Wednesday, May 16, 2012

कार्टून विवादः एक मानवीय अवलोकन : लाल्टू


भारतीय समाज दलित और गैर-दलित दो तबकों में बँटा है। एक इंसान को औरों से अलग कर देखना मानव मूल्यों की दृष्टि से ग़लत है। पर सामाजिक गतिकी के स्रोत न्याय अन्याय के वांछित-अवांछित कारण हैं। इस आलेख में मुख्यतः गैर-दलितों से संवाद करने की कोशिश है। एक प्रताड़ित तबके के बारे में संवेदना की बात करना अहंकार हो सकता है। इसलिए एक सीमित परिप्रेक्ष्य में ही इस आलेख को पढ़ा जाना चाहिए। यहाँ जिन विद्वानों से असहमति प्रकट की गईं हैउनके प्रति हमारे मन में सम्मान है। वे जागरुक और सचेत हैंसमाज के लिए पथ-प्रदर्शक हैंऐसा हम मानते हैं।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा जारी ग्यारहवीं कक्षा की इतिहास की पाठ्य-पुस्तक में संविधान पर चर्चा के साथ छपे नेहरू-अंबेदकर कार्टून पर जो विवाद छिड़ा हैउससे बुद्धिजीवियों में ध्रुवीकरण बढ़ा है। इसके पहले प्रेमचंदगाँधी बनाम अंबेदकरअंग्रेज़ी शासन के दौरान दलितों की स्थिति में बदलाव जैसे कई विषयों पर ऐसा ही विवाद काफी तीखे तेवरों के साथ हुआ है।

दलित चिंतकों ने इन बहसों में जो रुख अपनाया हैवह सही या ग़लत हैयह तो इतिहास तय करेगापर उनमें एक तरह की लामबंदी दिखती है। पर निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाए तो गैर-दलित भी लामबंद दिखते हैं साधारण संवेदनाहीन लोगों में दलित विरोधी मान्यताओं का होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करतापर उदारवादी चिंतक जो आम तौर पर दलितों के साथ उनके संघर्षों में कंधा मिलाकर चलते हैंवे भी इन मुद्दों पर एकतरफा और दलित चिंतकों से भिन्न राय ही रखते हैं और अक्सर अपनी असहमति पुरजोर आवाज़ में सामने रखते हैं।

कार्टून वाला मौजूदा मामलाप्रेमचंद पर हुई बहस से अलग है। सामाजिक विसंगतियों और दलितों के निपीड़न पर संवेदना जगाने में जिन साहित्यकारों की सबसे अहम भूमिका रहीउनमें प्रेमचंद अग्रणी रहे। उनकी रचनाओं में से चुनी हुई पंक्तियों को प्रसंग से बाहर रख कर नहीं पढ़ा जाना चाहिए। कार्टून प्रसंग ऐसा नहीं है। नए नए आज़ाद हुए मुल्क का संविधान लिखे जाने में हो रही देर पर बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया के प्रतीक के रूप में शंकर का 1949 में बनाया कार्टून 2006 में पाठ्य-पुस्तक में डाला गया। पहले महाराष्ट्र और फिर राष्ट्रीय स्तर पर दलित चिंतकों ने आपत्ति जताई कि इस कार्टून में अंबेदकर का अपमान किया गया है। संसद में शोरगुल के बाद सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए इस कार्टून को हटाने का निर्णय लिया। दलित नेतृत्व की इस माँग को भी सरकार ने मान लिया कि जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थीउसके खिलाफ कार्रवाई की जाए। इसे अकादमिक समुदाय ने अपनी स्वायत्तता पर हस्तक्षेप मानते हुए हर तरह से विक्षोभ प्रकट किया है। जिस समिति के तत्वावधान में यह पुस्तक तैयार की गई थीइसके दो सदस्योंयोगेंद्र यादव और सुहास पालसिकर ने समिति से इस्तीफा दे दिया है। पालसिकर ने इस बारे में संवाद और सहयोग की कोशिश की हैपर उनके साथ कुछ दलित युवकों ने हिंसात्मक व्यवहार किया है। योगेंद्र यादव ने संसद में हुई बहस का खुला विरोध करते हुए बयान दिए हैं। पत्र-पत्रिकाओं मेंअंतर्जाल में गैर-दलित टिप्पणीकारों ने सरकार और दलित नेताओं की कट्टर आलोचना की है।

यहाँ कई मुद्दे हैं। क्या सरकार को अकादमिक मामलों में हस्तक्षेप करना चाहिएक्या गैर-दलितों का एक कार्टून पर दलितों की असहमति पर इतना शोर मचाना ठीक हैक्या दलित समाज में अंबेदकर को एक मसीहे की तरह माननाजिसपर कोई उँगली न उठा सकेयह ठीक है?

