Friday, September 28, 2012

आम्बेडकर और मार्क्सवादी - आनंद तेलतुम्बडे



भारत विरोधाभासों का देश है. मगर दलित और कम्युनिस्ट आन्दोलन के दो भिन्न दिशाओं में जाते इतिहास से ज़्यादा अनुवर्ती और कोई विरोधाभास न होगा. दोनों लगभग एक ही समय उपजे थे, दोनों समान मुद्दों के पक्ष में या उनके खिलाफ खड़े हुए, दोनों में आये उभार और फूटें एक सी रहीं, और नाउम्मीदी की स्थिति भी आज दोनों में एक सी है. और इन सबके बावजूद दोनों एक दूसरे से आँखें नहीं मिलाना चाहते. इस रवैयात्मक रसातल में पड़े रहने का दोष ज़्यादातर आम्बेडकर के सर मढ़ा जाता है जिसका सीधा-साधा कारण कम्युनिस्टों और मार्क्सवाद की उनके द्वारा की गई साफ़-साफ़ समालोचना है. यह बात अगर एकदम गलत नहीं तो एकांगी ज़रूर है.

आम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. कोलम्बिया विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में उनकी बौद्धिक परवरिश फेबियन प्रभाव में हुई. जॉन ड्यूई, जिनके लिए आम्बेडकर में मन में गहरा सम्मान था, एक अमेरिकी फेबियन थे. फेबियन जन समाजवाद चाहते थे, मगर वैसा नहीं जैसा मार्क्स ने प्रस्तावित किया था. उनका विश्वास था कि समाजवाद क्रमिक विकास (इवोल्यूशन) के द्वारा लाया जा सकता है न कि क्रान्ति (रेव्ल्यूशन) के द्वारा. इन प्रभावों के बावजूद, मार्क्स से सहमत हुए बिना आम्बेडकर ने न केवल मार्क्सवाद को गम्भीरता से लिया, बल्कि उसे जीवन भर स्वयं के फैसलों को आँकने के पैमाने के तौर पर भी इस्तेमाल किया.I

आम्बेडकर की राजनीति वर्ग-आधारित थी, यद्यपि वह मार्क्सियन समझ के अनुसार न थी. अछूतों के बारे में कहते समय भी वे 'वर्ग' का प्रयोग करते थे. अपने सर्वप्रथम प्रकाशित निबंध "कास्ट्स इन इण्डिया" में, जो उन्होंने पच्चीस साल की उम्र में लिखा था, उन्होंने जाति को "समावृत वर्ग" (एन्क्लोस्ड क्लास) बताया था. अनुमान लगाने की क्रियाकलापों  में लगे बिना कहा जा सकता है कि यह लेनिन के साथ उनकी अनिवार्य सहमति का सूचक है- लेनिन ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि वर्ग विश्लेषण "ठोस परिस्थितियों" में किया जाना चाहिए न कि वैक्यूम में. जातियाँ भारत का सर्वव्यापी यथार्थ थीं और वर्ग विश्लेषण से कोई छुटकारा नहीं था. मगर तत्कालीन कम्युनिस्टों ने, जो मार्क्स और लेनिन पर अपनी मोनॉपली का दावा करते थे, आयातित 'साँचों' का इस्तेमाल किया और जातियों को "अधिरचना" में फेंक दिया. एक ही झटके में उन्होंने समस्त जाति-विरोधी संघर्षों को गौण मुद्दा बना दिया. लिखे हुए को वेदवाक्य या सर्वोपरि मानने की ब्राह्यणीय सनक का ही यह प्रतिबिम्बन था.

दलितों के प्रति होने वाले भेदभाव को कम्युनिस्टों द्वारा नज़रंदाज़ किये जाने की एक मिसाल बम्बई की कपड़ा मिलों में मिलती है. जब आम्बेडकर ने ध्यान दिलाया कि अच्छी तनख्वाह वाले बुनाई विभाग में दलितों को काम नहीं करने दिया जाता, और यह कि छुआछूत के दीगर तरीके उन मिलों में भी बहुतायत में चलन में थे जिनमें कम्युनिस्टों की गिरणी कामगार यूनियन थी-  कम्युनिस्टों ने इस पर ध्यान नहीं दिया. जब उन्होंने १९२८ की हड़ताल तोड़ने की धमकी दी तो वे अनिच्छा के साथ गलतियाँ सुधारने को राज़ी हुए.

१९३७ में हुए प्रांतीय असेम्बलियों के चुनावों को देखते हुए उन्होंने अगस्त १९३६ में अपनी प्रथम राजनीतिक पार्टी, इन्डिपेंडंट लेबर पार्टी (आई एल पी) का गठन किया जिसे उन्होंने घोषित तौर पर 'मेहनतकश वर्ग' की पार्टी कहा था. पार्टी के घोषणापत्र में बहुत सारे 'प्रो-पीपुल' वादे थे, और 'कास्ट' शब्द का बस एक बार और यूँ ही उल्लेख किया गया था. क्रिस्तोफे जफ्रेलोत जैसे विद्वानों ने आई एल पी को भारत की पहली वामपंथी पार्टी माना है क्योंकि कम्युनिस्ट उस समय तक या तो अधिकतर भूमिगत थे या कांग्रेस सोशलिस्ट ब्लॉक के तहत थे.

