Saturday, December 31, 2011

रघुवीर सहाय की एक कविता



औरत की ज़िंदगी
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कई कोठरियाँ थीं कतार में
उनमें किसी में एक औरत ले जाई गई
थोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दिया

उसी रोने से हमें जाननी थी एक पूरी कथा
उसके बचपन से जवानी तक की कथा
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रघुवीर सहाय (९ दिसंबर १९२९-३० दिसंबर १९९०)
चित्र-  अंजलि इला मेनन की पेंटिंग

Friday, December 16, 2011

शिवांजलि की कवितायें


कंडीशंस अप्लाई
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अब भी
चौराहों पर बालक खड़े हैं
भूखे
अब भी घूंघट में मुखड़ा छिपाये
पनिहारिनें दूर तक जाती हैं
कोई पलक टकटकी लगाये
आज भी किसी की बाट जोहती है
आसमान का नीला फलक
आज भी
अपनी ओर उठने वाली नज़रों से
बिंध जाता है
आज जबकि `सब है` का दम भरते
बेदम पड़े कुछ आम
बिल्कुल चूस कर फेंक दिये गये हैं
चारों तरफ इश्तिहार
और नीचे छपा है-
कंडीशंस अप्लाई.



समय
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कुछ करूँ.
अब मेरी जड़ें खोखली होती जा रहीं
एक दाना भीख का
मुट्ठियों के शिकंजे में कसता
उस दाने की दरयाफ्त सुनूं
कि चरमराहट की आवाज के साथ
पिसते दानों पर
भूख का भार बढ़ रहा.
अब तो कुछ करूं
कि चमड़े की महक
भ्रम पैदा करती
निर्माण और उपभोग के बीच
वह भीतर ही भीतर सुराख बढ़ाती
पैबन्दों के
जड़ों में पड़ती पानी की पतली धार
कि उन सुराखों में
कि उन गलियों में
आँखों की नमी नहीं सूखती
उन भीख के दानों से भूख नहीं मिटती
बढ़ती है ज्वाला ओहदों की
फैले हुए हाथ
कसती मुट्ठियाँ
खोखली पड़ती जड़ें
और अपने रसूख से कटते लोग
दिखते हैं
बाज़ार पर बसर बनाये हुए.




गवाह
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सड़क के इस छोर से
उस छोर तक
पैबस्त जख्म
चुप्पी से सुन उनकी खामोश धड़कनें
ये हैं गवाह
अनगिनत गुजरते काफिलों के
लोग भूलते जाते
कि जिस पर होकर वे गुजरे थे
पर उनकी खामोश धड़कनें
अपने में समेट लेतीं
चुप रह सहतीं
अनगिनत पड़ते कोड़ों का दर्द
सड़कों पर पटकते
लाचारी वाले पैरों को महसूस कर
कभी उनकी झल्लाहट तो कभी उनकी बेबसी
का राग पढ़ते
पर कभी न सिमटते
न ही फैलते
जख्मों से रिसते
पानी का दर्द
कौन देखता?
सड़कों पर पड़े अलकतरे, मोरंग और बालुओं की तह में
पर कभी न सिमटते
न ही फैलते
जख्मों से रिसते पानी का दर्द
कौन देखता?
सड़कों पर पड़े
अलकतरे, मोरंग और बालुओं की तह में
पैबस्त जख्म
सबके गवाह.





चिथड़ों में लिपटे सुख का गीत
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सूखे हुए सरकंडे
तन कर खड़े हैं
गीत गाती बुलबुल रानी
दलदली भूमि पर खड़े
सरकंडों पर बैठी
निहार रही
अपने आसपास की
वीरान जिंदगियों को
बिखरे हुए झोपड़ों को
और वह निहार रही
नीले आसमान में फटे बादलों को
देख रही है-
माँ खुश है भूखी रह कर
बच्चों के पेट आज बाहर निकले हैं
वह गा रही है -
चिथड़ों में लिपटे सुख का गीत
वह प्रसन्न है
मज़दूरी मिली है
कई दिनों के बाद
चरमराती खाट पर आज
अंगड़ाइयां लेता मज़दूर
बुलबुल के गीत गा रहा है
बुलबुल सोच रही है -
आसमान के फटे बादल जुड़ेंगे
तो बारिश होगी.
 
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोध छात्र शिवांजलि श्रीवास्तव की ये कवितायें
`दस्तक टाइम्स` पत्रिका में छपी हैं.