भारतीय राजनीति में मुख्यधारा की पार्टियों के नेतृत्व से जनता का विश्वास उठ चुका है। यहाँ हम मानकर चलेंगे कि सांसदों के हल्ले-गुल्ले को गंभीरता से लेने का कोई तुक नहीं है। कार्टून से संबंधित जो बड़े मुद्दे हैंउनको और समाज में बढ़ते ध्रुवीकरण को समझने की कोशिश हम करें। कार्टून में शंकर का जो उद्देश्य था और पाठ्य-पुस्तक समिति के सदस्यों ने उसे जैसे देखाउससे अलग हटकर इसे देखने की कोशिश करें।

कार्टून में अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित मुहावरे 'स्नेल्स पेस (घोंघे की गति)' से चल रहे संविधान लेखन के काम पर कटाक्ष है। जनता अपेक्षारत है,संविधान लेखन समिति के अध्यक्ष अंबेदकर घोंघे पर सवार हैं और पीछे से नेहरू चाबुक चलाते हुए घोंघे को आगे बढ़ाने की कोशिश में हैं। कल्पना कीजिए कि एक आम स्कूल में यह पाठ पढ़ाया जा रहा है। कक्षा में सवर्ण और दलित दोनों पृष्ठभूमि के बच्चे हैं। अंबेदकर का घोंघे पर सवार होना किसी सवर्ण बच्चे को हास्यास्पद लग सकता है। वह इस कार्टून का इस्तेमाल किसी दलित बच्चे को तंग करने के लिए कर सकता है। अंबेदकर के ठीक पीछे नेहरू का चाबुक लिए खड़े होना कार्टून को और भी जटिल बना देता है। सही है कि काल्पनिक स्थितियों से घबराकर हमें निर्णय नहीं लेने चाहिए। पर किशोरों के लिए पाठ्य-पुस्तक तैयार करते हुए सचमुच इन सवालों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?सुविधासंपन्न लोग अपने बच्चों की पाठन सामग्री के बारे में आमतौर पर सचेत रहते हैं। ज़रा भी शक हो तो हम सवाल उठाते हैं। यहाँ कोई चूक तो नहीं हो गई है? 1949 में शंकर के सामने ये सवाल न थेपर 2006 में समिति सदस्यों कोखास तौर को उनको जो दलितों की समस्याओं के बारे में हम सबको आगाह करते रहे हैंयह खयाल नहीं आया कि इस कार्टून में समस्या हैयह हमें सोचने को मजबूर करता है। योगेंद्र और सुहास विद्वान हैंवे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हैं। यह कार्टून पुस्तक में शामिल कैसे हुआ?

मान लें कि कार्टून को इस तरह से देखना ग़लत हैपर अगर किसी ने इसे ऐसे देखा और आपत्ति जताई तो इसे हटाने से कितना नुकसान होता हैयह कोई आस्था पर आधारित आपत्ति नहींसंभव है ऐसा होता तो हम इसे सहानुभूति के साथ देखतेयह तो हजारों वर्षों से चल रही हिंसा और बहिष्कार के अनुभव पर आधारित प्रतिक्रिया है। गैर-दलित इस बात को नहीं समझ पाते तो गड़बड़ दलितों में नहींहम ही में है। अक्सर दलितों की प्रतिक्रिया सही नहीं होती हैपर क्या यह आश्चर्य की बात है कि दलित बौखलाहट भरी प्रतिक्रियाएं भी देते हैं। निरंतर बहिष्कार की पीड़ा हमारी मानवता को हमसे छीन लेती है।

