Friday, January 16, 2009
घेरेबंदी
फिलिस्तीनी हमले पर महमूद दरवेश की ये कविता 'घेरेबंदी'2002 में लिखी गई थी जब वे रामल्ला में खुद भी इज़राइली सेनाओं से घिरे हुए थे। उस घिराव की गवाही देती हुई ये लंबी कविता फिलस्तीनी ज़िंदगी की ही तरह यातना, हिंसा, कत्लोगारत, गोलीबारी, विलाप, हताशा के वर्तमान और कोमलता, ख़ुशी, प्रेम, इंसानियत और भविष्य की कल्पना का एक कटा-फटा, छितरा और छलनी हुआ कोलाज है। मंगलेश डबराल का ये अनुवाद अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है।
वक़्त है मेहरबान
जब इन पहाड़ी छलानों पर होती है शाम
तहस-नहस इन बाग़ीचों में जिनके साये भी छिन गये
हम करते हैं क़ैदियों सरीखा काम
करते हैं बेरोज़गारों सरीखा काम
हम बोते हैं उम्मीद
*
अपनी सुबह का सामने करने को तैयार इस धरती पर
हम बने और भी मूर्ख,
जब भी हमने अपनी जीत की आंख से मिलायी आंख
धमाकों से दमकती हमारी लंबी रातों में नहीं है कोई रात
जागते हैं देर रात तक हमारे दुश्मन
वे हमारी गुफाओं की काली अंधेरी खंदकों को
आग लगाकर करते हैं रोशन
*
यहां जोब1 की शायरी का संसार
इसके बाद अब क्या किसका इंतज़ार
*
यहां मिट चुका है 'मैं'
यहां आदम याद करता है उस मिट्टी को
जिससे पैदा हुआ था वह
*
घेरेबंदी जारी रहेगी तब तक
हम अपने दुश्मनो को अपनी बेहतरीन शायरी
नहीं सिखा पायेंगे जब तक
*
दिन चढ़ते तक सीसे जैसा है आसमान
रात को वह धधक उठता लपटों में
और यहां हमारे दिल हैं गोया क़रीने से सजे हुए गुलाब
*
यहां, घेरेबंदी के बीच ज़िंदगी देती है वक़्त का साथ
उसकी शुरुआत को याद करने
और उसके ख़त्म होने को भूलने के बीच
*
ज़िंदगी- चाहे जी गयी हो भरपूर या हो चुकी हो बर्बाद
अब भी पड़ोस के सितारों को देती है पनाह,
अब भी बटोरती है दूर, पनाह लेने जाते हुए बादलों को
मगर यहां तो ज़िंदगी पूछती है सवाल:
उसे फिर से ज़िंदा करें किस तरह?
*
वह कहता है मौत के कगार पर:
कुछ नहीं खोने के लिए मेरे पास-
मैं हूं आज़ाद, आख़िरी आज़ादी के बहुत पास,
तक़दीर है मेरी मेरे हाथ
मैं अपनी ज़िंदगी को पैदा करूंगा जल्द-
आज़ाद ही जन्मा मैं, न कोई मां न कोई बाप,
मैं आसमानी नीले हरुफ़ों में लिखूंगा अपना नाम
*
यहां धुएं का हार पहने हुए पहाड़ियों के नीचे,
घर की दहलीज़ पर,
वक़्त के लिए नहीं बचा है वक़्त
तब क्या करते हैं हम-
वही जो करते हैं अपने सायों से बेदख़ल लोग
हम भूलते हैं अपना दर्द
*
दर्द यानी एक बीवी जो धुले हुए कपड़े बाहर नहीं फैला सकती
सूखे के लिए,
जिसे कुछ नहीं सूझता एक बेदाग़ परचम फैलाने के सिवा
*
यहां होमर2 की कोई गूंज नहीं
हम जब चाहते हैं दस्तक देते चले आते हैं मिथक दरवाज़े पर
यहां होमरनुमा कुछ भी नहीं है
हर कोई लाशों को खोदने में लगा है
गहरे सोये हुए एक मुल्क के मलबे से
जो धंसा है भविष्य के ट्रॉय के खंडहर में
*
फौज़ी मापते हैं हमारे वजूद
और ला-वजूद के बीच की जगह
टैंक की दूरबीन पर बने निशान से
*
हम मापते हैं अपने और गोलीबारी के
