भारतीय समाज दलित और गैर-दलित दो तबकों में बँटा है। एक इंसान को औरों से अलग कर देखना मानव मूल्यों की दृष्टि से ग़लत है। पर सामाजिक गतिकी के स्रोत न्याय अन्याय के वांछित-अवांछित कारण हैं। इस आलेख में मुख्यतः गैर-दलितों से संवाद करने की कोशिश है। एक प्रताड़ित तबके के बारे में संवेदना की बात करना अहंकार हो सकता है। इसलिए एक सीमित परिप्रेक्ष्य में ही इस आलेख को पढ़ा जाना चाहिए। यहाँ जिन विद्वानों से असहमति प्रकट की गईं है, उनके प्रति हमारे मन में सम्मान है। वे जागरुक और सचेत हैं, समाज के लिए पथ-प्रदर्शक हैं, ऐसा हम मानते हैं।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा जारी ग्यारहवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में संविधान पर चर्चा के साथ छपे नेहरू-अंबेदकर कार्टून पर जो विवाद छिड़ा है, उससे बुद्धिजीवियों में ध्रुवीकरण बढ़ा है। इसके पहले प्रेमचंद, गाँधी बनाम अंबेदकर, अंग्रेज़ी शासन के दौरान दलितों की स्थिति में बदलाव जैसे कई विषयों पर ऐसा ही विवाद काफी तीखे तेवरों के साथ हुआ है।
दलित चिंतकों ने इन बहसों में जो रुख अपनाया है, वह सही या ग़लत है, यह तो इतिहास तय करेगा, पर उनमें एक तरह की लामबंदी दिखती है। पर निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाए तो गैर-दलित भी लामबंद दिखते हैं - साधारण संवेदनाहीन लोगों में दलित विरोधी मान्यताओं का होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता, पर उदारवादी चिंतक जो आम तौर पर दलितों के साथ उनके संघर्षों में कंधा मिलाकर चलते हैं, वे भी इन मुद्दों पर एकतरफा और दलित चिंतकों से भिन्न राय ही रखते हैं और अक्सर अपनी असहमति पुरजोर आवाज़ में सामने रखते हैं।
कार्टून वाला मौजूदा मामला, प्रेमचंद पर हुई बहस से अलग है। सामाजिक विसंगतियों और दलितों के निपीड़न पर संवेदना जगाने में जिन साहित्यकारों की सबसे अहम भूमिका रही, उनमें प्रेमचंद अग्रणी रहे। उनकी रचनाओं में से चुनी हुई पंक्तियों को प्रसंग से बाहर रख कर नहीं पढ़ा जाना चाहिए। कार्टून प्रसंग ऐसा नहीं है। नए नए आज़ाद हुए मुल्क का संविधान लिखे जाने में हो रही देर पर बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया के प्रतीक के रूप में शंकर का 1949 में बनाया कार्टून 2006 में पाठ्य-पुस्तक में डाला गया। पहले महाराष्ट्र और फिर राष्ट्रीय स्तर पर दलित चिंतकों ने आपत्ति जताई कि इस कार्टून में अंबेदकर का अपमान किया गया है। संसद में शोरगुल के बाद सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए इस कार्टून को हटाने का निर्णय लिया। दलित नेतृत्व की इस माँग को भी सरकार ने मान लिया कि जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थी, उसके खिलाफ कार्रवाई की जाए। इसे अकादमिक समुदाय ने अपनी स्वायत्तता पर हस्तक्षेप मानते हुए हर तरह से विक्षोभ प्रकट किया है। जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थी, इसके दो सदस्यों, योगेंद्र यादव और सुहास पालसिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया है। पालसिकर ने इस बारे में संवाद और सहयोग की कोशिश की है, पर उनके साथ कुछ दलित युवकों ने हिंसात्मक व्यवहार किया है। योगेंद्र यादव ने संसद में हुई बहस का खुला विरोध करते हुए बयान दिए हैं। पत्र-पत्रिकाओं में, अंतर्जाल में गैर-दलित टिप्पणीकारों ने सरकार और दलित नेताओं की कट्टर आलोचना की है।
यहाँ कई मुद्दे हैं। क्या सरकार को अकादमिक मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिए? क्या गैर-दलितों का एक कार्टून पर दलितों की असहमति पर इतना शोर मचाना ठीक है? क्या दलित समाज में अंबेदकर को एक मसीहे की तरह मानना, जिसपर कोई उँगली न उठा सके, यह ठीक है?
