Saturday, August 30, 2008

दे देना - योजेफ़ तोरनेई (हंगरी कवि)

प्यारी को तुम्हारी जब ले जाने आयेंगे
तुम उसे उनके सुपुर्द कर देना
ऊपर से नीचे तक
उसकी निश्वास सहित
त्वचा, वर्ण, दीठ सहित
मन के रहस्य सहित
और इसके साथ उसके पहनने ओढ़ने, निर्वस्त्र होने का ढंग भी
पुलक भरी सिहरनें,
उसका दुलारना
सब उसकी दुलराई देह सहित
दे देना ही होगा
उसका वह न जाने कहां खो जाने का मन
कभी-कभी का वह खुल बैठना रात में,
साथ में वह थकान।
बड़ी-बड़ी आँखें बादामी
कजरारी पलकें और साथ में कनबितयां
उसकी जांघों की फड़कन के अतिरिक्त
उसकी अतृप्ति के क्षण भी
उसकी आसक्ति की तरंग का चढ़ना-उतरना
उस देशी से दीखते चेहरे के साथ-साथ
उसके विदित और संतुलित जीवन के साथ-साथ
तुमको देना ही है।
(अंग्रेजी से अनुवाद - रघुवीर सहाय)

बरसों पहले मेरे एक मित्र सुधाकर भट्ट ने एक किताब दी थी- आधुनिक हंगरी कविताएं। बाद में यह किताब एक अन्य मित्र ने ले ली। आज पुस्तक मेले में यह किताब फिर दिखाई दी तो मैंने इसे लेने में जरा देर नहीं लगाई। इसी से ली गई है यह कविता।

Friday, August 22, 2008

चूतिया नहीं वजाइनल कहते हैं संस्कृतपुरुष

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में २१ अगस्त २००८ को `हिन्दी का भविष्य और भविष्य की हिन्दी` विषय पर गोष्ठी के दूसरे सत्र में रमेश चन्द्र शाह बोले। उनका जोर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी पर था। अपने व्याख्यान के बाद एक श्रोता के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ही देश को एकता के सूत्र में बाँध सकती है, न कि हिन्दुस्तानी कही जाने वाली हिन्दी। इस सत्र के तुंरत बाद लंच हुआ। मुझे यह देखर हैरानी हुई कि शाह साहब कुछ युवकों को कह रहे थे- तुम्हें जवाब देना चाहिए। उनकी भाषा में ही मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए। साहित्य पर उनका ठेका है क्या? मुझ अपरिचित को बातें सुनते देख वे युवक इधर-उधर हो गए। मैंने कुछ समझने की कोशिश की और कुछ समझा भी। (जाहिर है कि शाह अपने व्याख्यान को लेकर सवाल उठाने वालों और अपने समर्थकों की चुप्पी को लेकर नाराज होंगे) मैंने एक स्टुडेंट से ही पता किया तो मालूम हुआ कि जिन युवकों से शाह साहब मुखातिब थे, वे अखिल विद्यार्थी परिषद् से जुड़े शावक थे।
बहरहाल आगे बढ़ते हैं और गोष्ठी के बाहर बन रही या चल रही हिन्दी का रूप देखते हैं कि वो कितनी संस्कृतनिष्ठ है। रमेश चन्द्र शाह और राजकिशोर की हाय-हलो होती है। किसी बात पर राजकिशोर कहते हैं कि हिन्दी का समाज चूतिया समाज है। शाह साहब- कृतघ्न है। राजकिशोर- नहीं, नहीं चूतिया है। शाह साहब लजाने का अभिनय करते हुए कहते हैं- चूतिया नहीं वजाइनल कह लेता हूँ। वजाइनल है। राजकिशोर- वजाइनल नहीं फिर वजाइनीज कहिये। कुछ देर बाद कोई एक कहता है कि हिन्दी में काम करना शव साधना है। दूसरा कहता है, शव सम्भोग है। फ़िर दोनों कहते हैं, हाँ शव सम्भोग है।

