Saturday, January 28, 2012

थियो एंजोलोपॉलस : `अतीत कभी अतीत नहीं होता`


महान ग्रीक फिल्मकार थियो एंजोलोपॉलस का 24 जनवरी 2012 मंगलवार को एथेंस में सड़क दुर्घटना में निधन हो गया। 76 वर्षीय एंजोलोपॉलस के निधन की जानकारी कम से कम मुझे हिंदी के वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी की फेसबुक वॉल से मिली। यहां असद जी की उसी पोस्ट का भारतभूषण तिवारी द्वारा किया गया अनुवाद दिया जा रहा है-


थियो एंजेलोपॉलस नहीं रहे. पता नहीं कैसे वर्णन किया जाए इस क्षति का: वे हमारे समय की सबसे अनमोल फ़िल्म शख्सियत थे. उनकी काव्यात्मक दृष्टि, ऐतिहासिक फैलाव, राजनीतिक सरोकार, और परिवर्तन, निर्वासन और पराजय इन विषयों से उनकी सतत भिड़ंत उन्हें सिनेमा की दुनिया में एक अद्वितीय हस्ती बनाते हैं. उन्हें ग्राम्शियन ढंग का फ़िल्मकार भी कहा जा सकता है. 
उनकी कार्य पद्धति के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बड़े सामान्य ढंग से कहा, "मैं फ़िल्म वैसे ही शूट करता हूँ जैसे साँस लेता हूँ. "

उनके एक साक्षात्कार से लिए गए कुछ उद्धरण:

"दुनिया से जो मुझे मिल रहा है, मैं उसका संवेदनशील राजप्रतिनिधि बनने का प्रयास करता हूँ. यहाँ तक कि ऐतिहासिक विषय वस्तु पर बनाई गई मेरी फिल्में भी उस बुनियाद को ज़ाहिर करती हैं जिन पर हमारा आज तामीर है. यहाँ की तानाशाही की समस्या से मैं क्यों अक्सर मुखातिब होता हूँ? यह इस समस्या की जड़ और उसकी फ़ितरत को बयां करने की कोशिश है. मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि अगर कोई लेखक/कलाकार आज को समझने की जद्दोजहद में है, तो उसके लिए अतीत का अन्वेषण करना और वहां किसी न किसी परिघटना के कारणों को ढूंढना अपरिहार्य होगा."
...
"बहुत से लोगों का कोई अतीत नहीं होता. व्यक्तिगत तौर पर मैं उन में दिलचस्पी रखता हूँ जिनका अतीत है. इसके अलावा, अतीत कभी अतीत नहीं होता. वह वर्तमान और भविष्य दोनों में होता है. जब मैं फ़िल्म बना रहा होता हूँ, तब मैं किसी चीज़ की बुनियाद रखने की कोशिश कर रहा होता हूँ न कि उसे बर्बाद करने की. बर्बादी से बर्बादी ही होती है. जो मेरे आसपास हो रहा है मैं उस से रहित नहीं हो सकता. नागरी कर्तव्य और ज़िम्मेदारी कलाकार के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अभिलक्षणों में से एक है."
...
"मैं न तो निराशावादी हूँ, और न आशावादी. आशावादी होने का मतलब है तथ्यों को साफ़-साफ़ न देखना. कुछ कुछ मतलब यह कि इंसान दुनिया में बेहद सार्थक परिवर्तन के लिए हस्तक्षेप नहीं दे सकता. निराशावादी होने का मतलब है बेहतर दुनिया के सपने को, संभावना को छोड़ देना, तज देना. दोनों ही संकल्पनाओं में गतिरोध आ जाता है. व्यक्तिगत तौर पर मैं तर्कपूर्ण ढंग से सोचने की, साफ़-साफ़ देखने की कोशिश करता हूँ."
...
"जो उन दिनों हमारे भविष्य के प्रति निराशाजनक संभावनाओं का सिलसिला नज़र आती थीं, हर उस चीज़ की अब पुष्टि हो रही है. मैं उस पीढ़ी का हूँ जो सोचती थी कि हम दुनिया को बदल डालेंगे. 2000 के आसपास ऐसा लगा कि सपना टूट गया है."