Friday, November 25, 2011

टीवी आत्मनियमन के सवाल : शिवप्रसाद जोशी


मार्कंडेय काटजू ने मीडिया से जुड़ी कमोबेश उसी क़िस्म की विचलित कर देने वाली बहस शुरू की है जो बड़े फलक पर और व्यापक कथित लोकतंत्रीय राजनीति समाज और जनअधिकारों पर लेखिका अरुंधति रॉय बहुत पहले से और बार बार उठाती रही हैं. ये अलग बात है कि मुख्यधारा के बौद्धिकों और कॉरपोरेट मीडिया के एक हिस्से में उन्हें काफ़िर की तरह देखा जाता है.
काटजू ने मीडिया ख़ासकर टीवी मीडिया के लिए जो आत्मनियमन की बात पर तीखे सवाल उठाए हैं, आखिर देश में उदारवाद के दो दशकों और टीवी के डेढ़ दशक से कुछ ज़्यादा के वक्त के बाद उनके जवाब तो दिए ही जाने चाहिए. मिलने ही चाहिए. काटजू के आक्षेपों पर आहत होने और मुंह बिसूरने और बुरा भला कहने और बौद्धिक झुरझुरी से झनझनाने की शायद ज़रूरत नहीं है. समाज को दिशा देने की अपनी कथित महानता के साए में किसी श्रेष्ठता ग्रंथि में फंस जाने की भी ये वक़्त नहीं है.
आत्मनियमन क्या होता है. किस चीज़ का आत्मनियमन. कहां से शुरू करेंगे कहां कहां करेंगे कहां तक जाएंगें. क्या टीवी मीडिया के अंदरूनी हालचाल की टोह लेने का भी वक़्त नहीं आ गया है. वहां किसी बाहरी व्यक्ति को झांकने देने का सवाल हटा दें क्या आत्मनियमन में आत्मनिरीक्षण भी आ रहा है. क्या अपना काम अपनी शैली अपना दफ्तर अपने कर्मचारी अपना स्टाफ़ अपने लोग भी इस निरीक्षण में दिख रहे हैं. आत्मनियमन की बहस को और आगे बढ़ाया जाना चाहिए.
अब टीवी स्टुडियो में आत्मनियमन पर गाल बजाने का वक़्त भी नहीं रहा. चीज़ें बहुत तेज़ी से बदल रही हैं. टीवी मीडिया नया होता हुआ भी 16 साल में अजीब ज़िद और सनक का शिकार होता हुआ बुढ़ाता जा रहा है. ठीक सामने एक नया मीडिया उतर गया है. जो हमारा टीवी दिखाने से परहेज़ कर रहा है संकोच कर रहा है दबाव में है उसे नया मीडिया दिखा रहा है. वहां ऑडियो वीडियो और प्रिंट का एक नया पर्यावरण बन चुका है. केबल टीवी और मुद्रित शब्द जब थकान से भरे हैं तो वर्चुअल स्पेस में शब्द और दृश्य और वास्तविकता का एक नयी संवेदना एक नई थरथराहट बन रही है. वहां विखंडन और सृजन का द्वंद्व अपने कच्चेपन के साथ जारी है.
आत्मनियमन को टीवी न्यूज़ रूम के हालात से भी जोड़िए. एक बेहद मुश्किल समय वहां पत्रकारों का बीत रहा है. रोज़गार की विवशता ने टीवी मीडिया के कर्मचारी स्तर के पत्रकारों को एक क्रूर किस्म की विसंगति में डाल दिया है. तर्क विवशता दबाव आकर्षण और छंटनी की मिलीजुली घंटियां ख़तरा है- 24 घंटे यही बताती रहती हैं.
टीवी मीडिया के भीतर देखिए वर्चस्ववाद के कई प्रेत मंडरा रहे हैं. वहां कॉरपोरेट पूंजीवाद और मुनाफ़ावाद के अलावा सामंतवाद है. टीवी का एक सामंत कहता है कि वो सब कुछ जानता है आप लोग मूर्ख है नहीं पढ़ते नहीं जानते संविधान क़ानून नहीं जानते समाज और आंकड़ें नहीं जानते. वो चिल्लाता जाता है और पहले से भयभीत कर्मचारियों को डराता जाता है डराता जाता है. उन भय से भरे चेहरों को देखिए. वे बहुत सारे हैं.
कितनी आसानी से टीवी मीडिया के धुरंधर कही जाने वाली दिल्ली बिरादरी इसे भूल जाती है कि उसके मीडिया पर इधर जो छींटे आए हैं वे एक लंबे और गंभीर होमवर्क से निकले हैं. सिस्टम को सड़ांध से भरा हुआ देखना ही कि क्या हमारी नियति है. अरुधंति ज़रूरी मसलों पर जब कुछ कहती हैं तो बाजु भौंहे और कॉलर क्यों फड़फड़ाने लगते हैं. काटजू की टिप्पणियों पर इतनी बालनोचू क़िस्म की प्रतिक्रिया के क्या माने हैं. हुसैन तो सिर्फ़ चित्र बना रहे थे, उन्हें तक असहज कर बाहर धकेल दिया गया. वो एक लिहाज़ से निर्वसन और अफ़सोस में इस दुनिया से चले गए.   
अपने टीवी मीडिया की उपलब्धियों पर इतराने का भी ये वक़्त नहीं है. हमारे सामने बहुत सारे सवाल हैं. बहुत सारे लोग हैं. वे देश की अस्सी फ़ीसदी आबादी हैं. उनमें ग़रीब, वंचित, दलित, विस्थापित, अल्पसंख्यक आते हैं. वे देख रहे हैं. बाबाओं से मुक्ति पा लेने से ही, फ़िल्मी सितारों की जगमग को दिखाते रहने की आदतों से बाज़ आने को ही, अयोध्या फैसले पर संयमित रिपोर्टिंग करने को ही और भी कथित धैर्य दिखाने की आत्मनियमित कैटगरी वाली रिपोर्टिंग को आत्मनियमन नहीं कहते.
आत्मनियमन में बहुत सारी चीज़ें और आती हैं. आनी चाहिए. हम श्रेष्ठ हैं कहने के बजाय या इस भावना के तहत प्रतिक्रिया करने से बेहतर है ख़ुद को श्रेष्ठतर बनाना. प्रोफ़ेश्नल और नैतिक ऊंचाई, वैसी श्रेष्ठता. प्रेमचंद के नमक का दारोगा बन सकते हैं आत्मनियमन का दारोगा मत बनिए. मीडिया में ये थानेदारी बंद कीजिए. आप जिस टीवी लोकतंत्र की ओर इशारा कर रहे हैं बार बार- माफ़ कीजिए वो गढ़ा हुआ है और उससे क्रूरता की गंध आती है. मीडिया की जिस आज़ादी की रक्षा का परचम टीवी स्टुडियो में लहराया जा रहा है उसमें उस आज़ादी के निहितार्थ कोई तो देखेगा. ऐसा नहीं हो सकता कि अंदर हम अनैतिक खलबली मचाए रखें और बाहर वाले से कहें कि आप अपने मुंह और कान और आंख बंद रखें. मीडिया की नैतिकता को इस छद्म लोकतंत्र के कांच में ज़्यादा देर तक रखना नामुमकिन है. अच्छा- अब आप..हमें बताएंगें कि बापनुमा मानसिकता मत ढोइए. क्योंकि बहुत से मौक़े वाकए ऐसे हैं टीवी मीडिया के इतिहास में जब वही किया जाता रहा है जो कोई बताता है. वह आत्मनियमन का कोई मौक़ा इसलिए नहीं आने देता क्योंकि आत्मा पर उसका पहले से क़ब्ज़ा हो चुका होता है. इस आत्मा में विचार शक्ति तर्कशक्ति और इमोश्नल इंटेलिजेंस सब आते हैं. मीडिया को बौद्धिक और सामंती वर्चस्व का गिरवी नहीं रखा जा सकता. और जो अभी गिरवी हालात दिखते हैं उसमें आत्मनियमन कैसे करेंगे.   