एक कार्टून वहीं तक सीमित होता हैजो दृश्य वह प्रस्तुत करता है। वह प्रेमचंद की कहानी नहीं होताजिसे पूरी पढ़कर ही हम सामान्य निष्कर्षों तक पहुँच सकते हैं।

कुछ लोगों को लगता है कि दलित बुद्धिजीवी आलोचना झेल नहीं सकते। उन्हें लगता है कि अंबेदकर को खुदा बनाने की कोशिश चल रही है। वे कहते हैं कि आखिर कार्टून तो गाँधी नेहरू पर भी बनते रहे हैं। प्रताड़ित जन की प्रतिक्रिया कैसी होती हैविश्व इतिहास में इसके बेशुमार उदाहरण हैँ। साठ के दशक मेंजब अमेरिका में काले लोगों को बराबरी का नागरिक अधिकार देने का आंदोलन शिखर पर थाजिसमें कई गोरे लोग भी शामिल थेप्रसिद्ध अफ्रो-अमेरिकी कवि इमामु अमीरी बराका (मूल ईसाई नामः लीरॉय जोन्सने लिखाः- 'ब्लैक डाडा निहिलिसमुस। रेप द ह्वाइट गर्ल्स। रेप देयर फादर्स। कट द मदर्स थ्रोट्स।कोई भी इस हिंसक अभिव्यक्ति को सभ्य नहीं कहेगा। आर्थिक वर्ग आधारित निपीड़न भी हिंसक प्रतिक्रिया पैदा करता है। हाल तक कोलकाता शहर में दीवारों पर सुकांतो भट्टाचार्य की ये पंक्तियाँ पढ़ी जा सकती थीं - 'आदिम हिंस्र मानव से यदि मेरा कोई नाता हैस्वजन खोए श्मशानों में तुम्हारी चिता मैं जला कर रहूँगा।बराका की कविता आज भी यू ट्यूब पर संगीत के साथ सुनी जा सकती है। गोरों ने इसका विरोध किया या नहींइसका कोई दस्तावेज नहीं हैपर अफ्रो-अमेरिकी स्त्रियों ने प्रतिवाद कियायह इतिहास है। गोरों से आया विरोध निरर्थक हैपर अफ्रो-अमेरिकी समुदाय के अंदर से आया विरोध सार्थक हो गया। क्या भारतीय समाज में गैर दलितों को भी ऐसे ही धीरज रखना नहीं चाहिए?

दलित चिंतकों में यह समझ क्या हमसे कम है कि अंबेदकर को खुदा नहीं बनाना हैऐसी कोई वजह तो है नहीं कि वे हमसे कम समझदार हों। यह तो उन्हें भी पता है कि गाँधी नेहरू पर भी कार्टून बनते रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम निजी अनुभवों से आहत होकर यह मानने लगे हों कि दलित चिंतक सही निर्णय ले ही नहीं सकतेउनके लिए सही निर्णय सिर्फ हम ही ले सकते हैंनिश्चित ही ऐसी संकीर्ण सोच के शिकार योगेंद्र या सुहास नहीं हैं। तो फिर हमें इन प्रक्रियाओं के मनोविज्ञान को सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की ज़रूरत है। गाँधी नेहरू को खुदा मानने वाले लोग भी हमारे समाज में हैंपर अंबेदकर उन लोगों का खुदा है जिनके लिए और किसी मान्य खुदा के पास जाना हजारों वर्षों तक वर्जित था। 1949 में ही अफ्रो-अमेरिकी कवि लैंग्स्टन ह्यूज़ ने लिखा - 'ह्वाट हैपेन्स टू अ ड्रीम डिफर्डदरकिनार किए गए सपने का क्या हश्र होता है? / क्या वह किसमिस के दाने की तरह धूप में सूख जाता है? / या वह घाव बन पकता रहता है? / क्या उसमें सड़े माँस जैसी बदबू आ जाती है?/ या वह मीठा कुरकुरा बन जाता है....? शायद उसमें गीलापन आ जाता है और वह भारी होता जाता है या फिर वह विस्फोट बन फूटता है?'

इतना तो कहा ही जा सकता है कि निपीड़ितों का मनोविज्ञान जटिल है। इस जटिलता में हमारी भागीदारी कितनी हैहम यह समझ लें तो गैर-बराबरी की इस दुनिया में हम अपनी मुक्ति की ओर बढ़ सकते हैं। और दूसरी ओर जो विस्फोट हैंउनको झेलने की ताकत हममें होइसकी कोशिश हम कर सकते हैं। अपनी मुक्ति के बिना किसी और की मुक्ति का सपना कोई अर्थ नहीं रखता।

जहाँ तक संसद की बहस का सवाल हैवहाँ शोरगुल होता रहता है। उससे परेशान होकर योगेंद्र और सुहास समिति से निकल गए हैंयह दुखदायी है। उनके खिलाफ जो हिंसक बयान आए हैं और पुणे में हुई घटना की निंदा हर सचेत व्यक्ति कर रहा है। उनसे यही अपेक्षा की जा सकती है कि वे वापस अपना काम सँभालें और गंभीरता से हमारे बच्चों को सही पाठ सिखाने का काम करते रहें।

(लाल्टू जी का यह लेख जनसत्ता में `विवाद के बीच एक संवाद` शीर्षक से छपा है।)

Wednesday, May 9, 2012

याकोब का मुर्ग़ा


(अपने समय के विख्यात चेक बाल कथा लेखक मिलोश मात्सोउरेक (1926-2002) की 'प्राणिशास्त्र' नाम की बाल कथा सीरीज़ से कुछ कहानियों का अनुवाद असद ज़ैदी ने पैंतीस साल पहले किया था जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से निकलने वाली पत्रिका 'कथ्य' में छपा था। 'कथ्य' का एक ही अंक निकल सका। इसी लेखक की कुछ और बाल कहानियों के ताज़ा अनुवाद 'जलसा' के आगामी संकलन - 'जलसा - - में आने जा रहे हैं। 'जलसा' के मुफ़्त इश्तिहार व अग्रिम झाँकी के बतौर एक कहानी यहाँ दी जा रही है।)

याकोब का मुर्ग़ा
मिलोश मात्सोउरेक की एक बाल कथा

मुर्ग़ा तो मुर्ग़ा ही होता है, वह कैसा दिखता है तुम सब जानते हो, जानते हो न, तो फिर मुर्ग़े का चित्र बनाओ, अध्यापिका ने बच्चों से कहा, अौर सब बच्चे अपनी पेंसिल अौर क्रेयॉनों को चूसते हुए मुर्ग़े का चित्र बनाने में जुट गए, काले क्रेयॉन अौर भूरे क्रेयॉन से उनमें काला अौर भूरा रंग भरने लगे, लेकिन तुम तो जानते ही हो याकोब को, देखो ज़रा उसे, क्रेयॉन के बॉक्स में जितने रंगों के क्रेयॉन अाते हैं सब उसने इस्तेमाल कर लिए, फिर लॉरा से भी उधार लेकर कुछ अौर रंग भर डाले, इस प्रकार याकोब का जो मुर्ग़ा बना उसका सर नारंगी था, डैने नीले, जाँघें लाल, देखकर टीचर बोली अरे ये कैसा अजीबो-ग़रीब मुर्ग़ा है ज़रा देखो तो बच्चो, कक्षा के सारे बच्चे हँसी से लोटपोट हैं अौर टीचर कहे जा रही है कि यह सब लापरवाही का नतीजा है, कक्षा में याकोब का ध्यान कहीं अौर होता है, अौर सच तो यह है कि याकोब का मुर्ग़ा मुर्ग़ा नहीं पीरू या मुर्ग़ाबी की तरह नज़र अाता है, नहीं, बल्कि मोर की तरह, अाकार में बटेर के बराबर अौर अबाबील की तरह दुबला, मुर्ग़ा है कि अजूबा, याकोब को उसके प्रयास के लिए एफ़ मिलता है अौर उसके बनाए मुर्ग़े को दीवार पर टाँगने के बजाए टीचर की अल्मारी के ऊपर दूसरी रद्दी अौर बेमेल चीज़ों के बीच पटक दिया जाता है, बेचारे मुर्ग़े की भावनाअों को इससे बड़ी ठेस पहुँचती है, टीचर की अल्मारी के ऊपर धूल फाँकने के ख़याल से ही उसे घबराहट होती है, भला यह भी कोई ज़िन्दगी है, वह हिम्मत करके पर तौलता है अौर ज़ोर लगाकर खुली खिड़की के रास्ते उड़ जाता है।

