स्त्री पक्ष पर महादेवी के चिन्तन का जो गहन, मौलिक और बहुआयामी चरित्र था, उस पर समाजशास्त्रियों
ने तो एकदम ध्यान नहीं दिया, हिन्दी साहित्य के सुधी
आलोचको ने भी काफी कम लिखा है। यह सचमुच एक दुखद विडम्बना है और विचार का प्रश्न
भी। स्त्री प्रश्न पर महादेवी का चिन्तन अपने समाज के दिक्-काल परिप्रेक्ष्य
में स्त्री होने के अर्थ का नितान्त मौलिक संधान है। उल्लेखनीय है कि स्त्री-अस्मिता
पर सोचते हुए महादेवी का चिन्तन नारीवाद की अधुनातन अस्मितावादी विचार-सरणियों से
सर्वथा अलग है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही नारीवाद की जो लहर यूरोप
में पैदा हुई थी और जिसकी विभिन्न रूपों में गत शताब्दी के सातवें दशक तक
सक्रियता बनी रही या जो पुन:संस्कारित होकर स्वयं को नये-नये रूपों में प्रस्तुत
करती रही, उसकी अधिकांश उपधाराओं में स्त्री की स्वतंत्र
अस्मिता के प्रश्न को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक-आर्थिक संरचना में निहित
कारक-प्रेरक उपादानों से काटकर देखने की प्रवृत्ति निहित थी। गत शताब्दी के
अन्तिम दशकों में सक्रिय उत्तरआधुनिकतावादी नारीवाद तो इस प्रवृत्ति से और भी
बुरी तरह ग्रस्त था।
इस मायने में महादेवी ने सर्वथा भिन्न रुख अपनाया। स्त्री
की स्वतंत्रता के प्रश्न पर विचार करते हुए उन्होंने इस प्रश्न को स्त्रियों
के अर्थ स्वातंत्र्य के प्रश्न से, उनकी सामाजिक-पारिवारिक
पराधीनता के प्रश्न से, पुरुषवादी सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों
से और स्वयं स्त्री-समुदाय में व्याप्त बद्धमूल रूढ़ संस्कारों की दिमागी
गुलामी से जोड़कर देखा। इस मायने में महादेवी का चिन्तन मौलिकता और वैज्ञानिक
तर्कणा की दृष्टि से उन्हें बीसवीं शताब्दी से पूरी दुनिया की अग्रणी स्त्री
चिन्तकों के बीच स्थान पाने का हकदार बना देता है। स्त्री-प्रश्न पर महादेवी
के जो ग्यारह निबन्ध 'श्रृंखला की कडि़यां' संकलन में संकलित हैं, वे बीसवीं शताब्दी के चौथे
दशक में लिखे गये थे। इन निबंधों में महादेवी पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्रियों
को सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-पारिवारिक गुलामी और उनके कारणों का सन्तुलित विश्लेषण
प्रस्तुत करती हैं, स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता और पहचान
के प्रश्न को उसकी सामाजिक चेतना के विस्तार की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं,
सामाजिक रूढि़यों से संघर्ष के जटिल पक्षों को उद्घाटित करती हैं,
तथा स्त्रियों की आर्थिक स्वावलंबिता की अनिवार्यता पर बल देती है।
इन निबंधों में महादेवी ने राष्ट्रीय जागरण-काल के नारी प्रबोधन की जनवादी
मुक्ति-चेतना को स्वर दिया है। कभी-कभी यह सोचकर अफसोस होता है कि गद्य के दुर्लभ
सौन्दर्य और जीवन-पर्यवेक्षण की सूक्ष्मग्राही दृष्टि के