Sunday, January 22, 2012

कुमार अम्बुज की एक कविता


कुमार अम्बुज की यह कविता 2009 में उनके ब्लॉग पर पढ़ी थी। मेरी यह अत्यंत प्रिय कविता और इस कविता के बाद में उनकी टिपण्णी वहीं से साभार है।



मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर की रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान-सा था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट 
जो इस वक्‍त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा 
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए

वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ़ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश 
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश 
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होठों पर धुएँ के साँवले निशानों को छूकर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच 
संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से

कविता पढ़ते हुए वह 
बार-बार वज़न रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)
उसके माथे पर साढ़े तीन सलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक

मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी - 
जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन अचानक उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना 
वह एक कवि का गाना था 
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा

एक घूँट लेकर उसने कहा 
कि तुम देखना मैं अगला आलाप लूँगा
और सुबह हो जाएगी

अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा मैं बहुत कुछ न कर सका इस संसार को बदलने के लिए
मैं शायद ज्‍यादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा

उधर मेरा प्रिय कवि 
मंच से उतर कर 
चला आ रहा था अपनी ही चाल से।
---------


दस बरस पहले की इस कविता के बारे में अनेक पाठकों-मित्रों-आलोचकों की राय रही है कि यह हिन्दी के किसी कवि विशेष को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। आज कुछ मुखर होने का जोखिम लेकर मैं कहना चाहता हूँ कि यह कविता किसी कवि को केन्द्र में रखकर नहीं है बल्कि उसके बहाने `समकालीन कविता के पाठ` -रिसाइटल- के पक्ष में लिखी गई है।


कविता को गाकर, चीखकर या अभिनय के साथ पढ़ने की पक्षधरता के बरअक्स यह मानवीय दुर्बलताओं के पाठ के साथ कविता का पक्ष रखने की भी एक कोशिश है। दूसरे, इसमें किसी कवि विशेष की नहीं बल्कि हमारे समय के अनेक कवियों की काव्यपाठ करने की स्मृतियाँ और बुदबुदाहटें हैं।

Wednesday, January 18, 2012

थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ


भारत भूषण तिवारी के ब्लॉग अबे कस्बाई मन! पर घूमते-घूमते `थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ` के बारे में पढ़ा। नाना पाटेकर के डर से फिल्म देखने से बचना चाह रहा था लेकिन देख ही डाली। खूबसूरत फिल्म। भारत भाई की ही वही पुरानी पोस्ट शेयर किए दे रहा हूँ- 



थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ

'थोड़ा सा रूमानी हो जाएँ' याद है? अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित सपनों और हकीकत की यह लिरिकल दास्तान पहली बार दूरदर्शन पर बहुत पहले देखी थी. हॉलीवुड म्यूजिकल के अंदाज़ में बनाई गयी यह अनूठी फ़िल्म मन के किसी कोने में धँस गयी. अभी दो-तीन सालों पहले अपने जर्सी सिटी वाले गुजराती भाई की वीडियो लाइब्रेरी से लाकर यह फ़िल्म फिर देखी. और चार-छः महीनों पहले यूट्यूब के सौजन्य से टुकडों-टुकडों में देखी.

भयंकर गर्मी से झुलसा हुआ बारिश के लिए तरसता मध्य भारत का एक पहाड़ी क़स्बा, एक 'ज़रा-हटके' या पारम्परिक सन्दर्भों में अति-साधारण लड़की जो शादी की उम्र पार करने को है, एक सम्वेदनशील मगर चिन्तित पिता, एक बिलकुल 'बड़े भैया टाइप' बड़े भैया, एक जवान होता छोटा लड़का जिसे बड़े भैया बच्चा ही मानते हैं. फिर एंट्री होती है 'धृष्टधुम्न पद्मनाभ प्रजापति नीलकंठ धूमकेतु बारिशकर' की. यह बड़बोला ठग उनके घर में घुस आता है और पाँच हज़ार रुपयों के बदले मात्र 48 घंटों में बारिश करवाने की गारण्टी देता है. बड़े भैया और बिन्नी उसे झूठा और मक्कार कहते हैं मगर पापा और छोटा बेटा मानते हैं कि ट्राई करने में क्या हर्ज़ है. और उस एक गर्मी की रात में बारिशकर बिन्नी को उसके अन्दर की सुन्दरता से परिचित करवाता है, उसे अपने सपनों में विश्वास करना सिखाता है. जवान होते लड़के में वह इतना आत्म-विश्वास भर देता है कि ज़रुरत पड़ने पर बड़े भैया को घूँसा भी मार सके.

