल को अपूर्वानंद ने `इंडियन एक्सप्रैस` में लेख लिखकर अक्तूबर क्रांति और लेनिन को लेकर जमकर ज़हर उगला था। देने वालों ने जवाब दिए पर हैरानी यह थी कि लेनिन को आदर्श मानकर चलने वाली भारत की तीनों बड़ी वाम पार्टियों के सांस्कृतिक संगठनों ने चुप्पी साथ ली थी और उनके नेतृत्व ने `ससुर-दामाद` के प्रति जातिगत निष्ठा का निर्वाह किया था।
अपूर्वानंद के लिए रेड कार्पेट बिछाने वाले कह सकते हैं कि उन्होंने अपूर्वानंद को वाम या लेनिन पर बोलेन के लिए नहीं बुलाया था बल्कि बतौर `प्रेमचंद विशेषज्ञ` आमंत्रित किया था। लेकिन, अपूर्वानंद ने ऐसी गुंजाइश छोड़ी ही नहीं। प्रेमचंद पर बोलते-बोलते वे लेनिन, माओ और हिटलर के साथ खड़ा कर हिंसा-अहिंसा पर नसीहत देने आ गए। एक तरह से उन्होंने फिर ऐलान किया कि अब उनका एजेंडा यही है। दिलचस्प यह है कि इस लाइव को सुनने के बाद ही यह ज्ञान हुआ कि अपूर्वानंद इस बीच प्रेमचंद विशेषज्ञ भी बन चुके है। अपूर्वानंद से बातचीत कर रहे दो युवा बार-बार प्रेमचंद पर उनकी किसी प्रेमचंद श्रृंखला का पारायण कर चुकने का ज़िक्र कर रहे थे। इन दोनों युवाओं के हृदय में अपूर्वानंद के प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उसकी धूर्तता भरी बातों का प्रतिवाद करना तो दूर, वे `जी सर`, `जी सर` करते जाते थे।
प्रेमचंद पर अपूर्वानंद का ज्ञान-दान पूरी तरह धूर्तता भरा रहा। फेसबुक पर ऐसे कई योद्धाओं को हम देखते हैं जो आरएसएस व भाजपा के प्रवक्ताओं की तरह सवाल को छोड़कर अपना मनचाहा ज्ञान पेलने लगते हैं। सबसे पहले तो उन्होंने कहा कि वे 140 साल के नहीं, 110 साल के प्रेमचंद पर बात करेंगे क्योंकि प्रेमचंद के रूप में साहित्यिक अवतार 1910 में हुआ। अपूर्वानंद की पूरी बातचीत इसी शैली पर टिकी हुई थी। वे बातचीत में शामिल युवाओं की श्रद्धा और मूर्खता का लाभ उठाकर सवालों का जवाब देने के बजाय प्रेमचंद को एक ऐसा राजनीतिक चेतना विहीन लेखक साबित करने में जुटे रहे जिस पर न उस समय के राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों का असर था और न वह अपने लेखन से सचेत रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कोई भूमिका निभा रहा था। कोई मूर्ख या धूर्त ही कहेगा कि प्रेमचंद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उपज नहीं थे या भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर वे असर नहीं डाल रहे थे। असल में अपूर्वानंद का कष्ट है - नवजागरण में प्रेमचंद की भूमिका। वह भूमिका जो अपने समकालीन और अपने पूर्व के हिन्दी लेखकों में व हिन्दी समाज और राजनीति में सक्रिय साम्प्रदायिक, जातिवादी और राजभक्त शक्तियों से टकराती थी। वह भूमिका जो हिन्दी की दुनिया में पहली बार एक बड़ा निर्णायक प्रतिरोध पैदा करती है। अपूर्वानंद को इस भूमिका पर परदा डालना था और हिन्दी के खलनायकों को नाम लिए बिना सर्टिफिकेट देना था कि प्रेमचंद हों या कोई भी लेखक सभी `एक जैसे होते हैं`। अपूर्वानंद के मुताबिक, प्रेमचंद की दिलचस्पी कहानी-क़िस्से लिखने-पढ़ने में थी और यही वे करते थे।
