Saturday, March 31, 2012

पोएट्री एंड कमिटमेंट - एड्रियन रिच



इस वर्ष न्याय सांख्यिकी ब्यूरो (ब्यूरो ऑफ़ जस्टिस  स्टैटिसटिक्स) की एक रिपोर्ट ने पता लगाया है कि यूनाइटेड स्टेट्स के हर 136 निवासियों में से एक सलाखों के पीछे हैं- बहुत से तो बिना जुर्म साबित हुए जेल में हैं. कि बंदी बनाए गए लोगों में काले पुरुषों का प्रतिशत लगभग हर एक गोरे पुरुष बंदी के पीछे 12 काले पुरुष बंदी जितना है. कि जिन राज्यों में निर्धनतम आबादी है वहाँ कारावास और सज़ा-ए-मौत की दर सर्वाधिक है. 
हम अक्सर सुनते हैं कि - मसलन नाइजेरिया या मिस्र, चीन या पूर्ववर्ती सोवियत संघ - के विपरीत पश्चिम असहमत (डिसिडन्ट) लेखकों को बंदी नहीं बनाता. मगर जब किसी राष्ट्र की दंड-न्याय व्यवस्था इतनों को बंदी बनाती है- बहुधा छिछले सबूतों और बेढंगी न्याय प्रक्रिया के आधार पर - जिन्हें अधिकतम सुरक्षा कोठरियों में या सू-ए-दार यंत्रणाएं दी जायेंगीं, खासकर त्वचा के रंग या उनके वर्ग के कारण, यह व्यवहार में - और नीयत में - संभावित और वास्तविक लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों: समूचे प्रबुद्ध वर्ग को ख़ामोश कराना है. मुमिया अबू-जमाल का अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मामला प्रतीकात्मक है पर अनोखा बिल्कुल नहीं.  अबू ग़रीब और ग्वांतानामो के तरीके यूनाइटेड स्टेट्स की जेलों और पुलिस व्यवस्था में बहुत पहले से प्रयोग में लाये जाते रहे हैं.
इन सबका कविता से क्या लेना देना है? अगर "इन सब" का कविता से कोई लेना-देना न होता, तो क्या आप सब, विभिन्न दिशाओं से, इस सम्मेलन में आये होते? ( तसव्वुर उन लोगों का भी जो यहाँ होते अगर राजनीति और साहित्य का टकराव न होता). ब्रेख्त के गैलिलियो के शब्दों में, जो मुखातिब थे एक नए व्यावसायिक युग में वैज्ञानिकों से और जो युग कलाकारों के लिए भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है: हम किस लिए काम कर रहे हैं?
मगर- इसे कभी नज़र-अंदाज़ न किया जाए- कि हर अधिकृत, सांख्यिकीय, निर्दिष्ट राष्ट्र में एक और राष्ट्र साँस लेता है: जनता के अनियुक्त, अतुष्टिकृत, अस्वीकृत समूह जो रोज़, प्रखर कल्पना और दृढ़ता के साथ, क्रूरताओं, बहिष्कारों, और तिरस्कारों का सामना करते हैं, और जिनके संकेत उन अवरोधों से होकर आते हैं - जो अक्सर साहित्यिक पिंजड़े होते हैं- कविता में, संगीत में, नुक्कड़ नाटकों में, दीवारों पर बने म्यूरल में, वीडियो में, वेबसाइटों में- और प्रत्यक्ष एक्टिविज़्म के बहुत से स्वरूपों में.


-एड्रियन रिच की पुस्तिका 'पोएट्री एंड कमिटमेंट' से उद्धृत. 'पोएट्री एंड कमिटमेंट' को सर्वप्रथम स्टर्लिंग विश्वविद्यालय, स्कॉटलैंड में 2006 कॉन्फ्रेंस ऑन पोएट्री एंड पॉलिटिक्स में प्लीनरी लेक्चर के तौर पर प्रस्तुत किया गया था. इसका किंचित संक्षिप्त संस्करण एड्रियन रिच ने नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन मेडल फ़ॉर डिस्टिन्ग्विश्ड कॉन्ट्रीब्यूशन टू अमेरिकन लेटर्स स्वीकार करते समय पढ़ा था. एड्रियन रिच का गत मंगलवार 27 मार्च को बयासी वर्ष की उम्र में कैलिफोर्निया में निधन हो गया. 

