Friday, July 2, 2010

नेरेटिव माध्यम होता है लक्ष्य नहीं: पंकज बिष्ट (लोकार्पण की रपट)

नेरेटिव माध्यम होता है लक्ष्य नहीं: पंकज बिष्ट

27 जून को राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित गीत चतुर्वेदी की कहानियों के दो संग्रहों सावंत आंटी की लड़कियां और पिंक स्लिम डैडी का विमोचन किया गया। इंडिया इंटरनेशन सेंटर में आयोजित समारोह में पुस्तकों का लोकार्पण जानेमाने मराठी उपन्यासकार भालचंद्र नेमाड़े ने किया। नामवर सिंह ने अध्यक्षता और पंकज बिष्ट मुख्य वक्ता थे।

पंकज बिष्ट ने अपने वक्तव्य की शुरूआत यह कहते हुए की कि बेहतर होता कोई आलोचक इन संग्रहों पर बोलता। रचनाकारों की रचनाओं को लेकर अपनी समझ होती है। इसलिए बहुत संभव है वह उस तरह की तटस्थता न बरत पायें जो किसी मूल्यांकन के लिए जरूरी होती है। उन्होंने अपनी स्थिति को और स्पष्ट करते हुए कहा कि मैं दिल्ली से बाहर था और मुझे ये संग्रह 23 जून को ही मिले। गोकि मैंने इन में से कुछ कहानियां पहले भी देखी हुई थीं पर मुझे नये सिरे से उन्हें पढ़ने का मौका नहीं मिला। फिर इस बीच मेरी व्यस्तता भी बहुत बढ़ जाती है। (उनका इशारा समयांतर की ओर था।) इसलिए मैंने उन दो कहानियों - ‘सावंत आंटी की लड़कियां’ और ‘पिंक स्लिप डैडी’ - पर अपने को केंद्रित किया है जिनके शीर्षकों पर ये संग्रह हैं। ये कहानियां एक तरह से उनकी विषयवस्तु के दो ध्रुव हैं। एक ओर मुंबई का निम्न मध्यवर्ग है और दूसरी ओर वहां की कारपोरेट दुनिया। उन्होंने कहा वैसे वह मुंबई पर लिखनेवाले हिंदी के पहले कथाकार नहीं हैं। इससे पहले शैलेश मटियानी ने मुंबई के उस जीवन की कहानियां लिखीं हैं जिसे अंडरबैली या ऐसी दुनिया कहा जाता है जो नजर नहीं आती।

उन्होंने आगे कहा गीत चतुर्वेदी का उदय हिंदी साहित्य के परिदृश्य में धूमकेतु की तरह हुआ है। वह कवि- कथाकारों की उस परंपरा से हैं जिस में अज्ञेय और रघुवीर सहाय आते हैं। हिंदी में लंबी कहानियां लिखनेवाले वे अकेले ऐसे कथाकार हैं जिसकी मात्रा छह कहानियों से दो संग्रह तैयार हुए हैं।

उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी भाषा है। वह गद्य में चित्रकार हैं। कहीं वह यथार्थवादी लैंडस्केप पेंटर की तरह हैं तो कहीं इप्रैशनिस्टिक चित्रकार मतीस की तरह कम रेखाओं में बहुत सारी बात कह देते हैं। बिष्ट ने दोनों कहानियों से पढ़कर ऐसे अंश सुनाए भी। गीत की भाषा की तारीफ करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी भाषा में ऐसी सघनता और खिलंदड़ापन है जो समकालीन लेखन में बिरल है। वह एक तरह से भाषा के शिल्पी हैं। यानी वह अपने वाक्यों को गढ़ते हैं।

पिंक स्लिप डैडी को उन्होंने कारपोरेट जगत की ऐसी कहानी बतलाया जो हिंदी में अपने तरह की है। हाल की आर्थिक मंदी की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कहानी हमें कारपोरेट जगत की उस व्यक्तिवादी दुनिया में ले जाती है जहां सफलता ही सब कुछ है। पर यह कहानी पूरी तरह पुरुष की दृष्टि से लिखी गई है जहां स्त्री केवल एक उपभोग्य वस्तु है। पूरी कहानी मैनेजमेंट के लोगों की नजर से ही लिखी गई है। इसमें वे लोग नहीं हैं जो लोग वास्तव में मंदी का शिकार हुए थे।