भारतीय राजनीति में मुख्यधारा की पार्टियों के नेतृत्व से जनता का विश्वास उठ चुका है। यहाँ हम मानकर चलेंगे कि सांसदों के हल्ले-गुल्ले को गंभीरता से लेने का कोई तुक नहीं है। कार्टून से संबंधित जो बड़े मुद्दे हैं, उनको और समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण को समझने की कोशिश हम करें। कार्टून में शंकर का जो उद्देश्य था और पाठ्य-पुस्तक समिति के सदस्यों ने उसे जैसे देखा, उससे अलग हटकर इसे देखने की कोशिश करें।
कार्टून में अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित मुहावरे 'स्नेल्स पेस (घोंघे की गति)' से चल रहे संविधान लेखन के काम पर कटाक्ष है। जनता अपेक्षारत है,संविधान लेखन समिति के अध्यक्ष अंबेदकर घोंघे पर सवार हैं और पीछे से नेहरू चाबुक चलाते हुए घोंघे को आगे बढ़ाने की कोशिश में हैं। कल्पना कीजिए कि एक आम स्कूल में यह पाठ पढ़ाया जा रहा है। कक्षा में सवर्ण और दलित दोनों पृष्ठभूमि के बच्चे हैं। अंबेदकर का घोंघे पर सवार होना किसी सवर्ण बच्चे को हास्यास्पद लग सकता है। वह इस कार्टून का इस्तेमाल किसी दलित बच्चे को तंग करने के लिए कर सकता है। अंबेदकर के ठीक पीछे नेहरू का चाबुक लिए खड़े होना कार्टून को और भी जटिल बना देता है। सही है कि काल्पनिक स्थितियों से घबराकर हमें निर्णय नहीं लेने चाहिए। पर किशोरों के लिए पाठ्य-पुस्तक तैयार करते हुए सचमुच इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?सुविधासंपन्न लोग अपने बच्चों की पाठन सामग्री के बारे में आमतौर पर सचेत रहते हैं। ज़रा भी शक हो तो हम सवाल उठाते हैं। यहाँ कोई चूक तो नहीं हो गई है? 1949 में शंकर के सामने ये सवाल न थे, पर 2006 में समिति सदस्यों को, खास तौर को उनको जो दलितों की समस्याओं के बारे में हम सबको आगाह करते रहे हैं, यह खयाल नहीं आया कि इस कार्टून में समस्या है, यह हमें सोचने को मजबूर करता है। योगेंद्र और सुहास विद्वान हैं, वे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हैं। यह कार्टून पुस्तक में शामिल कैसे हुआ?
