Sunday, October 26, 2008
सड़ांध मार रहे हैं तालाब
तहलका कांड के खुलासे के बाद कई लोग हैरत जैसा भाव दिखा रहे थे और बीजेपी व संघ खानदान की बोलती कई दिनों तक बंद थी। हालांकि जो हैरत दिखा रहे थे, हैरत उन्हें भी नहीं थी। मालेगांव विस्फोट में हिंदुत्ववादी कारकुनों और किसी साध्वी के खिलाफ सबूत मिलने पर भी फिलहाल संघ खानदान थोड़ा सकते में है (हालांकि, वह जानता है कि कुछ होने-जाने वाला नहीं है, उसे समाज के सांप्रदायिक हो चुकने पर सही ही गहरा भरोसा है)। पर बहुत से लोग हैरत दिखा रहे हैं - `अच्छा, हिंदुत्ववादी भी एसा कर सकते हैं, हम तो सोच भी नहीं सकते थे`, वगैरह, वगैरह। पर क्या वाकई उन्हें कोई हैरत है! देश के विभाजन और गांधी की हत्या के बाद भी क्या कुछ छिपा रह गया था? जिसे हमारा मीडिया और हमारा समाज संघ-बीजेपी आदि का हिडन एजेंडा कहता रहा क्या वह हमेशा ही पूरी तरह साफ खुला अभियान नहीं था? बाबरी मस्जिद ढहाने केबाद भी सांप्रदायिकता के कितने खूनी खेल संघ परिवार ने खेले और मीडिया, समाज और राजनीति की स्वीकार्यता भी अपने इन कृत्यों के लिए हासिल कर ली। इन दिनों हमने देखा कि सेक्युलरिज्म की राजनीति करते रहे मुलायम, माया और तमाम दूसरे नेता भी जब चाहते हैं बेझिझक सांप्रदायिक गाड़ी पर सवार हो लते हैं, यह जानते हुए कि मुसलमान के पास अब रास्ता ही क्या है(हालांकि ढिंढोरा मुस्लिम तुष्टिकरण का ही सबसे ज्यादा पीटा जाता रहा है)। पूरी तरह आइसोलेशन में धकेल दिए गए मुसलमानों के आतंकवादी होने का प्रचार भी हम खूब जोरशोर से करते रहे (हालांकि हालात हमने उनके आतंकवादी हो जाने के ही पैदा कर रखे हैं) और हिंदुत्वावदी आतंकी तांडव पर फूले नहीं समाते रहे।
हैरत तो यह भी नहीं है कि संघी प्रचार में वो लोग भी शामिल रहे हैं जिनके चेहरे बेहद शालीन, अत्यंत मृदु और अति भद्र हैं और जो अपनी गांधीवादी उदारता में बस बेमिसाल हैं। गीतफरोश भवानी भाई के साहबजादे और `तालाब भी खरे हैं` वाले गांधीवादी मार्का अनुपम मिश्र भी अपनी गांधीवादी चेयर पर बैठकर फरमा सकते हैं कि हिंदू तो उदार है और मुस्लिम स्वभाव से ही आतंकवादी है। दरअसल दो बरस पहले अखबार के काम के सिलसिले में उनके पास गांधी पर एक छोटे इंटरव्यू के लिए गया था तो वे भगत सिंह पर पिल पड़े थे और फिर कहने लगे थे कि भगत सिंह सही हैं तो फिर लादेन को भी सही कहना पड़ेगा। बात विषय से भटक चुकी थी और उनके साथ मैं भी। बजरंग दल और गुजरात का जिक्र आया तो उन्होंने कहा- हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता, मुसलमान जहां भी हैं, वहां आतंकवाद हैं। उनके इस एकांगी और नफरत भरे नजरिये से मैं गहरी वितृष्णा में रह गया और मैंने महसूस किया कि तालाब खरे नहीं हैं बल्कि उनमें भारी सड़ांध है। मुझे समझ में आया कि कैसे कांग्रेस में हमेशा संघ मजे से फलत-फूलता रहा, कैसे गांधी की हत्या में कांग्रेस के ही मंत्रियों की भूमिका घिनौनी रही, कैसे नेहरू बार-बार सांप्रदायिकता से लड़ाई के मसले में अपनी ही पार्टी में अकेले पड़ते रहे। मुझे अचानक अपने स्कूल के समय के अपने गांधी, विनोबा और जेपी के अनुयायी कई खद्दरधारी सर्वोदयी टीचर याद आए कि कैसे वो संघ के अभियान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे थे। मुझे वो सीध दिखाई पड़ी जो संघ, कांग्रेस और आर्यसमाज व दूसरे एसे संगठनों में है और जो अब आम जन के मन तक बन चुकी है। खैर अब ये इंटरव्यू छपने लायक तो था नहीं पर मेरे मन में यह छप चुका था। भला अनुपम मिश्र को अब कोई हैरत हो रही होगी?
