Monday, December 3, 2012

उनका दिव्य सर्किट हमारा अथाह समंदर : शिवप्रसाद जोशी

 (गुजरात की एक संक्षिप्त यात्रा पर कुछ नोट्स)

                               


सबसे पहले विद्रूप से ही टकराए. जैसे कि यही होना था. साबरमती नदी को भरने के लिए लाया गया नर्मदा का पानी. पानी घिरा हुआ है और गंदला है. किनारे निर्माणाधीन हैं. साबरमती के किनारे गांधी के आश्रम में इतनी भीड़भाड़ के बावजूद एक अजीब सा खालीपन लगता है. जैसे कोई चीज़ याद आने आने को है नहीं आती. जैसे कुछ कचोटता है. क्या. पता नहीं चलता.

एक घर कुछ कमरे यादें आगंतुक रजिस्टर. और फिर गांधी से जुड़ी तमाम चीज़ों का संग्रहालय. पोस्टर नारे किताबे पोशाक चिट्ठियां संदेश. एक संदेश पर जाकर नज़रें टिक गईं और देर तक वहीं रहीं. फिर एक भारीपन समा गया भीतर. कचोट और गहरी हो गई. गांधी का वो संदेश किअगर ख़ून बहाना ही है, तो वह अपना ही हो. आओ बिना किसी की हत्या किए हम शांति और साहस से मरें..जैसे कि गुजरात यात्रा से पहले ये संदेश हमारी यादध्यानी के लिए ही था. अचानक हमारे सामने कर दिया गया.

क्या इसे गुजरात के दरवाजे पर टांग देना चाहिए. घरों की खिड़कियों के कांच में इस संदेश की पारदर्शिता घोल दी जाए. इसे गुजरात सरकार के मुख्यालय के सामने लगा दिया जाए. क्या इस संदेश को मुख्यमंत्री के घर पर फ़्रेम कर लगा देना चाहिए. ताकि वहां हर आने जाने वाला शख़्स उसे देख पढ़ याद रख सके.

गुजरात की यात्रा कुछ इन्हीं सवालों के साथ फिर शुरू होती है. हम अहमदाबाद देख रहे हैं. बंटा हुआ. उलझा हुआ. बढ़ता हुआ. ख़ून और धूल से सना हुआ. चालाकियों और कारोबार और मंसूबों से घिरा हुआ. योजना बनाता हुआ और ढेर होता हुआ. दोस्तियों खुराफ़ातों सुंदरताओं विलासिताओं और क्रूरताओं का शहर. हम हुसेन दोषी गुफ़ा में हैं. जैसे अपने समय के अनचीन्हे उजालों के पास. हम इस गुफ़ा में निर्भीक सांस ले सकते हैं. 2002 में इस गुफ़ा तक न पहुंचा कोई. क्या यहां से निकलने का एक ही रास्ता है इसलिए.

हम एक सुंदर आत्मीय आतीथ्य में हैं. किताबों और विचारों और अपनत्व और दो प्यारे बच्चों और एक ममता भरी स्त्री के घर में. क्या जो सर्किट हम घूमेंगे वो इतना दिव्य होगा जितना ये तीन कमरे, बैठक, बैठकी.

हम एक चमकते हुए राजमार्ग पर जा रहे हैं. सुबह एक वीरानी में और एक दूर तक जाती सड़क के कालेपन में खुलती जाती है फिर उसी में गुम हो जाती है. ये रास्ता हमें द्वारिका ले जाएगा. समंदर के किनारे. वहां एक बरसों पुरानी याद है उसे देखने की तीव्रता से ही इस यात्रा का जन्म हुआ.

द्वारिका मंदिर की ऐतिहासिकता भव्यता श्रद्धा कतार दर कतार सुरक्षा नोकों पर लहराते झंडे एक हड़बडी उधेड़बुन एक विराट कोलाहल और अंततः कहीं न गिराती हुई एक डूब.

हम इससे पहले समंदर देख आए और डूब आए. और यहां जो सबसे अकेली सुनसान शांत जगह है वो दूर खड़ा लाइटहाउस है. हम आपाधापी भरे दिन के बाद ऊब भरी और टुकुर टुकुर ताकती हुई सी शाम के बाद रात के इंतज़ार में हैं. वो हमारे लिए कुछ राहत लाएगी. हम लाइटहाउस के पास जाएंगें. उसकी रोशनियां चारों तरफ़ गिर रही हैं. नीचे चट्टानों से टकराती हुई एक गर्जना है. न जाने कितने चीत्कार हैं यहां. अनंत तक फैला हुआ हिलता हुआ सा एक कालापन और एक दूसरे पर गिरती पड़ती हुई सी आतीं आवाज़ें. लहरों का कंद्रन इसे ही कहते हैं या ये अट्टाहस है इस्तेमाल के बाद फेंका हुआ.

सूरज के आने से पहले हम लाइटहाउस फिर आएंगें. समंदर रात के उस अवसाद और उस थकान को आज अपनी इस अपार नीलिमा से हर लेगा. वे रात की आवाज़ें एक अलग दास्तान के साथ फिर से लौट आएंगी. वे बताएंगी क्या हुआ था. इन आवाज़ों का नामोनिशान कैसे मिटाओगे. वे पछाड़ें खाती हुईं हरदम हररोज़ जैसे इंसाफ़ इंसाफ़ के सवाल की बौछार फेंकती हुई. लेकिन हम उस गुनाह में शामिल नहीं थे. क्या वास्तव में नहीं. हम उन लहरों को नहीं पहचानते कि क्योंकर वे हम पर गरजती हैं. वे हमें नहीं पहचानतीं कि हम आख़िर ख़ुद को बरी कह देने वाले कौन लोग हैं. कहां के. और जा कहां रहे हैं.

