Sunday, August 30, 2009

साहित्य, सत्ता और सम्मान : प्रणय कृष्ण



जनांदोलनों और मानवाधिकारों पर क्रूर दमन ढानेवाली छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा १० व ११ जुलाई को प्रायोजित 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान" कार्यक्रम में बहुतेरे वाम, प्रगतिशील और जनवादी लेखकों, संस्कृतिकर्मियों ने शिरकत की। वहीं कुछ ही दिनों पहले हिंदी के अप्रतिम कथाकार उदय प्रकाश उन भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ से सम्मानित हो आए जिनका नाम और संगठन यानी हिंदू युवा वाहिनी गोरखपुर से बहराइच तक के क्षेत्र को अल्पसंख्यकों के लिए दूसरा गुजरात बना देने का सपना पाले हुए है।

छत्तीसगढ़ में प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किए जाने वाले किसी भी आयोजन या पुरस्कार से शायद ही किसी कि ऎतराज़ हो, लेकिन जिस तरह छ्त्तीसगढ के पुलिस महानिदेशक के नेतृत्व में इस कार्यक्रम को प्रायोजित किया गया, जिस तरह छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने इसका उदघाटन किया, शिक्षा और संस्कृतिमंत्री बृजमॊहन अग्रवाल भी अतिथि रहे और राज्यपाल के हाथों पुरस्कार बंटवाया गया, वह साफ़ बतलाता है कि यह कार्यक्रम एक साज़िशाना तरीके से एक खास समय में वाम, प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संस्कृतिकर्मियों के अपने पक्ष में इस्तेमाल के लिए आयोजित था। कई साहित्यकारों को इस आयोजन के स्वरूप की जानकारी ही नहीं थी। वे तो स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को सम्मान देने आए थे। लेकिन वहां उन्होंने पाया कि प्रमोद वर्मा की स्मृति का शासकीय अपहरण किया जा चुका है। मुख्यमंत्री बुलाए गए हैं जो विचारधारा से मुक्त होकर लिखने का उपदेश दे रहे हैं, मार्क्सवाद को अप्रासंगिक बता रहे हैं और लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं। कई लोगों का नाम कार्ड मे बगैर उनकी स्वीकृति के छापा गया। कार्ड पर मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि के पहुंचने की कोई सूचना नहीं छापी गयी। आखिर क्यों? कई लोग स्वीकृति देने के बाद भी नहीं आए, तो शायद इसलिए कि उन्हें इसका अनुमान हो गया होगा। आश्चर्य है कि श्री आशोक वाजपेई ने अपने कालम 'कभी कभार' में ऎसे लोगों को यह तोहमत दी है कि वे राज्यहिंसा के विरोध में नहीं आए, जबकि माऒवादी हिंसा इन की निगाह में 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' की तर्ज़ पर आलोचना के काबिल नहीं है। श्री वाजपेई को बताना चाहिए था कि स्वीकृति देकर न आनेवालों में कौन से ऎसे लोग थे, जिन्होंने माओवादी हिंसा को उचित ठहराया हो। क्या उनमे से कोई माओवादी मंचों पर गया? यदि नहीं, तो राजसत्ता के साथ मंच का साझा करने का दबाव उनपर अशोकजी क्यों डालना चाहते हैं?

दरअसल छ्त्तीसगढ़ वह राज्य है जहां हर जनांदोलन या व्यक्तियों का भॊ माओवादी बताकर 'छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिटी ऎक्ट' जैसे काले कानूनों के ज़रिए दमन किया जाता रहा है। एक फ़र्ज़ी एनकाउन्टर में कुछ आदिवासी जब माओवादी बताकर मारे गए, तो पी. यू. सी. एल. के राज्य सचिव और मानवतावादी चिकित्सक बिनायकसेन ने कहा कि मारे गए लोग सामान्य आदिवासी थे और उनका माओवाद से कोई संबंध नहीं था। इसके बाद ही उन्हें माओवादी बताकर दो साल जेल में डाला गया, फ़र्ज़ी गवाह और साक्ष्य जुटाए गए, हालांकि हाल ही में सर्वोच्च न्यायलय ने उन्हें ज़मानत दे दी। यह छत्तीसगढ़ राज्य ही है जहां के खनिजों, जल, जंगल और ज़मीन की कार्पोरेट लूट के लिए सरकार ने खुली सुविधा मुहैया कराई हुई है और जब आदिवासी अपनी ज़मीन और आजीविका को बचाने का संघर्ष चलाते हैं, तो माओवाद के नाम पर उनका दमन किया जाता है। राज्यप्रायोजित सलवा जुडुम जैसी सेनाएं आदिवासियों को जंगल और ज़मीन से खदेड़कर कारपोरेट अधिग्रहण और दोहन का रास्ता साफ़ कर रही हैं। हिमांशु जैसे गांधीवादी का दंतेवाड़ा में आश्रम पुलिस ने ढहा दिया क्योंकि ७९% आदिवासी जनसंख्या वाले इस इलाके में वे आदिवासियों का कथित रूप से पुनर्वास कर रहे थे। अजय टी.जी. एक फ़िल्मकार हैं और उन्हें भी माओवादी बताकर सताया गया। छ्त्तीसगढ़ राज्य बनने से पहले ही तमाम जनतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटने में यह युक्ति काम में लाई जाती रही है। वर्षों पहले भारत के एस सी/एस टी कमिश्नर रहे गांधीवादी समाजसेवी डा. बी.डी. शर्मा को भाजपा के ही शासनकाल में बस्तर में नंगा घुमाया गया। महान ट्रेड यूनियन नेता और समाजसेवी शंकर गुहा नियोगी की एक कारपोरेट समूह ने हत्या करा दी। इस तरह हर लोकतांत्रिक आंदोलन का गला घोंटकर वहां की सत्ता ने खुद ही माओवाद का रास्ता प्रशस्त किया। ऎसी राजसत्ता के पुलिस मुखिया के आमंत्रण पर क्यों कोई साहित्यकार मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री और राज्यपाल का उपदेश सुनने जाए? फ़िर छतीसगढ़ राज्य की साहित्य अकादमी जैसी स्वायत्त सांस्कृतिक संस्थाएं भी तो प्रायोजन कर सकती थीं, पुलिस के मुखिया से ही कराने की क्या मजबूरी थी? क्यों अशोक वाजपेई को इसमे राजनीति नही दिखती?