सावंत आंटी की लड़कियां निम्नमध्यवर्ग की दुनिया की कहानियां हैं जहां परिवार अपनी बेटियों के विवाह को लेकर त्रस्त हैं। यह हिंदूओं की विवाह प्रथा की विकृतियों की ओर इशारा करती हैं। माता-पिता बच्चों को अपने जीवन साथी के चुनाव का अधिकार नहीं देना चाहते हैं और कहानी में लड़कियां इस अधिकार के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। बड़ी बहन जो नहीं कर सकी उसे दूसरी बहन कर दिखाती है। पंकज बिष्ट ने कहानी का कथ्य बतलाते हुए कहा कि दूसरी बेटी अंततः उसी लड़के से शादी करती है जिसे पहले पिता चाहता था। पर पत्नी के दबाव में आकर वह तब बेटी की शादी दूसरी जगह करने को तैयार हो जाता है।
कहानी पर उनकी पहली आपत्ति उसके अंत को लेकर थी। स्वाभाविक तौर पर ऐसी स्थिति में कम से कम पिता को इतना विषाद नहीं होना चाहिए था, जितना कि दिखाया गया है। बहुत हुआ तो ट्रेजिक-कॉमिक स्थिति हो सकती थी। कुल मिला कर यह प्रोग्रेसिव कदम था। पर लेखक ने स्थिति से अन्याय किया है।

उनकी दूसरी आपत्ति थी कि यह कहानी दलित समाज की पृष्ठभूमि पर है जो कि जाति नामों से समझी जा सकती है। आखिर उन्होंने यहां हर लड़की को ऐसा क्यों दिखलाया है कि वह 13-14 वर्ष की हुई नहीं कि भागने को तैयार है। या उनका एकमात्रा काम आंखें लड़ाना है? क्या वहां जीवन का और कोई संघर्ष नहीं है। इस समाज में सिर्फ हंगामा ही होता रहता है।

पंकज जी ने कहा मैं नहीं जानता कि ऐसा जानबूझ कर हुआ है या अनजाने में पर अंबेडकर और नवबौद्धों तक के जो संदर्भ आये हैं वे कोई बहुत सकारात्मक नहीं है। उन्होंने कहा लेखकों की यह जिम्मेदारी है कि वे इस तरह की स्थिति से सायास बचें।

उनकी आपत्ति विशेषकर ‘पिंक स्लिप डैडी’ के संदर्भ में अंग्रेजी शब्दों के अनावश्यक इस्तेमाल पर भी थी जिससे कि कहानी भरी पड़ी है। उन्होंने सवाल किया कि ऐसा क्यों है कि लेखक यौन संदर्भों का जहां-जहां खुलकर और अनावश्यक भी, वर्णन करता है पर उनमें जनेंद्रियों के लिए अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल है। लगता है जैसे वह स्वयं उन संदर्भों और शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अगर डर नहीं भी रहा है तो भी बहुत आश्वस्त नहीं महसूस कर रहा है और इसलिए अंग्रेजी की आड़ ले रहा है। जिन शब्दों को बोलने से लेखक को परहेज है उन्हें वह क्यों शामिल करना चाहता है। उनका उन्होंने कहा कम से कम मेरे जैसे आदमी को इस तरह के संदर्भों, अपशब्दों और गालियां का इस्तेमाल जरूरी नहीं लगता है। वैसे कला का मतलब जीवन की यथावत अनुकृति नहीं है। वह जो है और जो होना चाहिए उसके बीच की कड़ी होता है।

उन्होंने कहा कि लंबी कहानियों और उपन्यासों के बीच की सीमा रेखा बहुत पतली होती है। इस पर भी कहानी और उपन्यास में अंतर होता है। दुनिया में बहुत ही कम लेखक ऐसे हैं जिन्होंने लंबी कहानियां लिखी हैं। जो लिखीं हैं वह इक्की-दुक्की हैं। उदाहरण के लिए काफ्का की एक कहानी ‘मेटामौर्फसिस’ लंबी है। इसी तरह जैक लंडन की भी एक ही कहानी ‘एन ऑडसी आफ दि नार्थ’ लंबी है। हां, माक्र्वेज की एक से अधिक लंबी कहानियां नजर आ जाती हैं। लंबी कहानियों में विषय वस्तु की तारतम्यता को बनाए रखनेके लिए अक्सर अतिरिक्त वर्णन या नैरेटिव पर निर्भर रहना पड़ता है जो पठनीयता को बाधित करता है। हिंदी में भी कुछ बहुत अच्छी लंबी कहानियां लिखी गई हैं। इन में दो मुझे याद आ रही हैं। एक है संजय सहाय की ‘मध्यातंर ’ और दूसरी है नीलिमा सिन्हा की ‘कुल्हाड़ी गीदड़ और वो...’उन्होंने कहा कि बेहतर है कि गीत चतुर्वेदी उपन्यास लिखें जिनकी उनमें प्रतिभा है। वैसे भी उनकी कहानी ‘पिंक स्लिप...’ उपन्यास ही है। हिंदी में पिछले साठ वर्ष से कहानी-कहानी ही हो रही है। जिस भाषा में उपन्यास नहीं है उसकी कोई पहचान ही नहीं है।

