Wednesday, April 4, 2018

रजनी तिलक

 
रजनी तिलक (27 मई 1958-30 मार्च 2018)


रजनी तिलक के बारे में जितना सोचता हूं, उनके प्रति सम्मान बढ़ता जाता है। उन्होंने जो काम किए और जो काम वे कर रही थीं, वे उन्हें साहित्य और समाज के सच्चे अध्येताओं, शोधकर्ताओं और सोशल एक्टिविस्ट्स की श्रेणी में रखने वाला है। वे कवयित्री थीं, कहानियां लिखती थीं, सामाजिक मसलों पर लेखन करती थीं। वे एक सोशल एक्टिविस्ट थीं। इस तरह की उनका लेखन और उनका एक्टिविज़्म आपस में घुले-मिले थे। अगर वे सिर्फ अपनी कहानियां-कविताएं लिखने की भूमिका तक ही रहतीं और अगर वे सिर्फ सोशल एक्टिविस्ट तक ही सीमित रहतीं तो भी उन्हें सम्मान से ही याद किया जाता। लेकिन, उनकी बेचैनियां, उनके सरोकार स्त्रियों और इस दुनिया के वंचित तबकों के लिए इतने गहरे और इतने खरे थे कि वे बहुत से कामयाब सवर्ण, दलित और स्त्री साहित्यकारों की तरह करियरिस्ट या आत्मकेंद्रित लेखिका-कवयित्री या सिम्बोलिक एक्टिविस्ट होकर संतुष्ट रह ही नहीं सकती थीं। वे आगे के काम का रास्ता बनाने के लिए उस काम को सामने लाने में जुटी रहीं जिस पर उपेक्षा की धूल जमी थी। खासकर हिंदीभाषी इलाकों में। वे उन लेखिकाओं, नायिकाओं के जीवन और काम को हमारे सामने लाने में लगी रहीं जिन्होंने स्त्रियों, दलित स्त्रियों, वंचित तबकों, सामाजिक बराबरी और समूची मानवता के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया था।

यह सच है कि हिंदी पट्टी में सावित्री बाई फुले का नाम और तस्वीरें सवर्ण बुद्धिजीवियों-नेताओं की बदौलत नहीं आईं बल्कि दलित राजनीति के उभार के साथ फैलीं। लेकिन, तस्वीरों से आगे उनके काम औऱ विचारों को फैलाने का काम करने वाले बुद्धिजीवियों में रजनी तिलक अग्रणी हैं। किताबों के जरिये भी और घूम-घूमकर लोगों से संवाद के जरिये भी। ऐसी कई दूसरी नायिकाओं के जीवन और काम को लेकर उन्होंने लिखा, उनके विचारों को फैलाया, उनके अनुवाद किए। स्त्रियों, दलितों और दूसरे कमजोर तबकों के मानवाधिकार हनन से जुड़े कितने मामलों में वे बतौर एक्टिविस्ट दौड़ती रहीं और इन मामलों की पड़तालों के तथ्यात्मक दस्तावेज तैयार करने में योगदान देती रहीं। मुझे लगता है कि रेशम के कीड़े की तरह एक खोल में दम तोड़ देने वाले कथित साहित्यकारों के काम से ज्यादा मूल्यवान तो ये दस्तावेज ही ठहरते हैं। और असल में वे, उनका जीवन औऱ उनका यह काम सामाजिक न्याय, बराबरी या बेहतर बदलावों में यकीन रखने वाले लेखकों और राजनीतिज्ञों के लिए उदाहरण की तरह भी है कि एक बड़ा और वास्तविक काम क्या है जिससे आगे की लड़ाइयों के लिए खड़े होने जगह बनती है।

सामाजिक न्याय की लड़ाइयों के विभिन्न रास्तों से रजनी तिलक का तालमेल, उन्हें समझने की कोशिशें और उनसे असर लेने व उन पर असर डालने की उनकी क्षमता अद्भुत रही। वे कोरी फेमिनिस्ट या दलित फेमिनिस्ट नहीं थीं। मजदूरों, सफाईकर्मियों और सीवर सफाईकर्मियों आद् के पक्ष में वे लगातार मुखर रहीं। उन्होंने महिलाओं के आरक्षण के सवाल पर आरक्षण के भीतर आरक्षण के महत्व को भी समझा और बिना झिझक के साथ इसे रखा। पॉपुलर प्रगतिशील दायरों में दलितों, अदिवासियों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों और वंचित तबकों की स्त्रियों को लेकर रही ग्रन्थियों को चिह्नित किया तो दलित लेखन में मौजूद पितृसत्ता जैसी बीमारियों से भी संघर्ष किया। धर्मवीर जैसे स्त्रीद्वेषी दलित लेखकों से भी उन्होंने टक्कर ली और इस बात को हमेशा खारिज किया कि स्त्री शोषण या पितृसत्ता सिर्फ सवर्णों की बीमारियां हैं। ऐसी स्त्री का दलित लेखक संघ की अध्यक्षा होना दलित लेखक संघ के लिए भी महत्व की बात थी।