दर असल यह पूरा आयोजन ही इसलिए किया गया कि बिनायक सेन और सलवा जुडुम के मसले पर विश्वस्तर पर निंदित सरकार यह दिखला सके कि उसके साथ तमाम प्रगतिशील, जनवादी लोग भी खड़े हैं। यह सत्ता द्वारा साहित्यकारों का घृणित उपयोग है। पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन राजसता का साहित्यिक चेहरा हैं। अपने कवि होने और महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी के वंशज होने का खूब उपयोग वे छ्त्तीसगढ़ की जनविरोधी सरकार के कारनामों को वैधता प्रदान कराने में कर रहे है। अशोक वाजपेई शायद चाहते हैं कि भले ही राजसत्ता साहित्यकारों का शातिराना उपयोग करे, लेकिन साहित्यकार को गऊ होना चाहिए, सत्ता को छूट है कि साहित्य के नाम पर उन्हें कहीं भी हंका कर ले जाए। छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक की निगाह में शंकर गुहा नियोगी नक्सली/माओवादी थे, जबकि सलवा जुडुम जनांदोलन है।

हम सब जानते हैं कि भारत की ८०% खनिज संपदा और ७०% जंगल आदिवासी इलाकों में हैं। छत्तीसगढ एक ऎसा राज्य है जहां की ३२% आबादी आदिवासी है। लोहा, स्टील,अल्युमिनियम और अन्य धातुओं, कोयला, हीरा और दूसरे खनिजों के अंधाधुंध दोहन के लिए; टेक्नालाजी पार्क, बड़ी बड़ी सम्पन्न टाउनशिप और गोल्फ़ कोर्स बनाने के लिए तमाम देशी विदेशी कारपोरेट घरानों ने छ्त्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों पर जैसे हमला ही बोल दिया है। उनकी ज़मीनों और जंगलों की कारपोरेट लूट और पर्यावरण के विनाश पर आधारित इस तथाकथित विकास का फ़ायदा सम्पन्न तबकों को है जबकि उजाड़े जाते आदिवासी और गरीब इस विकास की कीमत अदा कर रहे हैं। वर्ष २००० में स्थापित छ्त्तीसगढ राज्य की सरकारों ने इस प्रदेश के संसाधनों के दोहन के लिए देशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ पचासों समझौतों पर दस्तखत किए हैं। १०,००० हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में है। आदिवासी अपनी ज़मीन, आजीविका और जंगल बचाने का संघर्ष चलाते रहे हैं। लेकिन वर्षों से उनके तमाम लोकतांत्रिक आंदोलनों का गला घोटा जाता रहा है। कारपोरेट घरानों के मुनाफ़े की हिफ़ाज़त में केंद्र की राजग और संप्रग सरकारों ने, छ्त्तीसगढ़ में गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी है। कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर सलवा जुडुम का फ़ासिस्ट प्रयोग चला रखा है। आज देशभर में हर व्यवस्था विरोधी आंदोलन या उस पर असुविधाजनक सवाल उठाने वाले व्यक्तियों को माओवादी करार देकर दमन करना सत्ताधारियों का शगल बन चुका है। दमनकारी कानूनों और देश भर के अधिकाधिक इलाकों को सुरक्षाबलों और अत्याधुनिक हथियारों के बल पर शासित रखने की बढ़ती प्रवृत्ति से माओवादियों पर कितना असर पड़ता है, कहना मुश्किल है, लेकिन इस बहाने तमाम मेहनतकश तबकों, अकलियतों, किसानों, आदिवासियों, मज़दूरॊं और संस्कृतिकर्मियों के आंदोलनों को कुचलने में सत्ता को सहूलियत ज़रूर हो जाती है।

उदय जी द्वारा योगी आदित्यनाथ से सम्मानित होने के प्रकरण में उनके पक्ष में कई दलीलें आईं हैं। पहली तो यह कि उदय जी का मूल्यांकन उनके साहित्य से होगा, न कि जीवन से, मानो ये दोनों पूरब पश्चिम की तरह कहीं मिलते ही न हों। यह युक्ति नई समीक्षा के दौर में लाई गई। ईलियट ने कहा कि आलोचना के लिए लेखक का जीवन वृत्तांत अप्रासंगिक है। लेकिन इसके चलते एज़रा पाउंड जैसे आधुनिकतावादी या पाल डी मान जैसे उत्तर आधुनिकों द्वारा फ़ासिस्टों के समर्थन की आलोचना से न तो आधुनिकतावादियों ने गुरेज़ किया और न ही उत्तर-आधुनिकों ने। लेकिन हिंदी में मार्क्सवदियों से यह मांग हो रही है वे जीवन और विचार में किसी साहित्यकार के विचलन पर इसलिए खामोश रहें क्योंकि वह साहित्य में प्रगतिशील मूल्यों का सर्जक है। मज़े की बात है ऐसी मांग करनेवाले कथित प्रगतिशील ही हैं जिन्हें कलावाद की पचास साल पुरानी उतारन पहनने में आज शर्म की जगह गर्व की अनुभूति हो रही है।

१९९० के बाद से सोवियत संघ के ढहने, भूमंडलीकरण की आंधी, समाजवाद के संकट, उत्तर-आधुनिकतावाद की सैद्धांतिकी और भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों के उभार ने बहुत से प्रगतिशील और जनवादियों को विचलित किया। उदय प्रकाश इस मामले में ज़रूर ईमानदार कहे जाएंगे कि जहां बाकी लोग इस विचलन को खुलकर स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जूटा पाए और जनवादी, प्रगतिशील मूल्यों वाले सांस्कृतिक संगठनों में बने रहते हुए भी साहित्य को विचारधारा और प्रतिबद्धता से मुक्त रहने, साहित्य की वर्गदृष्टि को खारिज करने और राज्याश्रय को उचित बताने में लगे रहे और नवोदित साहित्यकारों को गलत राह सिखाते रहे, वहीं उदय जी ने खुलेआम मार्क्सवाद से अपने मोहभंग को घोषित किया, उत्तर-आधुनिकता से प्रभाव ग्रहण को स्वीकार किया और हर तरह की वैचारिक प्रतिबद्धता से इनकार किया, शायद संगठनों से भी किनाराकशी की। ऐसा नहीं कि उदय जी की इस दौर की कहानियों पर उनके वैचारिक बदलाव का असर नहीं है, भले ही इस दौर में भी उन्होंने अनेक उत्कृष्ट काहानियां लिखीं। इस दौर में उदय जी का व्यक्तिवाद और अराजकता की प्रवृत्ति ज़्यादा उभरकर आई जो पहले भी उनकी व्यक्तियों को निशाना बनाकार परपीड़न में लुत्फ़ लेनेवाली कहानियों में दिखती है, उनके यथार्थबोध को क्षतिग्रस्त करती हुई। लेकिन तब भी उनकी बेहतरीन कहानियां बहुत दूर तक इस दोष से मुक्त रहीं। आलोचना को जूते की नोंक पर रखते हैं। इसीलिए उनके क्षमा-प्रस्ताव में भी धमकी की गूंज है. कभी अपनी आलोचना को ब्राह्मणवादी षड़यंत्र बताते हैं, कभी पहाड़ी लाबी की करतूत. दरअसल, उदय जी को क्षमा किसी और से नहीं, अपने भीतर के कथाकार से मांगनी चाहिए.