मान लें कि कार्टून को इस तरह से देखना ग़लत है, पर अगर किसी ने इसे ऐसे देखा और आपत्ति जताई तो इसे हटाने से कितना नुकसान होता है? यह कोई आस्था पर आधारित आपत्ति नहीं, संभव है ऐसा होता तो हम इसे सहानुभूति के साथ देखते, यह तो हजारों वर्षों से चल रही हिंसा और बहिष्कार के अनुभव पर आधारित प्रतिक्रिया है। गैर-दलित इस बात को नहीं समझ पाते तो गड़बड़ दलितों में नहीं, हम ही में है। अक्सर दलितों की प्रतिक्रिया सही नहीं होती है,
पर क्या यह आश्चर्य की बात है कि दलित बौखलाहट भरी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। निरंतर बहिष्कार की पीड़ा हमारी मानवता को हमसे छीन लेती है।
एक कार्टून वहीं तक सीमित होता है, जो दृश्य वह प्रस्तुत करता है। वह प्रेमचंद की कहानी नहीं होता, जिसे पूरी पढ़कर ही हम सामान्य निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं।
कुछ लोगों को लगता है कि दलित बुद्धिजीवी आलोचना झेल नहीं सकते। उन्हें लगता है कि अंबेदकर को खुदा बनाने की कोशिश चल रही है। वे कहते हैं कि आखिर कार्टून तो गाँधी नेहरू पर भी बनते रहे हैं। प्रताड़ित जन की प्रतिक्रिया कैसी होती है, विश्व इतिहास में इसके बेशुमार उदाहरण हैँ। साठ के दशक में, जब अमेरिका में काले लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर था, जिसमें कई गोरे लोग भी शामिल थे, प्रसिद्ध अफ्रो-अमेरिकी कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नामः लीरॉय जोन्स) ने लिखाः- 'ब्लैक डाडा निहिलिसमुस। रेप द ह्वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।' कोई भी इस हिंसक अभिव्यक्ति को सभ्य नहीं कहेगा। आर्थिक वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। हाल तक कोलकाता शहर में दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं - 'आदिम हिंस्र मानव से यदि मेरा कोई नाता है, स्वजन खोए श्मशानों में तुम्हारी चिता मैं जला कर रहूँगा।' बराका की कविता आज भी यू ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरों ने इसका विरोध किया या नहीं. इसका कोई दस्तावेज नहीं है, पर अफ्रो-अमेरिकी स्त्रियों ने प्रतिवाद किया, यह इतिहास है। गोरों से आया विरोध निरर्थक है, पर अफ्रो-अमेरिकी समुदाय के अंदर से आया विरोध सार्थक हो गया। क्या भारतीय समाज में गैर दलितों को भी ऐसे ही धीरज रखना नहीं चाहिए?
दलित चिंतकों में यह समझ क्या हमसे कम है कि अंबेदकर को खुदा नहीं बनाना है? ऐसी कोई वजह तो है नहीं कि वे हमसे कम समझदार हों। यह तो उन्हें भी पता है कि गाँधी नेहरू पर भी कार्टून बनते रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम निजी अनुभवों से आहत होकर यह मानने लगे हों कि दलित चिंतक सही निर्णय ले ही नहीं सकते? उनके लिए सही निर्णय सिर्फ हम ही ले सकते हैं? निश्चित ही ऐसी संकीर्ण सोच के शिकार योगेंद्र या सुहास नहीं हैं। तो फिर हमें इन प्रक्रियाओं के मनोविज्ञान को सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की ज़रूरत है। गाँधी नेहरू को खुदा मानने वाले लोग भी हमारे समाज में हैं, पर अंबेदकर उन लोगों का खुदा है जिनके लिए और किसी मान्य खुदा के पास जाना हजारों वर्षों तक वर्जित था। 1949 में ही अफ्रो-अमेरिकी कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ ने लिखा - 'ह्वाट हैपेन्स टू अ ड्रीम डिफर्ड? दरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता है? / क्या वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें सड़े माँस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा कुरकुरा बन जाता है....? शायद उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है / या फिर वह विस्फोट बन फूटता है?'
इतना तो कहा ही जा सकता है कि निपीड़ितों का मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी कितनी है, हम यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैं, उनको झेलने की ताकत हममें हो, इसकी कोशिश हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता।
जहाँ तक संसद की बहस का सवाल है, वहाँ शोरगुल होता रहता है। उससे परेशान होकर योगेंद्र और सुहास समिति से निकल गए हैं, यह दुखदायी है। उनके खिलाफ जो हिंसक बयान आए हैं और पुणे में हुई घटना की निंदा हर सचेत व्यक्ति कर रहा है। उनसे यही अपेक्षा की जा सकती है कि वे वापस अपना काम सँभालें और गंभीरता से हमारे बच्चों को सही पाठ सिखाने का काम करते रहें।
(लाल्टू जी का यह लेख जनसत्ता में `विवाद के बीच एक संवाद` शीर्षक से छपा है।)