`सोज़े वतन` का ज़िक्र आ चुका था। सवाल करने वाले ने अपूर्वानंद से पूछा कि नवाब राय-महताब राय वाले फेज़ में प्रेमचंद की कहानियां देशभक्ति से ओतप्रोत थीं जिस पर अंग्रेजी सरकार ने सख़्ती बरती तो क्या वे प्रेमचंद के रूप में देशभक्ति पर लौटे या उसको छोड़ कर चले। क्योंकि आजकल हम देखते है कि ये जो फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद चल रहा है, तो क्या प्रेमचंद का वो राष्ट्रवाद वहीं पे विराम लग गया था या उसको उन्होंने अपनी रचना में कहीं न कहीं दिखाने की कोशिश की है? अपूर्वानंद ने जवाब में लंबा ज्ञान दिया पर मूल सवाल से पूरी तरह कन्नी काट गए कि प्रेमचंद देशभक्ति की तरफ़ लोटे थे या नहीं और कि उनकी रचनाओं में यह आई थी या नहीं। वजह वही कि वे जिस एजेंडे को लेकर इस बातचीत में आए थे, उस पर ही बोलना मात्र उनका ध्येय था। वे कलाकार के अपने भीतर रहने, कला प्रचार का माध्यम न होने जैसे पुराने घिसे-पिटे जुमले बोलते गए। अपूर्वानंद ने कहा - ``जिस तरह हम सोचते हैं, लेखक-कलाकार उस तरह अपना काम नहीं करता है। प्रेमचंद की पहली दिलचस्पी थी कहानी से और वो कहानी पढ़ना चाहते थे और कहानी लिखना चाहते थे। आप कह रहे हैं, देशभक्त, राष्ट्र, राष्ट्रवाद, जनता। ये सारी चीज़ें थीं पर पहली बात थी ज़बान में दिलचस्पी औप कहानी कहने में दिलचस्पी। ये बात अटपटी लग सकती है लेकिन अंग्रेजी हक़ूमत में रहते हुए, मैं हो सकता है, सिर्फ़ अपने भीतर रहा हूँ। अपने भीतर रहने का मतलब है, अपनी कला के भीतर रहा हूँ। क्योंकि प्रेमचंद की रुचि थी कहानियों में, कथा में। और उन्होंने अपने पहले का कथा-साहित्य काफ़ी घोटा था। उनकी परवरिश उसी में हुई थी। क़िस्से उन्हें अपनी ओर खींचते थे। प्रेमचंद का काम कहानी-क़िस्से लिखना था। प्रेमचंद का काम यह नहीं था कि देशभक्ति का प्रसार करने के लिए क़िस्सा लिखा जाए या राष्ट्रवाद का प्रचार करने के लिए कहानी लिखी जाए। कहानी कोई माध्यम नहीं है कि कहानी लिखी जाए। इसको यूं समझना चाहिए कि कहानी हो, कविता हो या उपन्यास हो, वह किसी प्रचार को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होता है।``
अपूर्वानंद शायद प्रचार की जगह विचार बोलना चाह रहे थे कि कहानी या कोई कला तो कला होती है, किसी विचार को व्यक्त करने का माध्यम नहीं होती है। लेकिन, कोई कहेगा कि यह उनके मुँह में अपनी बात घुसेड़ने की कोशिश हुई तो यह छोड़कर उस सवाल के जवाब में चल रहे उनके भाषण के अगले वाक्य सुनते हैं जिनके लिए उन्होंने इतनी लंबी मशक्कत की थी।
``कविता या नाटक या कहानी या उपन्यास या कोई भी कला-माध्यम या कोई भी कला, उसका विचार उसका अपना विचार होता है। वो गांधी का विचार नहीं है, वो कोई दादा भाई नौरोज़ी का विचार नहीं है, सरोजनी नायडू का नहीं है। उसका ख़ुद का प्रेमचंद का अपना विचार प्रेमचंद का विचार है। वह कोई गांधीवाद, मार्क्सवाद, इसको व्यक्त नहीं कर रहे हैं। राष्ट्रवाद, इसको व्यक्त नहीं कर रहे हैं।``