उपनिवेशवाद से लड़कर जो भी देश आजाद हुए, उनकी भाषाओं और साहित्य में प्रतिरोध की मूल्य चेतना इतिहासत: विकसित हुई। इसलिए जब भी कोई जनद्रोही सरकार,कारपोरेट घराना, संस्थान या फिर व्यक्ति साहित्यकारों को सम्मानित या पुरस्कृत करता है, तो ऐसे साहित्य में स्वाभाविक रूप से विरोध के स्वर उठते हैं। यह इन भाषाओं और साहित्य का संस्कार है। इतिहास से प्राप्त मूल्य चेतना है। कई बार ऐसे विरोधों को ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित बताकर, किन्हीं राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का षडयंत्र बताकर हल्का बनाने की कोशिश की जाती है। दुर्भाग्य से उदय जी शायद अब इस समझ पर पहुंच चुके हैं कि उनके जैसे विश्वस्तरीय कथाकार के योग्य हिंदी भाषा और समाज नहीं है। वे गुस्से में दोनों को खारिज करते हैं। मनमाना करते हैं।

हिंदी में लम्बे समय से कुछ लोग यह कह रहे हैं कि साहित्यकार को अपनी स्वायत्तता की रक्षा के लिए विचारधारा और संगठन से मुक्त रहना चाहिए, लेकिन ऐसे लोग कभी भी यह नहीं कहते कि लेखकों को दमनकारी राजसत्ताओं और बहुराष्ट्रीय पूंजी के घरानों से मुक्त रहना चाहिए। उनकी निगाह में इनसे उनकी स्वायत्तता खंडित नहीं होती। अच्छा तो यही होता कि साहित्य संस्कृति के लिए जनता के पैसे का उपयोग सरकारें करना ही चाहती हैं तो वे ऐसी संस्थाओं को वह धन सौंप दें, जो पूर्णत: स्वायत्त और पारदर्शी हों, फिर साहित्य संवर्धन के लिए पुरस्कार ही एकमात्र उपाय तो है नहीं। लेकिन इन संस्थाओं की स्वायत्तता की एकमात्र गारंटी है कि साहित्यकारों की अपनी संस्थाएं स्वतंत्र रूप से मजबूत हों, सांस्कृतिक आंदोलन मजबूत हो, ताकि इन संस्थाओं पर लोकतांत्रिक, स्वायत्त और पारदर्शी होने का दबाव बनाया जा सके।

(समयांतर से साभार)

Wednesday, August 19, 2009

प्रभाष जोशी! शर्म तुमको मगर नहीं आती




बड़ा हल्ला रहता आया है कि प्रभाष जोशी पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष हैं. उनके शीर्ष पुरुषवादी विचार हमेशा ही सामने आते रहे हैं, यह बात अलग है कि हमारे बहुत से `सेक्युलर`, `प्रगतिशील` व `उदारवादी` इस तरफ से आँखें मूंदे भक्ति-भाव से उनकी और उन जैसे कई रंगे सियारों की बंदगी किये जाते हैं. इस दौर में जबकि दुनिया भर में प्रगतिशील ताकतों का दबाव कम हुआ है और भेड़ की खाल में छुपे भेड़िए अपनी असली शक्ल में आकर हुआं-हुआं करने लगे हैं तो प्रभाष जोशी जैसे शीर्ष पुरुष भी अपने फलसफे के साथ खुलकर सामने आ रहे हैं. हालाँकि सती प्रथा हो या ऐसे दूसरे मामले, वे पहले भी यही सब करते रहे हैं. फिलहाल वे मनु महाराज से भी आगे निकलकर ब्राह्मण श्रेष्ठता साबित करने के लिए जहरीली ज़िद पर उतर आए हैं. उनका राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ प्रेम भी देखते ही बनता है जब वे संघ पर पूर्व में लगी पाबंदियों पर गुस्सा दिखलाते हैं. पेश हैं उनके raviwar.com को दिए गए साक्षात्कार से कुछ अंश-


`...सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है. क्यों ? क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अवव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है. क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है. तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारिरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं. सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते. ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए.


अपने समाज में अलग-अलग कौशल के अलग-अलग लोग हैं. अपन ने ये माना कि राजकाज में राजपूत अच्छा राज चलाते है. क्यों माना हमने ? एक तो वो परंपरा से राज चलाते आ रहे है, दूसरा चीजों के लिए समझौते करना, सब को खुश रखना, इसकी जो समझदारी है, कौशल जो होती है, वो आपको राज चलाते-चलाते आती है. आप अगर अपने परिवार के मुखिया है तो आप जानते हैं कि आपके परिवार के लोगों को किस तरह से हैंडल किया जाये.


ब्राह्मणों का वर्चस्व
मान लीजिए कि सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेल रहे है. अगर सचिन आउट हो जाये तो कोई यह नहीं मानेगा कि कांबली मैच को ले जायेगा. क्योकि कांबली का खेल, कांबली का चरित्र, कांबली का एटीट्यूड चीजों को बनाकर रखने और लेकर जाने का नहीं है. वो कुछ करके दिखा देने का है. जिताने के लिए आप को ऐसा आदमी चाहिए, जो लंगर डालकर खड़ा हो जाये और आखिर तक उसको ले जा सके यानी धारण शक्ति वाला. अब धारण शक्ति उन लोगों में होती है, जो शुरू से जो धारण करने की प्रवृत्ति के कारण आगे बढ़ते है. अब आप देखो अपने समाज में, अपनी राजनीति में. अपने यहां सबसे अच्छे राजनेता कौन है ? आप देखोगे जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण, इंदिरा गांधी ब्राह्मण, अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण, नरसिंह राव ब्राह्मण, राजीव गांधी ब्राह्मण. क्यों ? क्योंकि सब चीजों को संभालकर चलाना है इसलिए ये समझौता वो समझौता वो सब कर सकते है. बेचारे अटल बिहारी बाजपेयी ने तो इतने समझौते किये कि उनके घुटनों को ऑपरेशन हुआ तो मैंने लिखा कि इतनी बार झुके है कि उनके घुटने खत्म हो गये, इसलिए ऑपेरशन करना पड़ा. ये मैं जातिवादिता के नाते नहीं कह रहा हूं. एक समाज में स्किल का लेवल होता है, कौशल का एक लेवल होता है, जो वो काम करते-करते प्राप्त करता है. उस कौशल का आप अपने क्षेत्र में कैसा इस्तमाल करते हैं, उस पर निर्भर करता है. इंदिरा गांधी बचपन में गूंगी गुड़ियाओं की सेना बना कर लड़ा करती थीं. जब वह प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने अपने आसपास गूंगे लोगो की फौज खड़ी की. ऐसे लोग, जो उसके खिलाफ बोल नहीं सकते थे. या जो अपनी खुद की कैपासिटी में कुछ कर नहीं सकते है. वही एक सर्वोच्च नेता रहीं. बचपन के जो खिलौने होते हैं, वो बाद में हमारे औजार बनते है. जिससे हम चीजों को हैंडल करना सीखते है. क्रिकेट में भी आप देखेंगे, सभी क्रिकेटरों का एनॉलिसिस करके देखेंगे तो आप पाएंगे कि सबसे ज्यादा सस्टेन करने वाले, सबसे ज्यादा टिके रहने वाले कौन खिलाड़ी हैं ? सुनील गावस्कर सारस्वत ब्राह्मण, सचिन तेंदुलकर सारस्वत ब्राह्मण.


