Tuesday, January 10, 2012

शुभम श्री की कविताएं


ये कोई नई बात नहीं
लंबी परंपरा है
मासिक चक्र से घृणा करने की
'अपवित्रता' की इस लक्ष्मण रेखा में
कैद है आधी आबादी
अक्सर
रहस्य-सा खड़ा करते हुए सेनिटरी नैपकिन के विज्ञापन
दुविधा में डाल देते हैं संस्कारों को...

झेंपती हुई टेढ़ी मुस्कराहटों के साथ खरीदा बेचा जाता है इन्हें
और इस्तेमाल के बाद
संसार की सबसे घृणित वस्तु बन जाती हैं
सेनिटरी नैपकिन ही नहीं, उनकी समानधर्माएँ भी
पुराने कपड़ों के टुकड़े
आँचल का कोर
दुपट्टे का टुकड़ा


रास्ते में पड़े हों तो
मुस्करा उठते हैं लड़के
झेंप जाती हैं लड़कियाँ


हमारी इन बहिष्कृत दोस्तों को
घर का कूड़ेदान भी नसीब नहीं
अभिशप्त हैं वे सबकी नजरों से दूर
निर्वासित होने को

अगर कभी आ जाती हैं सामने
तो ऐसे घूरा जाता है
जिसकी तीव्रता नापने का यंत्र अब तक नहीं बना...

इनका कसूर शायद ये है
कि सोख लेती हैं चुपचाप
एक नष्ट हो चुके गर्भ बीज को

या फिर ये कि
मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत

करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए

'जहाँ तहाँ' अनावृत ...
पता नहीं क्यों

मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार

गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक...


कितनी मुलायम हो जाती है
माथे की शिकन
एक बेटी का पिता बनने के बाद

खुद-ब-खुद --खुद छूट जाता है
मुट्ठियों का भिंचना, नसों का तनना
कॉफी हाउस में घंटों बैठना

धीरे-धीरे संयत होता स्वर
धीमे...धीमे...पकती गंभीरता
और, देखते...देखते... मृदु हो उठता चेहरा

एक बेटी का जन्म लेना
उसके भीतर उसका भी जन्म लेना है
सफेद बालों की गिनती
ओवरटाइम के घंटे
सबका
निरंतर बढ़ना है

बेटी का बाप होना
हर लड़के के नाम के साथ 'जी' लगाना है
या शायद...चरागाह में उगा पौधा होना

लेकिन
(बहुत मजबूर हो कर लिया गया कर्ज
और उसके सूद तले दबा कर्जदार हो कर भी
बेटी का पिता होना
एक साहसी सर्जक होना है
(या सर्जक मात्र केवल!)


(1)
तुमने मुझे  क्या बना दिया, सिमोन ?
सधे कदमों से चल रही थी मैं

उस रास्ते पर
जहाँ

जल-फूल चढ़ाने लायक
'पवित्रता'
मेरे इंतजार में थी

ठीक नहीं किया तुमने...
ऐन बीच रस्ते धक्का दे कर
गलीज भाषा में इस्तमाल होने के लिए

बोलो ना सिमोन, क्यों किया तुमने ऐसा ?
(2)

'तुम
मेरे भीतर शब्द बन कर
बह रहे हो

तिर रहा है प्यास-सा एहसास
बज रही है
एक कोई ख़ूबसूरत धुन'

काश ऐसी कविता लिख पाती
तुमसे मिलने के बाद

मैंने तो लिखा है
सिर्फ
सिमोन का नाम

पूरे पन्ने पर
आड़े तिरछे
(3)

मुझे पता है
तुम देरिदा से बात शुरू करोगे

अचानक वर्जीनिया कौंधेगी दिमाग में
बर्ट्रेंड रसेल को कोट करते करते

वात्स्यायन की व्याख्याएँ करोगे
महिला आरक्षण की बहस से

मेरी आजादी तक
दर्जन भर सिगरेटें होंगी राख

तुम्हारी जाति से घृणा करते हुए भी
तुमसे मैं प्यार करूँगी

मुझे पता है
बराबरी के अधिकार का मतलब
नौकरी, आरक्षण या सत्ता नहीं है
बिस्तर पर होना है
मेरा जीवंत शरीर

जानती हूँ...