अपूर्वानंद को सीधे यह कहने में शायद शर्म आ रही थी कि प्रेमचंद का लेखन सचेत राजनीतिक लेखन भी है। अपनी कहानियों में भी वे कोई ग़ाफिल कहानीकार भी नहीं हैं। उनका लेखन एक निरंतर यात्रा है। गांधीवाद का उन पर गहरा प्रभाव रहा और दुनियाभर के रचनाकारों को उद्वेलित कर रहे मार्क्सवाद से भी वे अछूते नहीं हैं। हालांकि, ये तमाम बहसें हो चुकी हैं और उनके पत्रों व बाद के उनके भाषणों से यह सब पटाक्षेप भी हो चुका है पर इससे डरे अपूर्वानंद ने गांधीवाद के प्रभाव को भी नकारने का नाटक करते हुए दादा भाई नौरोज़ी और सरोजनी नायडू का भी नाहक ही घसीट लिया। ऐसे लंपट बुद्धिजीवियों का यही तरीक़ा है। जाहिर है कि हर लेखक का विचार उसका अपना ही विचार होता है और वह किसी विचार को अपने ही ढंग से ग्रहण करता है। जैसे वाम विचार को अपने ससुर नंद किशोर नवल की तरह अपूर्वानंद ने करियर और बौद्धिक दुनिया में जुगाड़बाजी के लिए इस्तेमाल कर लिया और प्रेमचंद ने अपनी पक्षधरता और प्रखरता के तौर पर हासिल किया था।
अपूर्वानंद ने समझाया कि प्रेमचंद ज़िंदगी जीने का एक पैमाना आपके सामने रख रहे हैं या ज़िंदगी का मेयार पेश कर रहे हैं। कहानीकार की प्राथमिक दिलचस्पी ज़िंदगी में होती है, लोगों में होती और वो उनके बारे में बात करना चाहता है। अपूर्वानंद की इस बात से क्या इंकार हो सकता है कि प्रेमचंद की दिलचस्पी लोगों में थी और उनके यहाँ वीरता, त्याग, उत्सर्ग, दोस्ती, दयानतदारी, सहानुभिति वगैराह भावनवाओं और संवेदनाओं का बड़ा महत्व था। लेकिन, प्रेमचंद निरा राजनीतिक कहानीकार थे यह साबित करने की कोशिश करना या इस सीधे सवाल कि क्या `सोज़े-वतन` जला दिए जाने के बाद देशभक्ति उनकी रचनाओं में लौटी, पर ऐसा प्रवचन जो उनकी वैचारिक यात्रा को छुपाने की कोशिश करता हो, असल में अपूर्वानंद की वैचारिक धूर्तता का प्रमाण है।
(जारी)

Saturday, August 1, 2020

लेनिन और हिन्दी पट्टी के अपूर्वानन्द जैसे गुबरैले बुद्धिजीवी : -धीरेश सैनी

सीपीआई से यात्रा शुरू कर चोरी वगैराह विवादों से और कांग्रेस-वांग्रेस से होकर मोटिवेटर टाइप करियर तक पहुँच जाने वाले हिन्दी के सवर्ण बुद्धिजीवी के लिए सबसे ज़रूरी क्या होता है? सेकुलर-साहसी जेस्चर में बात करना और आरएसएस को बार-बार आशवस्त करना कि मैं कुछ भी हूँ पर फ़ासीवाद और पूँजीवाद जिसे सबसे बड़ा दुश्मन मानता है, मैं उस विचार पर दुर्भावना और नफ़रत की जगह से सबसे ज़्यादा हमलावर हूँ। लिबरल्स और फ़ासिस्ट्स दोनों को नामवर सिंह के क्लोन जैसे इन दलालों की ज़रूरत रहती है और प्रगतिशीलों में ये सफलता के मॉडल के तौर पर लोकप्रिय रहते हैं। ये वैचारिक स्पेस में प्रतिरोध की जगह घेरे रहते हैं। थोड़ा बैलेंस दिखने की कोशिश करने वाले अंग्रेजी मीडिया घरानों को भी इन्हें जगह देने में में दिक्कत नहीं होती और हर सेकुलर स्पेस में पैसा और पद हड़पने की कोई भी जगह निकले तो वहाँ हाथ मारने में भी।
