Monday, May 4, 2009

इक़बाल बानो - जुझारू स्त्री-स्वर : असद ज़ैदी


एक लम्बी बीमारी के बाद इक़बाल बानो (1935-2009) पिछली 21 अप्रैल को चल बसीं. लाहौर के इत्तेफ़ाक़ अस्पताल में दोपहर बाद उन्होंने आख़िरी साँस ली. उस वक़्त उनकी बेटी मलीहा और बेटे हुमायूँ उनके क़रीब थे. दूसरे बेटे अफ़ज़ल उसी रोज़ सुबह उनके अस्पताल ले जाए जाने से पहले सऊदी अरब रवाना हो चुके थे. उन्हें उनके घर के पास ही गार्डन टाउन क़ब्रिस्तान में शाम को दफ़ना दिया गया. दफ़न के वक़्त उनके परिवार और पड़ोसियों के अलावा ज़्यादा लोग नहीं थे. संगीत और फ़िल्म की दुनिया से कोई भी वहाँ नहीं पहुँच सका – लोक-गायक शौकत अली के अलावा. बाद में पाकिस्तान की नैशनल असेम्बली और सिंध की प्रांतीय असेम्बली में उनके लिए फ़ातिहा (मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना) ज़रूर पढ़ी गयी. पर यह स्पष्ट नहीं है कि हमारे 'ग़ज़लप्रेमी' प्रधानमंत्री के मुँह से कोई बोल फूटा हो, या रोहतक में पली बढ़ी और दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खाँ की निगरानी में परवान चढ़ी इस गायिका के गुज़र जाने का कोई अहसास हरियाणा के राजनीतिक और सामाजिक हलकों में देखा गया हो.

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उनका जन्म सन 1935 में रोहतक के एक साधारण हैसियत वाले मुस्लिम परिवार में हुआ. पिता परम्परावादी तो थे पर रौशन ख़याल भी थे. इक़बाल की आवाज़ छुटपन से ही सुरीली थी. एक रोज़ उनके पिता से उनके हिन्दू पड़ोसी ने कहा : बेटियाँ मेरी भी ठीक ठाक गाती हैं पर इक़बाल की आवाज़ तो देवी का वरदान है. इसे संगीत की तालीम दिलाओ, यह बहुत आगे जाएगी. नेकदिल पड़ोसी की सलाह सुनकर और इक़बाल की ज़िद देखकर पिता राज़ी हो गए. रोहतक में इक़बाल की संगीत की तालीम शुरू कराने के रास्ते में कई अड़चनें थीं, इसलिए पिता उन्हें दिल्ली ले गए और दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खां ने उन्हें ठुमरी और दादरे के गायन का प्रशिक्षण देना शुरू किया (ग़ज़ल गायकी उस दौर में किसी गंभीर पेशेवर गायक या गायिका का लक्ष्य नहीं हो सकती थी). उनकी सिफ़ारिश पर इक़बाल छोटी उम्र में ही आल इंडिया रेडियो के कार्यक्रमों में गाने भी लगीं. उस्ताद चाँद खां इस ख़याल से बेखबर थे कि हिन्दुस्तान पाकिस्तान का बटवारा कुछ और ही गुल खिलाएगा और दिल्ली घराने का दिल्ली ही से आबदाना उठ जाएगा.

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1950 में खुद इक़बाल का परिवार मुल्तान में जाकर बस गया. 1952 में सिर्फ़ 17 साल की उम्र में एक ज़मींदार से उनकी शादी कर दी गई. उनके पति ने यह शर्त मान ली और ता-उम्र इसका पालन भी किया कि वह इक़बाल के गायन में रुकावट नहीं डालेंगे. 1957 में उन्होंने पहली बार लाहौर में एक बड़े मंच से गाया और तभी से उनकी शोहरत होने लगी. जल्द ही वह उपशास्त्रीय गायकों की अग्रिम पंक्ति में मानी जाने लगीं. साठ के दशक में वह अपने ठुमरी, दादरा गायन के लिए मशहूर थीं. उन्होंने कई फ़िल्मों ('गुमनाम', 'क़ातिल', 'इंतिक़ाम', 'सरफ़रोश', 'इश्क़े लैला', 'नागिन') में पार्श्व-गायिका के रूप में भी काम किया और उस दौर के कई गाने अभी तक याद किए जाते हैं. उन्होंने फ़ैज़ और नासिर काज़मी की नज़्मों और ग़ज़लों को भी गाने के लिए चुना.