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29 comments:
अनुपम मिश्र का नाम फोटो और नाम हिन्दू, मुसलमान, सिमी, बजरंगदल, आतंकवाद, मुस्लिम टैररिज्म वगैरह में जिस तरह आप प्रयोग कर रहे हैं वह घोर निन्दनीय है.
क्षमा करें ये विचित्र शैली है... मैं गया था उसने मुझे अकेले में कहा कि ...।
अब इस अपुष्ट आख्यान के आधार पर आप किसी सार्वजनिक व्यक्तित्व को गलिया रह हैं बाकायदा तस्वीर देकर, वो भी तब जब दूसरे पक्ष का मत हमें ज्ञात नहीं।
कम से कम हमारे लिए तो इस कृत्य की सराहना करना कठिन है।
कुछ दिन पहले ही छापा था उनका इंटरव्यू....बड़ा कंफ़यूज़न है तालाब भी खरे नहीं हैं क्या....
सैणी साब.....
`हमारे प्यारे आतंकवादी' पोस्ट में आपने कहा था कि---
दुर्भाग्य यह है कि सामान्य और साफ़ बातें देख पाना हमेशा ही मुश्किल रहता आया है. यह देखने के लिए मूलगामी नज़र की जरूरत होती है, जो माइंड सेट को तोड़ सके. यह नज़र एक चेतना का हिस्सा होती है, जो इस तरह के धमाकों को किसी धर्म के लोगों से नफरत की शक्ल में नहीं देखने लगती बल्कि यह पड़ताल कर लेती है कि इस साजिश से क्या चीज बन रही है. सांप्रदायिक ताकतों से मूलगामी नजर के साथ लम्बी लड़ाई लड़ते रहे मार्क्सवादी आन्दोलन के ही बहुत से साथी इस चेतना के अभाव में जब-तब अजीबोगरीब बातें करते दिख जाते हैं.....
मेरे लिए इसका मतलब ये हुआ कि असहमति की गुंज़ाइश नहीं है। इसका मतलब ये हुआ कि जो आपकी लाइन पर सवाल उठाएगा (चाहे हो समझने के लिए ही हो) उसे अजीबीगरीब बातें करना करार दिया जा सकता है। और फिर मूलगामी नज़र जो चेतना का हिस्सा होती है-- उसे कोई कहां से लाए ?
मुझे लगता है कि आप काफ़ी दूर हो... इतनी दूर कि बात समझ नहीं आती.... हालांकि हो सकता है कि एक दिन समझ आ जाए.... या कभी न आए....
या हो सकता है कि एक दिन आपको ही लगे कि इतनी जो़र-ज़ोर से बोलना, गालियां देना ठीक नहीं था....