Monday, August 18, 2008

कब तक हिफाजत का वचन लेगी बहन

मेरी एक दोस्त का फ़ोन आया. एक संगठन में काम कर चुकी है और फिलहाल भी घर से दूर रहकर काम कर रही है. उसकी दिक्कत यह है कि उसकी सरकारी नौकरी लग गयी है और उसके परिवार ने भागदौड़ कर होम डिस्ट्रिक्ट में पोस्टिंग का जुगाड़ कर लिया है. मेरी दोस्त जानती है कि होम पोस्टिंग का मतलब है, पूरी तरह परिवार के ढांचे में जकड जाना. उसका भाई उसे प्यार करता है पर इस मामले में वो बाप के साथ है. मेरी दोस्त का फ़ोन राखी के त्यौहार वाले दिन आया था.
इसी दिन पता चला कि संतलेश को उसको देवर ने बेच दिया है. संतलेश के पति का कत्ल हो गया था और इस इल्जाम में उसे ही फंसा दिया गया था. उसके भाई हैं पर वे मुकदमे में पैसा खर्च नहीं करना चाहते. आख़िर संतलेश को उसके देवर ने इस शर्त के साथ छुडा दिया कि वो धरती में हिस्सा नहीं मांगेगी और एक आदमी के साथ रहने लगेगी. संतलेश के भाई का कहना है कि बहन ने उसकी नाक कटवा दी है और वह उसके लिए मर गयी है.
मेरी एक मौसी है. मौके-बेमौके उसे भाई के घर से कपड़े-लत्ते और दूसरे उपहार मिलते रहे हैं. अब यह सिलसिला बंद हो गया है. उसे खतरनाक विशेषणों से नवाजा जा रहा है. उसका कसूर सिर्फ़ यह है कि उसने पिता की संपत्ति से अपने हिस्सा मांगने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है.
मेरे पिता आदर्शवादी हैं. घोर संकटों में भी पैसे का मोह नहीं किया. बेटियों को पढाया-लिखाया. वकील भी हैं पर पिता की संपत्ति में बेटी के हिस्से की बात उन्हें नागवार गुजरती है.
अधिकतर ऐसा ही है. भाई अपनी बहनों पर कुर्बान रहते हैं. उनकी शादी में खूब धूम करने को तत्पर. शादी के बाद उपहार देने या गले मिलकर रोने को भी. संपत्ति में हिस्से की बात चले तो बहन के कत्ल को तैयार. बहन प्यार कर ले या अपनी मर्जी से शादी करे तो भी उसकी खैर नहीं. हमारे महापुरुषों का भी इन मसलों पर यही रुख रहा है, भारतेंदु जैसे लेखकों का भी.
असल में ये हमारी महान परम्परा है. राखी के त्यौहार की यह भी अजीब बात है कि बहन राखी बांधे और हिफाजत का वचन ले. ऐसा क्यों नही कि बहन अपनी हिफाजत लायक ख़ुद बने. खुदमुख्तार हो, अपने फैसले ख़ुद ले. लेकिन यह हमारी परम्परा के खिलाफ है.
यहां तो राखी का त्योहार भी रस्म है और फिर `ऑनर` के नाम पर उन्हीं बहनों का कत्ल भी।

Sunday, August 10, 2008

Mahmoud Darwish (13 March 1941 – 9 August 2008)