कुछ अंतरंग पल चाहिए
'सचमुच आधुनिक' होने की मुहर लगवाने के लिए

एक 'एलीट' और 'इंटेलेक्चुअल' सेक्स के बाद
जब मैं सोचूँगी

मैं आजाद हूँ
सचमुच आधुनिक भी...
तब

मुझे पता है
तुम एक ही शब्द सोचोगे
'चरित्रहीन'

(4)

जानती हो सिमोन,

मैं अकसर सोचती हूँ
सोचती क्या, चाहती हूँ

पहुँचाऊँ
कुछ प्रतियाँ 'द सेकंड सेक्स' की

उन तक नहीं
जो अपना ब्लॉग अपडेट कर रही हैं

मीटिंग की जल्दी में हैं
बहस में मशगूल हैं

'सोचनेवाली औरतों' तक नहीं

उन तक

जो एक अदद दूल्हा खरीदे जाने के इंतजार में

बैठी हैं

कई साल हो आए जिन्हें
अपनी उम्र उन्नीस बताते हुए

चाहती हूँ

किसी दिन कढ़ाई करते
क्रोशिया चलते, सीरियल देखते

चुपके से थमा दूँ एक प्रति
छठे वेतन आयोग के बाद

महँगे हो गए हैं लड़के
पूरा नहीं पड़ेगा लोन

प्रार्थना कर रही हैं वे
सोलह सोमवार

पाँच मंगलवार सात शनिवार
निर्जल...निराहार...


चाहती हूँ

वे पढ़ें

बृहस्पति व्रत कथा के बदले
तुम्हें, तुम्हारे शब्दों को
जानती हो
डर लगता है
पता नहीं

जब तक वे खाना बनाने
सिलाई करने, साड़ियों पर फूल बनाने के बीच

वक्त निकालें
तब तक

संयोग से कहीं सौदा पट जाए
और
तीस साल की उम्र में

इक्कीस वर्षीय आयुष्मती कुमारी क
परिणय सूत्र में बँधने के बाद

'द सेकंड सेक्स' के पन्नों में
लपेट कर रखने लगें अपनी चूड़ियाँ

तब क्या होगा, सिमोन ?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एमए प्रथम वर्ष की छात्रा शुभम श्री की इन कविताओं की ओर अनिल जनविजय ने ध्यान आकृष्ट कराया। उनकी ये कविताएं hindisamay.com से ली गई हैं। वहां उनकी कुछ और कविताएं भी पढ़ी जा सकती हैं। 

15 comments:

स्वप्नदर्शी said...
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स्वप्नदर्शी said...

किशोरवय से बस ज़रा सा बाहर कदम रखे किसी बच्ची ने ये कवितायें लिखीं है, लिखने के पीछे जो ललक है वो निश्चित रूप से बेहतरी की आकांशा है.
कवियत्री की ये आलोचना नहीं है, पर कवितयी के वाह वाह के सवाल पर है. आजादी के प्रतिमान "सेनेटरी नेपकिंस" "वुल्फ" और "सिमोन" अब पुराने और घिसे हुए प्रतिमान हैं, बहुत सतही भी, सिर्फ कुछ नयी चकमक आँखों से पढ़ी दो चार किताबों पर बेस्ड. अपने जीवन और अपने आसपास के जीवन के गूढ़-सबक, धरती पर जमें अपने पैर कहाँ है? १९८० के, १९९० के समय की पीढ़ी भी JNU, कैम्पस में यही सब कर रही थी. तब से बहुत समय बीत गया है. २० साला पीढ़ी का अपने समय को चकमक आँखों से देखते रहने वाला संवाद कहाँ है?

roushan said...

teekhaa pan!
saamyik aur asamaayik hone ki bahason ke bavjood

अजेय said...

इस हिस्से का स्वतंत्र पाठ करें:

"मासिक धर्म की स्तुति में
पूर्वजों ने श्लोक नहीं बनाए
वीर्य की प्रशस्ति की तरह

मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ

मुझे समझ नहीं आता कि
वीर्य को धारण करनेवाले अंतर्वस्त्र
क्यों शान से अलगनी पर जगह पाते हैं
धुलते ही 'पवित्र' हो जाते हैं
और किसी गुमनाम कोने में
फेंक दिए जाते हैं

उस खून से सने कपड़े
जो बेहद पीड़ा, तनाव और कष्ट के साथ
किसी योनि से बाहर आया है

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत

करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए

'जहाँ तहाँ' अनावृत ...
पता नहीं क्यों

मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार

गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक..."