फ़िल्म के बिलकुल असली लगने वाले पात्र ,काव्यमय संवाद और छोटे-छोटे मधुर गीत इसे अद्भुत 'फेअरी टेल' का रूप देते हैं.'पोएट्री इन मोशन' शायद इसे ही कहते होंगे. फ़िल्म के अंत में बड़ी साफगोई से अमोल पालेकर ने यह बता दिया कि इस फिल्म की कथा अंग्रेजी फिल्म/नाटक ' दि रेनमेकर' से ली गयी है.
इसीलिए बड़े दिनों से 'दि रेनमेकर' देखने का मन था; कल रात वो भी देख ली. 1956 में बनी, जोसफ अन्थोनी द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाई है केथरीन हेपबर्न और बर्ट लैन्कस्टर. यह फ़िल्म भी अच्छी लगी, विशेषकर केथरीन हेपबर्न का शानदार अभिनय. वैसे अपने देसी संस्करण में अनीता कँवर ने बहुत अच्छा अभिनय किया है, परन्तु हिन्दी उच्चारण की त्रुटियों को नज़र अंदाज़ कर दिया जाए तो यह फिल्म नाना पाटेकर की है. एक लवेबल लम्पट की भूमिका उन्होंने बड़ी शिद्दत के साथ निभाई है. मगर 'फेअरी टेल' शायद अपनी भाषा में ज्यादा मोहक लगती है. यह अंग्रेजी फ़िल्म देखकर फिर एक बार अमोल पालेकर को सैल्यूट करने का मन हुआ. लगा कि हॉलीवुड फ़िल्मों की कॉपी करने की अमोल पालेकर जैसी कला (और ईमानदारी भी) अन्य निर्देशकों में भी आ जाये.
हिन्दी फ़िल्म का टाइटल गीत बहुत मधुर है और बोल भी उतने ही आकर्षक है. यूट्यूब पर बानगी देखिये (वीडियो में तस्वीर शायद इसे अपलोड करने वाले सज्जन की ही है). वैसे तो पूरी फिल्म ही यूट्यूब पर उपलब्ध है.

Tuesday, January 10, 2012

शुभम श्री की कविताएं


ये कोई नई बात नहीं
लंबी परंपरा है
मासिक चक्र से घृणा करने की
'अपवित्रता' की इस लक्ष्मण रेखा में
कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते हैं संस्कारों को...

झेंपती हुई टेढ़ी मुस्कराहटों के साथ खरीदा बेचा जाता है इन्हें
और इस्तेमाल के बाद
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती हैं
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा


रास्ते में पड़े हों तो
मुस्करा उठते हैं लड़के
झेंप जाती हैं लड़कियाँ


हमारी इन बहिष्कृत दोस्तों को
घर का कूड़ेदान भी नसीब नहीं
अभिशप्त हैं वे सबकी नजरों से दूर
निर्वासित होने को

अगर कभी आ जाती हैं सामने
तो ऐसे घूरा जाता है
जिसकी तीव्रता नापने का यंत्र अब तक नहीं बना...

इनका कसूर शायद ये है
कि सोख लेती हैं चुपचाप
एक नष्ट हो चुके गर्भ बीज को

या फिर ये कि
मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत

करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए

'जहाँ तहाँ' अनावृत ...
पता नहीं क्यों

मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार

गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक...


कितनी मुलायम हो जाती है
माथे की शिकन
एक बेटी का पिता बनने के बाद

खुद-ब-खुद --खुद छूट जाता है
मुट्ठियों का भिंचना, नसों का तनना
कॉफी हाउस में घंटों बैठना

धीरे-धीरे संयत होता स्वर
धीमे...धीमे...पकती गंभीरता
और, देखते...देखते... मृदु हो उठता चेहरा

एक बेटी का जन्म लेना
उसके भीतर उसका भी जन्म लेना है
सफेद बालों की गिनती
ओवरटाइम के घंटे
सबका
निरंतर बढ़ना है

बेटी का बाप होना
हर लड़के के नाम के साथ 'जी' लगाना है
या शायद...चरागाह में उगा पौधा होना

लेकिन
(बहुत मजबूर हो कर लिया गया कर्ज
और उसके सूद तले दबा कर्जदार हो कर भी
बेटी का पिता होना
एक साहसी सर्जक होना है
(या सर्जक मात्र केवल!)


