Monday, February 17, 2014

`फैन्ड्री’ के निर्देशक का मार्मिक आत्म-कथन


सपनों को छोटी-छोटी राहें और सख्त नाकेबंदी
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इस हफ्ते एक मराठी फिल्म रिलीज़ हुई है 'फैन्ड्री', जो कुछ-कुछ निर्देशक नागराज पोपटराव मंजुले की अपनी कहानी है. आज महाराष्ट्र टाइम्स के रविवारी संस्करण में नागराज का यह आत्म-कथन छपा है, जिसे यहां भारतभूषण तिवारी की बदौलत दिया जा पा रहा है.  पक्का नहीं मालूम पर पढ़ने से लगता है कि वे महाराष्ट्र की अति पिछड़ी घुमंतू जाति 'वडर' से सम्बन्ध रखते हैं. फिल्म मैंने अभी तक नहीं देखी पर उसका प्रोमो यूट्यूब पर मौजूद है.



फैन्ड्री को याद करते हुए

‘फैन्ड्री’ के बहाने अलग-अलग यादों का कोलाहल मचने लगा है मन में...इन यादों का कालखंड बहुत लम्बा है. फैन्ड्री इस शीर्षक के साथ बचपन से लेकर कल-परसों तक की अनेक बातें आँखों के सामने तैरने लगती हैं. जैसे-जैसे समझ आती गई वैसे-वैसे मन में एक अजीब सा डर, हीनता का अहसास ‘बाइ डीफ़ॉल्ट’ रहा. यह हीन भावना खानदानी है. जब से समझ आई तभी से अनजाने ही अपनी सीमाओं का अहसास मन में घर कर गया था. बचपन में रामायण देखने जाता तब सब की जगहें निश्चित हुआ करती थीं. मैं अपनी जगह पर खड़े होकर राजा राम की माया देखा करता, तभी मन के अन्दर लगे “नो एंट्री” के अदृश्य बोर्ड मज़बूत होते गए होंगे. मेरे अन्दर की हीनता के पुख्ता सुबूत परिवेश द्वारा अधोरेखित हो रहे थे.
अबोध उम्र के मासूम साहस पर पाबंदी कब लगी यह पक्का याद नहीं. हरेक दहलीज की जाति-धर्म पता करके कदम कब से रखने लगा कौन जाने? ये नपुंसक सयानापन, एक अंधी शरणशीलता कब घर कर गई किसे पता? स्कूल में अलग-अलग फॉर्म भरते हुए खुद का, माँ-बाप का या जाति का नाम बताया तो एक हिंस्र, कुटिल हँसी क्लास में गूँजती, इसलिए जितना संभव हो सके उतना अध्यापक के करीब जाकर किसी दूसरे को सुनाई न दे पाए इतनी धीमी आवाज़ में अपनी पहचान बताई जाए यह सयानापन तीसरी-चौथी कक्षा से आने लगा था. अपनी पहचान का, अस्तित्व का रूपांतर हीन भावना में हो जाने पर कहने लायक खुद के पास कुछ नहीं बचता.
पता नहीं कब से खुद अपना नाम लेते हुए भय लगने लगा. कोई अपराध होने का, हो चुकने का डर लगातार लगने लगा.
मेरा बाप मेरे हमउम्र दोस्तों को सीधे ‘सेठ’,’साहेब’,’सरकार’ ऐसे संबोधनों से पुकारता तब अपनी दोस्ती की, समानता की आशा अतिरंजना लगती और गले का फंदा कभी किसी ने ढीला कर बाँधा तो वही आज़ादी लगती. ऐसा होने पर भी पलकें सपने संजोना नहीं छोड़तीं. इतनी सख्त नाकेबंदी में सपनों को छोटी-छोटी राहें मिलतीं. बस एक जींस पैंट, तीज-त्यौहार पर पूरनपोली, घर में बिजली का कनेक्शन, पैरों में चप्पल ऐसी बातें सपनों जैसी लगतीं. ऐसी साधारण इच्छाओं की जमाखोरी करके व्यवस्था उन्हें सपनों का भाव दिला देती है. मगर इच्छाओं की, सपनों की न कोई जाति होती है न धर्म. सपने मासूमियत के साथ कोई भी इच्छा ज़ाहिर करते हैं. फिर अपने सपनों और हीन भावना का संघर्ष शुरू होता है. इस संघर्ष में हमेशा ही हीन भावना सपनों को मात दे देती है.
कॉलेज पहुँचने पर एक पुराना सा सपना ठाठें मारने लगा. क्लास में, कॉलेज में सम्मानजनक व्यवहार हो, इज्ज़त मिले यह सपना था. प्रथम वर्ष में श्री.म. माटे की एक कहानी पाठ्यक्रम में थी. उस कहानी का नायक एक खलनायक को ‘ए, काले वडर[i]....’ कहते हुए गालियाँ देता है. पाठ्यक्रम की सारी कहानियाँ पहले से पढ़ लेने की आदत की वजह से यह वाक्य पढ़ कर मैंने फैसला कर लिया था कि यह कहानी जब क्लास में पढ़ाई जाएगी तब अनुपस्थित रहूँगा. कहानी पढ़ाई जा चुकी होगी यह मानकर आठ-दस दिनों बाद क्लास में हाज़िर हुआ तो ठीक उसी दिन सर ने माटे की वह कहानी पढ़ाना शुरू किया. और जिस बात का मुझे डर था वही हुआ. ‘ऐ, काले वडर...’ यह वाक्य सर ने पढ़ा और सारी क्लास अपनी हंसी रोकते हुए मेरी ओर देखने लगी. ईश्वर की भांति वहीँ बैठे-बैठे अंतर्ध्यान हो जाऊं, ऐसा बस उसी क्षण लगा था.
ऐसे तबाह असफल लम्हों में आदमी ऐसे चमत्कारों की उम्मीद करने लगता है. ‘फैन्ड्री’ कहने पर ऐसे तबाह होने की याद आती है. स्कूल नाम के भयालय की याद आती है. ‘फैन्ड्री’ कहने पर नाज़ुक मासूम सपनों की याद आती है...सपनों के चूर-चूर होने की याद आती है...

