Thursday, February 9, 2012

गीता के बहाने धर्म पर कुछ बातें-पंकज बिष्ट


(पिछले दिनों रूस के प्रांत साइबेरिया में गीता की एक टीका पर हुए विवाद को लेकर भारत में जिस तरह की अजीबोगरीब प्रतिक्रिया और 
उत्साह प्रदर्शित किया गया, उसे देखते हुए `समयांतर` जनवरी, 2012 अंक का यह संपादकीय यहां देना बेहद जरूरी जान पड़ा इसलिए भी क्योंकि गीता को तर्कातीत पुस्तक की तरह पेश करने की परंपरा सी बनी 
हुई है।)

कृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा हैकर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन  कहा नहीं जा सकता 19 दिसंबर को लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान रूस के एक प्रांत साइबेरिया के टाम्स की अदालत में हिंदुओं की पवित्र पुस्तक गीता को आतंकवादी बता कर प्रतिबंधित करने के लिए चल रहे मुकदमे से उत्तेजित शिव सेनाभाजपाराजदबसपासपा और कांग्रेस के सांसद जब विरोध और चिंताएं प्रकट कर रहे थे तो उनके दिमाग में गीता का उपरोक्त उपदेश होगा या नहींक्या वह सिर्फ सांसदों का कर्म था या उसके अलावा भी कुछ थाक्यों कि जब राज्य सभा में 15 दिसंबर को किसानों की आत्महत्या पर चर्चा हो रही थीखबरों के मुताबिक वहां तीन-चौथाई सीटें खाली थीं और बहस के खत्म होते-होते सिर्फ 26 सदस्य रह गए थे जो कि कोरम पूरा करने की न्यूनतम जरूरत है। वैसे संसद के आधे शीतकालीन सत्र के हंगामे और विरोध की भेंट चढऩे को तो कर्म के खाते में ही डाला जाना चाहिए। 
इसलिए जिस तरह की एक जुटता 19 दिसंबर को संसद में गीता के पक्ष में दिखलाई दी वह कई तरह के संदेश देती है।

माना कि गीता की भारतीय समाज में एक ऐतिहासिक भूमिका रही हैसवाल है क्या वह आज भी वैसी ही हैनिश्चय ही आज भी हिंदुओं का वह एक पवित्र ग्रंथ हैपर क्या हमें यह भूल जाना चाहिए कि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैजहां कई धर्मों को माननेवाले रहते हैं और सबके बराबर अधिकार हैं। इसलिए धर्म की चिंता धार्मिक नेताओं और उसके माननेवालों की है  कि सरकार की। जैसा कि अब तक स्पष्ट हो चुका है यह झगड़ा रूस के इस्कान संप्रदाय और वहां के आर्थोडॉक्स चर्च के बीच का है यानी शुद्ध रूप से स्थानीय। झगड़ा चूंकि इस्कान संप्रदाय में प्रचलित गीता के एक भाष्य विशेष के कारण पैदा हुआ है इसलिए इस मसले कोउसे ही सुलटाना चाहिए।  रूस भी एक लोकतांत्रिक देश है और उसकी अपनी न्याय व्यवस्था हैक्या हमें उस पर विश्वास नहीं करना चाहिएसारी तार्किकता और समझदारी को दरकिनार कर कृष्ण भगवान की जय का नारा लगाने के क्या कारण हो सकते हैंयह कोई छिपी बात नहीं है  वोट ऐसी ही चीज है जिससे लोकतंत्र में सत्ता हासिल होती है। भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं। यानी उनका वोट निर्णायक होता है। धर्म हिंदू समाज के टकरावों को छिपा देता हैजैसा कि राम के कारण हुआ है। वैसे भी राम (रामायणके नाम पर भाजपा और संघ परिवार एक अर्से से बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को भुना रहे हैं और अल्पसंख्यकों पर आक्रमण कर रहे हैं। इसके चलते भाजपा सत्ता में  चुकी है और आज देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। इसलिए यह अचानक नहीं है कि लोकसभा में भाजपा की नेता सुषमा स्वराज ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की बेतुकी मांग तक कर डाली। वैसे सुषमा जी ने गीता के बारे में सुना जरूर होगा पर पढ़ा भी होगाकहा नहीं जा सकता। यहां यह देखना भी लाभदायक होगा कि गीता  स्त्रियों पर कितनी मेहरबान हैनौवें अध्याय के इस श्लोक को देखें:मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युपापयोनय: स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम॥  इसमें स्त्रीवैश्यशूद्रचांडाल को पापयोनि वाला माना गया है।

सवाल हैक्या राजनीतिक पार्टियों का विरोध वास्तव में एक पौराणिक ग्रंथ की महत्ता को लेकर ही था या इसके पीछे कुछ और भी था?