१९३० के दशक में वे अपने रैडिकल उत्कर्ष पर थे. १९३५ में उन्होंने मुम्बई कामगार संघ की स्थापना की जिसमें वर्ग और जाति के विलय की प्रत्याशा थी जो आई एल पी में रूप में साकार हुआ. मतभेदों के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्टों के साथ हाथ मिलाया और १९३८ में औद्योगिक विवाद अधिनियम (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट) के खिलाफ विशाल हड़ताल का नेतृत्व किया. १९४२ में क्रिप्स रिपोर्ट में  आई एल पी  को इस दलील के आधार पर शामिल नहीं किया गया कि वह किसी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करती. इस वजह से वे आई एल पी को भंग करके शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (एस सी एफ़) का गठन करने को प्रवृत्त हुए जो प्रकट रूप में जाति आधारित थी. वाइसराय की कार्यकारी समिति का सदस्य होने के बावजूद भी उनका वामपंथी रुझान बना रहा. इसकी परिणिति उनकी पुस्तक स्टेट्स एण्ड माइनॉरिटीज़ के रूप में हुई जो भारत के संविधान में समाजवादी अर्थव्यवस्था को 'हार्डकोड' किये जाने की रूपरेखा थी. कम्युनिस्टों ने मगर उनके आन्दोलन को सर्वहारा को बाँटने के प्रयास के तौर पर लिया. इसी रुख की परिणिति हुई डांगे के उस निंदनीय आह्वान में जिसमें १९५२ के आम चुनावों में उन्होंने मतदाताओं से कहा कि भले ही उनका वोट ज़ाया हो जाए लेकिन वे आम्बेडकर के पक्ष में वोट न दें. परिणामस्वरूप चुनावों में आम्बेडकर की हार हुई.

उनके बौद्ध धर्म स्वीकार करने का भी सतही पाठ किया जाता है यह कह कर कि वह एक हताश व्यक्ति की आध्यात्मिक ललक थी और इसे उनके मार्क्सवाद विरोध के एक और प्रमाण के तौर पर पेश किया जाता है. हालाँकि बहुत से विद्वानों ने इस गलत पढ़त का खण्डन किया है, लेकिन कहा जाना चाहिए कि यह मार्क्सवाद के प्रति उनका करीब-करीब आखिरी निर्देश था. अपनी मृत्यु से महज एक पखवाड़े पहले बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद की तुलना करते हुए, उन्होंने अपने निर्णय की तस्दीक करते हुए उसे हिंसा और अधिनायकवाद से रहित मार्क्सवाद के अनुरूप माना. दुख की बात है कि मार्क्स को स्वीकार कर आम्बेडकर को अस्वीकार करने की नादानी अब भी बरकरार है.

OUTLOOK से साभार (अनुवाद- भारतभूषण तिवारी)

Monday, September 10, 2012

भ्रष्टाचार के साथ अन्याय-अत्याचार भी देखें- मेधा पाटकर


नर्मदा बचाओ आंदोलन की जुझारु नेत्री मेधा पाटकर इस वक़्त सरदार सरोवर बांध क्षेत्र में हैं। मध्य प्रदेश के  मेंइंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांधों के डूब क्षेत्र में चल रहे जल सत्याग्रह पर राज्य सरकार के आखिरकार कुछ पसीजने की खबरें आ रही हैं। अभी फोन पर उनसे बात हुई कि क्या समझौता हुआ। उन्होंने कहा कि मैं तो यहां सरदार सरोवर क्षेत्र के पीड़ितों के साथ हूं। यहां भी 300 घर डूब गए हैं और भी काफी नुकसान हुआ है। वहां आलोक वगैरहा हैं, कमेटी बनी है, प्रस्तावों की जांच कर रहे हैं। मुख्यमंत्री विस्थापितों को ज़मीन देने की बात कर रहे हैं लेकिन यह निर्णय तो पहले भी हो चुका है, सवाल इसके अमल का है। सरदार सरोवर पर भी 10 साल सत्याग्रह किया तब जाकर विस्थापितों को ज़मीनें मिलनी शुरू हुईं। हालांकि पूरी तरह इंसाफ मिलना अभी बाकी ही है। मध्य प्रदेश का मामला पूरी तरह अलग है। यहां तो पूरी तरह फर्जीवाड़ा है। हर बांध में कानून तोड़े गए हैं। हम यहां सरदार सरोवर पर लड़ाई लड़ रहे थे। यहां का काम अभी रुका हुआ भी है। लेकिन वहां जनता तब समझ नहीं पाई थी। जल्दी-जल्दी बांध खड़े कर दिए गए।