Friday, November 18, 2011

दो अमरीकी कविताएँ







अभी नहीं

ज़रा धीरे, उन्होंने कहा.
इतनी जल्दी भी नहीं, वे बोले.
अभी नहीं.
इंतज़ार करो.

हम आपसे सहमत हैं, उन्होंने कहा, पर यह ठीक वक़्त
नहीं है.

दासता समाप्त करने के लिए.
नवीनतम युद्ध रोकने के लिए.
सही चीज़ करने के लिए.

अभी से इतनी आज़ादी दे देने से तो
अनर्थ हो जायेगा, वे कहते हैं. ज़रूरत है लोगों को सिखाने की
कि आज़ादी को कैसे बरता जाए.

हम पूछते हैं, वक़्त कब ठीक होगा?
कब होगी वह मुकम्मल स्थिति,
न ज्यादा कच्ची, न अधिक पकी?

और कैसे हमें पता चलेगा कि आ गया है वह सुनहरा क्षण
कहता हुआ, "लो, आखिर मैं आ ही गया, जिसके आने की भविष्यवाणी की गई थी
मैं वही हूँ. कानून और हथियारों के बल पर मेरा भरोसा दिलवाओ बेझिझक."

और हम अब तक यहाँ हैं, अपनी खाली कलाई घड़ियों को थपथपाते
उस फ्रीडम ट्रेन के लिए पटरियों पर यहाँ से वहाँ नज़र दौड़ते.
पटरियों से उतर गई होगी किसी वजह...

इस बीच, हमें किसी न किसी स्वर्ग की टिकटें
बेचने वाला, हमारे अपने इतिहास में प्रवेश के लिए
हमसे पैसे लेना वाला अमीर आदमी--
उसके लिए अभी क्या बजा है?

मज़े की बात है कि  उन घड़ियों पर
वक़्त हमेशा रुका हुआ होता है, या जा रहा होता है पीछे की ओर..

हमेशा वक़्त से बहुत पहले.
हमेशा वक़्त से बहुत बाद.

इब्तिदा का वक़्त हमेशा अभी होता है.



--रॉबर्ट एडवर्ड्स


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बड़ा आदमी, छोटा कुत्ता

शहर के व्यवसायिक इलाके में फुटपाथ पर
एक बहुत बड़ा आदमी एक बहुत छोटे कुत्ते को सैर करा रहा है
वह या तो पोस्ट ऑफिस जा रहा होगा या स्टोर से अचार का डिब्बा खरीदने
और इसी चक्कर में निबटा रहा है कुत्ते की आज की सैर

कसी हुई ज़ंजीर के एक तरफ वह छोटा कुत्ता है ऊर्जा और मुस्तैदी से भरपूर
कान खड़े, चुस्त, बड़े ध्यान से चारों ओर देखता
ज़ंजीर के दूसरे सिरे पर आदमी टहलते हुए परेशान सा लगा रहा है
उसकी  हवाइयन शर्ट फूली है उसकी तोंद से जो फुटपाथ को निहार रही है