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यह वह दौर था जब उपमहाद्वीप में ग़ज़ल गायकी उरूज पर आया चाहती थी. सिनेमा, माइक्रोफोन और रिकार्डिंग टेक्नोलाजी के विकास, स्पूल टेप रिकार्डर्स, ट्रांज़िस्टर, 45 और 33 आर पी एम रिकार्डों की सहज और व्यापक उपलब्धि ने नई आज़ादी और लोकतांत्रिक संभावनाओं और अवाम के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक बेचैनियों के साथ मिल कर नई फ़िज़ा और नई ज़रूरत पैदा कर दी थी. इस ज़रूरत को फ़िल्म-गीत का पुख्ता और मोतबर उद्योग पूरा नहीं कर पा रहा था. इसका जवाब सेमी-क्लासिकल और पक्के गाने वालों की दुनिया से आया. हिन्दुस्तान में बेगम अख्तर और पाकिस्तान में बरकत अली खां और अमानत अली खां इस नए मंच के सच्चे संस्थापक थे.

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संगीत की दुनिया में गंभीर ग़ज़ल गायकी का महान उभार दरअसल उपमहाद्वीप के बटवारे के बाद की घटना है. 1960 और 1970 के दशक से पूरे उपमहाद्वीप बल्कि पूरी दुनिया में जहाँ भी दक्षिण एशियाई बसते हैं उनके बीच उसको मिली असाधारण सफलता इस युग की एक केन्द्रीय सांस्कृतिक-सामाजिक परिघटना है. इस से पहले संगीत की एक विधा के बतौर ग़ज़ल गायकी एक हल्की-फुल्की चीज़ मानी जाती थी. संगीत की यह वह विधा है जिसे हमारे या हमसे पिछली पीढ़ी के देखते देखते महज़ अवाम के उत्साह और गर्मजोशी ने एक ऊंचे पाये तक पहुँचाया, और ग़ज़ल-गायकी की क़िस्मत थी कि इस दौर में उस्ताद अमानत अली खाँ, बेगम अख्तर, इक़बाल बानो, मेंहदी हसन, फ़रीदा खानम और नय्यरा नूर जैसी हस्तियाँ मौजूद थीं. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और सिंध तथा बलोचिस्तान से लेकर ढाका और रंगून तक दक्षिण एशिया के अवाम ने मेंहदी हसन, इक़बाल बानो और नुसरत फ़तेह अली की आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलाकर उन तमाम विभाजनकारी राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक बदनसीबियों का खुले दिल से प्रतिकार किया जो पिछली एक सदी में हुक्मरान तबकों और उनके ताबेदारों ने लोगों के सर पर लादी हैं. यह एक बहुत बड़ा आलमी सांस्कृतिक प्रतिरोध था और एक ऐतिहासिक एकता की पुकार थी. यह बटवारे का जवाब थी. इस लोकतांत्रिक पुकार के ठीक केंद्र में इक़बाल बानो की आवाज़ मौजूद है. जो शुद्धतावादी ग़ज़ल गायन को उपशास्त्रीय गायन की एक उपेक्षणीय और हीनतर कोटि में रखते हैं वे इतिहास और संस्कृति दोनों का नुक़सान करते है और अँधेरे को बढ़ाते हैं.