मेधा ने कहा कि मध्य प्रदेश सरकार लेंड बैंक की ज़मीन देने की बात कर रही है। यह खेल तो सरदार सरोवर मसले में भी किया गया। खराब और अतिक्रमित ज़मीन का क्या होगा? संयुक्त जांच के दौरान भी पाया गया कि पूरी ज़मीन अतिक्रमित या खराब है लेकिन कंपनियों को हरी-भरी कीमती ज़मीन लुटाई जा रही है।

मेधा बोलीं, लंबी लड़ाई है। लड़ने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं है। करीब सात जगहों पर अलग-अलग टीमें औऱ वहां के विस्थापित नागरिक मोर्चा संभाले हुए हैं। ऐसी लड़ाइयां दिल्ली-मुंबई में बैठकर नहीं लड़ी जा सकती हैं। जिस तरह हम कई मोर्चों पर विकेंद्रित है, मीड़िया भी विकेंद्रित है। जहां तक विपक्ष का सवाल है तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस को आंदोलन के साथ आना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। हमारे लोगों ने दिल्ली में सांसद अरुण यादव को घेरा तो उन्होंने साथ देने की बात कही। अलबत्ता सीपीआई के लोग साथ दे रहे हैं पर उनकी ताकत कम है। देश भर में अन्याय के खिलाफ लडाइयां जारी हैं, यह बात अलग है कि एक बड़ी साझा लड़ाई का स्वरूप नहीं बन पाया है।

इन लड़ाइयों से  मध्य वर्ग की पूरी तरह उदासीनता पर मेधा पाटकर ने कहा कि मध्य वर्ग धीरे-धीरे आ रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ वह बोलता है पर उसे समझना होगा कि भ्रष्टाचार के साथ अन्याय और अत्याचार भी लड़ाई के मुद्दे हैं।

इस बीच कोई कहता है कि सरपंच आ गए हैं। मेधा किसी से कह रही हैं, नहीं, नहीं, हम कुर्सी पर नहीं, नीचे बैठेंगे, कुर्सी सरपंच जी को दो। मेधा बाद में लंबी बातचीत का वादा कर फोन रखती हैं। 

Friday, September 7, 2012

साहित्‍य विवेक ही जीवन विवेक है - कुमार अम्बुज


करीब दो बरस पहले  यह टिप्‍पणी लिखी गई थी। 
एक स्‍थानीय आयोजन से प्रेरित। बहरहाल।
एक-दो वाक्‍यों में संपादन के साथ यह यहॉं है।


साहित्यिक आयोजनों का अजैण्डा

साहित्य संबंधी आयोजनों को मोटे-मोटे दो वर्गीकरणों में देखा जा सकता है।
1.स्पष्ट कार्यसूची (अजैण्डे) के साथ आयोजन। 2.बिना कार्यसूची के साथ आयोजन।

पहले वर्ग में, किसी विचारधारा विशेष, जैसे वामविचार को केंद्र में रखकर, उसके अंतर्गत कुछ अभीष्ट या उद्देश्य बनाकर आयोजन किए जाते हैं। उनके इरादे, घोषणाएँ, प्रवृत्ति और पक्षधरता को साफ पहचाना जा सकता है। वहाँ साहित्य संबंधी एक दृष्टि, विचार सरणी होती है और कुछ साहित्यिक मापदण्ड और समझ के औजार भी उस दृष्टि और सरणी से निसृत होकर सामने रहते हैं। तत्संबंधी नयी चुनौतियाँ भी। विचारधाराओं से प्रेरित तमाम लेखक संगठनों के आयोजन इसी वर्ग में रखे जाएँगे। और वे भी आयोजन भी, जो वाम-विचारधारा विरोधी साहित्यिकों या संस्थाओं द्वारा संभव होते हैं।

लेकिन इन सभी का अजैण्डा असंदिग्ध रूप से जाहिर होता है। सार्वजनिक। उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, पूर्व में ‘परिमल’ के आयोजन और इधर अस्तित्व में आईं अनेक सांस्कृतिक दक्षिणपंथी संस्थाओं के कार्यक्रम, जिनकी वामविरोधी राजनीति स्पष्ट है। प्रायः इस तरह की संस्थाओं या संगठनों में औपचारिक/अनौपचारिक सदस्यता होती है और वे अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह होते हैं। इस वर्ग के ये कुछ उदाहरण हैं।

दूसरे वर्ग में मुख्यतः निजी महत्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत यशकामना और/या व्यावसायिक समझ के साथ किए जानेवाले आयोजन हैं। वे किसी सामूहिक जनचेतना, व्यापक विचार या विचारधारा से प्रेरित नहीं होते। इसलिए कभी-कभार उनमें विभिन्न विचारधाराओं के लेखक भी, निजी कारणों से, एक साथ सक्रिय दीख सकते हैं। इनके एक, दो, दस आयोजनों को विश्लेषित कर लें तब भी कुछ हाथ नहीं आएगा। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत वर्चस्व, नेतृत्व कामना के लिए, प्रकाशकीय लोभ-लाभ के लिए, पत्रिका की लांचिंग या प्रचार हेतु अथवा निजी धाक जमाने के लिए, पब्लिक रिलेशनशिप के लिए इनका आयोजन हुआ।