शायद वह आदमी चरमराती अर्थव्यवस्था के बारे में सोच रहा है
या उसकी नौकरी छूट गई है शायद और वह सोच रहा है कि
कब तक उसे दूसरी नौकरी मिल पाएगी
और कैसे वह कुत्ते के लिए खाना खरीद पायेगा, कैसे किराया चुका पाएगा

या वह सोच रहा है मौसम के बारे में और यह कि क्यों कर
नवम्बर के आखिरी हफ्ते का यह दिन इतना गर्म है, धूप भी खिली है और न बारिश हुई है
जबकि हर हिसाब से इस दिन को होना चाहिए ठंडा, उदास और गीला
जब एक के बाद एक तूफ़ान नदी-नालों और तालाबों को भर देते हैं लबालब

यहाँ से पास ही जो खाड़ी है वहाँ लौटती हैं सैमन मछलियाँ हर बरस
और जहाँ स्थानीय लोग जाते हैं धारा में बहती मछलियों को देखने और वाहवाही करने
फेंक देते हैं अपने आप को प्रवाह के विरुद्ध
झरनों से और सीढ़ियों से

या हो सकता है कि वह मन ही मन हिसाब लगा रहा है  इराक़ और अफगानिस्तान में हुई मौतों का
हमारे मोबाइल फ़ोनों के लिए कांगो में जमा होती लाशों का
संभव है वह गाज़ा की भुखमरी के बारे में सोच रहा है
या नवाजो दादी-अम्माओं को महापर्वत से बेदखल किये जाने के बारे में

कुत्ता बेशक अर्थव्यवस्था और ग्लोबल वार्मिंग के बारे में नहीं जानता कुछ भी
वह नहीं जानता कब्जों और छद्म-युद्धों और बर्बर घेरेबंदियों और नरसंहारों के बारे में
पर उसे अंदाज़ा है कि कुछ गड़बड़ तो है जिसकी वजह से उसका मित्र तकलीफ में है
इसलिए बहुत छोटा कुत्ता बहुत बड़े आदमी को सैर करा रहा है
क्योंकि कुत्ता समझता है निराशा से हार न मानना कितना ज़रूरी है
कितना ज़रूरी है रोज़ घर से बाहर निकलना और खुली हवा का आनंद लेना
तथ्यों को सूंघ निकालना, खोद निकालना सच को, बड़े कुत्तों का सामना करना
और सारी दुनिया को यह बताना कि आप जिंदा हैं और भौंक रहे हैं

--बफ़ व्हिटमन-ब्रॅडली



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'शुक्रवार' (11 से 17 नवम्बर) से साभार, अंग्रेज़ी से अनुवाद: भारत  भूषण तिवारी 

Wednesday, October 5, 2011

संजीव भट्ट को सलाम



गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने `सद्भावना उपवास` के बाद आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को गिरफ्तार कराकर अपनी सद्भावना की असलियत पेश कर दी है. उनके शाही उपवास को उनके हृदय परिवर्तन की मिसाल बताने और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिये योग्य बताने वाले मीडिया और पोलिटिकल विश्लेषक ऐसी कारगुजारियों पर ध्यान नहीं देते हैं. मोदी के सरंक्षण में मुसलमानों के नरसंहार को कथित विकास या फिर  1984 के सिख नरसंहार की आड़ में उचित ठहराने की कोशिशें लगातार की जाती हैं. खुद मोदी अपने खूनी जबड़े छुपाने की कोशिश कभी नहीं करते, उलटे इसे वे देश भर में हिन्दू कट्टरपंथियों और आरएसएस को ख़ुश रखने के लिये प्रमाण पत्र के रूप में पेश करते हैं. गुजरात में या तो कोई उनके खिलाफ बोलता ही नहीं है और अगर कोई बोलता है तो उसे बुरी तरह सबक सिखा दिया जाता है. लेकिन गौरतलब यह है कि ऐसे भयावह माहौल में भी प्रतिरोध जिंदा रहता है. कुछ लोग सच के लिये, न्याय के लिये, मनुष्यता के लिये सब कुछ दांव पर लगाते रहते हैं. संजीव भट्ट ऐसे ही विरले लोगों में से हैं. जो उनके साथ हो रहा है, निश्चय ही उन्होंने इसकी और इससे भी बुरी स्थितयों की कल्पना कर रखी होगी. 
हैरानी  की बात यह है कि भट्ट की गिरफ्तारी के विरोध में सेक्युलर, इंसाफपसंद और लोकतान्त्रिक ताकतों की तरफ से जिस तरह की प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी, वैसी हुई नहीं है. कम संख्या में ही सही, पर लोकतंत्र में यकीन रखने वाले लोगों को देश भर के शहरों, कस्बों में जमा होकर कम से कम ज्ञापन आदि तो देने ही चाहिए. बाबरी मस्जिद के खिलाफ शुरू किये गए उन्माद के दिनों में जिस तरह साम्प्रदायिकता से लड़ने की कोशिशें हुई थीं, वे बाद के दिनों में कम ही होती गयीं. आखिर पोपुलर पॉलिटिक्स से प्रतिरोध की दिखावी मुद्रा भी जाती रही. `वैकल्पिक` मीडिया के साथी भी इन दिनों ऐसे सवालों से उदासीन नज़र आने लगे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि संजीव भट्ट का साहस और कर्तव्यनिष्ठा ऐसे दौर में और भी ज्यादा उल्लेखनीय है. उन्हें और उनके संघर्ष के साथियों को सलाम. 