(अनुवाद एवं प्रस्तुति - भारतभूषण तिवारी)

Monday, March 26, 2012

लोग बोलेंगे: लाल्टू


गुजरात और नरेंद्र मोदी फिर से सुर्खियों में हैं। एक ओर 2002 की दुःखदायी घटनाओं गोधरा और उसके बाद का नरसंहार – के दस साल बाद कई सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और चिंतकों ने लेखाजोखा लेने की कोशिश की है कि दस साल बाद हम कहाँ खड़े हैंगुजरात में नरसंहार के दोषियों में से किसे सजा मिली और कौन खुला घूम रहा हैपीड़ितों में से कौन ज़िंदगी को दुबारा लकीर पर ला पाया है और कौन नहीं। दूसरी ओर टाइम मैगज़ीन के मार्च अंक में आवरण पर नरेंद्र मोदी की तस्वीर है और अंदर एक साक्षात्कार आधारित आलेख हैजिसमें मोदी को कुशल प्रशासक के रूप में चित्रित किया गया है और साथ ही सवाल उठाया गया है कि क्या यह व्यक्ति भारत का नेतृत्व कर सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी की गिरती साख और दो साल बाद 2014 में होने वाले आम चुनावों के मद्देनज़र राजनैतिक गलियारों में इन बातों को गंभीरता से लिया जा रहा है।
कइयों ने सवाल उठाया है कि अमरीकी समीक्षकों का अचानक मोदी से मोह क्यूँकर बढ़ने लगा। आखिर कल तक असहिष्णु सांप्रदायिक माने जाने वाला व्यक्ति महज पब्लिसिटी कंपनियों को पैसा खिलाकर अपनी छवि सुधारने में सफल कैसे हो गया। इसे समझने के लिए हम पूँजीवाद और अमरीकी तथा यूरोपी व्यापारी समुदाय की फासीवादियों और अन्य मानव विरोधी तोकतों के प्रति ऐतिहासिक भूमिका कैसी रही हैइस ओर नज़र डाल सकते हैं। 1936 में स्पेन में लोकतांत्रिक ताकतों के साथ तानाशाह फ्रांको के समर्थन में सेना और अन्य चरमपंथी राष्ट्रवादियों के गृहयुद्ध के दौरान दीगर पश्चिमी मुल्कों के बीच यह समझौता हुआ कि कोई दूसरा मुल्क किसी पक्ष की ओर से युद्ध में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसके बावजूद दोनों पक्षों के समर्थन में धन और बल हर तरह की मदद पहुँची। हिटलर के अधीन जर्मन सेनाओं ने खुलकर राष्ट्रवादियों के समर्थन में लड़ाई में हिस्सा लिया। पाबलो पिकासो की बीसवीं सदी की महानतम माने जाने वाली कलाकृति ग्वेर्निका इसी नाम के गाँव पर 26 अप्रैल 1937को हुई जर्मन बमबारी से हुए ध्वंस और करीब 300 लोगों की मृत्यु पर आधारित है। अमरीकाब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों ने लोकतांत्रिक बलों की मदद के लिए स्पेन पहुँचने की कोशिश करते लोगों को गिरफ्तार किया। भारत से मुल्कराज आनंद पत्रकार के रूप में जाना चाहते थेपर ब्रिटिश सिपाहियों ने उन्हें रोक दिया। अमरीका से चोरी छिपे स्पेन पहुँचे कुछ बहादुरों ने अब्राहम लिंकन ब्रिगेड नाम से फौज की टुकड़ी बनाई और युद्ध में हिस्सा लिया। दूसरी ओर कम से कम 16000 जर्मन सिपाहियों ओर उनके द्वारा प्रशिक्षित औरों ने फ्रांको के राष्ट्रवादियों के समर्थन में लड़ाई लड़ी। इसी तरह मुसोलिनी के इटली से भी आए सैनिकों ने राष्ट्रवादियों के पक्ष में लड़ाई में हिस्सा लिया। आंद्रे मालरो के प्रसिद्ध उपन्यास'ले'एस्पोआर् (मानव की आस)' में ऐसे कई संदर्भों का रोचक वर्णन है।
