गोरे आदमी ने मेरे बाप को मार डाला
मेरा बाप अभिमानी था
गोरे आदमी ने मेरी माँ को धर दबोचा
मेरी माँ सुंदर थी
गोरे आदमी ने दिन दहाड़े मेरे भाई को जला डाला
मेरा भाई शक्तिशाली था
अश्वेत रक्त से लाल अपने हाथ लिए
गोरा आदमी फिर मेरी तरफ़ मुड़ा
और विजेता के स्वर में चिल्लाया
ब्वॉय! एक कुर्सी...एक नैपकिन...एक बोतल
(अज्ञात)
१९८० के आसपास जेएनयू से एक पत्रिका निकली थी `कथ्य'। बहुत सारे प्रतिभाशाली युवा साहित्यकार इससे जुड़े थे पर दुर्भाग्य से इसका एक ही अंक निकल पाया था। यह कविता उसी पत्रिका से ली है।
11 comments:
सुंदर कविता।
सचमुच की कविता।
बढ़िया ! ये कविता मैने पहल की पुस्तिका या तनाव के किसी अंक में पढ़ी है !
बढ़िया ! ये कविता मैने पहल की पुस्तिका या तनाव के किसी अंक में पढ़ी है !
धीरेश जी,
सचमुच कविता रोंगटे खड़े कर देती है। बिल्कुल हिला देने वाली कविता।
बधाई।
मुकेश कुमार तिवारी
dukh, ghrina, bhay, jujhane ki ichchha,- sab kuchh jagaati hai yeah kawita.
"अश्वेत रक्त से लाल अपने हाथ लिए"- ये बिम्ब जुगुप्सा नहीं जगाता बल्कि एक गहरी समानता बैठाता है अपने से ... अफ्रीकी कविता भारतीय हो जाती है !
बहुत अच्छी कविता !!
kavita achhi hai, par chaalu type ki hai.
उत्कृष्ट कविता है !
मन को झकझोरने वाली पंक्तियाँ !
हार्दिक शुभकामनाएं !
आज की आवाज
धीरेश, उस पत्रिका एक एकमात्र अंक की और भी सामग्री यहां देने का प्रयास करें।
चालू टाईप न कहें, फैशन की कविता कहें. इस स्वर को अपना मिज़ाज़ बदलना होगा.
कविता बुरी नहीं है.
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