Saturday, September 17, 2011

मोदी और मीडिया

पेड न्यूज़, कॉर्पोरेट की दलाली और दूसरे गोरखधंधों की कालिख से सना मीडिया बेशर्मी के नित नये आयाम स्थापित कर रहा है. अन्ना का उपवास प्रायोजित करने के बाद अब नरेन्द्र मोदी के मिशन पीएम में उसका उत्साह देखते ही बनता है. नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हैं. अपनी गुजरात प्रयोगशाला में मुसलमानों के व्यापक संहार का उनका प्रयोग बेहद सफल साबित रहा है और अब वे इसके सहारे प्रधानमंत्री पद तक पहुँचना चाहते हैं. कभी लालकृष्ण आडवाणी के रथ यात्रा के प्रयोग ने भी मुल्क को सांप्रदायिक खून ख़राबे की आग में झोंक दिया था और तब लौह पुरूष और सरदार पटेल के खिताब भी उन्हें मिले थे लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी दूसरे स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी के हिस्से में आई थी. अब सरदार पटेल का खिताब भी आडवाणी के बजाय मोदी के पास है और मोदी इसके सच्चे हक़दार भी हैं. आखिर 1947 में मुल्क के गृह मंत्री रहते हुए पटेल ने मुसलमानों के कत्लो गारत में जो भूमिका निभाई थी, नरेन्द्र मोदी ने बतौर मुख्यमंत्री गुजरात में उसी परम्परा को ज्यादा असरदार और `निर्भय` रहते हुए नई `ऊंचाई` दी. मोदी जानते हैं कि आडवाणी की हालत लालची बूढ़ी लोमड़ी जैसी है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पास उनके (मोदी) जैसे बनैले दांतों वाला दूसरा ऐसा चेहरा नहीं है जो हिन्दुत्ववादी अभियानों से तैयार वोटरों को नई ऊर्जा और आक्रामकता दे सकता हो. लगता है हमारे मीडिया को भी उनसे बड़ी उम्मीदें हैं. उनके शाही उपवास की कवरेज से तो यही लगता है. यानी कॉर्पोरेट अन्ना और मोदी दोनों का चितेरा है.
`आज तक` चैनल का उत्साह देखने लायक है. सुबह एंकर चीखता है, मोदी बदल गए हैं, उन्हें मौका दिया जाना चाहिए. वह गुस्से में है और जोर देकर कहता है, मोदी को मौका दिया ही जाना चाहिए. शाम हो चली है इसी चैनल पर एक महिला पत्रकार खुशी से फूली नहीं समा रही है. मोदी के भाषण की तारीफों के पुल बांधें जा रहे हैं. दैनिक भास्कर के मालिक संपादक श्रवण गर्ग भाषण की सूक्तियों का भक्ति भाव से `विश्लेषण` कर रहे हैं और वे कहते हैं कि मोदी का भाषण ऐसा लग रहा था, जैसे लाल किले से प्रधानमंत्री भाषण दे रहे हों. दूसरे चैनलों पर भी यही हो रहा है, मोदी बदल गए हैं, मोदी बदल गए हैं का शोर है. देखो-देखो हत्यारा संत हो गया है. देखो कैसा आक्रामक नेता, कैसा विनम्र हो गया है. माँ से आशीर्वाद लिया है. कहता है- `मानवता सबसे बड़ी प्रेरणा है. माँ और मानवता जैसे शब्दों के महिमा गई जा रही है. और अचानक मोदी का जीवन चरित्र आने लगता है. उनका बचपन, उंनका गाँव, उनका त्याग - वो सब जो मीडिया किसी के सीएम, पीएम आदि बनने पर या दुनिया छोड़ने पर पेश करता रहा है.
मीडिया साबित करना चाहता है कि मोदी विकास और शांति के मसीहा हैं. उन्हें कुछ मौलवियों से मिलते दिखाया जाता है. लगता है कि मोदी ने गुजरात के हत्यारे नेताओं और अफसरों को चार्जशीट करा दिया है, अपना कसूर मान लिया है और गुनाहों से तौबा कर ली है. लेकिन ऐसी छवि तो आक्रामक खूनी नेता का तेज खो सकती है, यही छवि तो जीवन की गाढ़ी कमाई है. विश्लेषक कहता है, नहीं जी, उनकी आक्रामकता जस की तस है. सुना नहीं, उन्होंने साफ़ कहा कि वे सेक्युलरिज्म में यकीन नहीं रखते. फिर किसी भी मकसद से किया हो पर डायलोग तो गब्बर का ही सुनाया है.
उपवास समारोह में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की उपस्थिति और तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता का प्रतिनिधियों को भेजना भी मोदी के बदलने और उनकी गैर साम्प्रदायिक छवि की स्वीकार्यता के रूप में दर्ज किया जाता है. मगर बादल तो खुद सांप्रदायिक राजनीति करने वाली जमात के प्रतिनिधि हैं. फिर मुसलमानों की खुशी-नाखुशी का पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों में कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता है. जयललिता का दक्षिणपंथी रुझान भी जगजाहिर है. वैसे भी एनडीए गैर भाजपाई दलों का सेक्युलर एजेंडा अटल बिहारी वाजपेयी की सेक्युलर छवि की तरह कभी भी मखौल से बढ़कर कुछ नहीं रहा है. आखिर गुजरात मुस्लिम संहार भी इन्ही दलों के बीजेपी की अगुआई में केंद्र की सत्ता में भागीदार रहते हुआ था.
तो न मोदी बदले हैं, न बीजेपी और न संघ बल्कि इन सबने देश के सेक्युलर मिजाज को काफी बदल दिया है. इसीलिये छोटे दलों को नहीं लगता है कि सेक्युलर छवि पर दाग़ आने से उन्हें कोई नुकसान होता है और न ही मीडिया को शर्म आती है. गांधी का मनचाहे ढंग से नाम लेने वाले अन्ना ने मोदी के उपवास और आडवाणी की यात्रा को लेकर गोलमोल रस्मी बयान जरूर दे दिया है पर साम्प्रदायिक ताकतों से लोहा लेने की गलती उन्होंने भी कभी नहीं की. बल्कि वे और ये ताकतें एक दूसरे के काम ही आते रहे हैं.