बावजूद, महादेवी ने कोई उपन्यास नहीं लिखा। यदि वे ऐसा
करतीं तो निस्संदेह हिन्दी साहित्य में भी आज शायद आशापूर्णा देवी की सत्यवती
और स्वर्णलता जैसी, या चेर्नीशेव्स्की की वेरा पाव्लोना
जैसी प्रतिनिधि स्त्री-चरित्र मौजूद होती। कहा जा सकता है कि अपने देशकाल में उमा
नेहरू और कमला देवी चौधरी से लेकर स्वयं महादेवी तक जो स्त्री चरित्र थे और राष्ट्रीय
आन्दोलन में भागीदारी करने तथा सामाजिक रूढि़यों से टकराने वाली स्त्रियों का जो
विशाल समुदाय मौजूद था, उनका प्रतिनिधित्व करने वाले
प्रतिनिधि स्त्री-चरित्र अपने परिवेश और जद्दोजहद के साथ तत्कालीन स्त्री-लेखन
के पटल पर सही ढंग से अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज करा सके। लेकिन जहाँ तक वैचारिक
लेखन का प्रश्न है, स्त्री-प्रश्न पर उस समय काफी कुछ
लिखा गया। महादेवी का लेखन इसी समृद्ध परम्परा की अग्रतम कड़ी था।
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम और बीसवीं शताब्दी के
प्रारम्भिक वर्षों में हिन्दी की आदि स्त्री कथाकार बंग महिला ने साहस के साथ
अपनी कहानियों और लेखों में पुरुष वर्चस्व के खिलाफ और स्त्री-उत्पीड़क रूढि़यों-मान्यताओं
के खिलाफ आवाज़ उठाई। बंग महिला ने पुराणपंथी साहित्य-पण्डितों और सम्पादकों के
कोप का ही नहीं, बल्कि कई बार तो महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचन्द्र शुक्ल की
तीव्र असहमतियों और विरोध का सामना करते हुए भी स्त्रियों पर लादे जाने वाले नैतिक
नियमों के बंधनों, विधवाओं की स्थिति, स्त्री-शिक्षा
सम्बन्धी वर्जनाओं और पुरुष-प्रधान पारिवारिक-सामाजिक ढाँचे में स्त्री की
पराधीनता पर प्रश्न उठाये।
विशेषकर प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हिन्दी प्रदेश में स्त्री
स्वातंत्र्य की नयी चेतना की जो लहर दिखायी देती है, वह बंग महिला की स्त्री-मुक्ति चेतना और सामाजिक सरोकारों का ही विस्तार
थी। उन्नीसवीं शताब्दी के पुरुष समाज सुधारकों ने स्त्रियों की दुरवस्था पर
करुणा और सहानुभूति के साथ विचार किया था और सुधार पर बल दिया था। इसके विपरीत,
स्त्री-मुक्ति चेतना की जो नई लहर बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक
में उठी, वह स्त्री समुदाय के भीतर से उठी मुक्ति की नयी
आकांक्षा की परिणति थी। इस लहर ने स्त्रियों की पराधीनता और पुरुष-वर्चस्ववाद के
हर रूप को ज़्यादा प्रखरता से उजागर किया और इसके विरुद्ध मुखर विद्रोह का स्वर
ऊँचा उठाया। उस दौर की हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट हो
जाती है कि इस आन्दोलनात्मक सांस्कृतिक-सामाजिक लहर पर राष्ट्रीय आन्दोलन की
विभिन्न धाराओं-उपधाराओं का स्पष्ट प्रभाव मौजूद था। 1909 में प्रयाग से रामेश्वरी
नेहरू के सम्पादन में शुरू हुई पत्रिका 'स्त्री दर्पण'
हिन्दी प्रदेश में स्त्री आन्दोलन की पहली और सबसे महत्वपूर्ण
पत्रिका थी। इसमें तत्कालीन वामपंथी विचारक सत्यभक्त, राधामोहन
