Sunday, January 31, 2010

`मार्क्स - जीवन और विचार`



दिल्ली में किताबों का मेला शुरू हो गया है। इसके कोर्पोरेटीकरण के बाद इसमें बिना पैसे वाले किताब के आशिकों का घुस पाना मुश्किल हो गया है, फिर भी ये ६-७ दिन नशे में डूबे रहने जैसे ही होते हैं। मगर यहाँ दूर कोच्ची में सिर्फ उदास ही हुआ जा सकता है सोचकर कि कैसे किताबों के बीच उनके लिखने-पढ़ने वाले मिल जाया करते हैं। वैसे भी दिल्ली में हिंदी की किताबों को खरीद पाने का अब और कोई ठिकाना भी नहीं रह गया है।

बहरहाल, सूचना यह है कि अपने ग्वालियर वाले अशोक कुमार पाण्डेय की किताब `मार्क्स - जीवन और विचार` संवाद प्रकाशन से आई है। उन्होंने इस किताब में मार्क्स की जीवनी तथा वैचारिक स्थापनाओ को आम पाठक के लिहाज़ से समझाने का प्रयास किया है। साथ में भारत में मार्क्सवादी आन्दोलन के इतिहास, वर्त्तमान की चुनौतियों और विकल्प के प्रश्न पर अपने तरीके से टिप्पणी भी की है। बकौल लेखक, `मेरा मक़सद उस ख़ालीपन को भरना रहा है जो बिल्कुल नये मार्क्सवाद के प्रति उत्सुक हिन्दी के पाठक को महसूस होता है।` किताब की क़ीमत है १०० रुपये और संवाद प्रकाशन से इसे ०९३२००१६६८४ पर आलोक श्रीवास्तव को फोन करके भी मंगाया सकता है।

Saturday, January 30, 2010

छोट बड़ो सब सम बसैं, हो रैदास प्रसन्न



जात पात के फेर में, उरझत हैं सब लोग!
मानवता को खात है, रैदास जात का रोग!!
.....


जात पात में जात है, ज्यों केलन में पात
रैदास न माणुस जुड़ सके, जब तक जात न जात!!
.....


ऐसा चाहौं राज मैं, जहां मिलै सबै को अन्न!
छोट बड़ो सब सम बसैं, हो रैदास प्रसन्न!!
.....


रोहतक से एक मित्र राजकुमार ने फ़ोन पर बताया कि वे आज रैदास जयंती मना रहे हैं. इस मौके पर इस कवि की कुछ पंक्तियाँ आप के साथ बाँट रहा हूँ. चित्र राजकुमार का बनाया हुआ है और शुक्र है कि इसमें रैदास पर थोपी गयी छाप-तिलक की ब्राह्मण छवि नहीं है.

Thursday, January 28, 2010

साहित्य अकादमी, सैमसंग की खैरात और साहित्यकार

इस देश की जनता के स्वाभिमान को नष्ट करने के नए नए कीर्तिमान बनाने वाली यूपीए सरकार ने फिर एक नया कारनामा किया। उसकी संस्कृति मंत्रालय ने बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता उत्पाद कंपनी सैमसंग की खैरात बांटने के काम में देश की साहित्य अकादमी को ही लगा दिया। साहित्य अकादमी को सैमसंग के प्रचारक की भूमिका में खड़ा कर दिया गया। जनसत्ता में कवि विष्णु खरे के लेख छपने के बाद से ही लेखकों में साहित्य अकादमी और सैमसंग के बीच हुए इस गठजोड़ को लेकर बहस शुरू हो गई थी। बहुत जल्दी नाम और यश हासिल कर लेने के लिए आतुर कुछ नए लेखकों ने इस गठजोड़ के पक्ष में कुतर्क दिया, मगर आम तौर पर इसके प्रति लेखकों में एक विरोध भाव ही देखा गया। 13 दिसंबर को जसम, दिल्ली ने अपने सम्मेलन में इसके विरोध में प्रस्ताव लिया। मगर पूंजीपरस्ती और साम्राज्यवादपरस्ती किस हद तक बेशर्म और अलोकतांत्रिक बना दे देती है, इसका नमूना 25 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस के एक दिन पूर्व दिखा। नामवर सिंह, कृष्णा सोबती, महाश्वेता देवी, मैनेजर पांडेय, विश्वनाथ त्रिपाठी, मंगलेश डबराल, मुरली मनोहर प्रसाद जैसे कई वरिष्ठ लेखकों ने साहित्य अकादमी की स्वायत्ता और उसके संविधान के विरुद्ध बताते हुए विरोध में अपने बयान दिए थे, लेकिन उनके विरोध की भी अनदेखी करते हुए ओबेराय होटल के बालरूम में हिंदी समेत आठ भाषाओं के लेखकों को टैगोर लिटरेचर अवार्ड के बतौर सैमसंग की ओर से 91-91 हजार रुपये दिए गए। मगर धन के बल पर दुनिया की हर चीज की सरपरस्ती का घमंड पालने वाले अंदर से कितने डरे होते हैं यह नजारा भी उस रोज दिखाई दिया। जसम, दिल्ली ने पुरस्कार समारोह के मौके पर ओबेराय होटल के बाहर मानव श्ाृंखला बनाने की घोषणा की थी। मगर पुरस्कार वितरण करने वाली कोरिया के राष्ट्रपति की पत्नी की सुरक्षा का बहाना बनाकर पुलिस के आला अधिकारियों ने 24 जनवरी की देर शाम अचानक इस विरोध कार्यक्रम को इजाजत देने से मना कर दिया। तब आनन-फानन में रात में ही लेखकों को सूचित किया गया कि मानव श्ाृंखला साहित्य अकादमी के बाहर आयोजित की जाएगी। 25 जनवरी को ओबेराय होटल के पास तो भारी पुलिस का जमावड़ा था ही, साहित्य अकादमी के पास भी पुलिस की इतनी बड़ी तादाद मौजूद थी, मानो किसी बड़े आक्रामक जनसमूह द्वारा वहां हमले का आशंका हो। वैसे तो बहुत सारे आमंत्रित लेखकों ने समारोह का बहिष्कार किया, पर कुछ ‘महान’ लोग जो वहां पहुंचे उन्हें भी सैमसंग के दरबार में पहुंचने के लिए देर तक इंतजार करना पड़ा। आमंत्रण पत्र होने के बावजूद कई पत्रकारों को अंदर जाने की इजाजत नहीं दी गई। दैनिक भास्कर में अनिरुद्ध शर्मा ने लिखा कि विदेशी कंपनी का साया ऐसा था कि साहित्य अकादमी के पदाधिकारी एक तमाशबीन की तरह पत्रकारों की बेइज्जती का नजारा देखते रहे।