Mahmoud Darwish was born in 1942 in Barwa, Palestine (now Israel), into a land-owning Sunni Muslim family. Following the Israeli occupation in 1948 his family fled their hometown. He attended the University of Moscow, USSR, for one year in 1970, and then moved to Cairo, Egypt. As a young man Darwish faced house arrest and imprisonment his political activism and for publicly reading his poetry. His collections of poetry include Stage of Siege (2002), The Adam of Two Edens (2001), Mural (2000), Bed of the Stranger (1999), Psalms (1995), and The Music of Human Flesh (1980). Darwish's awards and honors include the Ibn Sina Prize, the Lenin Peace Prize, the Lotus prize from the Union of Afro-Asian Writers, France's Knight of Arts and Belles Lettres medal, the Prize for Cultural Freedom from the Lannan Foundation, and the USSR's Stalin Peace Prize. He was an editor for a Palestine Liberation Organization monthly journal and the director of the group's research center. In 1987 he was appointed to the PLO executive committee, and resigned in 1993 in opposition to the Oslo Agreement. In 1996 Darwish returned to Israel after twenty-six years of exile to visit his birthplace, and settled in Ramallah in the West Bank. He was currently the editor-in-chief and founder of the literary review Al Karmel, published out of the Sakakini Centre since 1997

Friday, August 8, 2008

आज भगत सिंह होते तो?

कल एक लैब में टेस्ट के लिए अपनी बारी का इन्तिज़ार करते हुए अखबार में छोटी सी ख़बर पढ़ी कि संसद में भगत सिंह की मूर्ति लगाई जाएगी. तब से मन बुरी तरह बेचैन है. ये वही संसद है, जहाँ भगत सिंह और साथियों ने साम्राज्यवादियों के कान खोलने के लिए बम फेंका था. ये वही संसद है जहाँ साम्राज्यवादियों के पिट्ठू और सांप्रदायिक ताकतों की पार्टी के हीरो सावरकर की मूर्ति लगाई जा चुकी है और इन दिनों लोकतंत्र के मसीहा बताये जा रहे सोमनाथ `जी` सावरकर को लेकर भावुक हो रहे थे. ये वही संसद है, जहाँ साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के सरदार अमेरिका को देश बेचने के लिए हमारे नेता उतावले रहते हैं (परमाणु मसले पर बहस का नज़ारा भी याद आता है). ओह, भगत सिंह आप होते तो ऐसी संसद के साथ आज क्या सलूक करते?

Monday, August 4, 2008

ज़ाफर ज़टल्ली (जान जाये या रहे, न रहें कहे बगैर)

हरियाणा में सांस्कृतक विरासत के सिलसिले में मनमोहन के मुंह से कई बार ज़ाफर ज़टल्ली का जिक्र सुना कि वे नारनौल के रहने वाले शायर थे। ज़टल्ली का मतलब है गाली-गलौज करने वाला और इस शायर को इससे भी परहेज नहीं था और इसीलिए उन्होंने अपना उपनाम ज़टल्ली रख लिया था। तबीयत से विद्रोही थे और सच (वो भी अपने अंदाज में) कहने से नहीं चूकते थे। बादशाह फ़रुख़शियर के शासन की आलोचना कर दी, फिर माफी नहीं मांगी, मौत ईनाम में मिली। मनमोहन ने ही बताया था कि अलीगढ़ में नईम ने उन पर काम किया था जो शायद अप्रकाशित है। बहरहाल नया पथ के ताजा अंक में अली जावेद ने उन पर लिखा है और उनकी कुछ रचनाएं भी दी हैं। उन्हीं में से एक-

दर बयाने क़नाअत
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दिला दर मुफ्लिसी सबसे अकड़ रह
ब आलम बेकसी सबसे अकड़ रह
चिकन और ज़र का चीरा पश्म कर बोझ
फटी१ पग बांध कर सबसे अकड़ रह
न कर ख़ाहिश तू जामा बाफ्ते२ का
कोहन3 दुगला4 पहन सबसे अकड़ रह
अगर शलवर न बाशद कसको ग़म है
लंगोटा खींचकर सबसे अकड़ रह
जो कुछ भी हाथ लगा छिप छिपाकर
खुशी हो डंड कर सबसे अकड़ रह
अगर ये भी मुयस्सर जो न होवे
अकेला जूं अलिफ़ सबसे अकड़ रह
१-पगड़ी, २-सूत या रेशम या सूत से बना कपड़ा ३- पुराना, ४- रुईदार लिबास