बिष्ट ने कहा कि लेखक पर जादुई यथार्थवाद का जबर्दस्त प्रभाव है। यह अभिव्यक्तियों में भी है और उनके चरित्रों में भी। गीत के कई चरित्रा सनके हुए से हैं जैसे कि माक्र्वेज की रचनाओं में नजर आते हैं। उदाहरण के लिए ‘पिंक स्लिप डैडी’ की एक पात्रा पृशिला जोशी तो, जो तांत्रिक है, माक्र्वेज के एक कम चर्चित उपन्यास न्यूज ऑफ़ ए किडनैपिंग के नजूमी/तांत्रिक जैसी ही है। इसके अलावा सबीना, अजरा जहांगीर, नताशा, जयंत और चंदूलाल के व्यवहारों में भी यह सनकीपन साफ नजर आता है जो कि माक्र्वेज का ट्रेड मार्क है। इसी तरह तथ्यवाद की झलकियां भी देखी जा सकती हैं - इतने बज कर इतने मिनट और इतने सेकेंड या इतना फिट इतना इंच आदि।
अंत में उन्होंने कहा कलात्मकता रचनाओं के लिए जरूरी है पर अपने आपमें अंत नहीं है। नेरेटिव माध्यम है लक्ष्य नहीं। लेखन सिर्फ जो है वह भर नहीं है उसमें जो होना चाहिए वह भी निहित होता है। इसलिए हर रचना दृष्टि की मांग करती है।
उन्होंने गीत चतुर्वेदी की एक पताका टिप्पणी की अंतिम पंक्तियों को, जो कहानी के हर खंड में है, उद्धृत कियाः
‘‘ऐसे में लगता है, भ्रम महज मानसिक अवस्था नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा होता है।
‘‘क्या हम श्रम के राग पर भ्रम का गीत गाते हैं?’’
और कहा, हमें इस पर रुककर सोचने की जरूरत है। वाक्य सुंदर हो सकते हैं, पर उनकी तार्किकता का जांचा जाना जरूरी है।

जानेमाने मराठी उपन्यासकार भालचंद्र नेमाड़े ने पंकज बिष्ट की बात का समर्थन करते हुए कहा कि कहानी पर ज्यादा समय खराब करने की जरूरत नहीं है। मराठी में भी कहानी का बड़ा जोर था। कहानी लिखना आसान होता है और उसकी कामर्शियल वेल्यु ज्यादा होती है। अखबारवाले उसे फौरन छाप देते हैं। पर वह जीवन को सही तरीके से नहीं पकड़ पाती। उन्होंने कहा मुंबई में कामगारों की जिंदगी के संघर्ष को आप कहानी में नहीं पकड़ सकते। मध्यवर्ग का लेखक अपनी खिड़की से बाहर जाती एक औरत को देखता है और फिर उसके अकेलेपन की कहानी गढ़ लेता है। उन्होंने मजाक में राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी से कहा कि वह कहानियां छापना बिल्कुल बंद कर दें। मराठी में हमने यही किया इसी वजह से अब वहां उपन्यास लिखे जा रहे हैं।

समारोह के अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा कि गीत चतुर्वेदी धमाके के साथ हिंदी के परिदृश्य में उभरे हैं। उनकी चार किताबें एक साथ आई हैं। इन में दो कहानी संग्रह और एक कविता संग्रह है जो इसी वर्ष के प्रारंभ में आया था। उन्होंने चौथी किताब के रूप में गीत चतुर्वेदी के उस साक्षात्कार को शामिल किया जो उन्होंने कुछ समय पहले एक वेबसाइट को दिया था और जिसे एक पुस्तिका के रूप में समारोह के अवसर पर निकाला गया था और श्रोताओं को मुफ्त बांटा गया। पंकज बिष्ट द्वारा कही बातों पर कोई टिप्पणी न कर के उन्होंने गीत चतुर्वेदी को एक महत्वपूर्ण लेखक मानते हुए अपनी बात को उनकी एक अन्य कहानी ‘सिमसिम’ तक ही सीमित रखा। कहानी की तारीफ करते हुए उन्होंने इसके एक उपशीर्षक ‘मेरा नाम मैं’ को समकालीन संवेदना की अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण बतलाया। नामवर सिंह ने कहानी का पक्ष लेते हुए यह जरूर कहा कि जो जिस विधा में चाहे लिखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह कमोबेश भालचंद्र नेमाड़े और पंकज बिष्ट की इस बात से सहमत नहीं थे कि कहानी पर ज्यादा समय नहीं खराब किया जाना चाहिए।

(जनपक्ष से साभार)

6 comments:

प्रज्ञा पांडेय said...

dono hi sangrahon ko padhane ki teevra lalak jagaa di aapne .. iss baar ke pustak mele men jaroor uplabdh hogi aisi ummed karate hain .bahut danyvaad

प्रज्ञा पांडेय said...

geet ji ko dheron badhayiyan .

आचार्य उदय said...

सुन्दर लेखन।

स्वप्नदर्शी said...

Thanks for this article

शारदा अरोरा said...

बहुत सुन्दर बात नैरेटिव माध्यम होता है लक्ष्य नहीं ...वो तो सिर्फ भूमिका होता है , रास्ता होता है या कभी कभी लेखक का अपना दृष्टिकोण होता है , जो इस तरह से शब्दों में उतर कर आता है ।आपके ब्लॉग पर लिखी कविता भी पसंद आई।

शरद कोकास said...

यह सिर्फ रपट नही है ।