जिस वक्त पत्रकारों और साहित्यकारों को अपमानित करने का सिलसिला जारी था और अंदर समारोह में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय सैमसंग के खैरात के जरिए क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों के हित का सपना दिखा रहे थे और इस तरह के और भी गठबंधन करने के दावे कर रहे थे, उसी वक्त पुश्किन की मूर्ति (साहित्य अकादमी) के पास साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी अकादमी की स्वायत्तता और उसके लोकतांत्रिकरण के लिए संघर्ष चलाने का संकल्प ले रहे थे। उनके हाथों में और गले में तख्तियां थीं जिनपर नारे और रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण थे- ‘साहित्य अकादमी की स्वायत्तता चाहिए, किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की भीख नहीं’, ‘साहित्य अकादमी को किसी कंपनी का एड-एजेंसी मत बनाओ’, ‘सोनिया-मनमोहन संस्॥ति मंत्रालय को मत बेचो’ तथा ‘चिड़िया के पंखों को सोने से मढ़ दो,बस। फिर वह कभी उड़ नहीं सकेगी’, ‘ अंधकार प्रकाश की ओर बढ़ता है लेकिन अंधापन मृत्यु की ओर’, ‘उच्च कोटि के मानव समाजों का निर्माण मुनाफाखारों द्वारा नहीं होता है। वह तो स्वप्नद्रष्टाओं द्वारा होता है। वे करोड़पति जो ढेर-ढेर मात्रा में माल-असबाब का उत्पादन करते हैं, उन्होंने अभी तक एक भी सभ्यता का निर्माण नहीं किया है।’

इस मौके पर वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने कहा कि अब यह साफ हो गया है कि इस शर्मनाक पुरस्कार के पीछे प्रधानमंत्री स्वयं हैं। साहित्य अकादमी को एक तरह से सैमसुंग के हाथों बेच दिया गया है। इस प्रधानमंत्री के मन में साहित्य, कला, संस्कृति के लिए कोई सम्मानजनक भाव नहीं है। सैमसंग और साहित्य अकादमी के बीच यह संबंध कालाबाजारी, बेईमानी और भ्रष्टाचार को तरजीह देने के समान है। इसके खिलाफ लेखकों को संघर्ष तेज करना चाहिए। जसम दिल्ली के अध्यक्ष कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि उन्हें जिस साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है उसी संस्था का एक विदेशी कंपनी के समक्ष समर्पण शर्मनाक है। इस पुरस्कार का निर्णय और पूरी प्रक्रिया ऐसी रही है जैसे किसी अंडरवल्र्ड के जरिए इसे संचालित किया जा रहा हो। खतरनाक यह है कि यह पुरस्कार साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में तमाम विदेशी कंपनियों के लिए रास्ता खोल देगा। समयांतर पत्रिका के संपादक और कथाकार पंकज बिष्ट ने कहा कि दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं है जिसकी अकादमियों में किसी विदेशी कंपनी का दखल है। इस पुरस्कार के जरिए साहित्य की गरिमा और स्वायत्तता को चोट पहुंचाई गई है। आज जरूरत यह है कि लेखक अपने को संगठित करते हुए अकादमियों के ढांचे को स्वायत्त और लोकतांत्रिक बनाएं। उद्भावना पत्रिका के संपादक अजेय कुमार ने कहा साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य की गौरवशाली परंपरा को आघात पहुंचाने वाला है यह पुरस्कार। इसके जरिए आर्थिक क्षेत्र में सरकार का जो एजेंडा है उसे संस्कृति के क्षेत्र में लागू किया गया है। कवि रंजीत वर्मा ने कहा कि इस शर्मनाक पुरस्कार ने साहित्यिक संगठनों को और भी मजबूत बनाने की जरूरत को सामने ला दिया है। अधिवक्ता रवींद्र गढ़िया ने कहा कि यह सरकार का दिवालियापन है जो साहित्य संस्॥ति के लिए स्पांसर तलाश रही है। कवि मुकुल सरल ने कहा कि सरकार अपनी साम्राज्यवादपरस्त नीतियों के लिए साहित्य में समर्थन जुटाने के लिए ऐसा कर रही है। हिंदी साहित्य के अध्येता छात्र नेता अवधेश ने कहा कि इस चारण-भांटों की संस्..ति के खिलाफ लेखकों के संघर्ष में छात्रों की भूमिका भी सुनिश्चित की जाएगी। सुधीर सुमन ने कहा कि गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस सम्मान समारोह को आयोजित करके सरकार ने यही संकेत दिया है कि वह जबरन अपना साम्राज्यवादपरस्त एजेंडा साहित्य में लागू करेगी, लेकिन देश के साहित्यकारों की बड़ी आबादी जो अपने और अपने समाज के जीवन संघर्ष को रचनाओं मे दर्ज कर रही है, उसका इस एजेंडे से स्वाभाविक टकराव है। ऐसे लेखकों की एकजुटता जरूर बनेगी। जसम दिल्ली की सचिव भाषा सिंह ने कहा कि यह सिर्फ साहित्यकारों का मामला नहीं है, बल्कि जनता के पैसे से चलने वाली एक स्वायत्त संस्था का कारपोरेट के हित में इस्तेमाल का मामला है। अतः इस संघर्ष के साथ व्यापक लोगों को जोड़ना होगा। मानव श्ाृंखला में वैभव सिंह, कुमार मुकुल, सुनील सरीन, अलका सिंह, रमन कुमार सिंह, अंजनी कुमार, रामजी यादव, भूपेन, धर्मेंद्र सुशांत, कपिल शर्मा, रंजीत अभिज्ञान, आलोक, योगेंद्र आहूजा, अच्युतानंद मिश्र आदि भी मौजूद थे। आगामी विश्व पुस्तक मेले में इस मुद्दे को साहित्यकारों औेर पाठकों तक ले जाने तथा उनको एकजुट करने, हस्ताक्षर अभियान चलाने, पर्चा बांटने और तमाम साहित्यिक सांस्कृतिक संगठनों को एक मंच पर लाने की कोशिश की जा रही है।