स्पेन के पास खनिज तेल के स्रोत न थे। फ्रांको को यह संसाधन अमरीकी और ब्रिटिश तेल कंपनियों से मिला। पूँजीवाद के मानव विरोधी पक्ष का यह एक अच्छा उदाहरण है कि एक ओर तो निरपेक्षता के नाम पर लोकतंत्र समर्थकों को स्पेन जाने से रोका गया और दूसरी ओर तानाशाह को मुनाफे के लिए सारे संसाधन दिए गए। इतिहास में ऐसे उदाहरण अनगिनत हैं। इसलिए आज टाइम मैगज़ीन में आवरण पर नरेंद्र मोदी की शक्ल देखकर या उस पर लिखा आलेख पढ़ कर और अमरीका की ब्रूकिंग्स संस्था द्वारा उसकी प्रशंसा देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अमरीकी कंपनियों को मुनाफा चाहिए। यह मुनाफा गुजरात के लोग भेजें या भविष्य में भारत के एक जनविरोधी नेतृत्व को हटाकर दूसरे जनविरोधी नेतृत्व के जरिए उनको मिलेउन्हें इससे कोई मतलब नहीं। अभी कुछ समय पहले अमरीकी संसद में नरेंद्र मोदी की निंदा का प्रस्ताव पारित हुआ था। अमरीका ने मोदी को अपने यहाँ आने के लिए वीज़ा देने से भी इन्कार कर दिया था। अमरीका का व्यापारी समुदाय इससे बहुत खुश तो नहीं होगाक्योंकि आर्थिक साम्राज्यवाद के लिए गुजरात के धनकुबेरों के साथ उन्हें संबंध बनाए रखना है। बाद में अगर मनमोहन के मोह से छूटने की ज़रूरत महसूस हो रही है तो नया मुर्गा या नई कठपुतली भी ढूँढना है। इसलिए डेनमार्क के पाकशास्त्री रेने रेद्ज़ेपी पर चार पन्नों और ब्रिटिश फैशन लेबल मलबेरी पर तीन पन्नों के साथ मोदी पर दो ही सहीटाइम मैगज़ीन में पन्ने तो हैं ही।
फ्रांकोमुसोलिनी और हिटलर आए और गए। उस जमाने में उन मुल्कों में अधिकांश लोगों ने उनका समर्थन किया। आज उसी जर्मनी में लोग यह सोचकर अचंभित होते हैं कि ऐसा कैसे हुआ कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों ने हिटलर जैसे एक मानसिक रूप से बीमार आदमी का नेतृत्व स्वीकार किया। यह मनोविज्ञान का एक बड़ा सवाल है। मोदी जैसों का राष्ट्रवादजो आज कुछ लोगों के लिए गुजराती राष्ट्रवाद हैबहुसंख्यक लोगों को अल्पसंख्यक लोगों के प्रति नफ़रत करने के लिए मजबूर करता है। इस नफ़रत के बिना ऐसे राष्ट्रवाद का अस्तित्व नहीं टिकता।
नरेंद्र मोदी को गुजरात के बहुसंख्यक लोगों का समर्थन हासिल है। दंगों की निंदा को गुजरात और गुजरातियों की आलोचना बनाने में मोदी को सफलता ज़रूर मिलीपर यह झूठ लंबे समय तक बनाए रखना संभव नहीं है। नरेंद्र मोदी जो है सो हैइतिहास उसे उचित जगह पर ही रखेगा। तमाम सूचनाओं के होते हुए भी लोगों को यह समझ न आए कि आज नफरत की राजनीति का समर्थन भविष्य में उनके बच्चों के लिए बेइंतहा शर्म का सबब होगाऐसा हो नहीं सकता। अमरीकी पब्लिसिटी कंपनियों को बहुत सारा पैसा देकर एक ऐसे व्यक्ति ने अपनी साख बनाए रखने की कोशिश की हैजिसका नाम लेते हुए हर भले आदमी को शर्म आती है। यह किसका पैसा हैयह गुजरात के लोगों का पैसा है। पूँजीवाद मूलतः मानव विरोधी है। मुनाफे के लिए अमरीकी कंपनियाँ कुछ भी कर सकती हैं। पर क्या सचमुच वह कुछ भी कर लें और लोग आँखें मूँदे वह मान लेंगेयह 1936 नहीं है कि पब्लिसिटी से सच गायब किया जा सके। नफरत की राजनीति करनेवोलों की करतूतें जगजाहिर हैं। लाख कोशिशें करने पर भी वे बच नहीं सकते। उनको सजा मिलने में देर हो सकती हैपर सजा उनको मिलेगी ही। एहसान जाफरी और शाह आलम शिविर में बिलखती रूहों से लेकर इशरत जहान तक के सच सिर्फ पैसों और अमरीकी पब्लिसिटी से गायब नहीं हो सकते। 1936 में हिटलर और फ्रांको ने क्या कहावह गायब नहीं हुआ है। लोग उसे आज भी सुनते हैं और मानव की अधोगति पर अचंभित होते हैं। नरेंद्र मोदी ने नब्बे के दशक में सत्ता हथियाने के लिए भाषण दर भाषण में मुसलमानों के खिलाफ जो जहर उगला थावह सारा हमारी स्मृति में है। उसकी परिणति गोधरा के पहले और बाद की घटनाओं में हुई। यह गुजरात के लोगों को तय करना है कि उनके बच्चे भविष्य में उनके बारे में इतिहास में क्या पढ़ेंगे। नरेंद्र मोदी की सारी कोशिशें सच को दबा नहीं पाएँगीं।