जब तक कोई ‘धन या अधिकार संपन्न व्यक्ति’, व्यवसायी या संक्षिप्त समूह इसके पीछे काम करता है, तब तक ये आयोजन होते हैं और फिर सिरे से गायब हो जाते हैं। फिर उनकी उतनी गूँज भी बाकी नहीं रहती जितनी एक छोटे से अंधे कुएँ में आवाज लगाने से होती है। उसका ऐतिहासिक महत्व तो दूर, उसकी किंचित उपलब्धि भी अल्प समय के बाद ही, कोई नहीं बता सकता। संक्षेप में कहें तो इनकी नियति एक ‘क्लब’ में बदल जाती है जहाँ साहित्य को लेकर, रचनाधर्मिता के संदर्भ में कोई ऐसी बात संभव नहीं जिसे गहन सर्जनात्मकता एवं बड़े विमर्श तक ले जाया जा सके। आयोजन के बाद उसे विचार की किसी परंपरा से जोड़ा जा सके। किसी आंदोलन के हिस्से की तरह उसे देखा जा सके या उस संदर्भ में नयी पीढ़ी को शिक्षित अथवा उत्प्रेरित किया जा सके।

ऐसे आयोजन, एक तरह के अवकाश को भरने या बोरियत दूर करने, साथ मिलजुलकर बैठने की इच्छा या समकालीनता में इस तरह ही सही, अपना नाम दर्ज कराने की सहज-सरल आकांक्षा, ध्यानाकर्षण की योजना अथवा समानांतर सत्ता संरचना की कामना से भी प्रेरित होते हैं और कई बार इस प्रतिवाद से भी कि उन्हें अपेक्षित रूप से स्वीकार नहीं मिला है। या उन्हें कमतर समझा गया है। या यह कि उन्हें और, और, और, और, और जगह चाहिए। लेकिन इनका जो भी आयोजक होगा, उसकी महत्वाकांक्षाओं या इरादों को समझा जा सकता है। हालॉंकि सतह पर तैरती चतुराई के कारण उनके वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट होने में किंचित समय भी लग सकता है।

लेकिन एक बात यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती हैः वह यह कि इनका कोई घोषित अजैण्डा नहीं होता। या इनकी कोई कार्यसूची होती भी है तो उससे साहित्य या जीवन, (याद करें मुक्तिबोध का महान वाक्यः ‘जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है।’) के प्रति, किसी भी विचारधारा और दृष्किोण से संबंध नहीं बैठाया जा सकता। इसलिए ऐसे आयोजन एक मिलन समारोह, पर्यटन, सामूहिक दस्तरखान के सुख, आनंददायी तस्वीरों और अन्य मधुर स्मृतियों में ही न्यून हो जाते हैं। इन्हें अन्य द्वारा वित्तपोषित ‘साहित्यिक किटी पार्टियों’ की तरह भी देखा जा सकता है।

एक अन्य उपवर्ग उन संस्थानों का बनता है जिनके पास शासकीय या गैरशासकीय स्त्रोतों से बजट है और वे उस बजट को खपाने के लिए, अपने संस्थान की क्रियाशीलता को बनाए रखने के लिए तमाम आयोजन करने को विवश हैं। प्रायः, जब तक कि संप्रति सरकारों का दबाब न हो, उनका किसी विचारधारा विशेष के प्रति विरोध या समर्थन नहीं होता। वहाँ कोई भा आ-जा सकता है और उनसे लाभ लिया जा सकता है। उसमें भागीदारी से किसी को कोई उज्र या ऐतराज नहीं होता, जब तक कि कुछ विचारधारात्मक सवालों से मुठभेड़ न हो। आकाशवाणी, दूरदर्शन, साहित्य अकादमियाँ, हिंदी उन्नयन संस्थाएँ आदि इसके उदाहरण हैं। इन संस्थाओं के पास भी, साहित्य को लेकर कोई विशिष्ट औचित्य या दृष्टि नहीं होती, सिवाय इस महान वाक्य के कि ‘वे साहित्य और रचनाकारों की सेवा कर रहे हैं और उनका जन्म बस यही करने के लिए हुआ है।’

बहरहाल, यदि पहले वर्ग के आयोजनों में किसी के द्वारा शिरकत की जा रही है तो वह खास तरह के वैचारिक अजैण्डा की जानकारी के साथ, उसके प्रति सहमति, प्रतिबद्धता या उत्सुकता से की जाएगी। और दूसरे वर्ग के आयोजन में शिरकत की जा रही है तो वह मूलतः मौज मस्ती, मेल-मिलाप, उत्सवधर्मिता और संबंधवाद के लिए। लेकिन प्रकारांतर से इस तरह लोग जाने-अनजाने किसी की महत्वाकांक्षा या छिपे हुए निजी अजैण्डा के सहभागी हो जाते हैं। और कई बार तो कृतज्ञ भी। जाहिर है कि शिरकत करते हुए तमाम लोग निजी रूप से निर्णय लेते हैं, अपना चुनाव करते हैं लेकिन फिर लाजिमी है कि वे जलसा उपरांत कुछ विचार भी करें। मसलन यह, कि आखिर क्या वे इन चीजों का वाकई हिस्सा होते रहना चाहते हैं!