Sunday, June 19, 2011

बनी रहेगी हुसेन के निर्वासन की टीस : धर्मेंद्र सुशांत



मकबूल फिदा हुसेन नहीं रहे। देश से बाहर, लंदन में 9 जून 2011 को उन्होंने अंतिम सांस ली; इस समय वह भारत में नहीं थे, बल्कि एक आत्मनिर्वासित जिंदगी जी रहे थे। इसलिए उनकी मौत का शोक और भी गहरा हो जाता है। अपने जीवन के आखिरी वर्षों में विवादों में जबरन घसीटे गए हुसेन निविर्वाद रूप से आधुनिक भारत के सबसे चर्चित कलाकार थे। उनकी दुनिया भर में ख्याति थी।
उनकी तारीफ में बहुत कुछ कहा जा सकता है, कहा भी गया है, लेकिन जो चीज उन्हें सबसे अलग बनाती थी, वह थी उनकी निरंतर प्रयोगधर्मिता और अनथक उत्साह। गोकि वे बुजुर्ग थे- जन्म उनका 1915 में हुआ था- और रिटायर होने की रस्मी उम्र के लगभग चार दशक बाद भी वे जिस जज्बे के साथ कला-कर्म में सक्रिय थे, वह लोगों को हैरत में डालता था।
साहित्य में नागार्जुन तात्कालिक परिघटनाओं और विषयों पर रचनात्मक प्रतिक्रिया देने के लिए मशहूर रहे हैं।चित्रकला के क्षेत्र में हुसेन ने भी अक्सर अपने इर्द-गिर्द की घटनाओं के तात्कालिक संदर्भ को अपनी कला का विषय बनाया। चाहे इंदिरा गांधी की हत्या हो, चाहे सफदर हाशमी की हत्या, चाहे सचिन तेंदुलकर का उभरना हो, चाहे सत्यजित राय को ऑस्कर मिलना या इमरेंसी की घटना हो या फ़ैज़ और मदर टेरेसा जैसे व्यक्तित्व- हुसैन ने अनगिनत परिघटनाओं और व्यक्तियों पर रंग-ब्रश से टिप्पणी की; यह उनका एक विरल गुण था, जो शायद ही किसी कलाकार में देखने को मिले।
आजादी के आसपास कलाकारों की जिस जमात ने अपने को पूर्व की राष्ट्रवादी और पुनरुत्थानवादी कला-प्रवृत्तियों से अलग करने की पहल की थी, हुसेन उन्हीं में से एक थे। वे 1947 में गठित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में सूजा, रजा,आरा, गायतोंडे और बाकरे के साथ थे। कहना न होगा कि आजादी के बाद के कला परिदृश्य के निर्माण में इस ग्रुप की लगभग केंद्रीय भूमिका रही है। साथ ही यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में यूं तो शामिल सभी कलाकार विलक्षण हैं, लेकिन इनमें हुसेन की व्याप्ति सर्वाधिक महसूस की गई- कला जगत में भी और इसके बाहर भी। चित्रकार कृष्ण खन्ना के शब्दों में वस्तुतः वह आधुनिक भारतीय कला का मरकज (केंद्र) बन चुके थे।
हुसेन का अहम योगदान यह है कि उन्होंने आधुनिक कला को आम लोगों तक पहुंचाया। यह हुसेन ही थे, जिनके बहाने अधिकतर लोगों ने जाना कि समकालीन दौर की चित्रकला जो है उसका मुकाम क्या है। यह हुसेन ही थे, जिन्होंने कला के संदर्भ में बाजार को समझा और उसका इस्तेमाल किया। बाजारवाद बुरी चीज है और इतनी बुरी चीज है कि लोग बाजार को ही बुरा मान लेते हैं। लेकिन जैसा कि कबीर ने कहा है, ‘अमरपुर में बैठी बजरिया सौदा है करना’- हुसेन ने बाजार से घबराने की बजाय सोच-समझकर उसे अपनी शर्तों पर साधा। वह इंदौर के एक बेहद साधारण और मुफलिस-से परिवार में पैदा हुए थे और बंबई में फिल्मों की होर्डिंग पेंट करने का मेहनत भरा काम भी किया- लेकिन वह यहीं नहीं रुके। वह अपनी कीमत जानते थे और उन्होंने इसे कबूल करवाया। हालांकि वह पैसे के पीछे पागल नहीं थे। मुफलिसी से आर्थिक वैभव हासिल करने के बावजूद जेहनी तौर पर वे उससे निर्लिप्त-से इंसान बने रहे। अपनी मर्जी के मालिक!