आप जितने भी सम्मानित हों, महान हों, गांधीवाद या किसी और किसी वाद की शुद्धतम हींग बेचते हों। कुछ सवाल आपकी सिलाई खोल ही देते हैं। दोस्त बधाई, बिना व्यक्तित्व के अरदब मे आए उसे आलोचनात्मक नजरिए से देखने के साहस के लिए। अब अनुपम मिसिर को चाहिए कि ऐसों को क्या मुंह लगाना वाली महानता-ग्रंथि से बाहर आकर उवाचें।
वैसे सेकुलरिज्म को राजनीति की अवसरवादी पतुरिया बना डाला गया है। अब किसी बनी बनाई परिभाषा को मानने का वक्त नहीं रहा।
बहुत पुरानी कांग्रेसी शैली है भाई, सिमी = बजरंग दल बनाने के लिये ऐन चुनाव के पहले का वक्त चुना है… कांग्रेसियों और सेकुलरों का मीडिया प्रबन्धन तो पहले से ही बहुत बेहतरीन है…
बधाई हो हे जिद्दी धुन जो बात पोस्ट में कही गई है वह कमेंट साबित कर रहे हैं। अधिकतर भद्रजन हैरान हो रहे हैं। मसिजीवी को विचित्र लीला लग रही है। अरे यहां तो पाखंड़ ही होता रहा। अटल बिहारी को भी उदार बताया जाता रहा। बेनामी तो इतने शर्मिंदा हैं कि परदे से बाहर नहीं आए। जरूर मसिर जी जैसे कोई भदर पुरुष होंगे। देखो जिद्दी धुन इस बारे में कवि-साहित्यकार सब-कुछ समझते हुए भी चुप्पी साधे रखेंगे क्योंकि अगला गांधी शांति प्रतिष्ठान की सीट पर है, कौन बुरा बने। वैसे सभी जानते हैं मिसिर के रुझान के बारे में-कोई हिडन एजेंडा नहीं। यह पोल खोल नहीं है बल्कि शरमींदा होने की बात है कि अपने बीच और अपने भीतर पल रहे आतंकवाद को हम पुचकारतेहैं। इस तरफ इशारा करने वाले को चीखना कहते हैं।
आप क्यों सोते रहे, नांदेड, कानपुर और कितने सबूत चाहिए। जिद्दी धुन यहां अकेले पड़ोगे पर यही काम तो मुश्किल है। बधाई
धीरेश, तुमने ये बातें सामने लाकर अच्छा किया. सार्वजनिक व्यक्तित्व जिसे कहा जा रहा है उसके पास भी कुछ विचार हैं जिन्हें वह सार्वजनिक रूप से भले ही अपने नाम से प्रस्तावित न करे पर जिनका तहे-दिल से समर्थन करता है. अवसर आने पर उसके विचारों की रंगत भी दिखाई देने लगती है. अनुपम मिश्र शायद अचानक से तो साम्प्रदायिक नहीं हो गए, यह हसीन रोग उनके अन्दर लंबे अरसे से पलता रहा है ... समस्या यह है कि बहुत से लोगों में साफ़्ट हिन्दूवाद से कठोर हिंदुत्व की इस अनिवार्य यात्रा को देखने से हम तुम कतराते हैं. अपने देश में तो पर्यावरणवाद के भीतर भी शाखा लगा करती है -- अनुपम इन शाखाओं के प्रभारी हैं.
