अण्णा हज़ारे के आह्वान पर हज़ारों लोग जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए थे।
बीस साल पहले जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का दौर हम पर थोपा गया तब हमें बताया गया था कि सार्वजनिक उद्योग और सार्वजनिक संपत्ति में इतना भ्रष्टाचार और इतनी अकर्मण्यता फैल गई है कि अब उनका निजीकरण ज़रूरी है। हमें बताया गया था कि मूल समस्या इस प्रणाली में ही है।
अब लगभग हर चीज़ का निजीकरण हो चुका है। हमारी नदियाँ, पहाड़, जंगल, खनिज, पानी सप्लाई, बिजली और संचार प्रणाली प्राइवेट कंपनियों को बेच दिए गए हैं। तब भी भ्रष्चातार सुरसा के मुँह की तरह फैलता जा रहा है।
भ्रष्टाचार की विकास दर कल्पना से परे है। घोटाला दर घोटाला जितनी बड़ी रक़में निगली जा रही हैं उसका कोई हिसाब नहीं। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस देश के लोग बुरी तरह नाराज़ हैं। लेकिन ग़ुस्से में होने का मतलब ये नहीं है कि आप साफ़ साफ़ सोच भी पा रहे हों।
अन्ना हज़ारे और उनकी टीम के समर्थन में जंतर मंतर पहुँचे हज़ारों हज़ार लोगों के सामने भ्रष्टाचार को एक नैतिक मुद्दे की तरह पेश किया गया, एक राजनैतिक या व्यवस्था की कमज़ोरी की तरह नहीं। वहाँ भ्रष्टाचार पैदा करने वाली व्यवस्था को बदलने या उसे तोड़ने का कोई आह्वान नहीं किया गया।
जंतर मंतर की क्रांति
'भ्रष्टाचार नैतिक नहीं राजनीतिक समस्या है'।
इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि जंतर मंतर पर मौजूद मध्यम वर्ग के ज़्यादातर लोगों और कॉरपोरेट-समर्थित मीडिया को भ्रष्टाचार के जनक इन आर्थिक सुधारों का बहुत फ़ायदा हुआ।
मीडिया ने इस आंदोलन को “क्रांति” और भारत का तहरीर चौक बताया। इसी मीडिया ने पहले दिल्ली में हज़ारों हज़ार ग़रीब लोगों की रैलियों को नज़रअंदाज़ किया क्योंकि उनकी माँगें कॉरपोरेट एजेंडा के माफ़िक़ नहीं थीं।जब भ्रष्टाचार को धुँधले तरीक़े से, सिर्फ़ एक ‘नैतिक’ समस्या के तौर पर देखा जाता है तो हर कोई इससे जुड़ने को तैयार हो जाता है – फ़ासीवादी, जनतांत्रिक, अराजकतावादी, ईश्वर-उपासक, दिवस-सैलानी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और यहाँ तक कि घनघोर भ्रष्ट लोग जो आम तौर पर प्रदर्शन करने को हमेशा उत्सुक रहते हैं।
ये एक ऐसा घड़ा है जिसे बनाना बहुत आसान है और उससे आसान उसे तोड़ना है। अन्ना हज़ारे ने अपने बनाए इस बर्तन पर सबसे पहले पत्थर मारा और वामपंथी समर्थकों को हैरान कर दिया जब वो नरेंद्र मोदी को विकास-प्रतिबद्ध मुख्यमंत्री का जामा पहना कर अपने मंच के केंद्र में ले आए। उन्होंने विकास के नाम पर मोदी की उपलब्धियों की झूठी प्रकृति पर बहस में पड़ना ठीक नहीं समझा। हम में से कई लोग ये सोचते रह गए कि क्या हमें भ्रष्ट मगर कथित जनतांत्रिक लोगों की जगह एक ईमानदार फ़ासीवादी नेता का विकल्प दिया जा रहा है।
मूलभूत प्रश्न
मैं एक मज़बूत भ्रष्टाचार-विरोधी संस्था के ख़िलाफ़ नहीं हूँ, पर मैं ये भरोसा पाना चाहूँगी कि ऐसी संस्था बहुत सारे अधिकार पाने के बाद ग़ैरज़िम्मेदार और ग़ैरजनतांत्रिक न हो जाए। हालाँकि मैं ये नहीं मानती कि सिर्फ़ क़ानूनी तरीक़ों से ही सांप्रदायिक फ़ासीवाद और उस आर्थिक निरंकुशता के ख़िलाफ़ लड़ा जा सकता है जिसके कारण 80 करोड़ से ज़्यादा लोग क़ानूनी तरीक़े से 20 रुपए प्रतिदिन पर गुज़र करते हैं।जब तक मौजूदा आर्थिक नीतियाँ जारी हैं तब तक राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना से भूख और कुपोषण ख़त्म नहीं किया जा सकता। भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून से अन्याय नहीं ख़त्म हो सकता और अपराध विरोधी क़ानूनों से सांप्रदायिक फ़ासीवाद को ख़त्म नहीं किया जा सकता।
क्या सूचना के अधिकार या जन लोकपाल बिल के ज़रिए उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ में किए गए उन गुप्त सहमति पत्रों को सामने लाया जा सकता है जिन पर सरकार ने व्यापार घरानों के साथ दस्तख़त किए हैं और जिनके लिए वो अपने सबसे ग़रीब नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ने को तैयार है?
अगर ऐसा हो सकता है तो इन सहमति पत्रों से ये स्पष्ट हो जाएगा कि सरकार देश की खनिज संपदा को निजी कॉरपोरेशनों के हाथों कौड़ियों के मोल बेच रही है।
लेकिन ये भ्रष्टाचार नहीं है। ये पूरी तरह क़ानूनी लूट है और 2-जी घोटाले से कई गुना बड़ा घोटाला है। अगर हमें सूचना के अधिकार के तहत ये सूचना मिल भी जाती है तो हम उस सूचना का क्या कर पाएँगे?मैं मानती हूँ कि जंतर मंतर की क्रांति में अगर किसी ने इन समझौता पत्रों का सवाल उठाया होता तो टीवी कवरेज और वहाँ मौजूद भीड़ का एक बड़ा हिस्सा तुरंत ग़ायब हो गया होता।
(जनतांत्रिक आंदोलनों के गठबंधन की ओर से दिल्ली में 29 अप्रैल को आयोजित किए गए एक सेमीनार में प्रस्तुत अरुंधति रॉय के भाषण के संपादित अंश bbchindi.com से साभार)
3 comments:
capitalism is itself corruption.. without digging out the tree, no one can end its branching...
एक अच्छी शुरुआत हुई है। परिणाम भी अच्छा ही होगा।
sundar chitran
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