इस संदर्भ में मध्य प्रदेश को याद किया जा सकता है जहां गीता को प्राथमिक कक्षाओं में लगा दिया गया है। प्राथमिक स्कूलों में गीता  पढ़ाया जाना इस दार्शनिक ग्रंथ का अपमान नहीं हैक्या भाजपा की मध्यप्रदेश सरकार यह मानती है कि सांख्य और योग दर्शन की यह जटिल और गंभीर किताब कोई आसान-सी उपदेशों की किताब है जिसे बच्चों को समझाया जा सकता हैहां बच्चों को उसमें जो सबसे ज्यादा आकर्षक लग सकता है वह उसके पहले अध्याय का सेनाओं का वर्णन हैजो एक तरह की कट्टरता अवश्य उनके कोमल मनों में पैदा कर सकता है। संभव है भाजपा सरकार का उद्देश्य ही यह हो। वैसे हिंदू आतंकवाद के बढ़ते खतरे को इस अधकचरी धार्मिक समझ से भी जोड़ा जा सकता है। और इसी भ्रम के चलते रूसी अदालत को यह आतंकवाद पैदा करनेवाली किताब लगी होगीइसकी संभावना भी कम नहीं है। या कहना चाहिए रूसी ऑर्थोडाक्स चर्च को इस तरह का सरलीकरण करने का आसान तरीका हाथ लग गया। एक मामले में यह इस बात का संकेत और चेतावनी भी है कि धार्मिक मामलों में किस तरह के खतरे लगातार शामिल रहते हैं। और यह एक धर्म का मसला नहीं है।
   
मध्यप्रदेश ही क्यों स्वयं संसद में मुलायम सिंह ने मांग की कि गीता को पूरे देश में प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाया जाए। मुलायम सिंह हों या लालू यादव या शरद यादव उनकी जातीय राजनीति के अपने समीकरण हैं। पर देखने की बात यह है कि ये स्वयं को धर्मनिरपेक्ष और अल्पसंख्यकों का मसीहा सिद्ध करना चाहते हैं जबकि गीता शुद्ध रूप से एक धर्म विशेष के आधारभूत मूल्यों को ही प्रस्तुत करती है। और वे भी एक समय विशेष में महत्त्वपूर्ण रहे हो सकते हैंपर आज उनकी कितनी उपयोगिता है यह विचारणीय है। यही हाल बसपा का भी है जिसके सांसद गीता को लेकर यादव त्रिमूर्ति से किसी भी रूप में कम मुखर और उद्वेलित नहीं थे। हम जानते हैंसपा और बसपा की अपनी राजनीतिक मजबूरियां हैं। फरवरी में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं और दोनों ही सत्ता के दावेदार हैं।  इसके बावजूद कि वे मूलतजाति विशेष के नेता हैं पर वे जानते हैं कि  एक जाति तो छोडि़ए साथ में अगर अल्पसंख्यक भी मिल जाएं तो भी लखनऊ के तख्त पर कब्जा नहीं किया जा सकता है।

चुनावी समीकरणों और जोड़-तोड़ को भूल भी जाएं तो भी यह किसी से छिपा नहीं  है कि ये दोनों पार्टियां जाति-व्यवस्था का विरोध करती हैं। सवाल है क्या इन दलों के नेताओं ने कभी गीता पढ़ी हैया क्या वे इस बात से अनजान हैं कि गीता का कर्म मार्ग , जिसकी सबसे ज्यादा चर्चा रहती हैपुनर्जन्म के सिद्धांत से मिलकर कितना घातक हो जाता हैयह किस तरह से जातीय व्यवस्था (चातुर्वर्णका पोषक है यह देखने लायक है। चौथे अध्याय में कृष्ण कहते हैंजन्म कर्म  मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत: त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोअर्जुन।। (मेरे यानी व्यक्ति विशेष केजन्म और कर्म दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं जो यह बात समझ लेता हैवह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है।)