बीच की जगह
सिर्फ अपनी छठी हिस से
*
अरे, दहलीज़ तक आये हुए तुम-भीतर आओ,
और अरबी काफ़ी पियो हमारे साथ,
तब शायद तुम महसूस करो हमारी तरह तुम भी हो इंसान,
वहां दहलीज़ पर आये हुए तुम-
हमारी सुबहों से बाहर चले जाओ,
तब शायद हम महसूस करें तुम्हारी तरह हम भी हैं इंसान
*
हमें चाहिए वक़्त आराम के लिए, अपनी कला के लिए,
तास खेलने के लिए, अख़बार पढ़ने के लिए-
हमें सलहाने चाहिए कल की ख़बरों में दर्ज अपने घाव,
हमें देखनी चाहिए अपनी-अपनी राशियां
सब दो हज़ार दो के साल में
-कैमरा उन पर चमकेगा जो पैदा हुए हैं
घेरेबंदी की राशि में
*
जब कभी झांकता है बीता हुआ कल,
मैं कहता हूं- अभी नहीं जाओ,
और आना आनेवाले कल
*
एक तंज़निगार ने मुझसे यों कहा:
'अगर शुरू में ही मुझे इस दास्तान के ख़ात्मे का पता होता,
तो मैंने एक लफ्ज़ भी कभी न लिखा होता'
*
हरेक मौत,
भले ही वह रही हो तयशुदा,
एक पहली मौत है हमेशा
आख़िर कैसे मान लूं कि एक-एक चांद
सो रहा है एक-एक पत्थर के नीचे
*
बेकार ही धुनता हूं मैं अपना सर
मुझ सरीखा कोई
सामने की पहाजड़ियों में तीन हज़ार साल से
ख़ाक छानता हुआ
क्या खोजकर लायेगा ऐसे मौक़े पर?
यह ख़्याल ही एक तकलीफ़ है-
मगर यह मेरी याद्दाश्त को करता है कुछ तेज़
*
जहाज़ जब उड़कर चले जाते हैं
तब उड़कर वापस आते हैं कबूतर-
खड़िये जैसे सफ़ेद कबूतर,
अपे बेरोक परों से आसमान को
धोते-पोंछते हुए,
रोशनी पर फिर से हक़ जमाते हुए,
आज़ाद बहती ख़ुशनुमा हवा को फिर से संजोते हुए,
ऊंची और ऊंची उड़ान भरते हुए,
कपास जैसे कबूतर
'काश, अगर वह आसमान वाक़ई ऐसा होता',
एक आदमी ने कहा मुझसे मेरे घर के क़रीब गुज़रते हुए
दो धमाकों के बीच
*
जन्नत में लगी हुई आग,मेरा जलता हुआ दिमाग़,
और आसमान से गिरती बिजलियां
क्या फ़र्क़ है इसके बीच?
मैं जान लूंगा जल्द ही अगर यह कविता हो उठी ज़िंदा
-मेरे दोस्त जान लेंगे जल्द अगर कवि हो गया ख़त्म
आलोचक से:
मेरे लफ़्ज़ मत मापो कॉफी के चम्मचों से
उन्हें मत टांगो पिन चुभोकर छटपटाते हुए दीवाल पर
रात में लफ़्ज़ घेर डाल देते हैं मुझ पर
मुझे लिखते हैं वे लफ्ज़ जो मैंने कभी कहे नहीं
फिर मुझे नींद के बीच भटकता हुआ छोड़ देते हैं
कठोर तलछटों तक, मेरे सपनों के कटे-फटे आख़िरी छोर
*
फौज़ियों के पीछे शाहबलूत के पेड़
मीनारों की मानिंद आसमान को देते हैं टेक
फ़ौज़ी पेशाब करते हैंतारों की बाड़ के पीछे
एक टैंक तैनात है उनकी हिफ़ाजत में
शरद की मुकम्मल दुपहर
अपना सुनहरा चक्कर लगाती है सड़कों पर
जो ख़ामोश हैं गकिसी गिरजाघर की तरह
इतवार की इबादत के बाद
*
अपनी सुबह के लिए तैयार होती इस धरती पर
कोई विवाद नहीं होगा
मरे हुओं की क़ब्रों की बाबत-
यहां हर इंसान है बराबर-
घास रोपी जायेगी सब जगह बराबर
ताकि हम एक सी लय में चल सकें साथ-साथ
*
हमें प्यार है अगले कल से
और जब वह आयेगा
हम ज़िंदगी से करेंगे प्यार जैसी भी हो वह-
सीधी-सपाट या पेचीदा,
सुस्त या रंगों से भरपूर