(1)
तुमने मुझे  क्या बना दिया, सिमोन ?
सधे कदमों से चल रही थी मैं

उस रास्ते पर
जहाँ

जल-फूल चढ़ाने लायक
'पवित्रता'
मेरे इंतजार में थी

ठीक नहीं किया तुमने...
ऐन बीच रस्ते धक्का दे कर
गलीज भाषा में इस्तमाल होने के लिए

बोलो ना सिमोन, क्यों किया तुमने ऐसा ?
(2)

'तुम
मेरे भीतर शब्द बन कर
बह रहे हो

तिर रहा है प्यास-सा एहसास
बज रही है
एक कोई ख़ूबसूरत धुन'

काश ऐसी कविता लिख पाती
तुमसे मिलने के बाद

मैंने तो लिखा है
सिर्फ
सिमोन का नाम

पूरे पन्ने पर
आड़े तिरछे
(3)

मुझे पता है
तुम देरिदा से बात शुरू करोगे

अचानक वर्जीनिया कौंधेगी दिमाग में
बर्ट्रेंड रसेल को कोट करते करते

वात्स्यायन की व्याख्याएँ करोगे
महिला आरक्षण की बहस से

मेरी आजादी तक
दर्जन भर सिगरेटें होंगी राख

तुम्हारी जाति से घृणा करते हुए भी
तुमसे मैं प्यार करूँगी

मुझे पता है
बराबरी के अधिकार का मतलब
नौकरी, आरक्षण या सत्ता नहीं है
बिस्तर पर होना है
मेरा जीवंत शरीर

जानती हूँ...

कुछ अंतरंग पल चाहिए
'सचमुच आधुनिक' होने की मुहर लगवाने के लिए

एक 'एलीट' और 'इंटेलेक्चुअल' सेक्स के बाद
जब मैं सोचूँगी

मैं आजाद हूँ
सचमुच आधुनिक भी...
तब

मुझे पता है
तुम एक ही शब्द सोचोगे
'चरित्रहीन'

(4)

जानती हो सिमोन,

मैं अकसर सोचती हूँ
सोचती क्या, चाहती हूँ

पहुँचाऊँ
कुछ प्रतियाँ 'द सेकंड सेक्स' की

उन तक नहीं
जो अपना ब्लॉग अपडेट कर रही हैं

मीटिंग की जल्दी में हैं
बहस में मशगूल हैं

'सोचनेवाली औरतों' तक नहीं

उन तक

जो एक अदद दूल्हा खरीदे जाने के इंतजार में

बैठी हैं

कई साल हो आए जिन्हें
अपनी उम्र उन्नीस बताते हुए

चाहती हूँ

किसी दिन कढ़ाई करते
क्रोशिया चलते, सीरियल देखते

चुपके से थमा दूँ एक प्रति
छठे वेतन आयोग के बाद

महँगे हो गए हैं लड़के
पूरा नहीं पड़ेगा लोन

प्रार्थना कर रही हैं वे
सोलह सोमवार

पाँच मंगलवार सात शनिवार
निर्जल...निराहार...


चाहती हूँ

वे पढ़ें

बृहस्पति व्रत कथा के बदले
तुम्हें, तुम्हारे शब्दों को
जानती हो
डर लगता है
पता नहीं

जब तक वे खाना बनाने
सिलाई करने, साड़ियों पर फूल बनाने के बीच

वक्त निकालें
तब तक

संयोग से कहीं सौदा पट जाए
और
तीस साल की उम्र में

इक्कीस वर्षीय आयुष्मती कुमारी क
परिणय सूत्र में बँधने के बाद

'द सेकंड सेक्स' के पन्नों में
लपेट कर रखने लगें अपनी चूड़ियाँ

तब क्या होगा, सिमोन ?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एमए प्रथम वर्ष की छात्रा शुभम श्री की इन कविताओं की ओर अनिल जनविजय ने ध्यान आकृष्ट कराया। उनकी ये कविताएं hindisamay.com से ली गई हैं। वहां उनकी कुछ और कविताएं भी पढ़ी जा सकती हैं। 