गोकुल, रमाशंकर अवस्थी आदि के साथ हिन्दी की पहली नारीवादी
विचारक उमा नेहरू और हृदयमोहनी, हुक्मा देवी, सत्यवती और सौभाग्यवती आदि लेखिकाएँ स्त्रियों की पराधीनता के विविध
पक्षों पर नियमित रूप से लेख लिखती थीं तथा स्त्रियों के सामाजिक-राजनीतिक
अधिकारों का मुद्दा प्रखरता के साथ उठाती थीं। गत शताब्दी के शुरुआती तीन दशकों
के दौरान 'स्त्री दर्पण', 'गृहलक्ष्मी',
महिला सर्वस्व', और 'चाँद'
के अतिरिक्त 'सरस्वती', 'प्रभा', 'प्रताप', 'अभ्युदय',
'मर्यादा', 'सुधा', 'माधुरी'
आदि सभी अग्रणी पत्रिकाओं में स्त्री प्रश्न पर विचारोत्तेजक लेख
नियमित रूप से प्रकाशित होते थे और नारी जीवन विषयक सामाजिक प्रश्नों और
सैद्धान्तिक मुद्दों पर गम्भीर एवं लम्बी बहसें चलती थीं जिनमें बहुतेरी लेखिकाएँ
भागीदारी करती थीं। उस समय स्त्री प्रश्न पर चिंतन की एक धारा वह
सुधारवादी-उदारवादी धारा थी जो आर्यसमाज के सामाजिक आन्दोलन और गाँधी के विचारों
से प्रभावित थीं। एक दूसरी धारा उमा नेहरू जैसी रेडिकल नारीवादियों की थी जो मध्यवर्गीय
रैडिकलिज़्म और यूरोपीय नारी आन्दोलन से, विशेषकर 1905 से
चल रहे नारी मताधिकार आन्दोलन से प्रभावित थी। तीसरी धारा देशज चरित्र वाली
क्रान्तिकारी जनवादी एवं प्रगतिशील धारा थी, जो स्वतंत्राता-समानता-भातृत्व
के जनवादी सिद्धान्तों को स्त्रियों के ऊपर भी लागू करने पर बल देती थी तथा यह
मानती थी कि पुरातनपंथी सामाजिक रूढि़यों से मुक्त होकर स्त्रियों को बराबरी एवं
सम्मान का दर्जा दिये बिना राष्ट्रीय मुक्ति की परियोजना अपने समग्र एवं वास्तविक
रूप में कभी भी साकार नहीं हो सकती। इस धारा के अग्रणी चिन्तक राधामोहन गोकुल थे,
जो एक प्रचण्ड, निर्भीक, जुझारू, भौतिकवादी चिन्तक थे। तीसरे दशक से लेकर
चौथे दशक के प्रारम्भ तक स्त्री प्रश्न पर लिखे गये गोकुलजी के लेख अपने
निर्भीक एवं सूक्ष्म विश्लेषण की दृष्टि से आज भी अतुलनीय प्रतीत होते हैं।
स्त्री-प्रश्न पर महादेवी के चिन्तन में हमें
उपरोक्त तीनों धाराओं के सकारात्मक पक्षों का संश्लेषण नजर आता है। राजनीतिक
विचारों की दृष्टि से महादेवी राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा के निकट थीं
लेकिन सहानुभूति क्रान्तिकारियों के साथ भी थी। इस दृष्टि से उनके विचार गणेश शंकर
विद्यार्थी के निकट प्रतीत होते हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन और सामाजिक जीवन में
भागीदारी विषयक विचारों में उनकी निकटता गाँधी के साथ दिखती है, लेकिन दूसरी ओर सामाजिक रूढि़यों के ध्वंस के मामले में उनके विचार एकदम
अडिग एवं स्पष्ट थे। स्त्रियों की स्थिति के मामले में अतीत एवं धर्म के
आदर्शीकरण की प्रवृत्ति उनमें लेशमात्र भी देखने को नहीं मिलती। वे नये के निर्माण
के लिए पुरातन के ध्वंस का पक्ष लेती हैं और अतीतोन्मुखता की बजाय भविष्योन्मुख
दृष्टि की बात करती हैं। उमा नेहरू का यूरोप-प्रेरित नारीवाद उच्चमध्यवर्गीय