सैमसंग-साहित्य अकादमी का यह टैगोर लिटरेचर अवार्ड हो या सरकार द्वारा गणतंत्र दिवस पर घोषित पद्मश्री वगैरह पुरस्कार, इनके चुनाव की प्रक्रिया से भी यह अंदाजा लगता है कि इसमें किसी को सम्मानित करने के बजाए सरकार या कंपनी का प्रचार ही मूल मकसद रहता है। इसी कारण अक्सर दिवालिये या विवादास्पद किस्म के निर्णय लिए जाते हैं। ऐसा ही इस बार हुआ 1995 में पद्मश्री ठुकराने वाले वरिष्ठतम गीतकार जानकीवल्लभ शास्त्री के साथ, उन्हें एक बार फिर सरकार की ओर से पद्मश्री का खैरात दिया गया। इससे उन्होंने अपमानित महसूस किया और उसे पद्मश्री अमपान बताकर वापस कर दिया। यह केंद्र सरकार के साथ नीतिश सरकार को भी दिया गया करारा जवाब है जो हर चीज का इस्तेमाल बिहार विकास के छद्म की ब्रांडिंग के लिए करने को उतावली है। यह भी सवाल नहीं है कि पद्मविभूषण मिलता तो वे ले लेते या नहीं। यह वही जानकी वल्लभ शास्त्री हैं, जिनकी कविता बिहार की राजधानी पटना और हाजीपुर को जोड़ने वाले गांधी सेतु पर अंकित है, जिसे उन्होंने उसके निर्माण में अपना जीवन लगा देने वाले मजदूरों के लिए लिखी थी और जब उस कविता के लिए सरकार ने उन्हें पुरस्कार देना चाहा तो यह कहकर उन्होंने मना कर दिया था कि पुरस्कार तो मजदूरों को मिलना चाहिए। एक ओर जानकीवल्लभ शास्त्री हैं और दूसरी ओर सैमसंग के दरबार में साहित्यकारों का हित तलाशने वाले लोग। आज साहित्यकारों के लिए यह सवाल है कि वे किसकी परंपरा के साथ खड़े होंगे?

यह मेल जसम की ओर से मिला है। हालाँकि इस बारे में कुछ अन्य ब्लॉग भी जानकारी दे चुके हैं पर विषय की गंभीरता के नाते इसे यहाँ भी दिया जा रहा है। (लेखकों के अलावा सजग नागरिकों से भी इस मसले पर विरोध की अपेक्षा के साथ)

Tuesday, January 26, 2010

सेक्युलर रिपब्लिक और उसकी चुनौतियाँ : सुभाष गाताड़े



इस `सेक्युलर रिपब्लिक` में साम्प्रदायिकता से लड़ने की चुनौती बहुत बड़ी हैउस समय (१९४७ में) बंटवारा हुआ, कत्लेआम हुआ पर फिर भी सेक्युलरिज्म को इस मुल्क की आत्मा से अलग नहीं किया जा सका था। तब लोगों में इतनी दूरियां पैदा नहीं की जा सकी थीं जितनी कि आज हैंसही मायने में सेक्युलर रिपब्लिक कैसे बनेगा और इसके लिए कौन लडेगा, यह बड़ी चुनौती है