--देखिए, दो लोग थे जिन्होंने कहा कि हम आजाद नहीं हुए। एक तो कम्युनिस्टों ने कहा कि हम आजाद नहीं हुए दूसरा हिंदुत्ववादियों ने कहा था। हिंदुत्ववादी ने भी इस आंदोलन में भाग नहीं लिया और कम्युनिस्टो ने भी. कम्युनिस्टों ने भारत छोड़ो आंदोलन के खिलाफ अंग्रेजों की मुखबिरी की थी। क्योंकि उस वक्त उनको लगता था कि रूस दुनिया में स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा है तो उसकी मदद करो. तो जिधर रूस है, वो उधर चले गए. हिंदुत्ववादियों को लगता था कि अगर पाकिस्तान को यह देश सौंप कर जाएंगे, टुकड़ा करके तो बाकि टुकड़ा हम हिंदुओं को मिलना चाहिए.


--जब नक्सलियों पर प्रतिबंध लगा तो कुछ पार्टियों ने कहा कि प्रतिबंध लगाना गलत है, क्योंकि हम उनसे राजनीतिक रूप से निपट सकते हैं, ये कहा गया. मैंने तब लिखा कि भाई आप नक्सलाईट से तो राजनीतिक रूप से निपट सकते हैं और इसलिए आप कहते हैं कि उन पर पाबंदी मत लगाओ. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर इस देश में तीन बार पाबंदी लगी, सन 1948 में, सन 1975 में और 1992 में बाबरी मस्जिद के बाद. तब तो किसी लोकतांत्रिक उदारवादी ने उठकर नहीं कहा कि भाई आरएसएस पर पांबदी क्यों लगाते हो. हिंदुत्व से हम विचार से निपटेंगे. हम राजनीतिक रूप से निपटेंगे हिंदुत्व वालों से. नक्सलाईट के बारे में आप कहते हैं क्योंकि नक्सलाईट से आपको सहानुभूति है. अगर इस देश को अपने हिंदुत्ववादियों से सहानुभूति नहीं होगी तो उनको वो वापस मोड़ कर नहीं ला सकते. इसलिए संवाद सबसे जारी रखना चाहिए. वह चाहे नक्सलवादी हो या फिर हिंदुत्ववादी हो क्योंकि इसके अलावा लोकतंत्र में कोई तरीका ही नहीं है.


सती हमारी परंपरा
• मुझको आपका एक बहुचर्चित लेख याद आता है सती प्रथा वाला... मैं यह मानता हूं कि सती प्रथा के प्रति जो कानूनी रवैया है, वो अंग्रेजों का चलाया हुआ है. अपने यहां सती पति की चिता पर जल के मरने को कभी नहीं माना गया. सबसे बड़ी सती कौन है आपके यहां ? सीता. सीता आदमी के लिए मरी नहीं. दूसरी सबसे बड़ी कौन है आपके यहां ? पार्वती. वो खुद जल गई लेकिन पति का जो गौरव है, सम्मान है वो बनाने के लिए. उसके लिए. सावित्री. सावित्री सबसे बड़ी सती मानी जाती है. सावित्री वो है, जिसने अपने पति को जिंदा किया, मृत पति को जिंदा किया. सती अपनी परंपरा में सत्व से जुड़ी हुई चीज है. मेरा सत्व, मेरा निजत्व जो है, उसका मैं एसर्ट करूं. अब वो अगर पतित होकर... बंगाल में जवान लड़कियों की क्योंकि आदमी कम होते थे, लड़कियां ज्यादा होती थीं, इसलिए ब्याह देने की परंपरा हुई. इसलिए कि वो रहेगी तो बंटवारा होगा संपत्ति में. इसलिए वह घर में रहे. जाट लोग तो चादर डाल देते हैं, घर से जाने नहीं देते. अपने यहां कुछ जगहों पर उसको सती कर देते हैं. `


http://www.raviwar.com/ से साभार लिए गए अंश

Monday, August 17, 2009

आज़ादी की छाँव में : बेगम अनीस किदवई



फिर सितम्बर आ गया। हिन्दुस्तान को आज़ाद हुए अभी पन्द्रह दिन न बीते थे कि दिल्ली में मार-धाड़ शुरू हो गई। मकानों, दुकानों और गली-कूचों में लहराते हुए तिरंगे झंडे अभी मैले भी न हो पाए थे कि उन पर खून की छींटें पड़ने लगीं। गड़बड़ी, बदमनी, दंगे-फसादों का एक सैलाब था जो पंजाब से चला आ रहा था। उसमें दिल्ली, मसूरी और देहरादून सब गर्क हो गए थे। कहते हैं, एक बार महफ़िल में हिन्दू-मुस्लिम फसाद का जिक्र हो रहा था। किसी ने कहा, फसादों की गंगा तो सारे हिन्दुस्तान में बह रही है। बापू हँसे और बोले- मगर उसकी गंगोतरी तो पंजाब में है। और सचमुच गंगोतरी वहीं से निकली। टेलीफोन गायब, डाक बंद, रेलें बंद, पुल टूटे हुए और इंसान थे कि कीड़े-मकोड़ों की तरह सड़कों पर, गलियों और मैदानों में रेंग रहे थे, मर रहे थे, कुचले जा रहे थे, लूटे जा रहे थे। लेकिन भगदड़ थी कि खुदा की पनाह! इधर से उधर खुदा की बेअवाज लाठी उनको हंका रही थी। मार-काट का इतना बड़ा तूफ़ान शायद ही कभी हिन्दुस्तान के इतिहास में आया हो। सुनती हूँ, बखते-नसर* यरूशलम की आबादी को गुलाम बनाकर बाबुल ले आया था। हजरत मूसा चालीस हजार यहूदियों को लेकर मिस्र से निकल गए थे। करताजना वाले जिस मुल्क को फतह करते थे उसके बाशिंदों को गुलाम बनाकर ले जाते थे और उनसे ईंट पथवाते थे। हिन्दुस्तान में भी महाभारत जैसी बड़ी जंग हुई और फिर नादिरशाह ने भी तीन दिन दिल्ली में कत्लेआम किया था। मगर ये तो सब पुरानी कहानियां थीं। तब तो एक सूबा और एक जिला भी मुल्क कहलाता था। कितना ही जुल्म होता, दस-बीस हजार से ज्यादा आदमी न मरते होंगे. लेकिन यह जो कुछ हमारी आँखों ने सामने हुआ है, दुनिया में शुरू से आज तक कहीं न हुआ होगा।