अभिजात स्त्रियों के बीच ही सहज स्वीकार्य हो सकता था। महादेवी जब स्त्री जीवन
की समस्याओं की बात करती हैं तो उच्च मध्य वर्गीय शिक्षित स्त्रियों, परम्परापाश में जकड़ी आम मध्यवर्गीय घरेलू स्त्रियों और किसान-मज़दूर
परिवारों की स्त्रियों - इन तीनों ही की अलग-अलग समस्याओं और साझा समस्याओं की
चर्चा करती हैं। उनकी सैद्धान्तिक विवेचना व्यावहारिकता की जमीन से कभी पृथक नहीं
होतीं। उनकी विषयवस्तु अमूर्त नारी प्रश्न नहीं है। उसे वे अपने समय व समाज के
सन्दर्भ-चौखटे में अवस्थित करके देखती है। स्त्री-प्रश्न विषयक महादेवी का चिन्तन
मुख्यत: अपने समाज की आन्तरिक गति से पैदा हुआ है। स्वतंत्रता और समानता के
यूरोपीय प्रबोधनकालीन विचार यहाँ बाह्य प्रभाव के रूप में नहीं बल्कि पुन-संस्कारित
देशज और लोकग्राह्य रूप में नजर आते हैं। इस मायने में महादेवी के विचारों की
निकटता उमा नेहरू की अपेक्षा राधामोहन गोकुल की धारा के साथ अधिक प्रतीत होती है।
बाह्य वैचारिक समानता की यदि बात करें तो स्त्री मुक्ति विषयक महादेवी केविचारों
की निकटता यूरोपीय स्त्री-चिन्तकों की अपेक्षा उन्नीसवीं शताब्दी के जुझारू
भौतिकवादी और क्रान्तिकारी जनवादी रूसी चिन्तक निकोलाई चेर्नीशेव्स्की के साथ
बनती है जिन्होंने 'क्या करें' उपन्यास
में अप्रतिम स्वतंत्र व्यक्ति एवं स्वप्नद्रष्टा संघर्षशील स्त्री चरित्र के
रूप में अपनी नायिका वेरा पाव्लोना की सृष्टि की।
महादेवी ने न केवल स्त्रियों की सामाजिक-पारिवारिक पराधीनता
का प्रश्न उठाते हुए सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी तथा उनके आर्थिक स्वातंत्र्य
पर बल दिया और इससे जुड़ी सभी बाधाओं-समस्याओं की चर्चा की। उन्होंने न केवल
स्त्रियों की पराधीनता के चलते हुई सामाजिक-सांस्कृतिक विकृतियों की चर्चा की, बल्कि इसके साथ ही उन्होंने इस स्थिति से उत्पन्न स्त्रियों के
आत्मिक-वैचारिक संकुचन और अस्मिता के लोप की ऐतिहासिक त्रासदी को भी रेखांकित
किया। स्त्रियों की स्वतंत्र पहचान के अभाव या व्यक्तित्वहीनता की विडम्बना या
अस्मिता के लोप पर विचार करते हुए अस्मितावादी राजनीति के विचारकों-पक्षधरों के
समान, महादेवी अनैतिहासिक रुख नहीं अपनातीं। स्वतंत्र
अस्मिता के अभाव के प्रश्न की पड़ताल वे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और
सामाजिक-सांस्कृतिक रूढि़यों की ऐतिहासिक निरन्तरता से जोड़कर करती हैं। इसलिए
महादेवी का स्त्री मुक्ति विषयक चिन्तन अपार आक्रोश वाला अकर्मक नारीवाद नहीं,
बल्कि तर्कसंगत प्रतिरोध की गम्भीरता से युक्त सकर्मक चिन्तन है।
निश्चय ही, वे बने-बनाये नुस्खे-फार्मूले नहीं सुझातीं या
मुक्ति का कोई यूटोपिया नहीं प्रस्तुत करती हैं। इसके बजाय वे सामने उपस्थित समस्याओं
का ऐसा सांगोपांग विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं, जिनके बीच