हुसेन ने चित्र बनाने के साथ ही फिल्मों और लेखन के जरिए भी अपने को अभिव्यक्त किया। उनकी आत्मकथा साहित्यिक पैमाने पर भी एक श्रेष्ठ कृति है और भाषा के स्तर पर भी। उन्होंने लोकप्रियता को कोई अछूत चीज नहीं माना। फिल्मी अभिनेत्रियों के सौंदर्य के प्रति उनका आकर्षण जगजाहिर है, जिनकी खूबसूरती को उन्होंने अपने कैनवस पर उतारकर नई अर्थवत्ता दी। मगर हुसेन की खासियत यह थी कि उन्होंने किसी भी दौर में अपनी कला में भारत की समृद्ध कला परंपरा को ओझल नहीं होने दिया। वह उसकी सामासिकता और विविधता के गहरे जानकार थे। लेकिन भारतीयता और देश के नाम पर
उन्होंने किसी संकीर्णता को कभी स्वीकार नहीं किया। एक कलाकार के बतौर वह पूरी दुनिया को अपना दायरा मानते थे। वह उन चुनिंदा कलाकारों में थे जिन्होंने भारतीय महाकाव्यों और मिथकों को
आधुनिक और कलात्मक संदर्भों में मौलिक अंदाज में रूपायित किया। लेकिन इसी सिलसिले में उन्हें सियासी विवाद में घसीटा गया। सांप्रदायिक शक्तियों- संघ, विहिप, भाजपा वगैरह ने उन पर हिंदू देवी-देवताओं को अश्लील रूप से चित्रित करने का आरोप लगाया। एक घृणित सांप्रदायिक-राजनीतिक रणनीति के तहत जिस तरह मुस्लिम समुदाय में जन्म लेने वाले लोगों को निशाना बनाया गया,
हुसेन भी अचानक एक हिंदू विरोधी मुसलमान बना दिए गए। एक सुनियोजित अभियान चलाकर उन पर देश के विभिन्न हिस्सों में दो और दस नहीं, सैकड़ों मुकदमे किए गए। उनके चित्र जलाए गए, प्रदर्शनियों पर हमले किए गए। हरिद्वार की एक अदालत ने तो सम्मन का जवाब न देने के कारण उनकी संपत्ति कुर्क करने का आदेश दे दिया था और इंदौर की एक अदालत ने उनके खिलाफ जमानती वारंट जारी कर दिया था। जिन पर बाद में उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी थी। 2006 में लंदन में भी हिंदू फोरम ऑफ ब्रिटेन ने उनके खिलाफ अभियान चलाया जिसके कारण प्रदर्शनी को रोकना पड़ा।
आज अपनी मृत्यु के बाद इन तथाकथित राष्ट्रवाद के ठेकेदारों को अचानक हुसेन महान भारतीय कलाकार लगने लगे हैं, इतिहास इन्हें इनके कुकृत्यों के लिए कभी माफ नहीं करेगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सरकार के दूसरे लोग हुसेन की मौत को अपूरणीय क्षति बता रहे हैं, लेकिन इसी सरकार के पूर्व गृहमंत्री शिवराज सिंह पाटिल ने हुसेन को सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़नेवाला समझा था। नतीजतन हुसेन ने कतर की नागरिकता ले ली।
हुसेन का यह प्रसंग भारतीय लोकतंत्र के ऊपर लगातार मंडराते सांप्रदायिक-फासीवादी खतरों का ही स्पष्ट उदाहरण है।खैर, हुसेन ने मुखर होकर कभी भी सांप्रदायिक ताकतों का विरोध नहीं किया और न ही उन्हें इस लायक समझा कि अपनी कला के जरिए उनके प्रति प्रतिक्रिया या प्रतिरोध व्यक्त करते। वे चुपचाप अपनी मर्जी से सृजन करते रहे। कतर में रहे या जीवन के आखिरी दिनों में लंदन में, वे हमेशा सृजनरत
रहे। 95 साल की उम्र में भी उनका कला के प्रति उत्साह जरा भी कम नहीं हुआ था।
हुसेन ने ताजिंदगी कला और देश के लिए अपना प्यार सुरक्षित रखा। अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने जीवन के आखिरी दिन अपने देश में गुजारने की ख्वाहिश जाहिर की थी, जो पूरी नहीं हुई। यह भारत और उसकी समृद्ध कला को प्रेम करने वालों के लिए हमेशा एक टीस की तरह बनी रहेगी। समकालीन जनमत की ओर से इस महान भारतीय चित्रकार को हार्दिक श्रद्धांजलि!