Thursday, January 5, 2012

बहरहाल सुलह-सफाई : गो निराला बहस से बाहर ही रहे



वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने निराला को लेकर खुद पर लगी तोहमत पर नया मेल जारी किया है। उसका मजमून-

`निराला की अपाठ्यता का पटाक्षेप


मुझे एक क्षीण-सी आशा थी कि केदारजी इस मसले को लेकर अपनी ओर से कुछ न कुछ कहेंगे और वह सही सिद्ध हुई.वे इन्टरनेट और ब्लॉग-विश्व से अनभिज्ञ हैं और ई-मेल आदि भी नहीं करते, किन्तु इस प्रकरण को लेकर उनके कुछ शुभचिंतकों ने उन्हें सूचना दी  और उन्होंने तत्काल आज सुबह मुझे  फोन किया और एक भावनापूर्ण बातचीत  में  अधिकृत किया है कि मैं नेट के ज़रिये उनकी तरफ से सभी हिंदी लेखकों और निराला-प्रेमियों को सूचित कर दूं कि उन्होंने अलाहाबाद के अपने भाषण में निराला की 'तुलसीदास',' राम  की शक्ति-पूजा' और 'महाराज शिवाजी का पत्र' सरीखी कविताओं को लेकर मेरी दृढ आपत्ति का उल्लेख अवश्य किया था किन्तु यह क़तई नहीं कहा था कि विष्णु खरे के लिए निराला "अपाठ्य" हैं.केदारजी का कहना है कि उनके उस वक्तव्य को असावधान और ग़ैर-जिम्मेदाराना ढंग  से प्रकाशित-अनूदित कर दिया गया है. इस प्रकरण पर गहरा दुःख प्रकट करते हुए उन्होंने  मुझसे तथा अन्य सैकड़ों निराला-प्रेमियों से इस भ्रान्ति के लिए मार्मिक शब्दों में हार्दिक खेद व्यक्त किया है.केदारजी ने यह भी कहा है कि  वे उपयुक्त सार्वजनिक  अवसर और मंच पर भी इस ग़लतबयानी   का खंडन और निराकरण करेंगे.
हमारे वरिष्ठ और प्रिय कवि केदारनाथ सिंह के इस स्पष्टीकरण और खेद-प्रकाश  के बाद,जो  उनके अनुमोदन के लिए उन्हें पढ़ कर सुना दिया गया था,मुझे उम्मीद है कि इस प्रसंग पर आगे कोई विवाद नहीं होगा.फिर भी इसे सत्यापित करने के लिए कोई चाहे तो उनसे उनके टेलीफोन 09868637566 पर संपर्क कर सकता है, किन्तु ध्यान रहे कि केदारजी की मा कलकत्ता में गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं.
विष्णु खरे
पुनश्च:    'रविवार','एक-जिद्दी-धुन' तथा 'भड़ास' के ब्लॉगमास्टरों से विशेष अनुरोध है कि इस पत्र को शीघ्रातिशीघ्र अवश्य  प्रकाशित  करें.धन्यवाद.   वि.ख.`

Wednesday, January 4, 2012

`कारनामा-ए-केदारनाथ सिंह` : निराला निंदा की तोहमत से आहत हैं खरे जी



वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने अपने मित्रों परिचितों को एक मेल सर्कुलेट किया है जो घूमता हुआ मुझ तक भी पहुंचा है। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह के हवाले से कहीं छपा है कि खरे जी महाकिव निराला को   अपाठ्य मानते हैं। इससे हैरान और आहत खरे जी की यह टिपण्णी उनका पक्ष भर ही नहीं है, यह सोचने पर भी मजबूर करती है कि हिंदी की दुनिया में आखिर चल क्या रहा है। युवाओं पर जिस गैरजिम्मेदारी की तोहमत अक्सर लगती रही है, इसकी जड़ें पीछे ही तो नहीं हैं?