नहीं चाहिए पुनर्जन्म,
बीत चुका है फ़ैसले का दिन
और तब हमारे जश्न
करेंगे देहों और दिलों को रोशन
एक बार ख़ुसी का काटा हुआ हिचकता नहीं दूसरी बार
*
एक क़ातिल से
तुमने ज़रा अपने शिकार की आंख से मिलायी होती आंख,
सायद तुम्हें याद आती गैस चैंबर में अपनी मां,
शायद अपना इरादा बदल देते तुम
और भूल जाते बंदूक का इंसाफ़
इसके सिवा और क्या है अपने वजूद को पाने का उपाय
*
दूसरे क़ातिल से
अगर तुम उस अजन्मे बच्चे को रहने देते
तीस और दिनों तक मां के पेट में,
ज़रा सोचो, तब क्या होता
क़ब्ज़ा ख़त्म हो जाता, वह बच्चा
घेरेबंदी को याद बी न करता,
तंदुरुस्त और मज़बूत पलता-बढ़ता
कॉलेज में पढ़ता एशिया का प्राचीन इतिहास
तुम्हारी ही बेटियों में से किसी के साथ,
मुमकिन था वे आपस में करते प्यार,
उनकी एक नन्ही सी बेटी होती, जन्म से यहूदिन
देखो, यह तुम्हें क्या कर दिया
अपनी ही बेटी को बना दिया विधवा,
अपनी बेटी को कर दिया अनाथ
देखो तुमने कैसे अपने आनेवाले कुनबे को किया तबाह
देखो तुमने कैसे मार डाला तीन परिंदों को एक ही गोली से
*
फ़ालतू हैं सब तुक-तान
जब छिड़ते ही न हों सुर
और दर्द हो बेहिसाब
*
कितनी मोटी घनी काली बारूद
एक अंधेरा जिसे सिर्फ़ नारंगियां छील सकती हैं
या फिर कोई होनहार औरत
*
तनहाई से लबालब
हम पियेंगे अकेलेपन के जाम तलछटों तक-
जब तक वह इंद्रधनुष न उतर आये ज़मीन पर
*
अगर- अभले ही दूर से, भले ही कुछ लम्हों के लिए-
हम उछल पड़ते हैं ख़ुशी से
तो क्या हम किसी को चोट पहुंचाते हैं,
किसी मुलक का
होता है इससे नुकसान?
*
घेरबंदी खड़ी है,
जैसे कोई सीढ़ी खड़ी हो आंधी के सामने
*
हमारे बिरादर हैं इन पहाड़ियों पर
नेक बिरादर तजो तहे दिल से हमें करते हैं प्यार,
हमें देखते हैं और रोते हैं,
गुपचुप कहते हैं खुद से-
अगर हम भी गिरे हुए होते तो हम...तो हम...
-मगर फिर वे चुप हो जाते हैं, रोते हैं-
हमें अकेले मत छोड़ो मेहरबान,
हमें छोड़ मत दो मेहरबाहन-
*
क़बीले अब साइरस से मिलने नहीं जाते,
न सीज़र की ख़िदमत करते हैं
न खलीफ़ाओं से झगड़ते हैं
इन दिनों ये सब चलता है एक ही कुनबे के भीतर
आधुनिकता पर फ़िदा एक कुनबा
जिसने अपने तमाम ऊंट बेचकर खरीद लिया है एक जेट जहाज़
*
किसी को पुचकारत हूं मैं अपनी तनहाई में
दुनिया की निगाह में मर चुके लोगों को जगाने के लिए नहीं,
सिर्फ़ इस क़ैदे-तनहाई से खुद को बाहर धकेलने के लिए
*
मैं आखिरी हूं उन शायरों में
जो दुश्मनों की परेशानी से ख़ुद होते हं परेशान
शायद इतनी छोटी है दुनिया
कि उसमें समा नहीं पाते मार तमाम लोग
और उनके ख़ुदा तमाम
*
इतिहास जमा होता है हमारे भीतर एक जगह
अच्छा इतिहास,ख़राब इतिहास, कई क़िस्म का इतिहास
इतने सारे पापों के बग़ैर
कुछ छोटी हो सकती थी बाइबिल
इतने सारे बहकावों के बग़ैर
और भी तेज़ी से पूरा होता
निजात की राह पर पैग़ंबरों का सफ़र
अबद को करने दो अपना कारोबार
मैं कहता रहूंगा परछाइयों से यह बात
*
अगर इस जगह के इतिहास में इतनी भीड़ न होती