*ईरान का बादशाह
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(यह छोटा सा टुकड़ा एक महान किताब `आज़ादी की छांव से` लिया गया है. दरअसल यह किताब नहीं है बल्कि हिन्दुस्तान को आज़ादी के साथ मिली बदनसीबी की दास्तां है जो बेगम अनीस किदवई ने अपने लहू के आंसुओं से बयां की है। फिरकापरस्ती की आग ने खुद उनके घर को जला डाला पर वे गांधी के उसूलों में यकीन रखते हुए सेवा कार्यों में जुटी रहीं। इस दौरान देश के बड़े नेता और अफसर किस तरह इस आग को भड़काने में मशगूल थे और इंसानियत किस तरह तार-तार हो रही थी, उसकी सच्ची और दिल दहला देने वाली तस्वीरें इस किताब में हैं।)

Thursday, August 13, 2009

हबीब तनवीर और सतनामी समुदाय

साथियो, वाणी प्रकाशन से प्रकाशित 'चरनदास चोर, २००४ संस्करण की हबीब तनवीर द्वारा लिखित भूमिका का एक अंश भेज रहा हूं, ताकि पाठक खुद निर्णय कर सकें कि हबीब साहब का सतनामी समुदाय से क्या रिश्ता था. जबसे सहमत, बहुरूप, जन संस्कृति मंच, इप्टा, प्रलेस, जलेस आदि ने प्रतिबंध का विरोध किया है, तबसे रायपुर से ब्लाग दुनिया में रिपोर्टें आ रही हैं कि नाटक प्रतिबंधित नहीं हुआ है, किताब या उसकी भूमिका ही प्रतिबंधित है. बहरहाल इन रिपोर्टों में किसी आधिकारिक स्रोत का हवाला नहीं दिया गया है, जबकि हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स अफ़ इंडिया आदि में नाटक खेलने पर भी प्रतिबंध की बात स्पष्ट रूप से कही गई है. बहरहाल मैं यह उद्धरण भूमिका से ही दे रहा हूं -

मैने दर्शकों से कहा कि " हम एक नया नाटक तैय्यार करन्र जा रहे हैं.अभी यह दिमाग के कारखाने से पूरी तरह नहीं निकला है,और न ऎक्टरों की तैय्यारी अभी पूरी हुई है,फ़िर भी यह देखते हुए कि इस मंचन की आयोजक एक सतनामी संस्था है, और यहां सतनामी दर्शक हज़ारों की संख्या में जमा हैं, और हमारे नाटक का आधार 'सतनाम' धर्म है, अगर आप कहें तो हम इस अधपके नाटक को भी अभी प्रस्तुत कर दें!". सबने एक आवाज़ हो कर कहा "हो!, ज़रूर दिखाओ,हम मन ला कोई जल्दी नई है! अभी भोर कहां हुए है?"
विजयदान ने अपनी कहानी में चोर को कोई नाम नहीं दिया है. हम नाम सोचने में लगे थे. पहले सोचा चोर मरने के बाद अमर हो जाता है, क्यों न उसका नाम'अमरदास' रखें.पंथियों ने कहा, " ये नाम नहीं हो सकता,अमरदास नाम के हमारे एक गुरू गुज़रे हैं." हमने दूसरा नाम तज़वीज़ किया. ये दूसरे गुरू का नाम निकला.आखिर हमने भिलाई के शो के लिए 'चोर चोर' नाम रख दिया,और आगे चलकर 'चरनदास' रख दिया. नाचा पार्टियों में हमारे साथ वर्कशाप में धमतरी के अछोटा गांव की नाचा पार्टी भी थी,उसके लीडर थे रामलाल निर्मलकर. अच्छे कामिक ऎक्टर थे. उनसे कहा,चोर की भूमिका में खड़े हो जाओ.
मैनें दर्शकों से कहा, "हो सकता है कि बीच में उठकर मुझे किसी अभिनेता की जगह ठीक करना पड़े या संवाद में मदद करना पड़े, तो आप लोग कृपया इस बात को नज़रांदाज़ कर दीजिएगा". बिलकुल यही हुआ.मुझे न सिर्फ़ एकाध बार उठकरकिसी सैनिक की मंच पर जगह ठीक करनी पड़ी क्योंकि आगे चलकर इसके कारण सीन में बाधा पड़ने का अंदेशा था, बल्कि बीच बीच में आर्केस्ट्रा के साथ बैठकर खुद गाने भी गाता रहा. गाने उस वक्त तक नहीं लिखे गए थे. मैनें पंथी गीतों की एक छोटी सी पुस्तक अपने पास रख ली थी. साजिंदे हमारे अपने साथ थे ही,बस मैं गाता रहा, कोरस में गाने वाले कलाकार दोहराते रहे,और इस तरह कोई ४५-५० मिनट में नाटक समाप्त हुअ तो मैदान तारीफ़ और तालियों से देर तक गूंजता रहा.
मुझे दर्शकों की राय मिल गई थी, उन्होंने नाटक को अपनी कच्ची शैली और बाकी सब कमज़ोरियों के बावजूद पसंद कर लिया था.दर्शकों में सभी लोग पंथी थे और पंथियों का बुनियादी उसूल है ,"सत्य ही ईश्वर है,ईश्वर ही सत्य है." यही उसूल उनके रोज़मर्रा के पारंपरिक गीत में भी है,और उसी गीत पर हमने नाटक खत्म किया था. बाकी ये सब देख सुन कर उनकी भावुकता उबल पड़ी थी. इस भावुकता का एक कारण यह भी हो सकता है कि उन्ही के पंथ का एक व्यक्ति नाटक का नायक था जिसे नाटकों में पहले कभी नहीं देखा गया था.पंथ की स्थापना के पहले गुरू घासी दास स्वयं एक डाकू थे. शूद्र वर्ग के लोगों ने सतनामी धर्म अपनाया तो उन्होंने समाज में उनकी अत्महीनता दूर करने के लिए उन्हे जनेऊ पहनने का अदेश दिया.इन तमाम चीज़ों के बावजूद आजतक उनका मुकाम गांव के बाहर है.उनका कुआं,उनका पानी समाज से अलग है,इन्हीं कारणों से सतनामियों में अपने धर्म के प्रति जोश होता है. वे अपनी सुरक्षा के लिए लाठी चलाने में भी निपुण होते हैं और जहांतक अपने अधिकारों के लिए लड़ने का संबंध है, तो इतिहास सैकड़ों साल से उनके आंदोलनों,उनके संघ्र्ष से भरा पड़ा है."