खरेजी के मेल का मजमून :
यदि मामला  निराला से सम्बद्ध न होता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण  टिप्पणी शायद न लिखी जाती.अनुरोध है कि संभव  और उचित हो तो कृपया अन्य साहित्य-जागरूक  मित्रों तक पहुँचाएँ.केदारजी से सार्वजनिक क्षमा चाहता हूँ.
सधन्यवाद,
विष्णु खरे



यदि वरिष्ठ कवि-आलोचक विजय कुमार का फोन न आता तो यह सब न लिखा जाता.पिछले एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि मैंने अपने किस लेख में कब लिखा है कि मैं निराला को अपाठ्य कवि मानता हूँ.मुझे उनके इस प्रश्न का सन्दर्भ कुछ याद तो आया किन्तु मैंने उनसे माजरा जानना चाहा.बोले कि गाँधी हिंदी विश्वविद्यालय की अंग्रेज़ी पत्रिका  में केदारनाथ सिंह का कोई अनूदित लेख या वक्तव्य प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने कहा है कि विष्णु खरे निराला को अपाठ्य मानता है.
मैंने विजयजी से यह नहीं पूछा कि वे वर्धा की बेहूदा और खरदिमाग ढंग से संपादित-प्रकाशित  कल्पनाशून्य  पत्रिकाएँ पढ़ते ही क्यों हैं – यद्यपि हिंदी में कूड़ा पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है - किन्तु मामले की गंभीरता से सजग हुआ.केदारजी ने शायद अलाहाबाद के अपने किसी भाषण में उस तरह का  कुछ कहा था जिसे किसी पत्रिका ने उद्धृत भी किया था किन्तु अधिकांश हिंदी अखबारों और साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसे भाषणों का जो अनर्गल चर्बा छपता है वह अविश्वसनीय और रद्दी  के लायक होता है.लेकिन पूरे भाषण या लेख का ऐसा हिस्सा ,भले ही आशंकित खराब अंग्रेज़ी अनुवाद में,कुछ तवज्जोह चाहता है.
केदारजी की प्रतिष्ठा ऐसी है कि उनके किसी भी वक्तव्य को,विशेषतः पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरीभाषी अंचल में, आर्षवाक्य मान लिया जाता है.यदि वह कथन विष्णु खरे को निराला का निंदक ठहराता हो तो कहना ही क्या - सैकड़ों विकलमस्तिष्कों  के मानस-मुकुल खिल-खिल जाते हैं.
हमारे यहाँ कोई यह पूछने या जानने की ज़हमत नहीं उठाना चाहता कि अमुक बात यदि कही या लिखी गयी है तो कहाँ या कब ? उसके लिखित या दृश्य-श्रव्य सबूत  या गवाह क्या और कौन हैं ? स्वयं केदारजी ने कोई हवाला नहीं दिया है.इतने बड़े कवि तथा प्रोफ़ेसर-पीर से उसका मुत्तवल्ली-मंडल भला क्यों तफ्तीश करे – बाबा वाक्यं प्रमाणं.
सच क्या है ? मैं सार्वजनिक रूप से निराला पर कभी नहीं बोला हूँ – उन पर लिखी गयी अपनी दो टिप्पणियों को अवश्य मैंने संगोष्ठियों में पढ़ा है,एक को वर्षों पहले भारत भवन में और दूसरी को पिछले तीन वर्षों में कभी हिंदी अकादेमी के तत्त्वावधान में दिल्ली में.पहली में निराला की बीसियों प्रारंभिक कविताओं की सराहना और यत्किंचित विश्लेषण हैं और दूसरी में उनकी सिर्फ एक कविता – महगू महगा रहा - की लंबी व्याख्या,क्योंकि विषय वैसा ही था.दोनों मौकों पर कुल मिला कर ढाई-तीन सौ सुधी श्रोता तो रहे होंगे,भले ही केदारजी मौजूद न रहे हों.दोनों टिप्पणियाँ शायद आयोजकों द्वारा प्रकाशित भी की जा चुकी हैं या उनके रिकॉर्ड में होंगी.मेरे पास तो हैं ही.उनमें निराला की हल्की-सी भी आलोचना नहीं है – वे एक निर्लज्ज भक्ति-सरीखे भाव से भरी हुई हैं.
