दरजे पांच की हिन्दी की किताब में भगत सिंह पर एक पाठ (सबक यानी लेसन) था। इसकी शुरुआत भगत सिंह के उस ख़त की काव्यपंक्तियों के अनुवाद से होती थी जो उन्होंने फांसी से पहले अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखा था। भगत सिंह का नाम हमारे लिए बेहद जाना-पहचाना था और इस नाम के प्रति गहरी आस्था भी थी। पर कोर्स के इस पाठ की शुरुआती लाइनें दिल-दिमाग (दिमाग तो खैर इतना काबिल नहीं था) को छू गईं थीं। ये लाइनें कुछ इस तरह थीं - ऊषा काल के दीपक की लौ की भांति बुझा चाहता हूँ। इससे क्या हानि है जो ये मुट्ठी भर राख विनष्ट की जाती है। मेरे विचार विद्युत की भांति आलोकित होते रहेंगे। मुझे तब न समाजवाद के बारे में कुछ पता था, न कम्युनिज्म के बारे में। ६-७ बरसों बाद अचानक एक पत्रिका में भगत सिंह का मशहूर लेख `मैं नास्तिक क्यों हूँ?` पढने को मिला। मैं दयानंद के अनुयायी परिवार का पक्का ईश्वरवादी था और आर्यसमाज के तार्किक होने के तमाम दावों के बावजूद ईश्वर के अस्तित्व को लेकर किसी तरह की शंका का सवाल ही नहीं उठता था। लेकिन इस लेख का जैसा असर मुझ पर हुआ, वैसा शायद ही किसी दूसरे लेख या किताब का हुआ हो। तत्काल मैं किसी तरह के भावावेश में नहीं था पर धीरे-धीरे मैंने पाया कि ईश्वर के अस्तित्व जैसी कोई धारणा मेरे भीतर कतई नहीं है। बाद में भगत सिंह की लिखी दूसरी उपलब्ध सामग्री मिली और हमेशा ही उनके आलोचनात्मक विवेक को लेकर हैरत होती रही।
हैरत यह कि इत्ती कम उम्र में ऐसा विवेक और साहस जो विचार और एक्शन को हर किस्म के झूठे फंदे से मुक्त कर दे। आखिर बड़े से बड़े प्रगतिशील लेखक, विचारक, एक्टिविस्ट कई तरह की संकीर्णताएं के छीटों से अपने लेखन और जीवन को बचा नहीं पाते हैं. कुछ जाति के मसले पर तो कुछ साम्प्रदायिकता के मसले पर तमाम किन्तु-परन्तु लगाकर काम चलाते हैं. सामंतीपन और आत्ममुग्धता तो खैर इन लोगों के जेवरों की तरह मौजूद रहते हैं. लेकिन आप भगत सिंह को जाति के सवाल पर पढ़िए तो अपनी छोटी सी टिप्पणी में ही वे धर्म और राष्ट्र की दुहाई देकर जाति और वर्ण की रक्षा को आतुर दुसरे `अछूत उद्धारकों` जैसा रवैया नहीं अपनाते बल्कि इस मुद्दे पर उनके यहाँ आंबेडकर और पेरियार जैसे दलित नेताओं जैसा दो टूक आह्वान मिलता है. धर्म और साम्प्रदायिकता के सवाल पर भी उनके विचार बेमिसाल हैं. यह दुर्भाग्य ही है कि उनके दस्तावेज लम्बे समय तक अँधेरे में रहे और इसका फायदा उठाकर संघ जैसी सांप्रदायिक और जातिवादी ताकतें उनके नाम का इस्तेमाल करने की कोशिश करती रहीं।
भगत सिंह का एक और गुण जो मुझे बेहद आकर्षित करता है, वह है उनका खुद तक के प्रति भी निर्मम आलोचनात्मक रवैया रखना. ऐसे लोग कम ही मिलेंगे (और राजनीति में तो और भी कम और खुद को आभामंडल से घिरा महसूस करने वाले तो नहीं के बराबर) जो अपने पिछले कदम की गलतियों को स्वीकार कर सकें. इस दौर में जब दुनिया में और अपने देश में पूंजीवादी व साम्राज्यवादी ताकतें न्याय व बराबरी के सवाल को बेशर्मी से कुचलने को उतारू हैं तो भगत सिंह का ऐतिहासिक बयान - जब तक शोषण है, संघर्ष जारी रहेगा - बिखरी हुई लडाइयों के रूप में ही सही पर सच साबित हो रहा है. बेशक इन संघर्षों को ऐसे नायकों की ज्यादा से ज्यादा जरूरत है जो धर्म, जाति, पुनरुत्थानवाद और ऐसे तमाम धूर्त फंदों से पूरी तरह मुक्त हों.
6 comments:
निर्विवाद रूप से भगतसिंह का चरित्र, पथ और लक्ष्य भारतीय परिस्थितियों के लिए आज भी अनुकरणीय है।
अच्छा लगा आपका आलेख पढ़ना.
अपने पिछले कदम की गलतियों को स्वीकार कर सकने के लिए बहुत ताकत चाहिये.
शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही आखिरी निशां होगा
बहुत अच्छा, बेहतरीन, मज़ा आ गया... एक छोटा सा लेख अहा! जिंदगी में भी प्रकाशित हुआ था... जो सोचने पर बहुत मजबूर करती है...
hamare yahan to yahi hota aaya hai. shahidon ki chitaon par mele to lagte hi hain, havan bhi hone lage hain aur prasad mein halwa bhi baanta jata hai. Bhagat singh ke naam par punjabiyon ne sewa dal bana liye hain. Bhagat singh ke photo ke barabar mein in sewa dalaon ke sewadaron ke photo sushobhit hote hain. Rangarang dance programme hote hain. Bhagat Singh ke khayalon ki bijli inke dimagon ke fuse balbon mein current paida nahin kar sakti.
लिखते रहें गुरु ऐसे मुद्दे पे अपन
आने वाले तो वहीं आयेंगें जहां चौराहे पर कपडे धुलेंगे।
इस बंदे से सब डरते हैं। अपना भी एक और सलाम!
Post a Comment