Saturday, November 8, 2008

आबिद आलमी की दो गज़लें



आबिद आलमी यानी रामनाथ चसवाल. ४ जून १९३३ को रावलपिंडी की गूज़रखान तहसील के ददवाल गाँव में पैदा हुए और १९४७ में हरियाणा (तब पंजाब का ही हिस्सा) आये. शायरी को बेहद पाक मानते हुए शायर होने के `दंभ' से पूरी तरह दूर रहे और सुखन के कारोबारियों का क्या पड़ी कि उन पर गौर फरमाते. फिर विभिन्न कॉलेजों में अंग्रेजी अध्यापन और बतौर शिक्षक संगठनकर्ता दिन-रात खपते हुए आलमी साहब को इस सबकी की परवाह करने की फुर्सत भी नहीं थी. वे बीमारी से जूझते हुए ९ फरवरी १९९४ को दुनिया से रुखसत हुए. प्रदीप कासनी की कोशिशों से उनका संग्रह `अलफाज़' आधार प्रकाशन से साया हुआ है.

(1)
----

घरौंदे नज़रे-आतिश और ज़ख्मी जिस्मो-जां कब तक
बनाओगे इन्हें अख़बार की यों सुर्खियाँ कब तक

यूँ ही तरसेंगी बाशिंदों की खूनी बस्तियाँ कब तक
यूँ ही देखेंगी उनकी राह गूंगी खिड़कियाँ कब तक

नहीं समझेगा ये आखिर लुटेरों की जुबां कब तक
हमारे घर को लुटवाता रहेगा पासबाँ कब तक

रहीने-कत्लो-गारत यूँ मेरा हिन्दोस्तां कब तक
लुटेंगी अपनों के हाथों ही इसकी दिल्लियाँ कब तक

कहो सब चीखकर हम पर बला का कहर टूटा है
कि यूँ आपस में ये सहमी हुई सरगोशियाँ कब तक

गिरा देता है हमको ऊंची मंजिल पर पहुँचते ही
हम उसके वास्ते आखिर बनेंगे सीढियाँ कब तक

यूँ ही पड़ती रहेगी बर्फ़ ये कब तक पसे-मौसम
यूँ ही मरती रहेंगी नन्ही-नन्ही पत्तियाँ कब तक

कहीं से भी धुआं उठता जब घर याद आता है
यूँ ही सुलगेंगी मेरी बेसरो-सामानियाँ कब तक

हमारे दम से है सब शानो-शौकत जिनकी ऐ `आबिद'
उन्हीं के सामने फैलायेंगे हम झोलियाँ कब तक


(2)
रात का वक़्त है संभल के चलो
ख़ुद से आगे ज़रा निकल के चलो

रास्ते पर जमी हुई है बर्फ़
अपने पैरों पै आग मल के चलो

राह मकतल की और जश्न का दिन
सरफ़रोशो मचल मचल के चलो

खाइयाँ हर कदम पे घात में हैं
राहगीरो संभल संभल के चलो

दायें बायें है और-सा माहौल
राह `आबिद' बदल बदल के चलो

Painting : Iraqi artist, Jabel Al-Saria, 2006.

10 comments:

Udan Tashtari said...

आभार इन बेहतरीन गजलों को हमारे साथ बांटने के लिए.

शोभा said...

वाह! क्या बात है. बहुत सुंदर.

तसलीम अहमद said...

behtareen rachnayen.

पारुल "पुखराज" said...

waah waah..bahut khuub...padhvaney ka shukriyaa

वर्षा said...

वाह-वाह,आभार,बेहतरीन,बधाई स्वीकारें...

"अर्श" said...

रास्ते पर जमी हुई है बर्फ़
अपने पैरों पै आग मल के चलो

bahot khub badhiya ,aapka abhar esi ghazalen hamare santh share karne ke liye....

अमिताभ मीत said...

बहुत उम्दा ग़ज़लें. शुक्रिया पढ़वाने का.

राजन said...

"कहो सब चीखकर हम पर बला का कहर टूटा है
कि यूँ आपस में ये सहमी हुई सरगोशियाँ कब तक"

बेहतरीन .... शुक्रिया, इन्हे यहाँ चस्पा करने के लिए.

अनुपम अग्रवाल said...

aap badhaai ke paatra hain in rachnaaon ke prastutikaran ke liye.

Pratibha said...

बेहतरीन...!