इसे भले ही आत्मश्लाघा समझा जाए लेकिन मैं हिंदी के शायद उन कुछ लोगों में से हूँ जिन्होंने निराला की एक-एक कविता एकाधिक बार पढ़ रखी है.नंदकिशोर नवल द्वारा क़ाबिलियत से संपादित ‘निराला रचनावली’ के पहले दोनों – कविता – खण्डों में मेरे बीसियों पेन्सिल-निशान हैं और शेष छः खण्ड भी लगभग पूरे पढ़े हुए हैं.यह स्पष्ट ही होगा कि मैंने निराला को अपाठ्य मानकर पूरा का पूरा तो पढ़ा न होगा.
निराला से मेरी ताज़िन्दगी वाबस्तगी का एक ताज़ा उदाहरण देना चाहता हूँ.निराला के सभी समर्पित पाठक जानते हैं कि नेहरू-परिवार से,विशेषतः विजयलक्ष्मी पंडित से,उनके जटिल रागात्मक सम्बन्ध थे.उनकी कुछ कविताओं में इसके साक्ष्य हैं.यह सुविदित है कि आज़ादी के बाद निराला की बदहाली को जानकर जवाहरलाल नेहरू ने उनके लिए एक नियमित आर्थिक सहायता का प्रबंध किया था.हाल नवंबर में संयोगवश मेरी भेंट विजयलक्ष्मी की बेटी और सुपरिचित भारतीय-अंग्रेज़ी लेखिका नयनतारा सहगल से हुई, जो अब स्वयं चौरासी वर्ष की हैं.अपने बदतमीज़ दुस्साहस में मैंने उनसे निराला और उनकी मा के विषय में पूछा,और यह भी कि क्या विजयलक्ष्मीजी के मृत्योपरांत कागज़ात में निरालाजी के कोई पत्र मिलते हैं,जिनका हवाला उनकी कविताओं में है ? मुझे लगा कि मेरे इस प्रश्न से नयनताराजी अपने-आप में लौट गईं और उन्होंने मुझे अजीब ढंग से देखकर – शायद यह  मेरी कल्पना ही हो - सिर्फ इतना कहा कि ऐसे कोई पत्र नहीं हैं.मैंने तब बात को आगे नहीं बढ़ाया.लेकिन हमारे स्वनामधन्य मतिमंद हिंदी प्राध्यापकों को ऐसी चीज़ों से भला क्या लेना-देना ?
निराला का मेरे लिए क्या अर्थ है इसे ज़्यादा तूल न देते हुए मैं सिर्फ अपनी तीन कविताओं  का हवाला देना चाहूँगा.एक का शीर्षक है सरोज-स्मृति जो एक अलग तरह की सरोज की अलग तरह की स्मृति है.यह अभी प्रकाशित नहीं हुई है.दूसरी है जो मार खा रोईं नहीं जो दो बच्चियों की उनके पिता द्वारा पिटाई को लेकर है और संग्रह सबकी आवाज़ के परदे में छपी है.तीसरी कूकर है जो खुद अपनी आँख से में संकलित है और जिसकी कुछ प्रासंगिक अंतिम पंक्तियाँ इस तरह हैं :
कबीर निराला मुक्तिबोध के नाम का जाप आजकल शातिरों और जाहिलों में जारी है
उन पागल संतों के कहीं भी निकट न आता हुआ सिर्फ उनकी जूठन पर पला
छोटे मुँह इस बड़ी बात पर भी उनसे क्षमा माँगता हुआ
मैं हूँ उनके जूतों की निगरानी करने को अपने खून में
अपना धर्म समझता हुआ भूँकता हुआ.
निराला की और भी प्रकट-प्रच्छन्न उपस्थितियाँ मेरी कविताओं में होंगी और होती रहेंगी.उनकी एक कविता मेरे लिए बतौर कवि अब भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है और मेरे और उसके बीच एक लंबा कृष्ण-जाम्बवंत युद्ध चल रहा है. अपने गद्य में मुझे निराला का चमरौंधे वाला जुमला बहुत उपयोगी और मुफीद लगता है और उनका द्याखौ चुतिया कौ, हमहीं से पूछत है हिंदी का सर्वश्रेष्ठ कवि कौन है तो अपनी नकली खीझ-भरी सैंस ऑफ़ ह्यूमर में अद्वितीय है और कभी-कभी मेरे काम आता है.
