“मैं सोचता हूं कि मुझे संगीत पसंद है क्योंकि
इसका नैतिकता से बहुत थोड़ा सा लेनादेना है. बाकी हर चीज़ नैतिक या अनैतिक है और
मैं ऐसी चीज़ की तलाश में हूं जो नैतिक न हो. नैतिकता ने हमेशा मुझे तड़पाया ही
है.”
(जर्मन लेखक हरमन
हेस्से के उपन्यास ‘डेमिआन’ का प्रमुख किरदार)
टीएम कृष्णा बिना
गाए कैसे रहेंगे. गाना उनके लिए धर्म से ज्यादा राजनीति है. वो उनकी पॉलिटिक्ल
कार्रवाई है. सो ये तो तय है कि 17 तारीख वे गाएंगे. भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण
ने हाथ खींच लिए और स्पिक मैके को अकेला छोड़ दिया तो क्या हुआ- मनीष सिसोदिया और
दिल्ली सरकार ने कृष्णा को बुला लिया. तो वे तो गाएंगे ही. वेबसाइट के मुताबिक
यह प्राधिकरण भारत सरकार का मिनी रत्न है- श्रेणी एक.
सवाल यह है कि आख़िर
यह कितने रोज चलेगा. संगीत करने नहीं देंगे, लिखने नहीं देंगे, पेटिंग नहीं बनाने
देंगे, भाषण नहीं होने देंगे, खाने पहनने या सोने नहीं देंगे, बाहर निकलने नहीं
देंगे, नमाज नहीं पढ़ने देंगे, दाढ़ी नहीं रखने देंगे, सिर उठाकर नहीं चलने देंगे,
सिर झुकाकर नहीं चलने देंगे, गरज ये कि वो कुछ भी नहीं करने देंगे जो हम आप करना
चाहते हैं- अपनी मर्जी से. मर्जी पर मालिकाना बदल रहा है. वे मार रहे हैं,
गिरफ्तार कर रहे हैं, धमका रहे हैं, कपड़े फाड़ रहे हैं, आग लगा रहे हैं, पीछा कर
रहे हैं, घेर रहे हैं, न बोलने न कहने दे रहे हैं. वे कह रहे हैं कि गाओ पर गाते
हुए बोलो मत, वे कह रहे हैं लिखो लेकिन लिखते हुए सोचो मत, वे कह रहे हैं तस्वीरें
खींचों लेकिन उनमें अर्थ न पकड़ो. वे कह रहे हैं पेंटिंगे बनाओ, नाटक करो, सिनेमा
करो, फेसबुक या ट्वीट करो लेकिन ये अपने लिए नहीं खिदमत में करो. वे ये भी कहते
हैं: अहिंसा?!
यह क्या है, क्या
होता है इससे?! इस तरह शायद ऐसा पहली बार हुआ जान पड़ता है कि देश की एक बड़ी आबादी
संभावित या घोषित देशद्रोह के दायरे में है.
‘टीएम कृष्णा
देशद्रोही हैं, राष्ट्रविरोधी बातें करते हैं’- सोशल मीडिया कीटाणु कहते हैं. बहुत लंबे
समय बाद भारतीय संगीत परंपरा में एक सचेत और साहसी ज्ञाता-गायक का उदय हुआ है.
अपनी धुन के गायक तो बहुत हुए हैं, और अपनी रागकारी के उस्ताद भी- लेकिन 21वीं सदी
का एक शास्त्रीय गायक आधुनिकता का ऐसा विलक्षण पैरोकार और ऐसी ज़िद्दी प्रकांड है
कि किसी की सुनता नहीं. उसने कर्नाटक संगीत के मठों को हिला दिया, सवर्णवादी और
ब्राह्मणवादी शास्त्रीय संरचनाओं में खलबली मचा दी. वो मंचो की श्वेतश्याम आभाओं
और दिव्यताओं से खिन्न होकर उठा और अपने संगीत और अपने साज को लेकर साधारण जनों की
बस्तियों में जाकर गाने लगा. एक आधुनिक फकीर. टीएम कृष्णा और मछुआरा समुदाय
की मिलीजुली कोशिशों से संगीत का सालाना उर्स भारतीय शास्त्रीय और कर्नाटक संगीत
की उल्लेखनीय घटना बनती है. उरुर ओल्कोट कुप्पम चेन्नई के पास मछुआरों का एक गांव
है. जब कृष्णा को चंद साल पहले मैगसायसाय अवार्ड मिला था तो अतिरेकी मीडिया में
आयाः संगीत को स्लम यानी झुग्गी झौपड़ियों तक ले जाने वाले को पुरस्कार. मछुआरा
समुदाय ने ऐसी रिपोर्टिंग पर कड़ा एतराज जताया था. उनका कहना था भाई स्लम क्या
होता है और क्या देखा है तुमने हमारा स्लम? खैर चालबाज मीडिया यही करेगा. उसे गोदी मीडिया
भी नहीं कहना चाहिए. गोद एक पवित्र और संवेदनशील शब्द है, वह मातृत्व से जुड़ा एक
कोमल भाव है. हमें विशेषण या क्रिया विशेषण बनाते हुए या नये वाक्यांश बनाने के
मोह में ऐसे भटकावों से बचना चाहिए. लेकिन गोदी मीडिया कहने वाले भी तो कितने
ठहरे. खैर..कृष्णा ने कह दिया कि स्टेज कहीं पर भी हो वे तो गाएंगें और ऐसी
धमकियों से डरेंगे नहीं.