डॉ. आंबेडकर ने कुछ ऐसा कहा था कि यह संविधान सही काम करे तो इस जला देना चाहिएसंविधान बनाने के काम में आंबेडकर के योगदान को देखें तो साफ़ है कि जिस प्रगतिशील और न्यायपूर्ण समाज के सपने के साथ उन्होंने इस प्रक्रिया में शामिल होना स्वीकार किया था, वह पूरा नहीं हो सका है. संविधान के प्रगतिशील और न्यायपूर्ण मूल्यों पर लगातार फासिस्ट हमले हुए हैं. सच्चे आंबेडकरवादियों का फ़र्ज़ है कि वे आंबेडकर को पूजा की तस्वीर बनाये जाने की निरंतर साजिशों के बरक्स उनके मूल्यों को लेकर लड़ाई को आगे बढ़ाएं. दुनिया भर में जो हालात हैं और अपने यहाँ भी जो हो रहा है, उसके मद्देनजर हिन्दुस्तान में वामपंथ और दलित आन्दोलन को मिलकर लड़ाई लड़नी होगी. मुख्यधारा के दलित आन्दोलन और मुख्यधारा के वामपंथ की बात मैं नहीं कह रहा लेकिन रेडिकल वाम और रेडिकल दलित आन्दोलन से इस एकता की उम्मीद की जा सकती है.

मुझे लगता है कि फिलहाल संघर्ष के टूल के तौर पर इसी सिस्टम के अधिकारों का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना होगा. देश में विभिन्न हिस्सों में संघर्ष चल रहे हैं. जहाँ तक नक्सलवाद के नाम पर सरकारी दमन का सवाल है, उसका विरोध किया जाना चाहिए। लेकिन इस संघर्ष की अहमियत स्वीकार करते हुए यह कहना भी जरूरी है कि यह संघर्ष एक ख़ास तरह के गतिरोध का शिकार हुआ है. देश भर में कैसे परिवर्तन होगा, उनके पास इसका कोई नक्शा नहीं है. दिशाहीन हिंसा भी ठीक नहीं है.

मौजूदा हालात में दिक्कत यह है कि आम लोगों में भी पूंजीवाद का वर्चस्व बढ़ा है. पूंजीवाद की मार झेल रहे किसी गरीब को भी लगता है कि वह अम्बानी बन सकता है.

समाजवाद को लेकर मायूसी है पर नाउम्मीदी नहीं है. पूंजीवाद का नंगा नाच है, बदलाव तो होगा ही. एक रास्ता यह हो सकता है कि फासीवाद आए. समाजवाद तुरंत न आए तो हो सकता है कुछ अधिक जनपक्षीय व्यवस्था आए. हो सकता है समाजवाद को आने में समय लगे और लम्बा संघर्ष करना पड़े. पहली बार ऐसी चुनौती दरपेश है कि किसी पूंजीवादी जनतांत्रिक मुल्क में समाजवाद के लिए संघर्ष करना है.

देश का बुद्धिजीवी वर्ग तो खुश है। उसके छोटे-छोटे स्वार्थ पूरे हो रहे हैं। वेतन और सुविधाएं बढ़ गए हैं। उसका मुख्य स्वर संतोष ही है। लेखक भी संतुष्ट दिखाई देता है. फासीवादियों से पेक्ट भी होने लगे हैं. हालत यह कि दो-चार पुरस्कार दे दो तो लेखक खुश रहेगा वर्ना व्यवस्था का विरोध करेगा.

(
लेखक-एक्टिविस्ट सुभाष गाताड़े साम्प्रदायिकता और दलित उत्पीड़न के सवालों पर प्रमाणिक और धारदार स्वर के रूप में जाने जाते हैं। आज `गणतंत्र दिवस` की सुबह उनसे फोन पर हुई बातचीत के कुछ टुकड़े यहाँ दिए गए हैं। )

Thursday, January 21, 2010

आईपीएल का संघीकरण?

इंडियन प्रीमियर लीग से पाकिस्तानी खिलाड़ियों को अलग कर दिया जाना बेहद तकलीफदेह है। पाकिस्तान टी-२० क्रिकेट का विश्व चैम्पियन है और इंडियन प्रीमियर लीग के मैच इसी फोर्मेट में खेले जाते हैं। अपने खराब से खराब दौर में भी पाकिस्तानी खिलाड़ी ऐसी स्थिति में कभी नहीं रहे कि उन्हें प्रतिभा के आधार पर ऐसे किसी टूर्नामेंट में नाकाबिल करार दिया जा सके। फिर शाहिद अफरीदी जैसे सितारे तो ताबड़तोड़ बल्लेबाजी के लिए ही मशहूर हैं। फिर दोनों देशों के बीच यह खेल हमेशा ही पुल का काम करता रहा है। हिन्दुस्तान में पाकिस्तानी क्रिकेटर बेशुमार शोहरत रखते हैं और उस पार भी लोगों के मन में इधर के खिलाड़ियों के लिए ऐसा ही सम्मान रहा है। तमाम तनावों, धमकियों और टुच्ची सियासत के बावजूद आखिर में क्रिकेटर ही दोनों देशों के बीच राहत की बयार बनकर बहते हैं। इंजमामुल हक़ जैसे खिलाड़ी `अजी वो जोन सा` जैसे जुमले अटक-अटक कर बोलते हैं तो वो सहज ही याद दिलाते हैं कि वो हम में से ही एक हैं या कहें कि हम ही हैं। वसीम अकरम जैसा बेमिसाल गेंदबाज किसी रिपोर्टर को अचानक अकेले करनाल के किसी सादे से ढाबे पर दाल-रोटी खाता मिल जाता है और बताता है कि यहाँ की दाल उसे पसंद है। दरअसल यहाँ के लोग और कल्चर जो हमारी भी है, हमें पसंद हैं। दोनों देशों के बीच संगीतकारों का भी ऐसा ही रुतबा है लेकिन आप जानते ही हैं कि इन दोनों देशों में (यूँ तो श्रीलंका और बांग्लादेश में भी) क्रिकेट का जादू लोगों के सिर किस कदर चढ़कर बोलता है। शायद यह बात पैसे-ताकत वालों को पसंद नहीं है और जो काम संघ और शिव सेना चाहकर नहीं कर पाते हैं, वो आईपीएल कर दिखा रही है। कहीं यह आईपीएल का संघीकरण तो नहीं है या कहें कि भ्रष्ट पूंजी का चरित्र ही सेक्युलरिज्म का विरोधी है।