ऐसा भी हो सकता है कि किसी आयोजन में विभिन्न विचारधाराओं से प्रेरित या विचारधाराहीन (??) लेखकों का जमावड़ा कराया जाए, उनके बीच मुठभेड़ कराई जाए और फिर उसे आयोजनकर्ता दिलचस्पी से देखें, अपनी स्पॉन्सरशिप का भरपूर आनंद उठाएँ। इसका कुछ विचारणीय पक्ष शायद तब भी हो सकता है कि जब वे कुछ गंभीर सवालों को खड़ा करें, उन्हें सूचीबद्ध करें, बताएँ कि ये महत्वपूर्ण निष्पत्तियाँ हैं, इन पर व्यापक विमर्श हो। इसलिए अपेक्षित होगा कि ये आयोजनकर्ता, औपचारिक तौर पर बताएँ कि इससे उनके किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है और आगे भी इस तरह की ‘कांग्रेस’ करते रहने के पीछे उनकी क्या राजनीति, योजना, मंशा और आकांक्षा है। और इसे व्यापक करने की क्या रणनीति है।

निजी तौर पर यों मौज-मस्‍ती और हो-हल्‍ले का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह शायद आग्रह या दुराग्रह हो कि मैं हर उस आयोजन के समर्थन में आसानी से हूँ जिसका अजैण्डा जाहिर हो। भले ही, उनका वह आयोजकीय प्रयास असफल सिद्ध हो। कि मैं तत्संबंधी उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहले समझ तो लूँ। यानी फिर वही अमर सवालः ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’

पिछले कुछ वर्षों से यदि अजैण्डा आधारित आयोजन, विचारधारा संपन्न कार्यक्रम प्रचुरता से नहीं हो पा रहे हैं तो तमाम वामपंथी कहे और समझे जानेवाले लेखकों के लिए इसका अर्थ या विकल्प कदापि यह नहीं हो सकता कि अजैण्डाविहीन, मौजमस्ती मूलक आयोजनों में अपने को गर्क किया जाए।

और यह भी याद कर लेना यहाँ अप्रासंगिक न होगा कि दीर्घकालीन दृष्टि और किसी अजैण्डे के साथ काम करने से ही संगठन और संस्थाएँ बनती हैं। विमर्श आग्रगामी होता है। अजैण्डाविहीन ढ़ंग से काम करने से ‘गुट’ बनते हैं। भावुक, आभारी बनानेवाली, सी-सा मित्रताएँ बनती हैं। और इन्हीं सबके बीच आत्मतोषी रचनापाठ, कुछ आत्मीय विवाद, वैचारिक-उत्तेजनाविहीन कलह और आमोद-प्रमोद होता है। और यह किसी साहित्यिक आयोजन का अजैण्डा हो नहीं सकता।

इसलिए ऐसे आयोजनों को जब किसी उतावलेपन में, उत्साह में या अनुग्रहीत अनुभव करते हुए साहित्यिक उपलब्धि की तरह प्रचारित किया जाता है अथवा उस तरह से पेश करने की कोशिश की जाती है, इन आयोजनों के लिए फिर-फिर आकांक्षा प्रकट की जाती है तो कुछ सवाल नए सिरे से उठते हैं।
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(मैंने अपने प्रिय कवि-विचारक कुमार अम्बुज का यह लेख उनके ब्लॉग से साभार लिया है। मुझे लगताहै कि उन्होंने बड़ी ईमानदारी, गंभीरता और साफगोई के साथ जो बातें की हैं, उन पर व्यक्तिगत विवादों से ऊपर उठकर विचार किए जाने की जरूरत है। )

Sunday, September 2, 2012

तन्हा कर देने वाली है इंसाफ की लड़ाई - तीस्ता सीतलवाड



गुजरात के नरोदा पाटिया केस में स्पेशल कॉर्ट के फैसले और पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ी जा रही पूरी लड़ाई पर एक्टिविस्ट तीस्ता सीतलवाड से Tehelka की मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधुरी की बातचीत। 

इस फैसले में सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि क्या है?

दोषियों की संख्या – 32 – जो अब तक सबसे अधिक है। और एक यह तथ्य कि छुटभैयों और आसपड़ोस के अपराधियों से आगे पॉलिटिकल मास्टरमाइंड और भड़काने वाले दोषी साबित हुए है, ऐसे लोग जो सर्वोच्च राजनीतिक संरक्षण का लुत्फ ले रहे थे।

क्या इससे बाहर यह संदेश गया है कि गुजरात में इसांफ मिल सकता है?