देश और दुनिया में इस वक़्त एक बड़ी माहामारी और उसे डील करने के नाम पर ग़रीबों को बेहाल छोड़ दिए जाने की वजह से जो हालात हैं, सब देख रहे हैं। सरकारी अस्पतालों की कमी, डॉक्टरों-मेडिकल स्टाफ व सफाईकर्मियों तक के लिए पीपीई और मास्क जैसे सुरक्षा उपायों के अभाव और सड़कों पर मार खाते-दम तोड़ते मज़दूरों की बेबसी किससे छुपी है? दुनिया इतनी एकध्रुवीय है कि डबल्यूएचओ को मानवीय आधार पर कुछ सलाहें और आपत्तियां ज़ारी करना महंगा पड़ जाता है। इस तरह पूंजीवादी देश अपने ग़रीब नागरिकों के हत्यारे की भूमिका में निर्द्वंद्व हैं। कहने को, ये देश लोकतंत्र के चैम्पियन हैं।
कल्पना कीजिए कि सोवियत संघ का पतन न होता और दुनिया शक्ति के इस कदर एकध्रुवीय हो जाने से पूंजीवादी और फ़ासिस्ट ताक़तों के चंगुल में न आ गई होती तो क्या ये `लोकतंत्र` अपने ग़रीब नागरिकों के साथ खुलेतौर पर इतनी नृशंसता कर रहे होते। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने अपने उपनिवेश भारत के सैनिकों और यहां की धन-सम्पदा को बेतहाशा झोंक दिया था। भारत के नेताओं और रसूख़दार लोगों ने इस काम में ब्रिटेन की खुलकर मदद की थी। यह प्रचार किया गया था कि ब्रिटेन इस मदद के बदले भारत के प्रति उदार हो जाएगा। हुआ उलटा। ब्रिटेन व फ्रांस दोनों ही अपने उपनिवेशों के प्रति और क्रूर हो गए और उधर अमेरिका भी ज़्यादा ताकतवर होकर उभरा। जाहिर है कि इस विश्वयुद्ध के पीछे एक बड़ी वज़ह उपनिवेशों पर कब्ज़ा बनाए रखकर लूट की होड़ थी।
इसी दैरान लेनिन नाम का शख़्स क्या कर रहा था? आज दुनियाभर में पिट रहे बेसहारा आम मेहनतकश जन की एकता, उसके अंतरराष्ट्रीयवाद की ज़रूरत की सैद्धांतिक स्थापना, अपने देश के जनशोषकों के खिलाफ़ संघर्ष और सर्वहारा सत्ता की स्थापना, विश्वयुद्ध से अलग होकर अपने यहाँ किसानों-मज़दूरों की सत्ता की मज़बूती से लेकर दुनिया भर में शांति और सर्वहारा की सत्ता की ज़रूरत के लिए संघर्षों को प्रेरणा देने जैसे कामों में यह शख़्स दिन-रात जुटा रहा। वह कथित मित्र देशों, ज़ार युग के जनरलों वगैराह की साजिशों से पैदा होते रहे युद्धों से जूझता हुआ देश और दुनिया में एक सर्वहारा नेता, विचारक और स्टेट्समैन के रूप में प्रेरणा पैदा करता रहा। बाद के सालों की अपनी बीमारी और कुछ अप्रिय विवादों के बावजूद।
लेकिन, यह लेनिन ही थे जिन्होंने दुनिया में पहली बार वो काम कर दिखाया जो आज भी नामुमकिन लगता है। लुटेरे अमीरों से संपत्ति छीनकर उसे आम लोगों में वितरित कर देने का काम। अपने जातिवादी संस्कारों से ही ऐसी कल्पना से चिढ़ रखने वाले अपूर्वानंद जैसे करियरिस्टों को छोड़िए, दुनियाभर में आज भी हर पूंजीवादी, तानाशाह, जनद्रोही को यही डर सताता है कि आम किसान-मजदूर, आम मेहनतकश जन एकजुट न हो जाएं, उन्हें नेतृत्व देने वाला लेनिन जैसा कोई विचारक-नेता प्रभावी न हो जाए।
