Monday, June 8, 2009

बेमिसाल हबीब


आज सुबह हबीब तनवीर नहीं रहे. अपने विशुद्ध थियेटर के काम की लिहाज़ से भी वे लिविंग लीजैंड थे पर उन्होंने सेक्युलर मूल्यों को बचाने के लिए जिस कदर संघ परिवार और उसकी साम्प्रदायिक बिरादरी से मोर्चा लिया, वैसे उदाहरण दुनिया भर में कम ही मिलते हैं. फिर अपने यहाँ तो साहित्यकारों-कलाकारों में संघ के फासीवाद तक को सांस्कृतिक शब्दावली से गौरवान्वित करने की लम्बी परम्परा है. जल्द ही हबीब साहब पर अलग से एक पोस्ट देने की कोशिश करूँगा, फ़िलहाल श्रद्धांजलि स्वरूप इसी ब्लॉग से ये पुरानी पोस्ट (5सितम्बर 2008) चस्पा कर रहा हूँ-


1सितंबर को महान रंगकर्मी हबीब तनवीर का जन्मदिन था। इस मौके पर वीपी हाउस, दिल्ली में सहमत ने हबीब के चाहने वालों और अदीबों से उनकी बातचीत का इंतजाम किया था। मैं इसके कुछ हिस्से को पोस्ट करना चाहता था कि इस बीच वेणुगोपाल नहीं रहे। इस नाते इस पोस्ट को स्थगित करना पड़ा। इस बीच इसका बड़ा हिस्सा मुझसे खो भी गया.....बहरहाल जो है, उसका लुत्फ लीजिए-

मासूमियत या मजबूरी
कीमतें आसमान छू रही हैं। एक तरफ गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी है और दूसरी तरफ कुछ लोग लाखों रुपये महीना कमा रहे हैं। यह खाई पटना जरूरी है। कैसे पटेगी मोटेंक अहलूवालिया या चिदंबरम से, नहीं जानता। या तो मासूमियत है या मजबूरी कि वो किसी और तरीके से सोच नहीं सकते। ...मां के पेट से झूठ बोलते हुए कोई नहीं आता सोसायटी से ही सीखते हैं...

अंधेरे में उम्मीद भी
जो थिएटर छोड़कर फिल्मों, सीरियलों की तरफ जा रहे हैं, वहां काम की तलाश में जूतियां चटकाते हैं। कुछ चापलूसी, कुछ जान-पहचान काम करती है। मुझे उनसे कुछ शिकायत नहीं है। क्या करें पेट पर पत्थर रखकर काम मुश्किल है। हमारे जमाने में दुश्मन बहुत साफ नजर आता था। सामराजवाद से लड़ाई थी। एक मकसद (सबका) - अंग्रेजों को हटाओ, रास्ते कितने अलग हों (भले ही)। अब घर के भीतर दुश्मन है, उसे पहचान नहीं सकते। विचारधारा बंटी है। पार्टियों की गिनती नहीं, हरेक की मंजिल अलग-अलग। इस अफरातफरी में क्या किसी से कोई आदर्श की तवक्को करे। हां, मगर लिबरेलाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन, नए कालोनेलिज्म के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं सब तरफ से। खुद उनके गढ़ अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन में भी। तो ये उम्मीद बनती है।

जवाब से कतराता हूं
मैं अपने डेमोक्रेटिक मिजाज का शिकार रहा हूं। मेरी अप्रोच डेमोक्रेसी रही है, मैं प्रचारक या उपदेशक थिएटर में यकीन नहीं रखता। ये कोई जम्हूरी बात नहीं (शायद यही शब्द बोला था) कि आपने सब कुछ पका-पकाया दे दिया, कि मुंह में डालकर पी जाना है। अगर आप समझते हैं कि दिल-दिमाग वाला दर्शक आता है तो उकसाने वाला सवाल देना काफी होता है। ये नहीं कि मैं सवाल भी और जवाब भी पेश कर दूं। जवाब से कतराता हूं। हां, इसका हक नुक्कड़ नाटक को है, वहां जरूरी है जवाब भी देना। उनकी प्रोब्लम्स हैं। हड़ताल वगैरह होती हैं, सड़कों पर भी निकलना पड़ता है (नुक्कड़ नाटक वालों को)।

हुसेन के मिजाज की कद्र करता हूं
मैं दोनों काम करता हूं, सड़कों पर भी निकलता हूं, न निकलने वालों पर एतराज नहीं। हुसेन नहीं निकलते। उनका मिजाज अलग है। उसकी मैं कद्र करता हूं। उन्होंने (हुसेन ने) कहा, जो मेरे खिलाफ बातें हो रही हैं, सैकड़ों मुकदमे बना दिए गए हैं, इसलिए नहीं आ रहा हूं। ये भी एक तरीका है रेजिस्टेंस का। हर आर्टिस्ट अपने-अपने मिजाज के तहत काम करता है।मैं यहां कोई फारमूला पेश नहीं करता। मैंने अपने नाटकों में कई तरह के प्रयोग किए। ये आप लोग रियलाइज करें, चाहें तो उड़ाएं, चाहें तो सराहें। इस बारे में पूछकर आप मुझे थका रहे हैं। मैं अपने काम की व्याख्या से इंकार करता