धीरेश मैंने भी कितने ही तथाकथित गांधीवादी, सर्वोदयी यहा तक की खुद को सेकुलर समाजवादी प्रगतिशील कहलवाने वाले बुद्धुजीवी देखे है जो प्रवचन तो सेकुलरिस्म पर देते है लेकिन निजी जीवन में घोर कम्युनल होते है। मैंरे अनेको अत्यंत निकट के पारिवारीक संबंधी कट्टर कांग्रेसी है लेकिन आरक्षण की बात आते ही वे कट्टर ब्राह्मण हो जाते है, मुसलमानो का नाम आते ही कट्टर हिन्दू बन जाते है। कुछ तो एसे भी है जो प्रचार तो कांग्रेस का करते है स्वयं को कांग्रेसी भी कहते है लेकिन वोट ताई (इन्दौर से भाजपा सांसद) को देते है।
सिमी, हूजी या बजंरग दल जैसी ताकते तो सांप्रदायिकता का तोपखाना है ये पानी की तरफ साफ है, लेकिन सेकुलरिस्म की खाल में छिपे मिश्रा जी जैसे छद्म भद्रलोगो का बेनकाब किया जाना अत्यंत जरूरी है। ये वर्ग भी सांप्रदायिक ताकतो जितना ही खतरनाक है।
ऐसों की पोल खोलकर आपने बहुत भारी उपकार किया है। आप निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। मैंने जो प्रतिक्रियाएं यहां देखीं, उनमें से कुछ को तो आपकी बात हजम नहीं हुई। लेकिन साहित्य या राजनीति के नाम पर जो लोग इस तरह की दुकानदारी चला रहे हैं, उनको इसी तरह नंगा करने की जरूरत है। आपको फिर से बधाई। जल्दी से सेहतमंद होकर और सक्रिय होना है धीरेश भाई आपको।
दिपावली की शूभकामनाऎं!!
शूभ दिपावली!!
- कुन्नू सिंह
बेहद महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान इंगित करवाया है आपने। संघ की कट्टर राजनीति को खाद-पानी हमारी हजारों वर्षों की संस्कृति देती है। इस संस्कृति में रचे-पगे बड़ी-बड़ी बात करने वाले लोगों के अन्दर भी एक 'हिन्दू' हमेशा छुपा रहता है। गांधी का मानवतावाद भी दिखने में भोला असल में खोखला है। गौर करने वाली बात है कि आरएसएस को गांधी के पाकिस्तान वाले स्टेड के अलावा गांधीवाद से कभी चिढ नहीं रही।
"इस दुर्दशा को पहुंचाने वाले यही कमअक्ल लोग थे .....जो अपने आपको देशभक्त कहते हुए मुंह बजाते घूम रहे हैं, और जब इनकी बकवास सिरे चढ़ जायेगी, उस वक्त यह चूहे सबसे पहले अपने बिलों में घुस जायेंगे ! उस समय कमज़ोर पड़ते देश से इन्हे न अपना प्यार नज़र आएगा न धर्म !
आज आवश्यकता है कि हम इन नफरत फैलाते हुए, देश के दुश्मनों की पहचान करलें , ऐसे लोगों की किसी भी प्रकार की, तारीफ़ करना भी मेरी नज़र में सिर्फ़ अपराध है ! एक मूर्ख मगर घातक विचारधारा को किसी भी हालत में फैलने से रोकने के लिए, प्रयत्न करने से बड़ा पुण्य कार्य, मैं और नही मानता !"
http://satish-saxena.blogspot.com/2008/10/blog-post_8961.html
बहुत जरूरत है आप जैसे लोगों के आगे आने की ! संकीर्ण मानसिकता आपकी आलोचना तो करेगी ही !
यदि कोई व्यक्ति आप के सेक्यूलर मानदण्डों पर खरा नहीं उतरता तो उस में जो कुछ है वो सब निन्दनीय है..?
वो भगत सिंह को नहीं स्वीकार रहा तो गांधीवाद गाली खाने योग्य है?
मुसलमानों के प्रति उसकी राय आप के मुताबिक नहीं तो उसकी तालाब के बारे में राय सड़ी हुई है?
ये कैसा तार्किक मानस है आप का?
और आप स्वयं को प्रगतिशील कहते है?
माफ़ करें जो आप ने लिखा है वो आलोचना नहीं.. चरित्र-हनन है।
जवाब मांगते सवाल...
एक विचारणीय पोस्ट।
बहुत ख़ूब...