दिलचस्प है कि अपूर्वानंद लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हैं और दुनिया में लोकतंत्र में जो भी सार रहा और लोकतंत्र में यक़ीन रखने वाले लोग जिस सार को पुन: हासिल करने के लिए संघर्षरत रहते हैं, उस सार का श्रेय अगर किसी को है तो वह लेनिन को ही है। लेनिन तो शायद यह भी कहते थे कि मज़दूरों का अधिनायकवाद ही सच्चा लोकतंत्र है। आज मज़दूरों की हालत देखिए और ज़रा दुनिया के लोकतंत्रों को परखिए। याद रखिए कि लेनिन ने अपने राष्ट्र के आम नागरिकों की ही संसाधनों में गरिमामय भागीदारी सुनिश्चित नहीं की थी बल्कि दुनियाभर के मज़दूरों की एकता और अंतरराष्ट्रीयवाद पर ज़ोर देते हुए इस दिशा में ठोस कदम बढ़ाए थे।
लेनिन का ही असर था कि मेहनतकशों का लहू चूसने वाले पूंजीवादी तंत्र को `वेलफेयर स्टेट` का रास्ता अपनाना पड़ा था। इस एक शख़्स को हटाकर दुनिया की कल्पना करके देखिए। जो आज हो रहा है, वह आज से पहले इससे क्रूर रूप में हो चुका होता। सोवियत संघ के पतन से पहले और बाद के परिदृश्य को देख लीजिए कि कैसे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लोकतंत्र से गायब कर दिया गया। सरकारों ने बेहतर और पर्याप्त संख्या में सरकारी अस्पताल, स्कूल, यात्रा के संसाधन, खाने-रहने के उपाय सबसे हाथ खींच लिए। यह मांग, यह सपना भी अपराध हो गया। भारत की आज़ादी की लड़ाई और आज़ाद भारत के निर्माण में भी लेनिन के बेशक़ीमती असर को कौन नहीं जानता? भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ही नहीं, उनसे पहले के अशफ़ाक़, आदर्शवादी गणेश शंकर विद्यार्थी, उदारवादी नेहरू किस पर लेनिन के समाजवादी स्वपन का असर नहीं था। लोकतंत्र में जो चीज़ वाकई आम जनता के उत्थान में कारगर रही, वो उसका समाजवादी असर ही रहा जो आज किसी बाधा की तरह निशाने पर है।
कोरोना महामारी की बात करते हुए ही देखें कि सर्वाधिक शक्तिशाली होने का दंभ रखने वाले अमेरिका की सत्ता किस तरह दुनिया के बाकी देशों और अपने ही नागरिकों के लिए कोरोना से बड़ी महामारी साबित हो रही है और क्यूबा जैसा छोटा सा समाजवादी देश ख़ुद पर हमलावर अमेरिका के मित्र ब्रिटेन के कोरोना पीड़ितों को उनका शिप रुकवाकर मदद देता है, उनकी वापसी के लिए हवाई यात्रा का प्रबंध करता है। यह भी दिलचस्प है कि लेनिन के असर के दबाव वाली वेलफेयर स्टेट वाली स्वास्थ्य सेवाएं जिन देशों में जितनी प्रभावी ढंग से बची हैं, वे कोरोना से लड़ने में अपने आक़ा अमेरिका से उतने ही बेहतर रहे हैं।