हैरानी की बात यह है कि इस बात पर एतराज के स्वर भी नहीं के बराबर ही आ रहे हैं। कुछ लोग इसे तकनीकी मामला कहकर टालने की कोशिश कर रहे हैं पर यह गले उतरना आसान नहीं है। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष एजाज़ बट का कहना है कि मंगलवार को हुई नीलामी के बाद से ही वह ललित मोदी से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं मगर इसमें कोई सफलता नहीं मिली है। बट ने कहा, "हम जानना चाहते हैं कि क्या हुआ। हम तो ये सोच रहे थे कि उन खिलाड़ियों के नामों पर विचार होगा। ये तो लग रहा है कि सिद्धांत तौर पर फ़ैसला कर लिया गया था कि किसी खिलाड़ी को शामिल नहीं किया जाएगा."

हिन्दुस्तान के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा का यह कह देना काफी नहीं है कि इससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने भी कुछ ऐसा ही कहा है कि जो कम्पनियाँ पैसा खर्च कर रही हैं, उन पर दबाव कैसे बनाया जा सकता है। लेकिन कृष्ण और नटवर यह तो जानते ही हैं कि इस स्थिति पर शर्मिंदा हुआ जा सकता है, इस तरह के बर्ताव की खेल विरोधी कहकर निंदा तो की ही जा सकती है। लेकिन लगता है कि भारतीय सियासत भी पूरी तरह भ्रष्ट पूंजी के दलालों की ही भाषा बोलने लगी है। भ्रष्ट पूंजी की हिमायत में जो सरकार गृह युद्ध तक छेड़ने को तैयार हो उससे पूंजी के दलालों पर उंगली उठाने की अपेक्षा बेमानी है।

भारत के भूतपूर्व विदेश सचिवों मुचकुंद दुबे और कँवल सिब्बल ने जरूर इस मसले को शर्मनाक बताया है। हिन्दुस्तानी मीडिया का हाल बदकिस्मती से ख़ासा साम्प्रदायिक, पाकिस्तान के नाम पर उत्तेजना फैलाने वाला और भ्रष्ट पूंजी को सलाम करने वाला हो चला है। आपको याद होगा कि भारतीय लोकतंत्र लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटा था और इंडियन प्रीमियर लीग के कमिश्नर ललित मोदी चुनाव के बजाय आईपीएल को तरजीह देने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे थे। तब मीडिया भी बेशर्मी के साथ लोकतंत्र की चिंता करने के बजे मोदी की दलाली में गला फाड़ रहा था।

Wednesday, January 20, 2010

संघ की `संस्कृति`



अभी-अभी दिल्ली से एक दोस्त का मेल मिला जिससे पता चला कि दिल्ली विश्वविद्यालय केम्पस में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुंडों ने जनचेतना की बुक वेन पर हमला कर तोड़फोड़ की। संघ और उनकी तरह की ताकतें ऐसा अक्सर करती हैं। राष्ट्रभक्ति और संस्कृति का राग अलापने वाली ये ताकतें भगत सिंह, प्रेमचंद जैसे लेखकों को दुश्मन मानती हैं। आर्ट गेलरियों, किताबों के स्टालों, नाटकों और किसी भी तरह के स्वस्थ सांस्कृतिक-सामाजिक अभियान से उन्हें डर लगता है। यह उनकी `संस्कृति` है जो नरसंहारों तक जाती है।

Sunday, January 17, 2010

यह ऐसा समय है



भारत के मशहूर फिल्म निर्माता निर्देशक कुमार शाहानी पिछले सप्ताह कोची में एक सेमिनार में हिस्सा लेने आये थे। चाय के वक़्त मैंने उनसे यों ही बतियाने की कोशिश की। मैं जानना चाहता था कि आखिर `माया दर्पण`, `क़स्बा` `तरंग` और ऐसी ही कई यादगार फिल्में दे चुका शख्स खामोश क्यों है। उन्होंने कहा कि फिल्म के लिए एक टीम चाहिए और टीम के हर मेंबर को देने के लिए पैसा चाहिए। मैंने कहा कि २० साल दुनिया में बेइंतहा बदलाव के साल हैं और हिन्दुस्तान भी इस दौरान तरह-तरह के सितम झेलता रहा है। एक फिल्मकार के नाते आप इस बारे में क्या सोचते हैं और क्या आपको इस सब को अपनी विधा में दर्ज करने की बेचैनी नहीं होती।  शाहानी के चेहरे पर दुःख छलक आया और वे बोले,
``मुझे अचरज होता है कि मैं जिंदा क्यों हूँ। रियली...। इतना redundant हो गए हैं। समझ नहीं आता क्यों जी रहे हैं।``

(शीर्षक विष्णु नगर और असद ज़ैदी के संपादन में छपी कविता की किताब से)

