साठ के दशक के फ़ौरन बाद की हिंदी कविता के जिन कवियों का नई पीढ़ी से सबसे ज़्यादा नाता थाः वो त्रयी वीरेन डंगवाल, असद ज़ैदी और मंगलेश डबराल की रही है.
वीरेन ठिकानेदारों को ठिकाने लगाने वाले कवि थे. उन्होंने कई मतलबियों, नकलचियों और चतुरों के तेवर उतारे हैं. उनकी बातों में इतनी तीक्ष्णता और इतना पैनापन और इतना आवेग था.
हिंदी कविता में वो मोमेंटम के सबसे बड़े कवि थे. उनके न रहने से सबसे ज़्यादा नुकसान नई पीढ़ी को हुआ है.
अपनी बातों, अपनी कविता, अपनी सलाहों और अपनी झिड़कियों से वे एक पेड़ बन गए थे. उस पेड़ की छांह अब स्मृति में चली गई है.
वीरेन डंगवाल ने उत्तर भारत की हिंदी पत्रकारिता को भाषा और व्यक्ति दोनो दिए. उनके शागिर्दों का एक अभूतपूर्व फैलाव है. वे प्रिंट से लेकर टीवी और रेडियो तक बिखरे हुए हैं. उनमें से कई लोग अत्यन्त कामयाब जीवन में आए हैं और एक भव्य भविष्य की ओर उन्मुख हैं. वे भी आज वीरेन के न रहने पर निश्चित ही चुपके चुपके रो न भी रहे हों तो एक असहाय धक्के में आ गए होंगे. ये धक्का वे निकाल नहीं पाएंगें. ऐसी उपस्थिति की शर्त के साथ वीरेन ने अपनी शख़्सियत का जादू फैलाया था.
वीरेन लटकी हुई कथित उदासियों पर गुलेल खींच कर भौंचक करने वाले कवि पत्रकार थे. वो नकली नैराश्य के विरोधी थे और उन्होंने एक अपना मार्क्सवाद विकसित किया था. वीरेन की आवाज़ एक ऐसी नाव थी जो मुसीबत के मारों को किनारे छोड़ आती थी. फिर वो मुसीबत प्रेम करने वालों की हो या नौकरी के लिए दर दर भटकने वालों की या सामाजिक लड़ाइयों में इंतज़ार की.
इस तरह उन्होंने संघर्ष को एक लोकप्रिय विधा में बदल दिया.
उन्हें समझने वालों और उन्हें मानने वालों ने संघर्ष के पानी से प्यास बुझाई. ऐसा विवेक भरने वाले वीरेन डंगवाल, इसीलिए स्मृति को कचोटते रहेंगें.
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