लेनिन की उपलब्धियों, उनकी ज़रूरत और उनके ज़िक्र से कुंठित होकर मारतोव को पेश किया गया है जिनसे विच्छेद को लेकर लेनिन भी दुखी थे। पिछले दिनों सुभाष गाताडे के एक लेख में पढ़ा था कि उनकी बीमारी की ख़बर पर लेनिन ने आर्थिक मदद की पेशकश भी की थी। बेशक, उस समय भी बहुत से विवाद, असहमतियां और अंतरविरोध भी रहे होंगे पर दुनिया को जनता की गरिमा और बराबरी के लिहाज से सुंदर बनाने में लेनिन के योगदान और उनकी सार्वकालिक उपस्थिति को नकारने की कोशिशें इतनी ओछी हैं कि हिन्दी पट्टी के गुबरैलों के लिए बार-बार इस्तेमाल होने वाली यह पंक्ति भी शरमाने लगी है- `पहुंची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था`।
-धीरेश सैनी
(3  मई 2020 को फेसबुक पर लिखी गई पोस्ट)

Wednesday, April 22, 2020

रामचंद्र शुक्ल विवाद: क्योंकि आप मनुष्य होना नहीं चाहते



बा ख़ुदा दीवाना बाशद
बा मुहम्मद होशियार

अपने पिता या किसी पुराने अध्यापक से फ़ारसी की यह मशहूर और दिलचस्प कहावत बहुत से लोगों ने सुनी होगी। मतलब कि ख़ुदा के बारे में कुछ कहा तो फिर भी चलेगा मगर होशियार, पैगंबर मुहम्मद के बारे में कुछ कहा तो। रामचंद्र शुक्ल को लेकर कवि विहाग वैभव की एक सर्वथा उचित टिप्पणी के विरोध में शर्मनाक उत्पात की वजह संक्षेप में और ठीक-ठीक समझनी हो तो ये दो नन्ही पंक्तियां पर्याप्त हैं। जिन अमानवीय और घृणित संस्कारों ने इतने सारे देवपुत्रों को अपने जनतांत्रिक, जनवादी, प्रगतिशील और उदार होने के मुखौटे झटके में फेंककर निर्लज्ज ट्रोल बन जाने के लिए प्रेरित किया, उन संस्कारों को शिक्षा के मूल्य बनाकर हिन्दी भाषा, साहित्य और इसके सत्ता प्रतिष्ठानों में प्रवाहित करने वाले रामचंद्र शुक्ल या भारतेंदु जैसे देवों के बारे में कोई `मलेच्छ` कुछ कहे और इतना भी न हो?
 
विहाग वैभव पर एक साथ इतने हमले किए गए हैं कि उन पर विस्तार से लिखा जा सकता है। गाली-गलौज़ वाले हमलों से ज़्यादा भयानक उपदेश, प्यार और नसीहतों से भरे बाण हैं। इन्हें चलाने वाले हिन्दी की मुख्यधारा के जाने-पहचाने प्रतिष्ठित बूढ़े, अधेड़ और युवा इज़्ज़तदार लोग हैं। ख़ुद को मार्क्सिस्ट, लोकतांत्रिक, उदार और क्रांतिकारी कहने वाले भी। इनमें से ही कुछ यह लानत लगाते हुए कि एक अभूतपूर्व संकट के समय ऐसा विवाद शोभा नहीं देता, इस विषय पर लंबे प्रवचन झाड़ दे रहे हैं। पता नहीं ये देख पाते हैं या नहीं कि इनके लंबे, थोथे और बेईमानी भरे प्रवचन ही इनके सवाल का शर्मिंदगी भरा जवाब हैं। अगर, इन्हें किसी संकट काल से कोई फ़र्क़ पड़ता होता तो ये एक छोटे से स्टेटस पर इतना बवाल क्यों मचाते हैं? ये सारे के सारे एकमत होकर अपने उत्पात के लिए विहाग वैभव को ज़िम्मेदार और जातिवादी ठहराना नहीं भूलते हैं। कोई पहली ही लाइन से तो कोई सारी बात कह लेने के बाद अंतिम निष्कर्ष के तौर पर। ये सभी रामचंद्र शुक्ल को या तो सीधे या घुमा-फिराकर ज़रूरी घोषित करना नहीं भूलते हैं। तुर्रा यह कि ख़ुद को बहुत ज्ञानी-न्यायप्रिय होने का अभिनय करते हुए औऱ विहाग को अनपढ़, अनुचित, सनसनीबाज़ बताते हुए। ऐसे में इनका प्रतिकार ज़रूरी क्यों नहीं है? क्या जिस संकट की दुहाई ये लोग दे रहे हैं, यह सांस्कृतिक फ़ासीवाद उसी का हिस्सा नहीं है?