मैं समझती हूं कि इससे बाहर यह मजबूत संदेश गया है कि न्याय व्यवस्था काम कर सकती है बशर्ते कि इससे पहले की जरूरी अपेक्षाएं पूरी हों। मतलब कि सुप्रीम कॉर्ट केस को सावधानी के साथ मॉनिटर करता है, अपॉइंटमेंट्स में रुचि लेती हैं कि केस किस तरह संचालित किया जा रहा है और यह सुनिश्चित करती है कि केस को डीरेल नहीं किया जा रहा है। इस केस में स्पेशल कोर्ट गठित कर स्पेशल जज की नियुक्ति की गई थी। सभी पीड़ितों-गवाहों को केंद्रीय अर्द्धसनिक बलों की सुरक्षा मुहैया कराई गई थी। यह एक बेहद महत्वपूर्ण कारक है। फिर हमने पीडितों और प्रत्यक्षदर्शी गवाहों को रोजबरोज कानूनी सहायता मुहैया कराने का इंतजाम किया था। ये बेहद जटिल मामले हैं, आम आदमी के लिए कानूनी प्रक्रिया समझ पाना आसान नहीं है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप section 24 (8) के तहत पीड़ितों-गवाहों को उपलब्ध अपने निजी वकील के अधिकार, का इस्तेमाल करते हैं। हां, यदि ये सभी पूर्व-अपेक्षाएं पूरी हुई हैं तो बाहर एक मजबूत संदेश गया है कि इंसाफ किया जा सकता है। लेकिन, हम इस बारे में बहुत सतही नहीं हो सकते हैं। यह दुर्लभ है कि सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को मॉनिटर करे और पीड़ितों को उच्चतम स्तर की सुरक्षा मिले और आप उनके लिए कानूनी तौर पर किस तरह भावनात्मक व आर्थिक मदद की जिम्मेदारी ले पाएं।

आप इसमें क्यों शामिल हुईं?

गुजरात से मेरा रिश्ता 1998 का है, जब मैंने बतौर पत्रकार यहां काम शुरू किया। पहले ही दिखाई देने लगा था कि कुछ नृशंस बन रहा है। हमें पहले ही 1992-93 के बंबई दंगों का अनुभव था और हम श्रीकृष्णा कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित कराने की कोशिश में जुटे थे। गुजरात दंगों ने मुझे गुस्से से भर दिया था, मैंने कहा, आओ देखते हैं कि क्या हम लड़ सकते हैं और क्या यह देश कभी पीड़ितों को इंसाफ दे सकता है। अप्रैल 2012 में हमने सिटीज़न फॉर जस्टिस एंड पीस (सीपीजे) गठित की क्योंकि हमें लगा कि मदद की जरूरत है। विजय तेंडुलकर हमारे संस्थापक अध्यक्ष थे और साथ में आईएम कादरी थे, एक समूह था – साइरस गुज़देर, राहुल बोस, अलीक़ पदमसी, ग़ुलाम पेश ईमान, जावेद और मैं। आपके पीछे एक ऐसे ग्रुप का होना जरूरी है ताकि आप निपट अकेले न हो जाएं क्योंकि इसके लिए भावनात्मक और मानसिक रूप से बड़ी कीमत अदाकरनी होती है। खुद को बहुत सारे ऐसे आरोपों के लिए पेश करना पड़ता है जो कभी साबित नहीं होते लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र में फैले रहते हैं।

एसआईटी के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी? नरोदा पाटिया केस में उसने अलग तरह काम किया जबकि ज़किया जाफरी केस जिसमें नरेंद्र मोदी पर व्यापक साजिश का आरोप है, में उसका रवैया ठीक अलग रहा।
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2002 में नरोदा पाटिया पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई गई करीब 16 एफआईआर में मायाबेन कोडनानी को नमजद कराया गया था। लेकिन मई 2002 में जांच गुजरात क्राइम ब्रांच के हाथ में आई तो इन्हें छोड़ दिया गया। एसआईटी का गठन हो जाने के बाद भी उसे आरोपी नहीं बनाया गया। 2009 में हम इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट गए कि ताकतवर लोगों को सजा नहीं दी जा रही है। शायद इसी से प्रेरित होकर अप्रेल 2010 में मायाबेन को आरोपी बनाया गया। संक्षेप में कहूं तो समग्र अन्वेषण के मामले में संभवतः एसआइटी २५-३० प्रतिशत सुधार ले आई है मगर (अलग-अलग) जाँचों में शत प्रतिशत सुधार लाने में वह बहुत पीछे रह गई है। गुलबर्ग सोसाइटी और ज़ाकिया जाफरी केस में वे पूरी तरह पीडितों के विरोधी रहे। एक जांच एजेंसी का ऐसी पॉजिशन लेना बेहद अजीब है। शायद बाधा यह रही कि इन मामलों में नरेंद्र मोदी पर बड़े पैमाने पर साजिश रचने का आरोप है। लेकिन एसआईटी की इन पॉजिशन्स पर से सवाल खत्म होने नहीं जा रहे हैं। इस केस में मायाबेन और बाबू बजरंगी को सजा हो चुकी है तो एसआईटी हमारी प्रोटेस्ट पिटीशन की सुनवाई में अपनी विरोधाभासी पॉजिशन का बचाव कैसे करेगी? ये दोनों ज़ाकिया केस में भी आरोपी हैं। इस तरह यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है।
     
कुछ बड़े अनुत्तरित सवाल क्या हैं?