तो मित्रो, ये है हबीब साहब के खयालात सतनामी समुदाय के प्रति, ममता और सम्मान से ओत-प्रोत.

-मृत्युंजय

(आलोचक मृत्युंजय का यह मेल कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने उपलब्ध कराया है।)


मैंने पोस्ट लगाने के बाद देखा कि कबाड़खाना पर अशोक भाई इसे लगा चुके हैं।

Wednesday, August 12, 2009

कृष्णमोहन - यशस्वी भव!

हिंदी साहित्य में इधर कई अप्रिय प्रसंग हुए हैं. उदयप्रकाश जैसे प्रतिभाशाली वरिष्ठ लेखक का एक फासीवादी से पुरस्कार लेने पहुंचना और फिर इस मुद्दे पर विरोध करने वालों को हड़काना बहुत से लोगों के लिए बेहद हैरत की बात थी. हालाँकि यह फिसलन अचानक नहीं थी. दुनिया के एकध्रुवीय होने के ऐलान और हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक उभार ने कई लेखकों को नए माहौल में अपना नफा-नुकसान देखते हुए नया रास्ता अख्तियार करने के लिए मजबूर किया. फिर भी हिंदी लेखकों का बड़ा हिस्सा कुल-मिलाकर प्रतिबद्ध रहा. युवा लेखकों ने भी प्रतिरोध की परम्परा से रिश्ता बनाया. इस दृष्टि से कृष्णमोहन प्रकरण ज्यादा दुखद है. यह प्रतिभाशाली युवा आलोचक जिस तरह सलवा-जुडूम संचालकों के जादू में एक विवादास्पद पुरस्कार लेने पहुंचा और फिर इस `यश` की झोंक में अपने संगठन जन संस्कृति मंच तक को खरी-खोटी सुनाने लगा, हैरत और अफ़सोस की बात रही. जसम ने कृष्णमोहन को संगठन से निष्कासित करने की औपचारिकता पूरी कर दी है. निष्कासन का चिट्ठा यूँ है-

जन संस्कृति मंच श्री कृष्णमोहन को तत्काल प्रभाव से संगठन से निष्कासित करता है. ग्यातव्य है कि ११-१२ जुलाई को सम्पन्न हुई जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव लिया गया था. प्रस्ताव में 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान' की मार्फ़त 'सलवा जुडुम' जैसे जघन्य कार्य कराने वाली तथा डा. विनायकसेन जैसे मानवतावादी चिकित्सक को 'छत्तीसगढ़ पब्लिक सिक्योरिटी ऎक्ट' जैसे काले कानून में फ़ंसाने, फ़र्ज़ी मूठभेड़ों तथा दूसरे मानवाधिकार के मसलों पर दुनिया भर में निंदित सरकार द्वारा वाम, जनवादी और प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों को साज़िशाना तरीके से एक खास समय में अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की निंदा की गई थी. इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति को जीवित रखने के लिए किसी भी आयोजन या पुरस्कार से कोई ऎतराज़ नहीं है. लेकिन यह कार्यक्रम तो उनकी स्मृति का भी शासकीय अपहरण था. श्री कृष्णमोहन. जो अब तक जसम की राष्ट्रीय परिषद में थे, इस कार्यक्रम में शामिल थे. उनसे उक्त प्रस्ताव की रोशनी में लिखित तौर पर स्पष्टीकरण मांगा गया था जिसका जवाब भेजने की जगह उन्होंने एक ब्लाग पर उद्दंड भाषा में संगठन पर अनर्गल बातें कहीं. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों से विचार विमर्श के उपरांत, अधिकांश की राय के अनुसार, प्रस्ताव की भावना के अनुरूप श्री कृष्णमोहन को जन संस्कृति मंच से निष्कासित किया जाता है.
(जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ओर से के. के. पाण्डेय द्वारा जारी)

Monday, August 10, 2009

क्या हबीब आएंगे यह लड़ाई लड़ने?



दो महीने हुए जब हबीब तनवीर रुखसत हुए तो उनके बारे में काफी-कुछ लिखा गया था. लेकिन इस बात का ज़िक्र कम ही किया गया कि वे कला की दुनिया में प्रभावी (और अब दुर्लभ) सेक्युलर उपस्थिति थे. विशुद्ध कला के पैरोकार उनके रंग कौशल पर तो काफी लिख रहे थे लेकिन आरएसएस के कुनबे से उनकी मुठभेड़ पर वे चुप ही थे. जिन लेखकों ने इस बारे में लिखा भी, वे प्रायः वही लेखक थे जिन पर लाल रंग में रंगे होने की `तोहमत` है.
यह सर्वविदित तथ्य है कि `लिविंग लीजेंड` की कला जोखिम भरे रस्ते से होकर गुजरती थी. 90 के दशक में सांप्रदायिक उभार के साथ उनके सेक्युलर मिजाज़ के नाटकों को लेकर संघ का कुनबा बेहद हमलावर हो गया था. `मोटेराम का सत्याग्रह`, `पोंगा पंडित`, `जिस लाहौर नहीं वेख्या` जैसे नाटक कट्टरपंथियों को कभी रास नहीं आये. हबीब साहब को नाटकों के प्रदर्शन के दौरान भी हमले झेलने पड़े, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता और मजबूत होती गई. उन्होंने बहुत से `सेक्युलर चेम्पियनों` की तरह इसका न रोना रोया और न इसके लिए किसी वाहवाही की अपेक्षा की. उन्होंने यही कहा कि वे कला की दुनिया और सड़क दोनों जगह लड़ सकते हैं. वे होते तो `चरणदास चोर` पर छत्तीसगढ़ की संघी सरकार की पाबंदी को लेकर किसी की मदद ताकने के बजाय मोर्चा संभाले मिलते.
तो क्या मोनिका मिश्र और हबीब तनवीर की मौत के साथ हमारे लेखकों, कलाकारों और जागरूक नागरिकों ने नया थियेटर और उसके मूल्यों का भी फातिहा पढ़ दिया है? क्या इस लड़ाई को आकर लड़ने की जिम्मेदारी उन मरहूमों की ही बनती है? जाहिर है कि यह लड़ाई सेक्युलर, डेमोक्रेटिक और प्रोग्रेसिव मूल्यों की हिफाज़त की लड़ाई है और ये लड़ाई इन मूल्यों में आस्था रखने वाले हर कलाकार, एक्टिविस्ट और साधारण नागरिक के सामने खड़ी है.
जहाँ तक लेखकों, कलाकारों का सवाल है तो प्रेमचंद और हुसेन पर हमलों व ऐसे बहुत से दूसरे मसलों पर व्यापक एकजुटता और इच्छाशक्ति का अभाव सामने आता रहा है. हुसेन के मसले पर तो कई `प्रोग्रेसिव` लेखक अक्सर राइट लिबरल और कई बार राइट विंग की भाषा बोलते भी मिल जाते हैं. इस `बौद्धिक` वर्ग ने हाल के उदयप्रकाश-योगी आदित्यनाथ प्रकरण और प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान प्रकरण में भी हद दर्जे की अवसरवादिता, मूल्यहीनता और लिजलिजापन दिखाया है. तो क्या ताजा मामले में प्रमुख प्रोग्रेसिव संगठनों को क्रूर आत्मालोचना करते हुए और अपने बीच के रंगे सियारों को अलग करते हुए साझा रणनीति के साथ मोर्चा नहीं संभालना चाहिए?