से स्त्री मुक्ति की एक परियोजना और उसका एक मार्ग आकार लेता प्रतीत होता है।
स्त्री-पुरुष समानता का अर्थ महादेवी के लिए यह कदापि नहीं
है कि स्त्रियाँ हर मायने में पुरुषों के जैसा होने का प्रयास करें। वे एकाधिक स्थानों
पर स्त्रियों और पुरुषों की अलग-अलग विशेषताओं को रेखांकित करती हैं। उत्पीड़न को
जन्म देने वाली सामाजिक असमानताओं और स्त्रियों को हेय बताकर उस उत्पीड़न का
पक्ष-पोषण करने वाले सांस्कृतिक मूल्यों के निर्मूलन के बाद भी स्त्री-पुरुष की
जैविक भिन्नता से उत्पन्न स्वभावगत भिन्नताएँ व विशिष्टताएँ तो मौजूद रहेंगी
ही। बल्कि यूँ कहा जा सकता है कि इन भिन्नताओं की समाप्ति तो समाज से वैविध्य
एवं प्रतिकूलता के सौन्दर्य की समाप्ति होगी। महादेवी का स्पष्ट विचार है कि
समानता के लिए संघर्ष का यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्त्रियाँ हर मायने में पुरुषों
जैसा होने की कोशिश करें। वह अनुकरण उन्हें उनकी स्वतंत्र अस्मिता की स्थापना
की दिशा में नहीं बल्कि एक अन्य रूप में लोप की दिशा में ही ले जायेगा। यहाँ स्त्री
की अस्मिता के प्रश्न को महादेवी बुर्जुआ नारीवाद की मुख्य धाराओं से एकदम अलग
रूप में देखती हैं और अपने अलग तरीके से स्त्री होने के अर्थ का संधान करती
प्रतीत होती हैं।
ऊपरी तौर पर देखने पर यह एक अजीब-सी बात लगती है कि स्त्री-प्रश्न
विषयक निबन्धों में जहाँ महादेवी का एक प्रखर स्वतंत्रचेता रूप सामने आता है, वहीं छायावादी नारी-बोध वाली उनकी कविताएँ स्त्रियों के एकात्म प्रेम,
उनकी पीड़ा, असहायता और अवसाद की अभिव्यक्ति
में आगे नहीं जा पातीं। पहले मुझे भी वह अन्तरविरोध विचित्र और अव्याख्येय
प्रतीत होता था। लेकिन गहराई से सोचने पर लगता है कि यह कोई विसंगति नहीं है। यह
अन्तरविरोध एक एकल विचार-सरणि के दो प्रतिकूल पक्षों के अन्तरसंघर्ष के रूप में
देख जाना चाहिए। इन्हीं प्रतिकूल पक्षों का टकराव महादेवी की विचार-प्रक्रिया की
आन्तरिक गति है। अन्तरविरोध हर बड़े रचनाकार के कृतित्व में होता है और ये अन्तरविरोध
वस्तुत- युगीन सामाजिक अन्तरविरोधों को परिवर्तित कर रहे हैं। तोल्स्तोय ओर
दोस्तायेव्स्की हों, प्रेमचंद और निराला हों या महादेवी
हों कोई भी इन अन्तरविरोधों से मुक्त नहीं रहा। महादेवी ने एक स्त्री के लिए
समय और समाज द्वारा बाँधी गयी चौहद्दी में जीते और रहते हुए स्त्री होने के अर्थ
का सन्धान किया और और मुक्ति के प्रश्न पर हर पहलू से विचार किया। उनके जीवन के
समक्ष युगीन रंगमंच की अवश करने वाली सीमाएँ थीं और विचारों के लिए उड़ान भरने को
भविष्य का क्षितिज। कहा जा सकता है कि इन्हीं में से पहला पक्ष महादेवी के काव्यबोध
को जन्म देता है और दूसरा पक्ष उनके स्त्री प्रश्न विषयक निबन्धों की
वैज्ञानिक, वस्तुपरक एवं निर्भीक तर्कसंगति में अभिव्यक्त
होता है। एक अन्य धरातल पर सोचते हुए यह भी कहा जा सकता है कि स्त्री-जीवन की