बहुत सारे हैं। राहुल शर्मा और आरबी श्रीकुमार जैसे गुजरात के सीनियर पुलिसकर्मियों द्वारा उपलब्ध कराए गए क्रिटिकल साक्ष्य कोर्ट में समय पर क्यों पेश नहीं किए गए? यदि 2006 में राहुल शर्मा की सीडी (उन संहारक दिनों की कॉल रेकॉर्ड्स के साथ) की सीबीआई जांच होती और इसे विश्वसनीयता मिलती तो इससे बहुत सामग्री उपलब्ध होती। लेकिन इसका विश्लेषण एनजीओज पर छोड़ दिया गया। पहले जन संघर्ष मोर्चा ने कुछ विश्लेषण किया और फिर जब हमें पता चला कि मोदी और दूसरों के फोन रेकॉर्ड जांच में शामिल नहीं किए गए तो हमने विश्लेषण की कमियों को दूर किया।

मोदी के फोन रेकॉर्ड का विश्लेशषण क्या बताता है?
हमने उसके घर के नंबर, दफ्तर के नंबर, मुख्यमंत्री कार्यालय और उनसे जुड़े अफसरों का विश्लेषण किया। इनसे साफ होता है कि कई दिशाओं में जांच की जानी चाहिए। मसलन, 28 फरवरी को दोपहर 12 बज से तीसरेपहर तीन बजे के बीच जब गुलबर्ग सोसाइटी और नरोदा पाटिया जल रहे थे, बेहद हैरत की बात है कि तब डीजीपी पी. सी. पांडे अपने कमरे से, जोकि इन दोनों जगहों से महज आधेक किलोमीटर दूरी पर है, बाहर ही नहीं निकले। उन्होंने बाहर निकलकर संकट का मुआयना नहीं किया अलबत्ता इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री कार्यालय से 15 फोन कॉल रिसीव कीं। किसी भी जांच एजेंसी को यह पूछना चाहिए कि ये कॉल किस बारे में थीं। अगर वे उन्हें अपना काम करने के लिए कह रहे थे, तो वे काम क्यों नहीं कर रहे थे या फिर वे उन्हें अपना काम करने से रोक रहे थे? लेकिन इस बारे में एसआईटी और कॉर्ट दोनों की ही स्पष्ट खामोशी है, दोनों ही मोदी, पांडे या सीएम कार्यालय के अफसरों से इस बारे में सवाल नहीं पूछ रही हैं। ये न्यायिक व्यवस्था और जांच एजेंसी में बड़ी खामियों की तरह हैं। हमें हर मुद्दे पर हर तरीके से दबाव बनाना पड़ा। और हर बार जब आप दबाव बनाते हैं तो आप खुद को और ज्यादा उत्पीड़न व आरोपों के लिए पेश कर रहे होते हैं।

नरोदा पाटिया केस में न्याय मिलने में `तहलका` के स्टिंग `ऑपरेशन कलंक` की क्या भूमिका रही?