`गार्बेज इन-गार्बेज आउट`। हिन्दी के इन उपदेशक प्रोफेसरों-कवियों-लेखकों-विशेषज्ञों के प्रवचन इस अंग्रेजी मुहावरे से बाहर नहीं जाते। इनमें कोई जेएनयू में पढ़ा है, कोई दिल्ली, कोई इलाहाबाद सॉरी प्रयाग, कोई बनारस सॉरी कासी या पटना में पढ़ा या पढ़ाता हुआ हो सकता है। इन सभी की ख़ास बात यह है कि ये मनुष्य से बहुत ऊपर उठकर देवपुत्र की जगह खड़े होकर बात करते हैं। उपदेश, आदेश और तिरस्कार की भाषा में। `बहस के मूल में अनपढ़पन और सनसनाहट` मानने वाले विद्वान कहते हैं कि जातिवादी और कुलीन ब्राह्मण समुदाय को शुक्ल जी पसंद हैं तो यह दोनों का दुर्भाग्य है और इसी कारण दलित को शुक्ल जी से घृणा है तब भी दोनों की बदनसीबी है। आपको ` शुक्ल जी` के लिए इतनी बैटिंग करनी पड़ रही है और अपको वे इतने पसंद हैं तो क्या इसलिए ही नहीं कि आप एक जातिवादी और कुलीन समुदाय से हैं? शुक्ल जी की घृणा का शिकार दलित को `शुक्ल जी` से घृणा है तो उनकी बदनसीबी क्यों हैं? क्या बदनसीबी है? वे धमकियां जिन पर इतने न्याय के योद्धाओं ने लाइक और स्माइली चिपकाईं कि हम से नौकरी लोगे, हम से ईनाम, हम से शिक्षा? दलित क्यों घृणा करेंगे, यह तो आप इसलिए नहीं समझना चाहते हैं कि आप उत्पीड़क संस्कारों से पोषित-पल्लवित हैं और उस सेंसेबिलटी से आप बहुत दूर हैं जो दलितों के पास है या फिर आप सचेत रूप से उत्पीड़क ही बने हुए हैं, अपने मुखौटे धारे हुए। जहाँ तक पढ़ने की बात है तो आपके देवता जो लिख गए हैं, साफ़ लिख गए हैं, पर्दे आप डाल रहे हैं। जो उन्हें पढ़ेगा, आप जैसा हुआ तो उन्हें अपना देवता पाएगा, आप जैसा नहीं हुआ तो उसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा जिस पर विहाग पहुँचे हैं। विहाग से पहले कितने ही शूद्रों, मुसलमानों और `प्रविलेज्ड कास्ट` से आए उन लोगों ने जिनके लिए न्याय की चेतना सर्वोपरि रही, यही कहा जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने जिन्हें वाम और प्रगतिशील परपंरा के ही पुरोधा कहा जाता रहा, दबाते जाने का काम किया। इसी तरह, जिस तरह इस वक़्त हल्ला किया जा रहा है और कई बड़े लेखकों के लेखों को सामने रखने पर उन्हें ओबीसी साजिश क़रार दिया जा रहा है। हिन्दी के अन्यायी सामंतो! हर कोई कुतुबन, राही मासूम रज़ा या असग़र वजाहत नहीं होता जिसमें तुम अपने रीझने और उसका ज़िक्र कर ख़ुद को संरक्षक-सेकुलर कहने के दंभ की वजहें तलाश सको।