Sunday, August 2, 2009

यह सांस्कृतिक सलवा-जुडूम है

आशुतोष कुमार


अशोक वाजपेयी ने लिखा है ('कभी-कभार', 19 जुलाई, 2009, जनसत्ता) कि कुछ लेखकों ने 'प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान समारोह' का बहिष्कार इसलिए किया कि छत्तीसगढ़ सरकार नक्सलियों का 'जनसंहार' कर रही है.

यह एक झूठ है. सीधा-सादा सिद्ध झूठ.

बहिष्कार करनेवालों में एक थे पंकज चतुर्वेदी. विश्वरंजन के नाम उनका खुला पत्र 'अनुनाद' ब्लॉग पर समारोह के पहले ही प्रकाशित हो चुका था. सुना है, उसकी मुद्रित प्रतियाँ वहाँ बाँटी भी गयी थीं. उसमें कहा गया है कि समारोह के आयोजक विश्वरंजन ने मंगलेश डबराल द्वारा संपादित पत्रिका 'पब्लिक एजेंडा' के तभी प्रकाशित अंक में 'सलवा जुडूम' का खुलकर सम र्थन किया है. 'सलवा-जुडूम' के आलोचकों को नक्सलियों का सह योगी बताकर उनके खिलाफ़ हर तरह की लड़ाई लड़ने का संकल्प दोहराया है. विश्वरंजन छत्तीसगढ़ के डीजीपी और एक कवि भी हैं. 'सलवा-जुडूम' के क्रियान्वयन में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका स्वाभाविक है. ख़ास बात यह है कि वे इसके सिद्धांतकार भी हैं. वे इसके पक्ष में पत्र-पत्रिकाओं में विस्तार से लिखते रहे हैं. लम्बे-लम्बे साक्षात्कार देते रहे हैं. 'दैनिक छत्तीसगढ़' में उनका एक साक्षात्कार सात खंडों में प्रकाशित हुआ था. वे महज़ पुलिस -अफ़सर नहीं, पुलिस-चिन्तक हैं.

क्या 'सलवा-जुडूम' की आलोचना करना नक्सली होना या उनकी हिमायत करना है?

अप्रैल, 2008 में 'सलवा-जुडूम' के सन्दर्भ में छत्तीसगढ़ की सरकार से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था :'यह सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का सवाल है. आप किसी भी नागरिक को हथियार थमाकर यह नहीं कह सकते कि जाओ, हत्याएँ करो! आप 'भारतीय दंड संहिता' की धारा 302 के तहत अपराध के उत्प्रेरक ठहराये जायेंगे.'

विश्वरंजन के मुताबिक़ 'सलवा-जुडूम' के आलोचक वे नक्सली हैं, जिन्होंने तमाम मानवाधिकार संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों और जनतांत्रिक आन्दोलनों में घुसपैठ कर ली है. या नक्सली नहीं भी हैं, तो उन्हें 'लोजिस्टिक सपोर्ट' देनेवाले हैं. संगी-साथी हैं. जैसे बिनायक सेन.

क्या सर्वोच्च न्यायालय में भी नक्सलियों ने घुसपैठ कर ली है? तो उसके खिलाफ़ विश्वरंजन कौन-सी लड़ाई छेड़नेवाले हैं? दिसम्बर, 2008 में सर्वोच्च न्यायालय के सामने छत्तीसगढ़ सरकार ने क़बूल किया कि  'ख़ास पुलिस अफ़सरों' (एसपीओज़) ने आदिवासियों के घरों में आग लगाई है, लूटपाट भी की है. कुछ के खिलाफ़ दंडात्मक कार्रवाई भी हुई है.' लेकिन असली सवाल यह है कि क्या किसी संवैधानिक लोकतांत्रिक राज्य को 'सलवा-जुडूम' जैसा अभियान चलाने का हक़ दिया जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय की राय है कि नहीं. हमारी-आपकी?

'तहलका' (अँग्रेज़ी) के ताज़ा अंक में उन आदिवासी युवतियों के विस्तृत बयान छपे हैं, जिनके साथ 'ख़ास पुलिस अफसरों' (एसपीओज़) ने आम पुलिस की मदद से नृशंस बलात्कार किये हैं. वे महिलाएँ 'सलवा-जुडूम' के कैम्पों में ही थीं, किसी 'नक्सली' गाँव में नहीं ! छत्तीसगढ़ पुलिस तो उनकी मदद क्या करेगी, 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' की जाँच टीम ने भी अपनी रिपोर्ट में लिख दिया कि ये झूठे आरोप हैं. यहाँ दिलचस्प बात यह है कि उस 'जाँच टीम' के सभी सदस्य पुलिस अधिकारियों में-से चुने गये थे.

'सलवा-जुडूम' क्या है? countercurrents.org पर "विश्वरंजन के नाम एक आम नागरिक का खुला ख़त" प्रकाशित है. लेखक हैं अनूप साहा. इस ख़त से 'सलवा-जुडूम' को समझना आसान हो जाता है.