इसके बाद के चौथे श्लोक में कहा गया हैचातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: (ब्राह्मणक्षत्रीयवैश्य और शूद्र - इस चार वर्णों का समूहगुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। -गीता प्रेस गोरखपुर के संस्करण से) इसके अलावा यह याद रखना भी जरूरी है कि साथ में गीता में यह भी कहा गया है कि श्रेयान्स्वधर्मो विगुणपरधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेय परधर्मो भयावह:।। (अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देनेवाला है।यह अर्जुन को उसके क्षात्र धर्म को निभाने के लिए तैयार करने की प्रक्रिया में कहा गया है।  यहां धर्म का बहुत ही संकीर्ण अर्थ में प्रयोग है और वह है चातुर्वर्ण के तहत निर्धारित कर्म  करने का।
पर लगता है किसी को इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि धर्म वास्तव में आज क्या भूमिका निभा रहा है या निभाता आया है। यहां सारा दारोमदार सत्ता में आने का है और धर्म सदा से सत्ता की मदद करता रहा है। या एक व्यवस्था विशेष की दार्शनिक पीठिका का काम करता रहा है। पिछड़े समाजों में ज्ञानशिक्षा  अन्य आधुनिक मूल्यों और सामाजिक संस्थानों के प्रभावशाली  होने या बिल्कुल  होने से जनता पर धर्म की पकड़ अभी भी गहरी है। खेद की बात यह है कि राजनीतिक दल इस अज्ञान और श्रद्धा को दूर करने की जगह उसे बढ़ाने या कम से कम यथावत बनाए रखने का काम कर रहे हैं।

चिंता की बात यह है कि यह बढ़ती असहिष्णुता हमारे सामाजिकसांस्कृतिक और शैक्षिक माहौल को बिगाड़  रही है।  यह असहिष्णुता और आक्रामकता सांप्रदायिक तो है ही जातीय  प्रांतीय तत्त्वों से भी भरी है। इधर दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा .केरामानुजन के एक ऐसे लेख को जो रामायण के बारे में तथ्यात्मक जानकारी देता हैपाठ्यक्रम से निकालना इसका ताजा उदाहरण है। यह बतलाने की जरूरत नहीं है कि यह काम रामभक्तों के दबाव और आतंक में किया गया है। इस तरह की असहिष्णुता का शिकार पिछले कुछ वर्षों में सलमान रुश्दी का उपन्यास सेटेनिक वर्सेजजेम्स लेन की किताब शिवाजी  हिंदू किंगरोहिंग्टन मिस्त्री का उपन्यास सच  लॉंग जर्नी और तसलीमा नसरीन की आत्मकथा  द्विखंडितो हो चुकी है। ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से अधिसंख्य पाबंदियां 'धर्मनिरपेक्षता को समर्पित` कांग्रेस के शासन या उसके द्वारा शासित राज्यों में लगी हैं। द्विखंडितो को प्रतिबंधित करने का श्रेय वामपंथी गठबंधन को जाता है। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि कांग्रेस ही नहीं वामपंथी दल भी सांप्रदायिकता के मोर्चे पर अपनी हार मान चुके हैं और वे इससे टकराने की हिम्मत नहीं करते। एक तरह से देखा जाए तो यह कांग्रेस की पिछले 65 वर्ष की राजनीति का परिणाम है जिसने सायास अल्पसंख्यकों को अपने साथ रखने या कहना चाहिए उनकी असुरक्षा का लाभ उठाने के लिए हिंदू सांप्रदायिकता कोअगर बढ़ावा नहीं भी दिया तो भीउसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की।

हमारे वे राजनीतिक नेता या दल भीजो सामाजिक समानता और धर्मनिरपेक्षता की घोषणा करने में पीछे नहीं रहतेधार्मिक रूढि़वादिता और अंधविश्वासों का लाभ उठाने से नहीं चूकते। जबकि आज यह चुनौती है कि हम धर्म  के उस प्रभाव को तो देखने की कोशिश करें जो वास्तव में जमीनी स्तर पर है। मात्र उसे आस्था का मामला मान कर छोड़  देना खतरनाक है। विज्ञान और तर्क के इस युग में आस्था सबसे ऊपर कैसे हो सकती हैअगर ऐसा होगा तो फिर क्या कोई शोध या वैज्ञानिक अनुसंधान संभव हो पाएगाहमें याद रखना चाहिए कि मनुष्य के विकास का आधार उसकी जिज्ञासा और वैज्ञानिक दृष्टि रही है। इसलिए वही समाज आगे बढ़ते हैं जो इन मूल्यों पर विश्वास करते हैं और इन्हें सप्रयास बढ़ावा देते हैं।

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