धोती-कुर्ता, कोट-पैंट से क्या बनता-बिगड़ता है? कोई आंबेडकर और शुक्ल की तुलना पहनावे से, तस्वीर से या औपनिवेशिक पाश्चात्य चेतना का प्रभाव बताकर करे और बेसिरपैर के बामन पतरों की शैली में कुछ भी सिद्ध करने लगे तो क्या कहा जाए? परंपरा विच्छेद का अभियान किसने चलाया? परंपरा क्या है? परंपरा तो वर्णाश्रम भी है और प्रतिरोध भी। किसी भी बराबरी के विचार को विदेशी या परंपराविरोधी कहकर निरस्त करना भी हमारी परंपरा है। भगत सिंह ने भी अपने छोटे से जीवन में इसे साफ़ तौर पर और ज़ोर देकर कहा था। आंबेडकर तो उन परंपराओं के ग्रंथों से जूझते हुए, उन पर लिखते हुए आगे बढ़े। लेकिन, उपनिवेशवाद से ही जोड़कर बात की जाए तो 1857 के बाद `मिलीजुली परंपरा` के विच्छेद का अभियान कौन चला रहा था और कौन जातिवाद व साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष भाषा और शिक्षा तक में घुसा रहा था? नफ़रत और ग़ैरबराबरी को मूल्यों की तरह पेश कर कौन हिन्दी भाषा का गठन कर रहा था? रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को जाने दीजिए, भारतेंदु औऱ उनके मंडल के लेखकों के यहां जिन्हें नवजागरण के अग्रदूत कहा जाता है, इस विषवृक्ष का पौधारोपण और उसको ख़ाद-पानी देकर तेज़ी से बड़ा करने का `सत्कर्म` देख लिया जाए। प्रेमचंद न आते और संविधान व बराबरी की लड़ाइयों के असर वाले लोग न आते तो आज जहाँ हिन्दी के प्रगतिशील देवपुत्र खुलकर खड़े हैं, उस राह में बाधाएं ही न होतीं। अफ़सोस कि न रामविलास, न नामवर, न मैनेजर, न विश्वनाथ ख़ुद को इस वृक्ष के विष से बचा सके।

`ऐसे समय` का वास्ता तभी कोई अर्थ रखता है जब इसके पीछे मन साफ़ हो। जाति की श्रेष्ठता के आधार पर पक्षधरता तय कर बना हमलावर गिरोह एक युवा कवि का आखेट करे, अश्लील अट्टहास करे और उपदेशक हमले का शिकार बनाए जा रहे लोगों को यह उपदेश दें तो कैसा लगेगा? ये वही तर्क हैं जो आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी दिए जा रहे थे। इस तरह फुले दंपती औऱ उनके सहयोगियों का सारा संघर्ष बेमानी हो जाए। कांग्रेस के 80 फीसदी दक्षिणपंथी आंबेडकर पर भी यही सवाल उठा रहे थे। उनका सारा संघर्ष, उनका सारा लिखा-पढ़ा रुक जाना चाहिए था?

शुक्ल ने क्या लिखा, क्या कहा, अब उससे पहले बात यह है कि आप क्या कर रहे हैं? आप कहाँ खड़े हैं? वह कौन सा धागा है जिसने आप को ऐसी प्रतिगामी एकता में बाँध दिया? आप साहित्य में पेशवाई क्यों लागू करना चाहते हैं कि आपके सामने `शूद्र` गले में बर्तन और कमर में झाड़ू बाँध कर निकलें? आप दास प्रथा चाहते हैं? क्योंकि आपको अचानक समय अपने बहुत अनुकूल लगने लगा है?

अहंकार, निर्लज्जता और घृणा में डूबे हिन्दी के पवित्र जन, आप यह क्यों नहीं समझते कि आप अपनी किताबों, अपनी नौकरियों और अपने रट्टों पर कितना भी इतराते घूमो, एक साधारण सी लेकिन सबसे ज़रूरी चीज़ से वंचित हो, मनुष्यता से? कभी यह बात आपको रुलाती नहीं? आप पर तरस भी आता है कि आप कभी मनुष्य नहीं हो सकते क्योंकि आप मनुष्य होना ही नहीं चाहते।
-धीरेश सैनी