'स्ट्रेटेजिक हैमलेटिंग' (इसकी हिन्दी सुझायें, अशोक जी!) का प्रयोग अमेरिकी सेना ने विएतनाम में किया था. इसकी तीन ख़ास बातें हैं. आबादियों की ऐसी घेराबंदी की जाये कि उन्हें जीवन-निर्वाह के सभी साधनों के लिए घेरा डालनेवाली फ़ौज पर निर्भर हो जाना पड़े. अगर यह मुमकिन न हो, तो उन्हें गाँवों से हटाकर विशेष कैम्पों में स्थानांतरित कर दिया जाये. इन कैम्पों की निगरानी करने और उनमें रहनेवालों को नियंत्रित करने के लिए उन्हीं में-से 'सहयोगी' तत्त्वों को चुनकर उन्हें हरबा -हथियार, रुपये-पैसे के साथ फ़ौजी ट्रेनिंग मुहैया करायी जाये. दुश्मनों के साथ लड़ाई में उन्हें अग्रिम दस्ते की तरह इस्तेमाल किया जाये. बदले में उन्हें मनमानी करने की छूट दी जाये. इसके दो अहम फ़ायदे हैं. एक, इन 'ख़ास पुलिस अधिकारियों' (एसपीओज़ ) से वह सब कुछ कराया जा सकता है, जिसे करने में संविधान के तहत काम करनेवाली पुलिस हिचकती है. दूसरे, इसे स्थानीय आबादियों की आपसी लड़ाई के रूप में दिखाया जा सकता है, जिससे सरकार का दमनकारी चेहरा दिखायी न पड़े. 'सलवा-जुडूम' के विषय में किये गये सभी स्वतन्त्र अध्ययनों में उसकी ये तमाम विशेषताएँ उजागर होती हैं.

स्थानीय लोगों को आतंकित और अपमानित करने की सबसे आसान तरकीब है – महिलाओं का अपमान और उत्पीड़न. सीएवीओडब्ल्यू (C.A.V.O.W.) ने 'सलवा-जुडूम' से सम्बन्धित अपनी 2007 की एक रपट में इसका ब्योरा दिया है. 'फ़ोरम फॉर फैक्ट फाइंडिंग डॉक्युमेंटेशन एंड एडवोकेसी' ने अपने अध्ययन में पाया है कि केवल दंतेवाड़ा के दक्षिणी ज़िले में 'सलवा-जुडूम' ने बारह हज़ार नाबालिग़ बच्चों का इस्तेमाल किया है. 'एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स' की रपट भी इसकी पुष्टि करती है. 'विकीपीडिया' पर यह सारी जानकारी सुलभ है.

'सलवा-जुडूम' के चलते दहशत में जीनेवाले आदिवासियों की आबादी कम-से-कम डेढ़ लाख है.

छत्तीसगढ़ के जंगल और ज़मीन क़ीमती हैं. वहाँ अपार खनिज संपदा है. उन पर बलशाली कम्पनियों की नज़र है. छत्तीसगढ़ सरकार ने सन 2000 से अब तक तिरेपन समझदारी पत्रों (एमओयू ) पर दस्तख़त किये हैं. 23,774 एकड़ भूमि के अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. बिड़ला ग्रुप, टाटा ग्रुप, गुजरात अम्बुजा सीमेंट, एसीसी, लाफार्ज, एस्सार, बाल्को, वेदान्त ... अनगिनत कंपनियाँ हैं, जिन्हें वहाँ लाखों एकड़ मुक्त ज़मीन चाहिए. आदिवासी इन्हीं ज़मीनों को बचाने के लिए लड़ते हैं. उनके खिलाफ़ सरकारी मशीनरी साम-दाम-दंड-भेद की पूरी ताक़त से टूट पड़ती है. अब वे क्या करें कि ऐसे में उनके साथ खड़े होने के लिए केवल नक्सली पहुँचते हैं.

राज्य की विराट हिंसा के सामने आत्म-रक्षा के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़े, इसे गाँधीजी तक ने अनुचित नहीं ठहराया है. लेकिन उत्तेजक, अराजक और आक्रामक हिंसात्मक कार्रवाइयां जन-आन्दोलनों को व्यापक जनता से अलगाव में डालती हैं. न सुधारी जा सकने लायक़ ग़लतियों, विकृतियों और बन्धुघाती हिंसा की संभावना बढ़ जाती है. इससे संघर्ष की असली ज़मीन छूट जाती है. दमन और उत्पीड़न आसान हो जाता है. आम आबादी की दो पाटों के बीच पिस जाने की-सी हालत हो जाती है.

नक्सलियों की ओर से की गयी अराजक हिंसा निन्दनीय है. लेकिन राज्य द्वारा की जा रही हिंसा अलग है. लोकतंत्र में राज्य की मशीनरी आम आदमी के खून-पसीने से चलती है. 'सलवा-जुडूम' के बलात्कारी 'ख़ास पुलिस अफ़सरों' ( एसपीओज़) को पालने-पोसने में जो धन ख़र्च हो रहा है, उसमें मेरे-आपके खून-पसीने की कमाई शामिल है. इसमें हमारी-आपकी सीधी ज़िम्मेदारी बनती है. ऐसा नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा के साथ नहीं है.
 
सरकार भी नक्सलियों का नहीं, आदिवासियों का जनसंहार कर रही है. अशोक जी के अवचेतन में भी कहीं यही बात रही होगी, इसीलिए वे नक्सलियों का 'जनसंहार' लिख गये. नहीं तो सभी जानते हैं कि इतनी जनसंख्या उनकी नहीं है कि  'जनसंहार' जैसे शब्द का प्रयोग संगत जान पड़े.

इस प्रसंग में मूल प्रश्न यह है कि क्या विश्वरंजन जैसे 'सलवा-जुडूम' के सिद्धांतकार केवल शौक़-शौक़ में सांस्कृतिक समारोहों का आयोजन कर रहे हैं? 'दैनिक छत्तीसगढ़' में छपे उनके एक लम्बे लेख में बड़ी मशक्कत से जनता को यह समझाने की कोशिश की गयी है कि नक्सली एक रणनीति के तहत छात्रों, बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों के बीच घुसपैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं. नक्सलियों की इस रणनीति से निपटना विश्वरंजन को सबसे बड़ी चुनौती जान पड़ती है. सुना है कि वे फ़िराक़ के नाती हैं. ख़ुद कवि हैं. निराला को पढ़ा ही होगा. "आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर ". घुसपैठ का दृढ़ घुसपैठ से दो उत्तर!

अब जब हिन्दी के बड़े कवि-लेखक उनके समारोहों में उनकी जय-जयकार करेंगे, सम्मानित होंगे, विरोधियों को नक्सली बताकर लांछित करने में उनके सुर-में-सुर मिलायेंगे, तो उन्हें अपनी रणनीति की कामयाबी पर गर्व क्यों न होगा!
  
यह 'सांस्कृतिक सलवा-जुडूम' है. 'स्ट्रैटेजिक हैमलेटिंग'. विरोधियों को अलग-थलग करो. उनकी सप्लाई-लाइन काट दो. सहयोगियों की घेराबंदी सम्मानों और सुविधाओं से करो. जनता से अलगाव में डालो..

गोरखपुर के योगी को भी सम्मानित करने के लिए उदय प्रकाश ही क्यों मिले? उन्हें हिन्दी के तरुण विजयों की याद क्यों न आयी? यह भूल-चूक-लेनी-देनी है? या "सांस्कृतिक स्ट्रैटेजिक हैमलेटिंग "?


(जनसत्ता, दिल्ली, 2 अगस्त, 2009 से साभार )