फैन्ड्री का क्या मतलब?
यह सवाल मुझसे कई बार पूछा गया.
और मैं आज तक टालता रहा एक लफ्ज़ में फैन्ड्री के मानी बताना..
फैन्ड्री हमारे ही अगल-बगल में जीने वाली एक जनजाति की बोली का शब्द
है.
यह भाषा बोलने वाले इंसानों को हम नहीं जानते
उनके सुख-दुख
उनके सपने
उनकी वेदनाएं
उनके अस्तित्व का जैसे हमें कोई अहसास ही नहीं.

आप फैन्ड्री का मतलब क्या है यह खोजने आएँगे तब
आपको इन उपेक्षित-तुच्छ समझे जाने वाले इंसानों के अस्तित्व का, उनकी वेदनाओं का
अहसास हुआ तो
फैन्ड्री की आपकी तलाश
और मैंने बनाकर रखा हुआ रहस्य दोनों फलीभूत हुए, ऐसा कहा जा सकेगा.

असल में फैन्ड्री ये कोई रहस्य नहीं.
वह एक आमंत्रण है हम सबके लिए
कि आएं और स्वीकार करें इस कटु यथार्थ को
जिस से हमेशा हम आँख बचाकर निकल जाना चाहते हैं...
जिसे हरदम हम छुपाते आए किसी महारोग की भांति
एड्स की तरह.
मगर जब इस बीमारी का इलाज होगा
हम स्वीकार करेंगे कि हम रोगग्रस्त हैं
तभी एक निरोग, ममतामयी सुबह की संभावना तैयार होगी.



[i] महाराष्ट्र की एक पिछड़ी घुमंतू जाति जिसका पारंपरिक काम पत्थर तोड़ना है.