मान्य तौर पर उनके
तेवर देखकर कोई कहेगा अरे कृष्णा तो विद्रोही है. लेकिन ये विद्रोह नहीं है
पाठको, यही तो स्वाभाविकता है. एक कलाकार से अपेक्षित यही तो है- यह तो उसकी
सामान्य चर्या है कि वो अपने मन का और अपने ढंग का गाए. हमारा समय इतना एकजैसा और
इतना झुका हुआ और इतना डरा हुआ और इतना मेजोरिटेरियन बना दिया गया है कि हमें लगता
है कृष्णा विद्रोही हुए, जैसे कि स्लम जाकर विद्रोही हुए. वे विद्रोही
उतने नहीं जितने कि वैचारिक आलसी और वैचारिक अकर्मण्यता के शिकार हम हैं- हम में
से ज्यादातर लोग. हम सुन्न हैं. और कृष्णा का स्टैंड हमें सन्न करता है. जर्मन
उपन्यासकार हरमन हेस्से ने अपने विख्यात नॉवेल “डेमिआन” के बारे में लिखा थाः “युवाओं के लिए ये एक
कठिन समय है. लोगों की निजता को यथासंभव प्रतिबंधित करते हुए उन्हें एक जैसा बनाने
की एक व्यापक आकांक्षा हर जगह दिखती है. मनुष्य आत्मा स्वाभाविक तौर पर इस धक्के
के खिलाफ विद्रोह कर उठती है, डेमिआन की यात्रा की बुनियाद यही है.” अरुंधति रॉय ने
बांग्लादेशी फोटोग्राफर शहीदुल आलम की गिरफ्तारी के बाद उनके नाम
एक खुली चिट्ठी रवाना की है. पेन नाम की अंतरराष्ट्रीय लेखन बिरादरी की पहल पर ये
चिट्ठी अभियान पूरी दुनिया में चला है. और भी कई बंदी और मृत लेखकों को भी याद
किया जा रहा है और एकजुटता की एक वैश्विक मिसाल देखने को मिलती है. अरुंधति ने
चिट्ठी में बताया कि कैसे ये बुद्धिजीवियों पर नहीं बल्कि बुद्धिमानी पर- प्रज्ञा
और सहज बुद्धि पर हमला हो रहा है.
और क्या बांग्लादेश
क्या पाकिस्तान क्या भारत और क्या जापान क्या चीन क्या यूरोप क्या अमेरिका.. पूरी
दुनिया की छत पर बूटों की धम्मधम्म सुनाई देती है. धूल उड़ाते हुए चुनाव हैं और
इनके ठीक पीछे रथों का रेला है. उनके पीछे दस्ते हैं और सबसे पीछे घिसटती हुई
निरीहताएं हैं. लेकिन धूल का ये गुबार छंटे और बवंडर जरा देर थमे तो दिखे कि दूर
किनारों पर बहुत से लोग खड़े हैं. कोई लिख रहा है, कोई बोल रहा है, कोई चित्र बना
रहा है, कोई पढ़ता और सुनाता है, कोई भाषण दे रहा है, कोई नृत्य कर रहा है कोई
नाटक, कोई खाना पका रहा है कोई खा रहा है कोई खेल रहा है कोई बच्चों के बीच है कोई
गा रहा है- वहीं कहीं टीएम कृष्णा और उन जैसे रचनाकार भी हैं. यानी बूटों और
संगीनों की धम्म धम्म के नीचे प्रतिरोध की आवाज़ें 20वीं हो या 21वीं- सदी दर सदी
कायम है.
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वरिष्ठ पत्रकार और प्रखर विचारक शिवप्रसाद जोशी विलक्षण गद्य लिखते हैं, उनके पास शानदार कविताएं हैं और अपने लिखे को छुपाए रखने की नैतिक जगह है।