यह अपने आप मे पूरी कविता है. बहुत सशक्त. और हमें इस नए कवि को बहुत उम्मीद से देखना चाहिए, शुभकामनाएं !

प्रदीप कांत said...

मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत
_______________________________

एम ए प्रथम वर्ष की छात्रा की कविता है किंतु इस तरह की बेबाक कविता के लिये उसे बधाई दी जानी चाहिये

और नये कवि से कविता के लिये उम्मीद की एक किरण का स्वागत भी

वर्षा said...

अब भी लड़कियां सेनेटरी नैपकिन और सिमोन पर चर्चा करने में आसानी से सहज नहीं होतीं। ये बेहतरीन कविताएं भी हैं और उस समय की दिलेरी भी। सचमुच शुभम श्री को उम्मीद के साथ देखना चाहिए।

Arun sathi said...

ओह,
एक तल्ख सच्चाई जिसे हमने और हमारे समाज ने ही गढ़ा है, पवित्र और अपवित्र की परिभाषा जब दर्द को सहने वालों ने गढ़ा ही नही ंतो फिर दर्द देने वालों से परिभाषित इस समाज से कैसा दर्द?
बेचैन मन तड़प उठता है ऐसी कविताआंे को पढ़कर, शायद मैं कभी भी इस दर्द को महसूस न सकूं तो क्या? शब्दों का रूदन अंदर तक पेस जाती है। खास कर वीर्य की स्तुति। यही तो हमारा समाज है। मन के अंदर रखे गंदगी को ढंक कर साधु बना समाज, राम नामी ओढ़ गंदगी पर गंदगी फैलाए जाता है और हमारे लिए पुज्य भी हो जाता है। मुझे पुरी तरह याद नहीं पर मैंने पढ़ा था एक कविता ‘‘स्तनों का एक जोड़ा’’ वह पहली कविता थी जिसने बेचैन किया था और शर्मिंदा भी और यह दूसरी कविता है जो शर्मिंदा ही कर रही है बेचैन नहीं। पुरूषवादी इस इस समाज में शायद बर्जनाओं के टूटने का यह दौर है फिर भी नैपकिन या फिर ब्रा खरीदती लड़की की तरफ उठती हमारी नजर हमे अपनी ही नजर में गिरा देती है।
धन्यवाद शुभम श्री...शाबश

आपका बहुत बहुत आभार....

शेष said...

"मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन फेंकने से इनकार कर दिया है" शीर्षक कविता की ये पंक्तियां -

"मुझे पता है ये बेहद कमजोर कविता है
मासिक चक्र से गुजरती औरत की तरह
पर क्या करूँ"

इस कविता की हत्या कर देती है।

शेष said...

"सिर्फ तुम्हारे लिए सिमोन...
"
की ३ और ४ बहुत जरूरी... बहुत-बहुत जरूरी...।
देरिदा, वर्जीनिया या वात्स्यायन के आतंक से इतर उतरना होगा खुद में... सिगरेट की "आधुनिकता" के पाखंड ऐसी ही "आजादी" देती है।

इसलिए "द सेकेंड सेक्स" की प्रतियां पहुंचानी होंगी वहां, जहां की बात की गई है...

Ek ziddi dhun said...

चीजें जरूरी नहीं कि सभी के लिए बदल जाती हों। वर्ना कुछ चीजें जगहें और वर्ग बदलने पर भी नहीं बदली हैं और जाहिर हैं कि वे बार-बार लिखी जाएंगी। मुझे अगर कोई चीज परेशान कर रही है तो पहली कविता की पहली लाइन, मेरा मतलब उसका शीर्षक। और ये बात जिस दिन पहली बार यह कविता पढ़ी, उस दिन से ही लगातार पीछा कर रही है और हर बार मैं सीधे निष्कर्ष के बजाय उलझे हुए निष्कर्ष तक ही पहुंच पाता हूं। एक सफाई कर्मचारी भी सेनेटरी नैपकिन को फेंकने से इनकार करता है, यह बात एक लड़की को चोट पहुंचाती है। जाहिर है इसलिए कि एक तय पुरुषवादी सोच के मुताबिक यह नैपकिन गंदगी उठाने के काम में लगे पुरुष (शायद स्त्री सफाई कर्मचारी को भी लगता) को भी घृणित लगता है। लेकिन सफाई कर्मचारी ही सेनिटरी नैपकिन क्यों उठाए, यह भी एक मसला है। कविता की शुरुआत में ही यह सवाल चोट कर सकता है। कुछ खास कामों को खास तबकों से जोड़ दिए जाने और उन कामों को व उन्हें करने वालों को सेनिटरी नैपकिन की तरह ही घृणित दायरे में रख दिया गया हो तो कविता में थोड़ा और आगे जाने, और ज्यादा सेंसेबल होने की अपेक्षा की जानी चाहिए। इसके अलावा कविता मुझे बेचैन करने वाली लगी औऱ पसंद आई।