किसी के निधन के बाद उसकी अंतिम य़ात्रा में जुटे लोगों की संख्या से किसी मनुष्य का महत्व साबित नहीं होता है। प्रेमचंद और दुनिया के कई लेखकों और हमारे आसपास के ही बहुत से खरे मनुष्यों के मरने पर अनेक बार मुट्ठी भर लोग जुटते हैं। लेकिन, रजनी तिलक के निधन पर आई श्रद्धांजलियों और उनकी अंतिम यात्रा के मौके पर जुटने वालों का जिक्र बताता है कि उनकी स्वीकार्यता व्यापक थी और वे प्रगतिशील हलकों में भी पाई जाने वाली संकीर्ण जगहों से न सिर्फ ऊपर थीं बल्कि एक सेतु की तरह थीं। आम्बेडकरवादी दलित एक्टिविस्टों, छाज्ञ-छात्राओं के साथ बड़े साहित्याकर, वृंदा कारत जैसी पॉलिटिशयन और तमाम महिला बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट, लेखक संघों के पदाधिकारी उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे।

और यह जिक्र सबसे बाद में जो सबसे पहले भी महत्वपूर्ण है कि एक साधारण जाटव परिवार से ताल्लुक रखने वालीं रजनी तिलक का जीवन सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक संघर्षों से जूझते हुए शुरू होता है। यूपी के बुलंदशहर इलाके में उनके दादा की ज़मीन दबंग राजपूत कब्जा लेते हैं तो यह जाटव परिवार पलायन कर दिल्ली आ जाता है। दिल्ली में उनके दादा तांगा चलाते हैं और 1947 में अंग्रेज उन्हें शव ढोने का काम देते हैं। पुरानी दिल्ली में जामा मस्जिद के पास के इलाके में रहने वाले उनके पिता दर्जी हैं और कागज के लिफाफे बनाने वाली उनकी मां मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाती हैं। वे चाहते हुए भी ढंग से पढ़ पाने से वंचित हो जाती हैं और अपने बड़े भाई मनोहर के साथ मिलकर पांच छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी संभाल लेती हैं जिनमें से अनीता भारती और अशोक भारती तो पढ़ने-लिखने वालों की दुनिया में आज परिचित नाम हैं। इतने कठिन जीवन में भी वे राजनीतिक-सामाजिक चेतना से लैस रहती हैं या कहें कि उनकी परिस्थितियां इसकी ज़मीन या अनिवार्यता बनाती हैं। बड़े भाई की वजह से वामपंथ के असर में आती हैं। आंबेडकर और दूसरे दलित बुद्धिजीवियों को पढते हुए दलित आंदोलन से जुड़ती हैं। और आजन्म बेहतर दुनिया के लिए संघर्षरत रहती हैं।

2 comments:

Anonymous said...

रजनी तिलक का न रहना दलित संघर्षों की राह में एक अचानक खालीपन तो है लेकिन इसे भरती वो जिजीविषा ही है जिसकी रजनी एक अप्रतिम मिसाल रही हैं. हम लोग अपने सच्चे आंदोलनकारियों को बहुत कम जानते हैं. उन्हें समझना तो और भी मुश्किल मुख्यधारावादियों के लिए होता जाता है. रजनी तिलक के जीवन संघर्ष को सलाम. इस लेख के ज़रिए प्रेरणा तो ये लें कि इन धूल मिट्टी खून से सराबोर लड़ाइयों को अपनी दृष्टि और कर्म में संयोजित करें और एलिनर मार्क्स, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, सिमोन द बुआ, सावित्री बाई, माया एंजेलू, डोरा रसल, राफ़िदा अहमद बोनिया, अरुंधति रॉय जैसी बहुत कार्यकर्ताओं, लेखकों, कवियों, रंगकर्मियो, चिंतकों, राजनीतिज्ञों, नागरिकों की उस ऐतिहासिक परंपरा का मनन करें जिसकी एक कड़ी रजनी तिलक से निर्मित होती है.

शिवप्रसाद जोशी

HARSHVARDHAN said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पंडित माखनलाल चतुर्वेदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।