जिद्दी धुन भारतवर्ष के तालाबों की बात नहीं चला रहा है, उसने तो अनुपम मिसिर जी की भीतर सडांध मारते तालाबों की बात करी है. देश में गांधीवाद की खाल ओढ़कर हजारों भगवा निक्करधारी घूमते फिरते हैं. पेड़ पौधों की, हवा पानी की, मानवप्रेम, पशुप्रेम की बात करते हैं पर बगल में छुरी छिपाए रहते हैं. ऐसे लोगों से क्या सावधान नहीं रहना चाहिए? कौन असल है, कौन फ्राड यह तो जानना ही पडेगा.
हमारे मन का दीप खूब रौशन हो और उजियारा सारे जगत में फ़ैल जाए इसी कामना के साथ दीपावली की आपको और आपके परिवार को बहुत बहुत बधाई।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं आपको और आपके पूरे परिवार को।
सही कहा आपने जो आश्चर्य कर रहे हैं या तो वो झूठ कह रहे हैं या तो वो जानते ही नही अपने आस पास के बारे में. हमने अपनी पढाई शिशु मंदिरों में की है और हम जानते हैं कि संघ या बहुसंख्यक कट्टरवादी कोई दूध के धुले नही हैं और उदार चेहरों के पीछे भी आसानी से भड़काए जा सकने वाला कट्टर वाद छुपा होता है.
बहुत खूब ..भगत सिंह की तुलना कोइ लादेन से करें उससे बडा देशद्रोही कौन होगा ? अंग्रेजों के पूंछ सहलाने वाले उनकी चमचागिरी कर सर की उपाधी पाने वाले गांधीवादियों की शायद यही सोच आज भी है । अगर मैं गलत नही हूं तो शायद यही खुशवंत सिंह के पिता (सर) सरदार शोभा सिंह थे जिनकी गवाही पर शहीदेआजम को अग्रेजों ने फांसी की सजा सुनाइ थी ।
धीरेशजी ,आपने ओर्कुट पर सन्देश दिया इसलिए इस पोस्ट को देख सका । 'हिन्दू आतंकवादी नहीं हो सकता ' - यानी यदि कोई आतंकवादी है तो वह हिन्दू नहीं होगा ? मेरे अजीज चिट्ठेकार शाहरोज ने कुरान शरीफ़ की आयतें उद्धृत करते हुए बताया था कि 'जो आतंकवादी है , वह मुस्लिम नहीं हो सकता'। ऐसी भावना रखने वाले शाहरोज और अनुपम मिश्र को मैं साम्प्रदायिक नहीं मानता। कुछ गांधीवादी संघ-भाजपा के निकट हुए, इतिहासकार धरमपाल की बौद्धिक रहनुमाई में। धरमपाल गोविन्दाचार्य जैसों के जरिए भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में भी शामिल होते थे ,वर्ण व्यवस्था व सती-प्रथा आदि को जायज ठहराते थे। धरमपाल जैसों की गोल को 'हिन्दू नक्सलाइट'कहा गया। फिर धरमपाल ने अवसाद में एक बार नींद की ज्यादा गोलियां भी खा लीं थी। यह खेमा भी दो भाग में बंटा - संघ के साथ और विरोध वाला । अनुपम मिश्र दोनों में नहीं रहे। धीरेश यदि मानते हों कि धर्म निरपेक्षता की पूर्व शर्त नास्तिक होना है तब शाहरोज और अनुपम मिश्र कभी सेक्युलर नहीं माने जाएंगे । परन्तु ऐसा मान लेने पर साम्प्रदायिकता-विरोधी खेमा कमजोर होगा।
अफलातून जी बात इतनी भर नहीं है। मिश्र जी की बातों में मुस्लिम घृणा इतनी ज्यादा थी कि वे मुसलमान कोही आतंकवाद की जड़ मानकर चल रहे थे और बजरंगदल और मोदी पर नजरे इनायत कर रहे थे। सेक्यूलर होने की शर्त बजरंग दल को राष्ट्रप्रेमी, गुजरात नरसंहार को गोधारा की स्वाभाविक प्रतिक्रिया मानने जैसी बातें भी नहीं हो सकती। फिर गांधीवाद के नाम पर गांधी की हत्यारी विचारधारा के प्रति ऐसा लगाव। निर्मल वर्मा जैसी एक पूरी जमात रही है जो मौका देखते ही लोकतंत्र की दुहाई देते-देते संघ को खाद-पानी देने लगी।