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1985 – जनरल ज़ियाउल हक़ की ग्यारह साल लम्बी तानाशाही का आठवाँ साल. इस काले दौर का एक बड़ा हिस्सा लेबनान और भारत में आत्मनिर्वासन में गुज़ारकर फ़ैज़ 1982 में थके थके पाकिस्तान लौटे थे और 1984 में उनकी वफ़ात हो गयी थी. उनकी शायरी पर सरकारी प्रतिबन्ध था और सैनिक शासन फ़ैज़ को दुश्मन क़रार देता था. 1985 में उनके जन्मदिन पर लाहौर में फ़ैज़ मेले का आयोजन किया गया. सर्दी का मौसम था और फ़ैज़ की प्रिय गायिका इक़बाल बानो को इसमें फ़ैज़ का कलाम गाना था. देखते देखते पचास हज़ार लोग जमा हो गए. पाकिस्तान में ज़िया शासन के खिलाफ़ चौतरफ़ा ग़ुस्सा था ही, इक़बाल बानो ने पहले तो तय किया कि वह अपने दस्तूर के मुताबिक साड़ी पहनकर मंच पर बैठेंगी (ज़िया काल में लिबास के बतौर साड़ी को ठीक नहीं समझा जाता था) और फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे / वो दिन कि जिसका वादा है, जो लौहे-अज़ल पे लिक्खा है' गाएंगी. ये एक विस्फोटक फैसला था. उस प्रस्तुति की गूँज आज तक लोगों के कानों में है – उन कानों में भी जो उस वक़्त वहाँ नहीं थे. ऐसी हंगामाखेज़ सांगीतिक प्रस्तुति इस उपमहाद्वीप ने अपने बीसवीं सदी के इतिहास में कभी नहीं देखी. छः-सात से बारह-तेरह मिनट तक गई जा सकने वाली इस ग़ज़ल को इक़बाल बानो क़रीब एक घंटे या शायद इस से भी ज़्यादा देर तक गाती रहीं, और श्रोता समुदाय का यह आलम था कि (एक चश्मदीद गवाह ने बाद में कहा) लगता था कि ज़िया शासन के खिलाफ़ क्रान्ति शुरू हो गयी है. उस रोज़ से इस नज़्म को अवाम ने बेदार पाकिस्तानियत का तराना क़रार दे दिया इक़बाल बानो के लिए यह असंभव हो गया था कि इसे गाए बिना किसी कार्यक्रम से उठ जाएँ.

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हर बड़े कलाकार के साथ कुछ न कुछ चला जाता है. इक़बाल बानो ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में बहुत लोकप्रिय थीं क्योंकि वह फ़ारसी की क्लासिकल ग़ज़लें बहुत अच्छी तरह गाती थीं. अपनी मातृभाषा के महान शायरों की रचनाएं इक़बाल बानो की आवाज़ में सुनने के लिए ईरान में लोग बड़ी तादाद में जमा हो जाते थे. 1979 तक हर साल जश्ने-काबुल में भी फ़ारसी और दारी की ग़ज़लें गाती रहीं. कहती थीं कि उन्होंने 72 ऐसी ग़ज़लें गाईं. पता नहीं इन ग़ज़लों की रिकार्डिंग कहीं मौजूद भी है या नहीं.

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इक़बाल बानो की कहानी ग़ज़ल तक ही महदूद नहीं है. उनके निधन से उपशास्त्रीय और फ़िल्म गायकी में गर्वीले, जुझारू और अकुंठित तेवर से गाने वाले स्त्री-स्वर की पुरानी परम्परा अब लगभग समाप्त हो गयी है. नूरजहाँ, मलिका पुखराज, शमशाद बेगम, ज़ोहराबाई अम्बालेवाली, राजकुमारी दुबे, सुरय्या जैसी विभाजन-पूर्व की गायिकाएँ इस धारा की प्रमुख अलमबरदार थीं. जैसा कि फ़िल्म-चिन्तक अशरफ़ अज़ीज़ कहते हैं, यह धारा किसी न किसी तरह आज़ादी की लड़ाई में औरतों के सक्रिय और जुझारू योगदान के समानांतर चल रही थी. उस दौर के पुरुष स्वर इनके मुकाबले संयत और दबे दबे लगते थे. विभाजन के बाद से हवाएँ पलटीं और ऐसी आवाज़ की ज़रूरत हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी मध्यवर्ग को होने लगी जिसमें कोइ चुनौती, बग़ावत या उच्छृंखलता का निशान न हो, बल्कि जो चुनौती-विहीन कर्णप्रियता, शील और संकोच से लबालब हो. इक़बाल बानो की एक खूबी यह थी कि नए युग में भी उन्होंने स्त्री-स्वर के उस पुराने जुझारूपन की याद बनाए रखी.