Saturday, June 18, 2011

नागार्जुन जन्मशती उत्सव

जनवादी लेखक संघ, सहमत, जनम और एक्ट-1 के तत्वावधान में 15 जून 2011 को दिल्ली में नागार्जुन जन्मशती उत्सव का आयोजन किया गया. इस मौके पर `नया पथ` के नागार्जुन विशेषांक का विमोचन भी हुआ. सहमत, जनम, एक्ट-1 , बिगुल और जनम, कुरुक्षेत्र ने नागार्जुन की कविताओं पर आधारित सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं.




Wednesday, June 15, 2011

नागार्जुन की कुछ कविताएं

बाबा नागार्जुन का जन्म आज ही के दिन ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ था. उनकी जन्मशती के मौके पर लेखक संगठनों ने कई कार्यक्रम किये हैं और उन पर कई अंक भी निकले हैं.
उनकी कुछ चर्चित और महत्वपूर्ण कविताएं -

मंत्र कविता

ब्द ही ब्रह्म है..

ब्द्, और ब्द, और ब्द, और ब्द
प्रण‌, नाद, मुद्रायें
क्तव्य‌, उदगार्, घोषणाएं
भाष‌...
प्रव‌...
हुंकार, टकार्, शीत्कार
फुसफुस‌, फुत्कार, चीत्कार
आस्फाल‌, इंगित, इशारे
नारे, और नारे, और नारे, और नारे

कुछ, कुछ, कुछ
कुछ हीं, कुछ हीं, कुछ हीं
त्थ की दूब, रगोश के सींग
-तेल-ल्दी-जीरा-हींग
मूस की लेड़ी, नेर के पात
डाय की चीख‌, औघड़ की अट बात
कोयला-इस्पात-पेट्रोल
मी ठोस‌, बाकी फूटे ढोल

इदमान्नं, इमा आपः इदज्यं, इदं विः
मान‌, पुरोहित, राजा, विः
क्रांतिः क्रांतिः र्वग्वंक्रांतिः
शांतिः शांतिः शांतिः र्वग्यं शांतिः
भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः र्वग्वं भ्रांतिः
चाओ चाओ चाओ चाओ
टाओ टाओ टाओ टाओ
घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

लों में एक अपना ,
अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
मुष्टीकरण, तुष्टिकरण‌, पुष्टीकरण
ऎतराज़‌, आक्षेप, अनुशास
द्दी आजन्म ज्रास
ट्रिब्यून‌, आश्वास
गुटनिरपेक्ष, त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़
‌-छंद‌, मिथ्या, होड़होड़
वास‌, उदघाट
मारण मोह उच्चाट

काली काली काली हाकाली हकाली
मार मार मार वार जाय खाली
अपनी खुशहाली
दुश्मनों की पामाली
मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
अपोजीश के मुंड ने तेरे ले का हार
ऎं ह्रीं क्लीं हूं आङ
बायेंगे तिल और गाँधी की टाँग
बूढे की आँख, छोकरी का काज
तुलसीद, बिल्वत्र, न्द, रोली, अक्ष, गंगाज
शेर के दांत, भालू के नाखून‌, र्क का फोता
मेशा मेशा राज रेगा मेरा पोता
छूः छूः फूः फूः फिट फुट
त्रुओं की छाती अर लोहा कुट
भैरों, भैरों, भैरों, रंगली
बंदूक का टोटा, पिस्तौल की ली
डॉल, रूब, पाउंड
साउंड, साउंड, साउंड

रती, रती, रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम
अष्टधातुओं के ईंटो के ट्टे
हामहिम, हमहो उल्लू के ट्ठे
दुर्गा, दुर्गा, दुर्गा, तारा, तारा, तारा
इसी पेट के अन्द मा जाय र्वहारा
रिः त्स, रिः त्स

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घिन तो नहीं आती है

पूरी स्पीड में है ट्राम

खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है ?
जी तो नहीं कढता है ?

कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है ?
घिन तो नहीं आती है ?

दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?
जी तो नहीं कुढता है ?
घिन तो नहीं आती है ?

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चंदू, मैंने सपना देखा

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा

चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू
चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू

मैंने सपना देखा देखा, कल परसों ही छूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलंडर
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो
चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो

चंदू मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा
चंदू मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो
चंदू मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो

चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम
चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर
चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर

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अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त


दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद
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यह दंतुरित मुस्कान

तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान

मृतक में भी डाल देगी जान
धूली-धूसर तुम्हारे ये गात...
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारी ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ माध्यम बनी होगी आज
मैं सकता देख
मैं पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान


धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य!
इस अतिथि से प्रिय क्या रहा तम्हारा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही मधुपर्क
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखे चार
तब तुम्हारी दंतुरित मुस्कान
लगती बड़ी ही छविमान!

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