Thursday, February 13, 2014

पेंगुइन को अरुंधति की फटकार



अमेरिकी लेखक वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को पेंगुइन ने एक अनजान से कट्टर हिंदू संगठन के दबाव में `भारत` के अपने ठिकानों से हटाने का फैसला किया है। मशहूर लेखिका-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय जिनकी खुद की किताबें भी इस प्रकाशन से ही आई हैं, ने पेंगुइन को यह कड़ा पत्र लिखा है जो Times of India में छपा है।पत्र का हिंदी अनुवाद:

तुम्हारी इस कारगुजारी से हर कोई स्तब्ध है। तुमने एक अनजान हिंदू कट्टरवादी संस्था से अदालत के बाहर समझौता कर लिया है और तुम वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को भारत के अपने किताबघरों से हटाकर इसकी लुगदी बनाने पर राजी हो गए हो। कोई शक नहीं कि प्रदर्शनकारी तुम्हारे दफ्तर के बाहर इकट्ठा होकर अपनी निराशा का इजहार करेंगे।

कृपया हमें यह बताओ कि तुम इतना डर किस बात से गए? तुम भूल गए कि तुम कौन हो? तुम दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शानदार प्रकाशकों में से हो। तुम प्रकाशन के व्यवसाय में बदल जाने से पहले और किताबों के मॉस्किटो रेपेलेंट और खुशबुदार साबुन जैसे बाज़ार के दूसरे खाक़ हो जाने वाले उत्पादनों जैसा हो जाने से पहले से (प्रकाशन में) मौज़ूद हो। तुमने इतिहास के कुछ महानतम लेखकों को प्रकाशित किया है। तुम उनके साथ खड़े रहे हो जैसा कि प्रकाशकों को रहना चाहिए। तुम अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे हिंसक और भयावह मुश्किलों के खिलाफ लड़ चुके हो। और अब जबकि न कोई फतवा था, न पाबंदी और न कोई अदालती हुक्म तो तुम न केवल गुफा में जा बैठे, तुमने एक अविश्वसनीय संस्था के साथ समझौते पर दस्तखत करके खुद को दीनतापूर्ण ढंग से नीचा दिखाया है। आखिर क्यों? कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए जरूरी हो सकने वाले सारे संसाधन तुम्हारे पास है। अगर तुम अपनी ज़मीन पर खड़े रह पाते तो तुम्हारे साथ प्रबुद्ध जनता की राय और सारे न सही पर तुम्हारे अधिकांश लेखकों का समर्थन भी होता। तुम्हें हमें बताना चाहिए कि आखिर हुआ क्या। आखिर वह क्या है, जिसने तुम्हें आतंकित किया? तुम्हें अपने लेखकों को कम से कम स्पष्टीकरण देना तो बनता ही है।

चुनाव में अभी भी कुछ महीने बाकी हैं। फासिस्ट् अभी दूर हैं, सिर्फ अभियान में मुब्तिला हैं। हां, ये भी खराब लग रहा है पर फिर भी वे अभी ताकत में नहीं हैं। अभी तक नहीं। और तुमने पहले ही दम तोड़ दिया।

हम इससे क्या समझें? क्या अब हमें सिर्फ हिन्दुत्व समर्थक किताबें लिखनी चाहिए। या `भारत` के किताबघरों से बाहर फेंक दिए जाने (जैसा कि तुम्हारा समझौता कहता है) और लुगदी बना दिए जाने का खतरा उठाएं? शायद पेंगुइन से छपने वाले लेखकों के लिए कुछ एडिटोरियल गाइडलाइन्स होंगी? क्या कोई नीतिगत बयान है?
साफ कहूं, मुझे यकीन नहीं होता, यह हुआ है। हमें बताओ कि यह प्रतिद्वंद्वी पब्लिशिंग हाउस का प्रोपेगंडा भर है। या अप्रैल फूल दिवस का मज़ाक था जो पहले ही लीक हो गया। कृपया, कुछ कहिए। हमें बताइए कि यह सच नहीं है।
अभी तक मैं से पेंगुइन छपने पर बहुत खुश होती थी। लेकिन अब?
तुमने जो किया है, हम सबके दिल पर लगा है।
-अरुंधति रॉय