Thursday, January 14, 2010

विष्णु नागर की एक कविता

मेरा जीवन
नाक की दिशा में दौड़ाता है

कान, आँख
सिर, मुँह
कुछ नहीं
नाक की दिशा में दौड़

हाथ, पाँव
पेट, पीठ
कुछ नहीं
नाक की दिशा में दौड़

पीठ की दिशा में अन्धकार है
पेट की दिशा में दौड़
मेरा जीवन कहता है
नाक की दिशा में दौड़
मेरा जीवन कहता है
क्या करता है?
नाक की दिशा में दौड़

मेरा जीवन कहता है
आएँगे कई कई मोड़
नाक की दिशा मत छोड़
***

यह कविता ८० के दशक की एक पुरानी पत्रिका `कथ्य` में उनकी दो अन्य कविताओं के साथ छपी थी। यह सुखद है कि विष्णु नागर निरंतर सक्रिय हैं। उनका नया कविता संग्रह `घर के बाहर घर` इसी महीने पुस्तक मेले तक आ रहा है।

Saturday, January 2, 2010

कृष्ण कल्पित की एक कविता - रेख़ते के बीज

रेख़ते के बीज
(उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पर एक लंबा पर अधूरा वाक्य)
------------------------------------------------------
एक दिन मैं दुनिया जहान की तमाम महान बातों महान साहित्य महान कलाओं से ऊब-उकताकर उर्दू-हिन्दी शब्दकोष उठाकर पढ़ने लगा जिसे उर्दू में लुग़त कहा जाता है यह तो पता था लेकिन दुर्भाग्यवश यह पता नहीं था कि यह एक ऐसा आनंद-सागर है जिसके सिर्फ़ तटों को छूकर मैं लौटता रहा तमाम उम्र अपनी नासमझी में कभी किसी नुक़्ते-उच्चारण-अर्थात के बहाने मैं सिर्फ जलाशयों में नहाता रहा इस महासमुद्र को भूलकर और यह भूलकर कि यह लुग़त दुनिया के तमाम क्लासिकों का जन्मदाता है और एक बार तो न जाने किस अतीन्द्रिय-दिव्य प्रेरणा से इसे मैंने कबाड़ी के तराज़ू पर रखकर वापस उठा लिया था इसकी काली खुरदरी जिल्द का स्पर्श किसी आबनूस के ठंडे काष्ठ-खण्ड को छूने जैसा था जिससे बहुत दिनों तक मैं अख़बारों के ढेर को दबाने का काम लेता रहा जिससे वे उड़ नहीं जाएँ अख़बारी हवाओं में इसे यूं समझिए कि मेरे पास एक अनमोल ख़ज़ाना था जिसे मैं अपनी बेख़बरी में सरे-आम रखे हुए था यह वाक्य तो मैंने बहुत बाद में लिखा कि एक शब्दकोष के पीले-विदीर्ण-जीर्ण पन्नों पर मत जाओ कि दुनिया के तमाम आबशार यहीं से निकलते हैं कि इसकी थरथराती आत्मा में अब तक की मनुष्यता की पूरी कहानी लिखी हुई है कि इसकी पुरानी जर्जर काया में घुसना बरसों बाद अपने गाँव की सरहदों में घुसना है कि मैंने इसके भीतर जाकर जाना कि कितनी तरह की नफ़रतें होती हैं कितनी तरह की मुहब्बतें कैसे कैसे जीने के औज़ार कैसी कैसी मरने की तरकीबें कि इसकी गलियों से गुज़रना एक ऐसी धूल-धूसरित सभ्यता से गुज़रना था जहाँ इतिहास धूल-कणों की तरह हमारे कंधों पर जमता जाता है और महाभारत की तरह जो कुछ भी है इसके भीतर है इसके बाहर कुछ नहीं है एक प्राचीन पक्षी के पंखों की फड़फड़ाहट है एक गोल गुम्बद से हम पर रौशनी गिरती रहती है जितने भी अब तक उत्थान-पतन हैं सब इसके भीतर हैं इतिहास की सारी लड़ाइयां इसके भीतर लड़ी गईं शान्ति के कपोत भी इसके भीतर से उड़ाए गए लेकिन वे इसकी काली-गठीली जिल्द से टकराकर लहूलुहान होते रहे और यह जो रक्त की ताज़ा बूँदें टपक रही हैं यह इसकी धमनियों का गाढ़ा काला लहू है जो हमारे वक़्त पर बदस्तूर टपकता रहता है जो निश्चय ही मनुष्यता की एक निशानी है और हमारे ज़िंदा रहने का सबूत गुम्बदों पर जब धूप चमक रही हो तब यह एक पूरी दुनिया से सामना है यह एक चलती हुई मशीन है वृक्षों के गठीले बदन को चीरती हुई एक आरा मशीन जिसका चमकता हुआ फाल एक निरंतर धधकती अग्नि से तप्त-तिप्त जहाँ काठ के रेशे हम पर रहम की तरह बरसते हैं पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह अपने रंग-रेशों-धागों को अपनी आत्मा से सटाए हुए हम हमारे इस समय में गुज़रते रहते हैं यह जानते हुए कि जिन जिन ने भी इन शब्दों को बरता है वे हमारे ही भाई-बंद हैं एक बहुत बड़ा संयुक्त परिवार जिसके सदस्य रोज़ी-रोटी की तलाश में उत्तर से पच्छिम व पूरब से दक्खिन यानी सभी संभव दिशाओं