लेकिन मुर्ग़ा तो मुर्ग़ा ही हुअा न, वह ज़्यादा दूर तक उड़ नहीं सकता, लिहाज़ा उसकी उड़ान स्कूल के बग़ल में बने घर के बाग़ीचे में ख़त्म होती है, क्या ही शानदार ये बाग़ीचा है, चारों तरफ़ सफ़ेद चेरी के पेड़, नीले अंगूर की बेलें, बाग़बान की मेहनत अौर प्यार की गवाही देती जगह, अौर बाग़बान भी कोई ऐसे वैसे नहीं, प्रोफ़ेसर कापोन, जाने माने पक्षी-विज्ञानी जो पक्षियों पर सात ग्रंथों की रचना कर चुके हैं अौर अब अाठवीं किताब को पूरा करने में लगे हैं, वह उसका आख़िरी पैरा लिखना शुरू करते हैं कि अचानक उन्हें थकान घेर लेती है, अौर वह उठकर थोड़ी सी बाग़बानी अौर चहलक़दमी के लिए बाग़ीचे में अा जाते हैं, इससे उन्हें आराम मिलता है अौर चिड़ियों के बारे में सोचने का वक़्त भी, दुनिया में इतनी चििड़याँ हैं, बेशुमार, प्रोफ़ेसर कापोन अपने अाप से कहते हैं, लेकिन आह बदक़िस्मती कि एक भी चििड़या को खोजने का श्रेय मुझे नहीं जाता, वह उदास हो जाते हैं, फिर बेखुदी के अालम में सपना देखने लगते हैं कि अब तक अज्ञात रही एक चिड़िया को उन्होंने खोज निकाला है, तभी उनकी नज़र उस मुर्ग़े पर पड़ती है जो उनके दुलारे नीले अंगूरों को चुगे जा रहा है, उन दुर्लभ अंगूरों को, बताइये क्या ये अंगूर इसलिए लगाए गए थे कि मुर्ग़े-मुिर्ग़यों का दाना बनें, देखकर किसका ख़ून नहीं खौल उठेगा, प्रोफ़ेसर को ग़ुस्सा आ जाता है, ग़ुस्से में वह आपे से बाहर हो जाते हैं, उनकी इच्छा होती है कि पकड़कर मुर्ग़े की गरदन मरोड़ दें, पर अंत में वह उसे पकड़कर अहाते से बाहर फेंक देते हैं, मु्र्ग़ा घबराता हुआ उड़ जाता है, पर अरे यह क्या, प्रोफ़ेसर उसके पीछे पीछे भागने लगे हैं, अपने अहाते की दीवार फाँद जाते हैं, जैसे तैसे करके उसे फिर पकड़ने में सफल हो जाते हैं अौर प्यार से घर ले अाते हैं, काफ़ी अजीब सा यह मुर्ग़ा है, शर्त बद सकता हूँ आज तक किसी ने ऐसा मुर्ग़ा नहीं देखा होगा, नारंगी सर, नीले पंख अौर सुर्ख़ जाँघें, प्रोफ़ेसर यह सब काग़ज़ पर दर्ज कर रहे हैं, दिखने में कुछ पीरू या मुर्ग़ाबी जैसा, पर कुछ गौरैया की अौर कुछ मोर की याद दिलाता, बटेर की तरह गोल मटोल अौर अबाबील की तरह दुबला, अौर इस तरह अपनी अाठवीं किताब के लिए ये तफ़सील दर्ज करके प्रोफ़ेसर रोमांच से थरथराते हुए मुर्ग़े का नामकरण अपने नाम पर कर देते हैं अौर मुर्ग़े को ले जाकर काँपते हाथों से चििड़याघर में सौंप आते हैं।