`ऑपरेशन कलंक` की बहुत बड़ी भूमिका रही। 2007 में जब यह जांच सार्वजनिक की गई तो इससे सभी को धक्का पहुंचा। ज़ाकिया जाफरी केस हाई कॉर्ट में  इन्साफ़ का मुन्तज़िर था। हमने तुरंत ज़ाकिया आपा के हलफनामे के जरिए हाई कॉर्ट से `ऑपरेशन कलंक` पर गौर करते हुए जांच का आदेश जारी करने का अनुरोध किया। जज ने प्रार्थनापत्र को खारिज कर दिया। हम सुप्रीम कॉर्ट गए लेकिन शुरू में वहां भी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। मैं बहुत चिंतित थी। हम राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास गए। आयोग ने मेरे प्रार्थना पत्र पर फुल बेंच ऑर्डर पारित करते हुए तहलका टेप्स में सीबीआई जांच का आदेश दे दिया। गुजरात सरकार ने यह कहते हुए इसका विरोध किया कि आयोग ऐसा आदेश जारी नहीं कर सकता है। आयोग के चेयरपर्सन जस्टिस राजेंद्र बाबू ने तमाम कानूनी किताबों से उद्धरण पेश करते हुए कहा कि आयोग के पास सीबीआई को जांच सौंपने का अधिकार है। आयोग के इस कदम से तहलका टेप्स को विश्वसनीयता हासिल हुई। यदि टेप्स सीधे राघवन की अध्यक्षता वाली एसआईटी के पास पहुंचते तो उनमें छेड़छाड़ मुमकिन थी।
मुझे लगता है कि साम्प्रदायिक हिंसा के इतिहास में इस तरह की सामग्री पहली बार उपलब्ध हो सकी। भागलपुर दंगों, 1984 के सिख दंगों या 1992-93 के बंबई दंगों में ऐसी कोई सामग्री नहीं थी. लेकिन गुजरात मामले में हमारे पास ऐसी तमाम अंदरूनी जानकारियां थीं, मसलन- राहुल शर्मा की दंगों के दौरान मिसिंग कॉल रेकॉर्ड वाली सीडी, आरबी श्रीकुमार का हलफनामा और साक्ष्यों को मजबूती देने वाले तहलका टेप्स से मिलीं बेहद कीमती सामग्री। मैंने फौजदारी के जितने भी वकीलों से बात की, उन सभी ने यही कहा कि तहलका जांच एक्सट्रा-जुडिशल लीगल कन्फेशन्स है। यह प्राथमिक साक्ष्य नहीं हो सकता है लेकिन यदि किसी व्यक्ति के अपराध में शामिल होने के पहले से ही साक्ष्य हैं और टेप्स को विश्वसनीयता हासिल होती है तो यह अपराध को साबित करने में सबसे ज्यादा मजबूत साक्ष्य होगा। लेकिन एसआईटी ने इस सामग्री को लेकर उत्साह दिखाने के बजाय क्या किया?
उन्होंने श्रीकुमार को यह कहकर अविश्वसनीय बताने की कोशिश की कि यह अफसर सिर्फ प्रोन्नति से इंकार कर दिए जाने की वजह से बोल रहा है। यह तथ्यात्मक रूप से गलत है क्योंकि उन्होंने अपने पहले दो हलफनामे प्रोन्नति प्रकरण से पहले जमा कर दिए थे। यही वे हलफनामे हैं जिनमें अपराध साबित कर पाने वाले साक्ष्य और स्टेट इंटेलीजेंस ब्यूरो के आंकड़े हैं। केवल तीसरे-चौथे हलफनामे में ही उनकी अपनी राय शामिल है। लेकिन राघवन का अनंत टालमटोल वाला रवैया रहा कि श्रीकुमार का रजिस्टर वैध है भी या नहीं।
तहलका टेप्स पर भी उनका रवैया अजीब और विरोधाभासी रहा। नरोदा-पाटिया केस में उन्होंने टेप्स को स्वीकार किया और हमारे पास आशीष खेतान का 120 पेज का मूल्यवान बयान (deposition) है। लेकिन ज़ाकिया जाफरी केस में, जहां नरेंद्र मोदी मुख्य आरोपी है, साक्ष्य बेकार और प्रेरित बता दिया गया। किसी भी तर्कशील मनुष्य के लिए यह बात समझ से परे है। हम इन सारे विरोधाभासों को पकड़ सकते हैं और इन पर प्रतिक्रया सिर्फ इसलिए दे पाते हैं क्योंकि हम इन सभी मुकदमों में शामिल हैं। लेकिन यह आपको पागल कर देता है।

इंसाफ की तलाश की इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा विपरीत पहलू क्या रहा?

सबसे मुश्किल बात यह है कि यह एक बेहद अकेली लड़ाई है। हमारे ग्रुप में हर कोई बेहद शानदार है पर फिर भी यह बेहद, बेहद तन्हा कर देने वाली है। आपको सार्वजनिक रूप से झूठे आरोप लगाकर जलील किया जाता है। लड़ाई में बड़ा तबका शामिल होता तो इससे बहुत ताकत मिलती। हम जानते हैं कि अच्छे लोग सभी जगहों पर हैं जो हमारे काम की सराहना करते हैं लेकिन ऐसे बहुत कम हैं जो व्यवस्था के खिलाफ आगे आकर खतरा मोल लें। आप किसी व्यवस्था से जूझते हुए ही उसके खिलाफ लड़ाई लड़ सकते हैं लेकिन ऐसे में आप ही सबसे ज्यादा खतरे में होते हैं। व्यवस्था आपको थकाकर बाहर फेंक देती है, इंसाफ नहीं देती। आप दृढ़निश्चयी और किस्मत वाले हैं तो आप सर्वाइव कर जाते हैं, किस्मत वाले नहीं हैं तो नहीं।  
ये सभी इल्जाम - कि गवाहों को मैंने सिखा दिया या हमारे पूर्व कर्मचारी रईस ख़ान का मामला- गुजरात कॉर्ट निराधार करार दे चुकी है। लेकिन फिर भी यूट्यूब पर ऐसी बकवास फैली हुई हैं। मैंने इस बारे में जवाब देना बंद कर दिया है। अगर लोग वाकई जानना चाहते हैं तो वे सच तक पहुंच जाएंगे। पर मैं नहीं जानती कि मैं यह सब दोबारा कर पाऊंगी। इसकी कीमत बहुत बड़ी है। आपको खुद को बताना पड़ता है कि आप अपनी ज़िंदगी के 10-20 बरस किसी एक चीज के लिए न्यौछावर कर देंगे। यह बहुत मुश्किल है। आप इसके बाद सामान्य नहीं रह पाते।
http://www.tehelka.com से साभार।  (मूल अंग्रेजी से अनुवाद)