में गए और वह बूढ़ा फ़क़ीर जो रेख़ते के बीज धरती पर बिखेरता हुआ दक्खिन से पूरब की तरफ आ रहा था जिसे देखकर धातु-विज्ञानियों ने लौह-काष्ठ और चूने के मिश्रण से जिस धातु का निर्माण किया उससे मनुष्य ने नदियों पर पुल बनाए लोहे और काष्ठ के बज्जर पुल जिन पर से पिछली कई शताब्दियों से नदियों के नग्न शरीर पर कलकल गिर रही है चूना झर रहा हैं अंगार बरस रहा है और जिसके कूल-किनारों पर क़ातिल अपने रक्तारक्त हथियार धो रहे हैं वे बाहर ही करते हैं क़त्ले-आम तांडव बाहर ही मचाते हैं क़ातिल सिर्फ मुसीबत के दिनों में ही आते हैं किसी शब्दकोष की जीर्ण-शीर्ण काया में सर छिपाने वे ख़ामोश बैठे रहते हैं सर छिपाए क़ाज़ी क़ायदा क़ाबू क़ादिर और क़ाश के बग़ल में और क़ाबिले-ज़िक्र बात यह है कि क़ानून और क़ब्रिस्तान इसके आगे बैठे हुए हैं पिछली कई सदियों से और और इसके आगे बैठे क़ाबिलियत और क़ाबिले-रहम पर हम तरस खाते रहते हैं जैसे मर्ग के एक क़दम आगे ही मरकज़ है और यह कहने में क्या मुरव्वत करना कि मृत्यु के एकदम पास मरम्मत का काम चलता रहता है और बावजूद क़ातिलों को पनाह देने के यह दुनिया की सबसे पवित्र किताब है जबकि दुनिया के तमाम धर्मग्रंथों को हर साल निर्दोष लोगों के रक्त से नहलाने की प्राचीन प्रथा चलती आती है इस तरह पीले नीले गुलाबी हरे रेशम वस्त्रों में लिपटे हुए धर्मग्रंथ मनुष्य के ताज़ा खून की तरह प्रासंगिक बने रहते हैं जबकि यहाँ दरवाज़े से झाँकते ही हमें दरिन्दे और दरवेश एक से लबादे ओढ़े हुए एक साथ नज़र आते हैं लुग़त के एक ही पन्ने पर गुज़र-बसर करते और उस काल्पनिक और पौराणिक धार की याद दिलाते हुए जहाँ शेर और बकरी एक साथ पानी पीते थे और यह तो सर्वथा उचित ही है कि शराब शराबख़ाना शराबख़ोर और शराबी एक ही इलाक़े में शिद्दत से रहें लेकिन क्या यह हैरान करने वाली बात नहीं कि शराफ़त जितनी शराबी के पास है उतने पास किसी के नहीं हालाँकि शर्मिन्दगी उससे दो-तीन क़दम दूर ही है यह कोई शिगूफ़ा नहीं मेरा शिकस्ता दिल ही है जो इतिहास की अब तक की कारगुज़ारियों पर शर्मसार है जिसका हिन्दी अर्थ लज्जित बताया गया है जिसके लिए मैं शर्मिन्दा हूँ और इसके लिए फिर लज्जित होता हूँ कि मुझे अब तक क्यों नहीं पता था कि मांस के शोरबे को संस्कृत में यूष कहा जाता है शोरिश विप्लव होता है १८५७ जैसा धूल उड़ाता हुआ एक कोलाहल और इस समय मैं जो उर्दू-हिन्दी शब्दकोष पढ़ रहा हूँ जिसके सारे शब्द कुचले और सताए हुए लोगों की तरह जीवित हैं इसके सारे शब्द १८५७ के स्वतंत्रता-सेनानी हैं ये सूखे हुए पत्ते हैं किसी महावृक्ष के जिससे अभी तक एक प्राचीन संगीत क्रंदन की तरह राहगीरों पर झरता रहता है यह एक ऐसी गोर है जिसके नीचे नमक की नदियाँ लहराती रहती हैं आँधियों में उड़ता हुआ एक तम्बू जो जैसा भी है हमारा आसरा है एक मुकम्मल भरोसा कि यह हमें आगामी आपदाओं से बचाएगा कहीं से भी खोलो इस कोहे-गिराँ को यह कहीं से भी समाप्त नहीं होता है न कहीं भी शुरू जैसे सुपुर्द का मानी हुआ हस्तांतरित तो क्या कि शराब का मटका और सुपुर्दगी होते ही हवालात में बदल जाता है गाने-बजाने का सामान होता है साज़ पर वह षड्यंत्र भी होता है मरते समय की तकलीफ़ को सकरात कहते हैं शब्द है तो मानना ही पड़ेगा कि वह चीज़ अभी अस्तित्व में है सकरात की तकलीफ़ में भी शब्द ही हमारे काम आएँगे यह भरोसा हमें एक शब्दकोष से मिलता है जिसे मैं क्लासिकों का क्लासिक कहता हूँ जिस उर्दू-हिन्दी शब्दकोष को मैं इस समय पढ़ रहा हूँ उसे ख़रीद लाया था सात बरस पहले एक रविवार दिल्ली के दरियागंज से एक किताबों के ढेर से फ़क़त बीस रुपयों में उस कुतुब फ़रोश को भला क्या पता कि गाँधी की तस्वीर वाले एक मैले-कुचैले कागज़ के बदले में आबे-हयात बेच रहा है वह एक समूची सभ्यता का सौदा कर रहा है सरे-राह जिसमें सकरात के फ़ौरन बाद सुकूत है और इसके बाद सुकून इसके बाद एक पुरानी रिहाइश है जहाँ हम सबको पहुँचना है काँटों से भरा एक रेशम-मार्ग सिल्क जिसे कभी कौशेय कभी पाट कभी डोरा कभी रेशम कहा गया यह एक सिलसिलाबंदी है एक पंक्तिबद्धता जो हमारे पैदा होने से बहुत पहले से चली आती है क्या आप जानते हैं कि समंदर एक कीड़े का नाम है जो आग में रहता है ऐसी ऐसी हैरत अंगेज़ आश्चर्यकारी बातें इन लफ़्ज़ों से बसंत के बाद की मलयानिल वायु में मंजरियों की तरह झरती रहती हैं ऐसे ऐसे रोज़गार आँखों के सामने से गुज़रते हैं मसलन संगसाज़ उस आदमी को कहते हैं जो छापेख़ाने में पत्थर को ठीक करता और उसकी ग़लतियाँ बनाता था और यह देखकर हम कितने सीना सिपर हो जाते थे कि हर आपत्ति-विपत्ति का सामना करने को तैयार रहने वालों के लिए भी एक लफ़्ज़ बना है तथा जिसे काया प्रवेश कहते हैं अर्थात अपनी रूह को किसी दूसरे के जिस्म में दाखिल करने के इल्म को सीमिया कहते हैं जो लोग यह सोच रहे हैं कि अश्लीलता और भौंडापन इधर हाल की इलालातें हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि यह उरयानी बहुत पुरानी है पुरानी से भी पुरानी दो पुरानी से भी अधिक पुरानी काशी की तरह पुरानी लोलुपता जितनी पुरानी लालसा और कामशक्तिवर्द्धक तेल तमा जितनी पुरानी और जिसमें उग्रता, प्रचंडता और सख्त तेज़ी जैसी चीज़ें हों उसे तूफ़ान कहा जाता है और आदत अपने आप में एक इल्लत है जैसा कि पूर्वकथन है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है कहीं पर भी समाप्त किया जा सकता है फिर से शुरू करने के लिए एक शब्द के थोड़ी दूर पीछे चलकर देखो तुम्हें वहाँ कुछ जलने की गंध आएगी एक आर्त्तनाद सुनाई पड़ेगा कुछ शब्द तो लुटेरों के साथ बहुत दूर तक चले आए लगभग गिड़गिड़ाते रहम की भीख माँगते हुए शताब्दियों के इस सफ़र में शब्द थोड़े थक गए हैं फिर भी वे सिपाहियों की तरह सन्नद्ध हैं रेगिस्तान नदियों समन्दरों पहाड़ों के रास्ते वे आए हैं इतनी दूर से ये शब्द विजेताओं की रख हैं जो यहाँ से दूर फ़ारस की खाड़ी तक उड़ रही है इनका धूल धूसरित चेहरा ही इनकी पहचान है ये अपने बिछड़े हुओं के लिए बिलखते हैं और एक भविष्य में होने वाले हादसे का सोग मनाते हैं और इनके बच्चे काले तिल के कारण अलग से पहचाने जाते हैं यहाँ उक़ाब को गरुड़ कहते हैं जिसे किसने देखा है एक ग़रीबुल-वतन के लिए भी यहाँ एक घर है कहने के लिए कंगाल भी यहाँ सरमाएदार की तरह क़ाबिज़ है यह एक ऐसा भूला हुआ गणतंत्र है जहाँ करीम और करीह पड़ोसी की तरह रहते हैं यह अब तक की मनुष्यता की कुल्लियात है हर करवट बैठ चुके ऊँट का कोहान एक ऐसा गुज़रगाह जिसपर गुज़िश्ता समय की पदचाप गूँज रही है और इससे गुज़रते हुए ही हम यह समझ सकते हैं कि हमारा यह उत्तर-आधुनिक समय दर अस्ल देरीदा-हाल नहीं बल्कि दरीदा-हाल है किंवा यह फटा-पुराना समय पहनकर ही हम इस नए ज़माने में रह सकते हैं यह जानते हुए कि लिफ़ाफ़ा ख़त भेजने के ही काम नहीं आता हम चाहें तो इसे मृत शरीरों पर भी लपेट सकते हैं एक निरंतर संवाद एक मनुष्य का दूसरे से लगातार वाकोपवाक एक अंतहीन बातचीत कई बार तो यह शब्दकोष जले हुए घरों का कोई मिस्मार नगर लगता है जहाँ के बाशिंदे उस अज्ञात लड़ाई में मारे गए जो इतिहास में दर्ज नहीं है एक कोई डूबा हुआ जहाज़ एक ज़ंग खाई ज़ंजीर टूटा हुआ कोई लंगर एक सूखा हुआ समुद्र उजाड़ रेगिस्तान एक वीरान बंदरगाह एक उजड़ा हुआ भटियारख़ाना इसी तरह धीरे धीरे हमारी आँखें खुलती हैं और हवा के झोंकों से जब गुज़िश्ता गर्द हटती है तब हमारा एक नई दुनिया से सामना होता है जहाँ विपत्तियों-आपदाओं और बुरे वक़्त में इस शब्दकोष से हम उस प्राचीन बूढ़े नाविक की तरह एक प्रार्थना बना सकते हैं;
एक जीर्णशीर्ण शब्दकोष इससे अधिक क्या कर सकता है कि वह मुसीबत के दिनों में मनुष्यता के लिए एक प्रार्थना बन जाए, भले ही वह अनसुनी रहती आई हो.
***

(कृष्ण कल्पित की यह अद्भुत कविता संबोधन के समकालीन युवा कविता विशेषांक में छपी है.)