पोपलार पर हमारे गीत दूर-दूर तक होते मशहूर
*
हमारे रोज़मर्रा के विनाश का यह है हिसाब
दो से आठ लोग हुए क़त्ल
दस और घायल
बीस पर नेस्तनाबूत
पचास पेड़ जैतून तहस-नहस
और न भूलें कि यह पूरी तरह इसी तरह है बर्बाद
कविता,नाटक और अधूरी तस्वीर को छिपाती हुई
*
हम सुराहियों में बंद कर देते हैं अपनी तकलीफ़
ताकि फौज़ी इसे काम में न ला सकें
घेरेबंदी का जाम उठाने के लिए,
हम उसे छिपा देते हैं बुरे वक़्त के लिए
उस वक़्त के लिए एक धरोहर
जब ऐसा कुछ होगा जिसका गुमान भी न हो
जब ज़िंदगी पटरी पर लौट आयेगी
हम सब की तरह मनायेंगे मातम,
रोयेंगे अपनी-अपनी बदबख़्तियों पर
उन चीज़ों पर जो सुर्ख़ियों में आने से रह गयीं
कल जब रफ़ू क दी जायेगी हर चीज़
तब आख़ीर में खुल पड़ेंगे धीरे-धीरे हमारे घाव
*
ज़िला वतनी की रोशनी से भरी एक गली में
हवाओं के चौराहे पर तनी है एक क़नात
दक्खिन से कभी नहीं बहती हवा
पूरब एक पच्छिम है सूफी अंताज़ में डूबा हुआ
पश्चिम पेंकता है एक हत्यारा जंगबंदी
अमन के सिक्के ढालता हुआ
दूर हवाओं के उत्तरी मुकाम की बात करें
तो वहां ख़ुदाई है आपसी बातचीत में मशगूल,
हवाओं को अपनी दिशाओं से भटकाती हुई
*
वह उससे कहता है-
मेरा इंतज़ार करना, नरक के कगार पर
वह उससे कहती है-हां, आ जाओ- मैं ही हूं नरक
*
एक औरत ने एक बादल से कहा-
मेहरबानी करके छिपा लो मेरे प्यार को
मेरे कपड़े तो भीगे हैं उसके ख़ून से
*
अगर तुम बारिश न बन सको,
मेरे लाल
तो एक पेड़ बनना
एक पेड़ ख़ूब हरा-भरा, बनना एक पेड़
और अगर तुम पेड़ न बन सको, मेरे लाल,
तो एक चट्टान बनना
एक चट्टान ओस से भीगी हुई बनना एक चट्टान
और अगर तुम चट्टान न बन सको, मेरे लाल
तो चांद बनना,एक चांद
प्रेमी जिसका ख़्वाब देखें,बनना एक चट्टान
यह कहा मां ने अपने बेटे से
उसे दफ़नाये जाने के वक़्त
*
poori kavita agli post mein...
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4 comments:
बहुत दिन बाद पोस्ट लगाई आपने। और क्या लगाई है! कमाल!!
बहुत मौजूं और मार्मिक।
शिरीष जी, व्यास जी...दरअसल ये कविता मैंने महमूद दरवेश के निधन पर मंगलेश जी से ली थी पर तब टाइप नहीं कर पाया था. अब फलस्तीन के हालात ने इस कविता को फिर पढने के लिए मजबूर किया. मैं ठण्ड से बचने के लिए १३ जनवरी को केरल के लिए रवाना हुआ तो एक दोस्त वर्षा को ये कविता दी थी, उसने ही पोस्ट की है. दरअसल ये बहुत लम्बी है और इसे पूरा एक साथ पढ़ा जाना चाहिए. वर्षा जब इसका अगला टुकडा चिपकाएगी तो फिर से पूरी पढियेगा.
शुरू में मैं खुश हुआ यह सोच कर कि इतनी लंबी कविता को इस हालत में धीरेश ने कंपोज किया। कम से कम बधाई तो दे दूं। जब कमेंट बॉक्स में आया तो पता चला कि इसे वर्षा ने कंपोज किया। वर्षा को धन्यवाद। साथ ही धीरेश अब भी सक्रिय है यह देख कर उस पर गर्व हुआ। नाज है धीरेश तुम पर। केरल से लौटते ही बताना अपना हाल।
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