तो क्या जब केदारजी यह कहते हैं कि विष्णु खरे निराला को अपाठ्य मानता है तो वह एक अनुत्तरदायित्वपूर्ण,शरारती प्रलाप है ? नहीं. वह मयपरस्ती से पैदा हुई एक अतिरंजित स्मृतिभ्रष्ट गलतबयानी है.
मैं केदारजी को अपना मित्र समझने की मुँहचाटू गुस्ताखी तो नहीं कर सकता लेकिन हाँ, वे बहुत प्यारे इंसान हैं,मुझे बर्दाश्त कर लेते हैं और उनकी सोहबतों की सौगातें मुझे मिलती  रही  हैं .उनकी संगत बहुत पुरलुत्फ,जीवंत,शेर-ओ-सुखन व ज़बरदस्त सैंस ऑफ़ ह्यूमर से मालामाल होती और करती है.श्लेषों और ज़ूमानियत की आवाजाही  लगातार  बनी  रहती  है.वे बराहे मयपरस्ती खूब खुल भी लेते हैं.साक़ी,हमप्यालों और पैमानों  पर  एक ही गर्दिश रहती है कि केदारजी को जितना शौक़ मुँह की लगी हुई से है,उसके एक-दो कश के बाद ही वे एक उतने ही खूबसूरत सुरूर में दाखिल हो जाते हैं और दो-तीन के बाद तो, अल्लाह झूठ न बुलवाए,खुद पर एक क़लन्दराना हाल-नुमा तारी कर लेते हैं.फिर उन्हें या तो मौक़-ए-वारदात पर ही आरामफ़र्मा किया जाता है या किसी गुलगोथने,नींद में मुस्कुराते हुए नौज़ाईदा की मानिंद निहायत एहतियात से हाथों-हाथ उनके दौलतख़ाने ले जाया जाता है.अगली सुबह और उसके बाद उनकी कैफियत ‘इक याद रही इक भूल गये’ की रहती है.
बात कुछ वर्षों पहले शायद बिलासपुर,छत्तीसगढ़ की है.केदारजी और मैं एक साहित्यिक आयोजन में वहाँ आमंत्रित थे.रात जवान होते-होते होटल के कमरे में अदब और बादे का दोस्ताना इजलास शुरू हुआ और बात निराला तक पहुँची.जब ‘तुलसीदास और ‘राम की शक्ति-पूजा’ सरीखी उनकी कविताओं का चर्चा हुआ तो मेरा निवेदन यह था कि मैं निराला की ऐसी पुनरुत्थानवादी,वर्णाश्रमधर्मी,मृदु-हिन्दुत्ववादियों के द्वारा इस्तेमाल की जा सकने वाली रचनाओं को सराह नहीं सकता और उनके पाठ्यक्रमों में रखे जाने के सख्त खिलाफ़ हूँ.केदारजी का निराला की ऐसी कविताओं को लेकर अपने तरह का बचाव रहा होगा किन्तु मैं तब भी सिर्फ निराला ही नहीं,मैथिलीशरण गुप्त,जयशंकर प्रसाद और अन्य कवियों की ऐसी कविताओं का विरोधी था, अब भी हूँ और रहूँगा.उनकी ऐसी रचनाएँ,जो सौभाग्य से बहुत कम हैं, दुर्भाग्यपूर्ण हैं किन्तु वे तब भी हमारे महान और कालजयी कवि हैं.
मुझे हैरत इस बात की है कि बिलासपुर की उस पुरजोश शाम के बाद हालाँकि केदारजी से बीसियों बार तर-ओ-खुश्क मुलाकातें नसीब हुई हैं लेकिन उन्होंने कभी निराला का न तो ज़िक्र छेड़ा न उस सरसरी बहस को आगे बढ़ाया,उलटे वैसा एकतरफ़ा,बेबुनियाद और निराला (के लिए बहुत कम) व मेरे लिए (काफी) नुकसानदेह बयान दे डाला.यदि वह वैसा न करते तो मैं भी यह सब लिखने को मजबूर न होता.नामवर सिंह जैसे लबार यहाँ-वहाँ अनर्गल प्रलाप करते घूमते रहते हैं किन्तु उन्हें बरसों से कुछ चिरकुट-चेलों और प्रलेस के उनके मतिमंद क्रीतदासों के सिवा कोई गंभीरता से नहीं लेता.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से संबद्ध होने के बावजूद केदारनाथ सिंह की सार्वजनिक प्रतिष्ठा अब भी बची हुई है और मुझ सरीखे लोग उनकी स्नेहिल कद्र भी करते हैं, लिहाज़ा उनसे उम्मीद और इल्तिज़ा की जाती है कि वे अतिरेक में ऐसी गैर-जिम्मेदाराना गलतबयानी से बचेंगे.

विष्णु खरे
(निराला का यह मशहूर चित्र प्रभु जोशी के ब्रश से)