द्वारिका द्वीप. बेट द्वारिका. और वो रास्ता. धर्म के राजमार्ग नहीं गलियां भी होती हैं.

रास्ते दिव्य ही नहीं होते हैं. तीर्थ तक पहुंचने से पहले एक बहुत लंबी पट्टी है डंडियों के जालों पर सुखाई जा रही मछलियों की महक हमारी नसों में धंस गई है. नमक कारखाना. आखिर इसी नमक को खाकर हम बड़े हुए सोचने लगे नौकरी की घूमे और यहां तक आए. हमें नहीं पता हम नमक का धर्म सूंघ रहे हैं या धर्म का नमक चख रहे हैं.

शोर शोर शोर. बदहवासी. भगवान की झलक पाने को बेताब भीड़. धक्कामुक्की. धन्य होने की नौबत आ गई.

और फिर समंदर के एक तट की खोज. निर्जन सी जगह. और देर तक रेत और पानी में गड्डमड्ड. इस नमक का स्वाद भी चखो. और गुजरात के किनारे इस समंदर में लोटपोट हो जाओ जिसका नाम अरब सागर है. मंदिरों मठो को छूता हुआ उनके पास तड़कता हुआ गूंजता हुआ बिफरता हुआ अरब सागर. न जाने कैसे ये नाम आया. कब.

वे आदिवासी जन. श्रम से सराबोर. जाते ऊंघते. जैसे इस भव्यता में अचानक ही दाखिल हो आए. उनके घर कहां हैं. उनके परिवार. वे घिसटते हुए से क्यों जाते हैं जैसे ये सड़क नहीं एक बहुत लंबी ऊब है. क्या वे सब इस दिव्य सर्किट में समा जाएंगें.

उनके ऊंटों का काफ़िला. सड़क किनारे खेतों पर. वहां निर्माण होंगे, ये काफ़िला क्या ज़मीन के नीचे चला जाएगा. वहीं से कहीं गुज़रेगा. विकास बहुत तेज़ गति में है. सुस्ताने की ये प्रवृत्तियां घातक हैं. ऊंट विकास संस्कृति में नहीं अंटता. ये कहानी का चालाक ऊंट नहीं है और न ही ये कहानी का तंबू है. ये भूमंडलीय पूंजी का कसा हुआ तंबू है और ये आवश्यकतानुसार फैलता जाता है. एक दिन हम आकाश को कवर कर देंगे. वे इस बात को गर्व से दूसरे ढंग से कहते हैं. कभी विज्ञापन में कभी राजनीति में.

कभी ज़ोर से चीखकर कभी बहुत जानलेवा मुस्कान के साथ.
  
हम जामनगर के रास्ते पर हैं. आगे बेरीकेडिंग है. सभी गाड़ियां चेक की जा रही हैं. हमारा ड्राइवर कहता है, अहमदाबाद से आए हैं, टूरिस्ट हैं. मेरा कार्ड देखा जाता है. जाने दो. ड्राइवर से ही पता चला सीएम का दौरा है. परिंदा भी नहीं घुसने देंगे. ऐसी सुरक्षा है. एक अजीब तरह का खालीपन है यहां. लोग इतने चौंके हुए क्यों हैं. क्या वे हमेशा से ऐसे ही थे.

हम एक ग्रामीण भारत से गुज़रते हुए आख़िर फिर एक बड़े कारोबारी भारत में दाखिल हो रहे हैं. सोमनाथ का रास्ता क्या यहां से है. हम पूछते हैं. हां ठीक जा रहे हैं आप. जाएं. हम एक बहुत विशाल अकल्पनीय से गेस्ट हाउस में है. लोग उमड़ते आ रहे हैं.

आस्था की एक अदृश्य स्वचालित चक्की रात दिन चल रही है.

हमारे सामने न जाने कितनी बार तबाह हो चुके सोमनाथ की जगह न जाने कितनी बार बहाल किया जा चुका सोमनाथ है. हम क्या प्रदर्शन में शामिल हो जाएंगें. नहीं धर्म से पहले कर सकें तो आत्मा का प्रदर्शन करें. नहीं कर सकते तो झूठमूठ जाइए और वहां समंदर के पास चले जाइए. सारी बेचैनियां सारे कपट सारे छल सारी राजनीति का गवाह. जो यहां से चले तो दक्षिणी ध्रुव पहुंचे.
इस सर्किट को सोचसमझकर विकसित किया गया है. रिहाइशें और निर्माण और कारोबार एक जैसा ढाला गया है. विविधता वाले भारत का ये गलियारा समरूप क्यों है. एकांगी. एक ही छवि बनाता. और दूसरी छवियों को अपनी भव्यताओं के पिछवाड़े डाल देता.

क्या वे वहां नहीं पनपेंगीं या वैसे ही दम तोड़ देंगी. क्या छवियां सिर्फ गढ़ी जा सकती हैं. हम धकेली गई डराई और सताई गईं और नष्ट की गईं छवियों के बारे में पूछना चाहेंगे. उसके बिना आज के इस गुजरात की कैसी भी यात्रा पूरी नहीं होती.

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