दिल को तनहा भी छोड़िए
(मख्दूम के एक शेर का हवाला देते हुए रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कुछ कहते हैं। शायद अंतरात्मा जैसा कुछ )...वो इकबाल का शेर है- अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल, कभी-कभी इसे तनहा भी छोड़िए। सिर्फ अक्ल से क्रिएट करना संभव नहीं है। दिल से भी बातें होती हैं। (मख्दूम का - शहर में धूम है एक शोलानवां की मख्दूम को पूरा पढ़ते हैं।) बाल्जक से पूछा गया था कि एक प्रास्टीच्यूट की एसी तस्वीर क्यों बनाई, उन्होंने कहा, एमा इज मी। एलन्सबर्ग ने भी कहा कि आप करक्टर क्रिएट जरूर करते हैं लेकिन वो अपनी कहानी खुद कहता है। आपका उसमें कोई कंट्रोल नहीं रहता।
देखिए आप उसमें शऊर घुसाएंगे तो वो कुछ हो जाएगी- उपदेश, अखबारनवीसी या कुछ न कुछ मगर कला नहीं रहेगी।

मौत के सौदागर कर रहे हैं रूल
ग्लोबलाइजेशन सब कुछ सपाट कर रहा है। सिस्टेमेटिक ढंग से सोचने के आदी हो गए हैं। आराम इसी में है कि सिस्टम बनाएं, उसके पीछे छिप जाएं। इन लोगों के लिए ये मुमकिन नहीं है कि आदिवासी सभ्यता को समझ कर लोकेट किया जाए या हर तबके के लिए अलग ढंग से सोचें। एक सिस्टम बना है शोषण-दमन का, बंटवारे का, कि लोगों को डिवाइड करो। यही क्लासिकल तरीका था, अब इसमें नए-नए तरीके जुड़ गए हैं। पालिटिशन, गवर्मेंट्स रूल नहीं कर रहे हैं, मर्चेंट्स आफ वार, मर्चेंट आफ डेथ, ड्रग मर्चेंट (कुछ और भी जुमले कहे), यही सब डिक्टेट कर रहे हैं। होम, फारन, इकानमी, सब पालिसी वही तय कर रहे हैं। हमारे यहां इसकी शुरुआत है। हम ग्लोबलाइजेशन के चौराहे पर हैं।

खतरे के रास्ते से मिलता है खजाना
पुराने जमाने में किस्से यूं थे कि एक हीरो निकला, दो रास्ते आए। एक मुश्किलों भरा, जिस पर न जाने के लिए उसे सलाह दी जाती है लेकिन वो उसी मुश्किलों भरे रास्ते पर निकलता है। और खजाना उसी रास्ते पर जाकर मिलता है। हीरोइन भी खतरे भरे रास्ते के आखिर में ही मिलती है।

(कार्यक्रम में कई बड़े आर्टिस्ट थे, अलग-अलग फील्ड के। सबने कुछ पूछा। लंबी बातें जो नोट कीं, मुझसे खो गईं। जोहरा सहगल से किसी ने कहा, आपा कुछ पूछेंगी, हबीब साहब से। उन्होंने कहा, मैं क्या पूछूंगी, मैं तो उनकी आशिक हूं। उन्होंने हबीब के 25 साल और जीने की तमन्ना भी की। एक सवाल के जवाब में हबीब ने कहा कि बहादुर कलारिन तैयार करने में सबसे ज्यादा मुश्किल आई। पोंगा पंडित पहले से होता आया। मैंने खेला तो संघ वालों ने खूब पत्थर फेंके और मुझे मशहूर कर दिया। इस सब के बीच कुछ करने का दबाव भी हमेशा रहा। गुमनामी अच्छी है या नामवरी...जैसे कई गीत भी हबीब की मंडली ने सुनाए।)

10 comments:

Kapil said...

हबीब साहब को श्रद्धांजलि। हबीब साहब के इन लम्‍हों से रूबरू कराने के लिए शुक्रिया धीरेश भाई।

पलाश said...

बड़े लोग कैसी बड़ी-बड़ी बातें करते हैं धीरेश...जोहरा जी ने कहा- मैं तो आशिक हूं...ओए क्या बात है...सुनिए...अब 'दिन को खूंटी पर से उतार दीजिए'...वो 'बड़ा हिस्सा' भी तलाश कर लाइए...सुबह-सुबह हबीब तनवीर पर आपका छोटा हिस्सा प्लेट में बचे सोनपापड़ी की तरह बिना छोड़े हासिल कर रहा हूं...बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर हूं...बहुत सारी बातें याद आ रही हैं...आपसे बहुत पाया है...लिखते रहिए।

वर्षा said...

mai bhi bahut din baad aa rahi hoon. media me habib ji nahi rahe ko apni tarah se manaya gaya....ye tukde achhe lage.

Arun Aditya said...

shraddhanjali. ab doosara HABIB nahin aayega.

शिरीष कुमार मौर्य said...

हबीब साहब की अमर स्मृति को मेरा और अनुनाद का सलाम.

संदीप said...
This comment has been removed by the author.
संदीप said...

हबीब जी ने अपने थियेटर के माध्‍यम से जिस तरह सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लिया था, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता, उसे कभी भुलाया नहीं जाएगा...

Nakul said...

habib tanwir ko lambi umar mili, ye acchi baat thi. par jo log ab theatre-theatre chilla rahe hai, tribute pay kar rahe hai, wo to kabhi apni kavitao se bahar kuch dekhte hi nahi ha. literature me theatre ko dalit mana jata raha hai.

ravindra vyas said...

उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।

प्रदीप कांत said...

श्रद्धांजलि