त्रासदी एवं विडम्बना की अनुभूति या अवबोध का पक्ष (परसेप्चुअल आस्पेक्ट) यदि
महादेवी की कविताओं में सामने आता है तो उनका अवधारणात्मक पक्ष (कंसेप्चुअल आस्पेक्ट)
उनके निबंधों में प्रकट होता है।
अब महोदवी के इस अन्तरविरोध को समझने के लिए एक तीसरे सन्दर्भ
चौखटे का सहारा लें। हमें कबीर और कई अन्य निर्गुण सन्तों में भी एक अन्तरविरोध
देखने को मिलता है जो वास्तव में एक ही चिन्तन सरणि की आन्तरिक गति के दो
पक्षों को प्रकट करता है। कहीं तो वे इहलोक की ठोस समस्याओं-रूढि़यों, पाखण्ड, अन्धविश्वास और अन्याय से टकराते हुए
चुनौती की भाषा में बात करते हैं, फिर कहीं मानो स्वयं को
निरूपाय-सा महसूस करते हुए, अवसाद या विरक्ति में डूबे हुए
पारलौकिक दुनिया का संधान करते हुए रहस्यवाद में शरण ढूँढ़ते प्रतीत होते हैं। हर
सामाजिक-वैचारिक संघर्ष में हार-जीत, आशा-निराशा के अवरोह
आते हैं और सच्चे और बड़े रचनाकार वही हैं जिनका रचना-जगत इन दोनों पक्षों की इन्दराजी
करे। महादेवी की कविताओं के मूल स्वर और उनके स्त्री-प्रश्न विषयक निबंधों के
बीच के अन्तरविरोध को इसी रूप में देखा जा सकता है।
और अन्त में इस अन्तरविरोध को देखने का चौथा कोण प्रस्तावित
है। महादेवी की कविताओं का छायावादी नारीबोध, स्त्रियों के एकात्म
प्रेम, पीड़ा, असहायता और अवसाद की
केन्द्रीय अभिव्यक्ति के बावजूद ऐतिहासिक दृषि से स्त्री होने के अर्थ के सन्धान,
स्त्री के स्वतंत्र वजूद की तलाश के उसी व्यापक उपक्रम का एक अंग
है, जिसके अन्तर्गत महादेवी का वैचारिक गद्य लेखन आता है।
इन कविताओं की स्त्री रीतिकालीन नायिका नहीं है, न ही इनका
सौन्दर्यबोध और विधान ही रीतिकालीन है। ये अभिव्यक्तियाँ एक स्वतंत्र व्यक्तित्व
वाली स्त्री की प्रेमानुभूतियों की, कामनाओं की, पीड़ाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में
यूरोपीय स्वच्छन्दवादी काव्यधारा की प्रेमकविताएँ जिन ऐतिहासिक अर्थों में
प्रगतिशील थीं, उन्हीं अर्थों में छायावादी दौर की प्रेम की
कविताओं में भी प्रगतिशीलता का पहलू था। महादेवी के समय और समाज में वैयक्तिकता का
बोध और प्रेम की अभिव्यक्ति भी एक सामाजिक विद्रोह था और एक स्त्री के लिए तो
खासतौर पर। महादेवी की कविताओं का मूल स्वर आकुल प्रतीक्षा, सघन अवसाद, गहन पीड़ा और यदा-कदा असहायता की अभिव्यक्ति
के बावजूद एक ऐसी स्त्री का स्वर है जिसका अपना वजूद है और जिसमें अपने प्रेम को,
अपनी आशा-निराशा को प्रकट करने का साहस है। वह रीतिकालीन नायिका
नहीं है। इन कविताओं का सौन्दर्य विधान भी रीतिकाल जैसा नहीं, बल्कि उसके ठीक विपरीत है। इस दृष्टि से आज महादेवी की कविताओं के भी
पुनर्पाठ की आवश्यकता है। महादेवी ने स्त्री होने के अर्थ का जो सन्धान अपने
युगीन सन्दर्भों में किया, उसी व्यापक उपक्रम के अलग-अलग पक्ष हमें उनके काव्य और गद्य में देखने को मिलते हैं।
('अदहन' के नवम्बर-दिसम्बर
2016 अंक में प्रकाशित)