इधर कई वर्षों से एक बड़ा झूठ यह फैलाया जा रहा है कि मोदी की वजह से गुजरात राज्य में अभूतपूर्व तरक्की हुई है। 'गुड गवर्नेंस' – ये दो शब्द,जिनका मतलब है अच्छा प्रशासनऐसे कहे जाते हैं जैसे मोदी की सरकार के पहले अंग्रेज़ी भाषा में इनका अस्तित्व ही नहीं था। गुजरात के बारे में जानकारी रखने वाले लोग यह बतलाते हैं कि अव्वल तो यह बात सच नहीं है। गुजरात कई सूचकांकों में अन्य कई राज्यों से पीछे है। जो तरक्की दिखती भी हैवह न केवल उच्च और मध्य वर्गों तक सीमित हैवह अधिकतः पहले से हुए अर्थ निवेश ओर पहले से चल रही योजनाओं की वजह से है। जब से अफ्रीकी देशों से निकले गुजराती मूल के व्यापारियों में से कई अमरीका या ब्रिटेन से लौट कर भारत और गुजरात में बस गए हैंतब से शहरीकरण और उसके साथ होता पूँजीवादी विकास वहाँ चल रहा है। यह बात गुजरात के पढ़े लिखे लोगों से छिपी नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद में बीस साल पहले भी गुजरात राष्ट्रीय औसत से आगे था और आज भी है। पर योजना ओयोग के आँकड़ों से पता चलता है कि गरीबी उन्मूलन में गुजरात बिहारउत्तर प्रदेशपश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से पीछे है। मानव विकास के कई सूचकांकों में भी गुजरात अन्य कई राज्यों से पीछे है। राज्य के 44% बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अक्सर तानाशाह आतंक के जरिए व्यवस्थाओं में कहीं कहीं प्रशासनिक नियमितता लाने में सफल होते हैं। अभी कुछ वर्षों पहले तक बहुत से ऐसे लोग मिल जाते थे जो देश की सभी समस्याओं की वजह अंग्रेज़ों के चले जाने को मानते थे। कई लोग तो भारत में हिटलर जैसा तानाशाह चाहते रहे हैं। पर क्या हम सचमुच इतने नादान हैं कि हमें तानाशाही की सीमाएँ मालूम नहींभारत के लोग गठबंधन की राजनीति से परेशान हो सकते हैंपर अगर हाल में के राज्यों से चुनाव परिणाम आए हैंउनसे साफ दिखता है कि उनकी राजनैतिक समझ परिपक्व है और तानाशाही उन्हें स्वीकार नहीं है।
गुजरात के नागरिकों की पीड़ा हर मानव की पीड़ा है। इतिहास हमें बतलाता है कि समय समय पर इंसान हैवान बना है। अतीत में ताकत के बल पर ही सभ्यताएँ बनती बिगड़ती थीं। आधुनिक काल में संगठित रूप से मानव ने सवाल उठाना शुरू किया है कि हैवानियत से हम कैसे बचें। गुजरात में हुए नरसंहार की निंदा और अपराधियों को उचित सजा देमे की माँग गुजरातियों की निंदा नहीं है। किसी नरसंहार के विरोध में उठी आवाज इतिहास के हर नरसंहार का विरोध है। यह ज़रूरी है कि हम विरोध करें ताकि फिर कभी न केवल का गोधरा और उसके बाद की घटनाएं न होंबल्कि 1984 जैसा, 1947 जैसाहिटलर के नरसंहार जैसा नरसंहार या ऐसी कोई भी सांप्रदायिक हिंसा कभी न हो। अपने दो पन्नों के साक्षात्कार में टाइम मैगज़ीन की ज्योति थोट्टम ने मोदी को गुजरात के दंगों पर पूछा तो उसका जवाब था मैं इस बारे में बात नहीं करना चाहता लोग बोलेंगे। मानवता को इंतज़ार है कि गुजरात के लोग अब नफ़रत की राजनीति के खिलाफ बोलें और अपने बच्चों को निष्कलंक भविष्य दें। यही गुजरात का सच्चा गौरव होगा। यह हर मानव का सच्चा गौरव होगा।

--लाल्टू

((इस आलेख का संपादित स्वरूप आज 26 मार्च 2012 को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है)