आप ठीक कह रहे हैं कि नास्तिक होना धर्मनिरपेक्षता की कोई पूर्व शर्त नहीं है। धर्म दुनिया भर में जनता के जीवन से जुड़ा है, उसे अनदेखा कैसे किया जा सकता है लेकिन धर्म के नाम पर खूनी खेल खेलने वालों का बचाव निश्चय ही धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकतीहै। आप इधर आते रहिएगा।
अनुपम मिश्र जी के नाम पर मुझे भी थोड़ा आश्चर्य हुआ । कुछ लोगों को आपत्ति भी हुई। आपने बड़ी हिम्मत दिखाई । वैसे साक्षात्कार लेने ही गए थे आप। बेहतर होता कि मिश्र जी के अलावा एक दो उदाहरण और देते तो शायद अभय जी, मसिजीवी समेत मुझे भी हैरत न होती क्योंकि जो तथ्य आप बता रहे हैं उसे जानते सब हैं सिर्फ चेहरों पर नाम भर लिखने होते हैं।
लादेन और भगतसिंह को एक कतार में देखने की सोच भी नहीं सकता। पढ़कर ही तेज़ गुस्सा आ गया ।
अच्छी पोस्ट।
इसके बावजूद यह कहूंगा कि अनुपमजी ने जो काम किया है वह अद्भुत है । वे बेहद सादा इन्सान हैं। जो बातें उन्होंने कहीं वे भी आपराधिक तो नहीं हैं। इस दुनिया में विभिन्न समाज-सम्प्रदाय एक दूसरे के बारे में धारणाएं बनाते आए हैं, विद्वेष रखते आए हैं, श्रेष्ठता कायम रखने या थोपने की हिंसक होड़ का इतिहास ही हमें इस वक्त तक लाया है। फिर बेचारे मिश्र जी पर ही गाज क्यों ?
KHALID A KHAN
क्या बात है बहुत सुन्दर ...अच्छी पोस्ट
धीरेश भाई.......वाकई आप ने फिर हिम्मत का काम किया है .लगत है कुछ लोगो को आपकी बाते हजम नहीं हुई .उनका पेट ख़राब हो गया है ........ये सडन उनके अन्दर की है जो बहार निकल रही है ..............अनुपम जी अगर भगत सिंह और लादेन को एक चश्मे से देखते है तो ......ये उनकी छोटी सोच है ....आपकी इतनी आलोचना जो हो रही है उसके लिए आपको बधाई है ....इस का अर्थ है ........लोगो पर आप असर दिखा रहे है .अभी आप को बहुत को नंगा करना है इस लिए जल्दी से ठीक हो जाये
vakai himmat ka kaam kiya hai aap ne .....aapko badhai ho ..jo log bak rahe hai uneh bAKNE DE AAP ACHCHA KAR RAHE HAI KARTE RAHE BHAI ...EK BADNAAM
ABHI ASTINO ME NAAG BAHUT HAI
UJALE SE PEHLE ABHI RAAT BAHUT HAI ...AAPNA DIYA YUHI JALAYE RAKHE ...
Atankwadi ka koi dharm nahi hota balki dharmik hone ka jhootha dawa karta hai. Aur jo dharm ka palan karta hai wo atankwad nahi failata hai.Kyunki kisi bhi dhar khoon bahana nahi sikhata hai. Sangh ke log koi doodh ke dhule nahi hein!
rgds,
www.rewa.wordpress.com
fir bhi udarvadi kam se kam kuchh to sochte hain
सटीक पोस्ट
सामयिक बात
और
सार्थक बहस
बढ़िया है.......
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