मुर्ग़ा तो मुर्ग़ा ही होता है, अाप सोचते हैं किसे दिलचस्पी होगी एक मुर्ग़े से, पर इस मुर्ग़े ने तो पूरे चिड़ियाघर में तहलका मचा दिया है, ऐसी दुर्लभ चीज़ बीस-पच्चीस साल में एकाध बार प्रकट हो तो हो, चिड़ियाघर का डाइरेक्टर उत्तेजना में हाथ मल रहा है, कर्मचारी पिंजरा बनाने में लगे हैं, पेन्टर मसरूफ़ है अौर डाइरेक्टर कह रहा है पिंजरा शानदार होना चाहिए अौर बिस्तर ज़रा नर्म, अौर लीजिए यह नामपट्ट भी बनकर आ गया, कापोनी मुर्ग़ा -- गलीना कापोनी -- अच्छा नाम है न, कानों को भला लगने वाला, क्या ख़याल है अापका ... उधर मुर्ग़े की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं, ऐसा स्वागत ऐसा सत्कार देखकर उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं, उसे अब इस दुनिया से कोई शिकायत नहीं, वह चिड़ियाघर का मुख्य आकर्षण है, सबकी आँखों का तारा, चिड़ियाघर में कभी इतने दर्शक नहीं आये, कैशियर कह रहा है, जनता उमड़ पड़ी है, टिकट खिड़की पर लाइन लम्बी होती चली जा रही है, अौर लीजिए हमारी वही अध्यापिका पूरी कक्षा के साथ पिंजरे के सामने हाज़िर है बच्चों को बताती हुई कि अभी अभी तुमने प्रेवाल्क्स्की अश्व को देखा था, अौर अब तुम्हारे सामने है एक अौर दुर्लभ जीव, गलीना कापोनी यानी कापोनी मुर्ग़ा जो देखने में कुछ पीरू या मुर्ग़ाबी जैसा लगता है, पर कुछ गौरैया अौर कुछ मोर से मिलता जुलता है, देखो यह कैसे बटेर की तरह गोल मटोल भी है अौर अबाबील की तरह दुबला भी, ज़रा देखो तो कैसा हसीन नारंगी सर है इसका, नीले पंख, लाल-सुर्ख़ जंघाएँ, बच्चे विस्मित हैं, ज़ोर से साँस छोड़ते हुए कहते हैं अाह कितना सुन्दर मुर्ग़ा है, है न टीचर, पर लॉरा को जैसे करंट लग गया हो, वह टीचर की आस्तीन खींचती है अौर कहती है, ये तो याकोब का मुर्ग़ा है, सच में टीचर ये वही मुर्ग़ा है, टीचर झल्लाती है ये बेवक़ूफ़ लड़की क्या बकबक कर रही है याकोब का मुर्ग़ा याकोब का ... अरे याद आया देखना ये याकोब कहाँ गया, उसका ध्यान फिर कहीं अौर है, देखो कहाँ पहुँच गया एंटईटर के पिंजरे के सामने, कापोनी मुर्ग़े को देखने के बजाय चींटीख़ोर पशु को देखता हुआ, याकोब, अपने फेफड़ों की पूरी ताक़त के साथ ऊँचे सुर में टीचर चीख़ती है, अगली बार से मैं तुम्हें घर वापस भेज दूँगी, तुम्हारा बरताव अब बरदाश्त के बाहर हो चुका है याकोब, सही बात है टीचर की, यह सब देखकर किसी भी ख़ून खौल सकता है। 
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मात्सोउरेक की एक अंग्रेज़ प्रशंसिका ने, जो निश्चय ही अध्यापिका रही होगी, इस कहानी के अपने अनुवाद के साथ बच्चों के लिए निम्नलिखित प्रश्नावली भी अपनी तरफ़ से जोड़ दी थी।


प्रश्न
. याकोब के मुर्ग़े के जीवन को कम से कम चार चरणों में बाँटते हुए वर्णित कीजिए।
. अपने बाग़ीचे में बेमेल पक्षी को देखकर पक्षी-विज्ञानी ने क्या किया अौर क्यों?
. अगर आपके मुर्ग़े को चिड़ियाघर में रख दिया जाए तो आपकी प्रतिक्रिया कैसी होगी?
. अध्यापिका ने मुर्ग़े को देखकर दो भिन्न अवसरों पर -- () क्लासरूम में () चिड़ियाघर में -- जो भाव व्यक्त किए, उनका तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए।
. चिड़ियाघर में अपने मुर्ग़े को देखकर याकोब की अंतिम प्रतिक्रिया क्या थी?
. इस प्रसंग के आधार पर याकोब के भविष्य के बारे में अनुमान लगाइए।


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