स्वप्नदर्शी said...
This comment has been removed by the author.
स्वप्नदर्शी said...

यही बात पहली नज़र में मुझे भी बुरी लगी, सफाई कर्मचारी का इनकार मुझे सही लगता है, भले ही किसी दुर्घटना में खून सने कपड़े हो, औरतों के सेनेटरी नेपकिन या जन्म के समय के गर्भनाल या कुछ भी, इन सब को उठाने का इनकार करने का हक सफाई कर्मचारी को होना चाहिए. इसीलिए भी कि ये स्वास्थ्य से जुड़े मसले है, इन सब चीज़ों को बिना दस्ताने पहने छूना किसी के लिए सिर्फ एड्स ही नही कई दूसरी संक्रामक बीमारियों का कारण हो सकता है. अच्छा है कि दलित वर्ग में चेतना है, कि वों ये सब उठाने पर इनकार करे. किसी औरत मर्द को जितनी भी चोट पहुंचे. आज के समय में तकनीकी के समाधान है कि किसी भी मनुष्य को सीधे कूड़ा न उठाना पड़े. और अगर नही भी है, तब भी कूड़ा फेंकने की तमीज एक समाज के बतौर हमें सीखनी होगी. अपना घर बहुत सुरुचि से सजानेवाले भी सीधे २-३ मंजिल से लोगों के सर की परवाह न करते हुये कूड़ा फेंकते है, शायद ही किसी के दिल में ख्याल आता है कि उन्होंने एक बार फेंक दिया है, पर फिर किसी मनुष्य को उसे हाथ लगाना है. औरतें भी वर्ग का और प्रभु समाज का ही हिस्सा है, खुद में एक दलित अस्मिता होते हुये भी, सेनेटरी नेपकिन उठाने न उठाने से भी बड़ा मसला है कि हाथ से कूड़ा उठाने वाले इस काम का तकनीकी समाधान ढूँढा जाय, इस गजालत से लाखों लोग बाहर निकले, मनुष्यता का कुछ उजाला उन कोनों में भी पहुंचे..

शेष said...

एक जिद्दी धुन की बातों से सहमति...

कंडिशनिंग एक स्त्री को अपने बेटे के लिए दहेज की लिस्ट बनाने और अपनी बहू को प्रताड़ित या उसकी हत्या तक में भूमिका निभाने के लिए मजबूर करती है। यहां उस स्त्री को दोषी ठहराने के बजाय पितृसत्तात्मक या पुरुषवादी व्यवस्था की परतें उघाड़ने की जरूरत है।
इसी तरह अगर सफाई कर्मचारी नैपकिन उठाने से मना करता है तो देखना चाहिए कि उसके भीतर यह आया कहां से और नैपकिन क्यों घृणास्पद हुआ...

और तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद हमारे भीतर यह क्यों बचा हुआ होता है कि नैपकिन सफाई कर्मचारी ही उठाएगा...

दीपिका रानी said...

मुझे नहीं लगता कि यह कविता कवयित्री ने कोई पूर्वाग्रह लेकर (सफाई कर्मचारी के प्रति या स्त्री स्वतंत्रता के प्रति)लिखा होगा। हां, शायद स्त्री होने के नाते उनसे कुछ अधिक संवेदनशीलता की उम्मीद जरूर की जाती है। वैसे कविताएं अच्छी हैं और दिल से कही गई बात दिल तक पहुंचती है। इसी में कविता की सार्थकता है।

उन्मुक्त said...

लाल धब्बों की कहानी, महिलाओं की जुबानी है और लोगों को, (यहां तक महिलाओं को भी) इसके बारे में गलतफहमी है।