Sunday, July 28, 2013

मंगलेश डबराल के कविता संग्रह 'नये युग में शत्रु' पर असद ज़ैदी की टिप्पणी

ये युग में शत्रु
एक बेगाने और असंतुलित दौर में मंगलेश डबराल अपनी नई कविताओं के साथ प्रस्तुत हैं – अपने शत्रु को साथ लिए। बारह साल के अंतराल से आये इस संग्रह का शीर्षक चार ही लफ़्ज़ों में सब कुछ बता देता है – उनकी कला-दृष्टि, उनका राजनीतिक पता-ठिकाना, उनके अंतःकरण का आयतन।  यह इस समय हिन्दी की सर्वाधिक समकालीन और विश्वसनीय कविता है। भारतीय समाज में पिछले दो-ढाई दशक के फ़ासिस्ट उभार, साम्प्रदायिक राजनीति और पूँजी के नृशंस आक्रमण से जर्जर हो चुके  लोकतंत्र के अहवाल यहाँ मौजूद हैं, और इसके बरक्स एक सौंदर्य-चेतस कलाकार की उधेड़बुन का पारदर्शी आकलन भी। ये इक्कीसवीं सदी से आँख मिलाती हुई वे कविताएँ हैं जिन्होंने बीसवीं सदी को देखा है। ये नये में मुखरित नये को भी  परखती हैं और उसमें बदस्तूर जारी पुरातन को भी जानती हैं। हिन्दी कविता में वर्तमान सदी की शुरूआत ही 'गुजरात के मृतक का बयान' से होती है।

ऊपर से शांत, संयमित और कोमल दिखने वाली, लगभग आधी सदी से पकती हुई मंगलेश की कविता हमेशा सख़्तजान रही है – किसी भी चीज़ के लिए तैयार! इतिहास ने जो ज़ख़्म दिए हैं उन्हें दर्ज करने, मानवीय यातना को सोखने और प्रतिरोध में ही उम्मीद का कारनामा लिखने के लिए हमेशा प्रतिबद्ध। यह हाहाकार की ज़बान में नहीं लिखी गई है; वाष्पीभूत और जल्दी ही बदरंग हो जाने वाली भावुकता से बचती है। इसकी मार्मिकता स्फटिक जैसी कठोरता लिए हुए है। इस मामले में मंगलेश  क्लासिसिस्ट मिज़ाज के कवि हैँ – समकालीनों में सबसे ज़्यादा तैयार, मँजी हुई, और तहदार ज़बान लिखने वाले।

मंगलेश के यहाँ जो असाधारण संतुलन है कभी बिगड़ता नहीं – उनकी कविता ने न यथार्थबोध को खोया है न अपने निजी संगीत को। वह अपने समय में कविता की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों को अच्छे से सँभाले हुए हैं;  इस कार्यभार से दबे नहीं हैं। मंगलेश के लहजे की नर्म-रवी और आहिस्तगी शुरू से उनके अक़ीदे की पुख़्तगी और आत्मविश्वास की निशानी रही है। हमेशा की तरह जानी पहचानी मंगलेशियत इसमें नुमायाँ है।

और इससे ज़्यादा आश्वस्ति क्या हो सकती है कि इन कविताओं में वह साज़े-हस्ती बे-सदा नहीं हुआ है जो पहाड़ पर लालटेन से लेकर उनके पिछले संग्रह आवाज़ भी एक जगह है  में सुनाई देता रहा था। नये युग में शत्रु में उसकी सदा पूरी आबो-ताब से मौजूद है।

–असद ज़ैदी
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ग़ालिब का शेर, जिसका हल्का सा हवाला ब्लर्ब में है, इस तरह है :

नग़्माहा-ए ग़म को भी, ऐ दिल, ग़नीमत जानिये
बे-सदा हो जाएगा, ये साज़े-हस्ती, एक दिन