ज्योत्स्ना शर्मा (11 मार्च 1965-23 दिसंबर 2008) अपनी कुछ कविताओं के प्रकाशन के बावजूद हिंदी साहित्य की दुनिया में अनजाना नाम है। अनजाना की जगह उपेक्षित शब्द भी इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि उनकी जो कविताएं `अनुनाद` ब्लॉग, `संबोधन` और `जलसा` पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं, वे एक रचनाकार को लेकर साहित्य के पाठकों और अन्वेषणकर्ताओं में चर्चा, जिज्ञासा और उन्हें और ज्यादा पढ़ने के लिए उनकी अप्रकाशित सामग्री की तलाश की भूख पैदा करने लायक तो हैं ही। लेकिन, इस वक़्त या कहें कि हमेशा ही जो हाल इस दुनिया का रहा है, उसमें ऐसा होना स्वाभाविक है। उपेक्षा की बात करें तो ज्योत्सना में खुद पत्रिकाओं में छपने या हिंदी साहित्य का हिस्सा बनने के प्रति गहरा उपेक्षा का भाव था। यह भाव उनमें शायद हर किस्म के ढांचों से था और अंततः इसका असर उनके अपने जीवन पर भी था। आज ही के दिन उन्होंने जैसा कि गहरी बेचैनियों में जीने वाले संवेदनशील मनुष्यों के साथ होता है, अचानक आत्महत्या का रास्ता चुन लिया था। उनकी स्मृति में उनकी दो कविताएं, जो `जलसा` में प्रकाशित हो चुकी हैं-
ज्योत्सना की दो कविताएं
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लौटना
लौट चले कमेरे घर की ओर
भूख लिये साथ
प्रियजनों की यादें बिखरी बिखरी
जब चिडि़यों के बोल धीमे थे
जब लौटते थे बच्चे थके से
छाती थी पेड़ों पर काली गहराई
जब बकरियों के उदास रेवड़
लौटते थे बाड़ों में
अपने पीछे लिये खोये-खोये चरवाहों को
जब मच्छर निकलते थे भनभनाते
और दीवारों पर खिन्न छिपकलियाँ
जब जलती थी पुश्तैनी अंधेरे कमरों में
बल्ब की बीमार रोशनी
मैदान होने लगते थे अकेले
आसमान के गुलाबी सिरे पर
उठती थी अज़ान
डूबी डूबी।
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गुमनाम साहस
वयस्कों की दुनिया में बच्चा
और पुरूषों की दुनिया में स्त्री
अगर होते सिर्फ़ योद्धा
अगर होती ये धरती सिर्फ़ रणक्षेत्र
तो युद्ध भी और जीत भी
आसान होती किस क़दर;
लेकिन मरने का साहस लेकर
आते हैं बच्चे
और हारने का साहस लेकर
आती हैं स्त्रियां
ऐसा साहस जो गुमनाम है
ऐसा विचित्र साहस जो लील जाता है
समूचे व्यक्ति को
और कहते हैं वो जो मरा और हारा
कमज़ोर था
कि यही है भाग्य कीड़ों का;
ऐसी भी होती है एक शक्ति
उस छाती में जिसपर
हर रोज़ गुज़र जाती है
एक ओछी दुनिया।
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