('पब्लिक एजेंडा' के नए अंक से साभार)
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9 comments:

Unknown said...

गर्वीले, जुझारू और अकुंठित तेवर...

शिरीष कुमार मौर्य said...

धीरेश जी पब्लिक एजेंडा नैनीताल में नसीब नहीं पर असद जी का ये अनमोल लेख पढ़ा कर बड़ा एहसान किया आपने. इकबाल बानो जितना अपनी आवाज़ के भीतर थीं, उससे कहीं ज़्यादा, उससे बाहर भी - ये जानकार सुखद आश्चर्य हुआ.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

असद भाई ने मध्य-वर्ग में व्याप्त स्वरों की राजनीति पकड़ कर बारीक निगाही का भी पाठ पढ़ाया है. इकबाल बानो साहिबा की सख्शियत और उनके जीवन के अहम् पहलुओं से वाकिफ करवाने का शुक्रिया! उम्दा! बहुत उम्दा प्रस्तुति!!

प्रदीप कांत said...

हर बड़े कलाकार के साथ कुछ न कुछ चला जाता है.

अनमोल लेख.

Unknown said...

इकबाल बानो पर असद जी का लेख देखकर अच्छा लगा.

यह उत्कृष्ट श्रद्धांजलि है. नयी दृष्टि देने वाला लेख.

सुनील कुमार

Dr.Ajit said...

धीरेश भाई,
मैं भी मुज़फ्फर नगर का ही रहने वाला हूँ एक बार अपने एक मित्र से आपके बारे में सुना था शायद वो आपको जानते है उनका नाम है सुनील सत्यम वो D.A.V.College MZN में उस वक़्त पढ़ते थे वो मेरा ही गाँव के रहने वाले हैं गाँव का नाम है हथछोया शायद आपने सुना भी होगा. बहरहाल में हरिद्वार में गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान विभाग में पढाता हूँ ..ब्लॉग जगत में आपको पढ़ कर अच्छा लगा वैसे तो हम उस मिटटी से सम्बन्ध रखते है जिसको बोद्धिक जमात में इस काबिल ही नहीं मन जाता कि यहाँ पर कोई रचनाधर्मी पैदा भी हो सकता है फिर भी ये जान कर अच्छा लगता है कि लोग निकल रहें है...भड़ास पर आपका लिंक मिला भड़ास के प्रमुख यशवंत जी अपने गहरे मित्र है ये एक अच्छा मुंच प्रदान किया उन्होंने देहाती परिवेश से निकल कर आये मीडिया कर्मियों के लिए... मेरा अपना भी एक ब्लॉग है जिसका पता नीचे दे रहा हूँ कभी हरिद्वार आओ तो जरुर दर्शन देना मेरा मोबाइल नम्बर है-09997999958.
शेष फिर...
डॉ.अजीत
www.shesh-fir.blogspot.com

Science Bloggers Association said...

इकबाल बानों जी के बारे में जानकर अच्छा लगा।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

sushil said...

lekh ko padh kar hi pata chala ki iqbal banoo rohtak ki hi htin
dhiresh lage raho

Manish Kumar said...

Is behtareen aalekh ko padhwane ka shukriya.