भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार समारोह में शुभम श्री आई नहीं थीं। अच्युतानंद मिश्र पहले ही कविता पढ़ चुके होंगे। अदनान कफ़ील दरवेश पढ़ रहे थे। उनकी तस्वीरों और कविताओं से तो परिचय था पर उन्हें रूबरू सुनने का यह पहला मौक़ा था। उन्हें पढ़ना जितना अच्छा लगता है, सुनना उससे भी बेहतर था। वे कविता के नाम पर अललटप कुछ भी करते हुए इस वक़्त से नज़रें चुराने वाले कवियों में नहीं हैं। वे भाषा और कविता की तमीज़ वाले कवि हैं। प्रेम, सौंदर्य, एक तरह की शाइस्तगी उनके यहाँ है पर एक गहरी बेचैनी के साथ और वे अपने वक़्त की विडंबनाओं से वाबस्ता हैं, जिन्हें वे रेटरिक का सहारा लिए बग़ैर शिद्दत के साथ बयान करते हैं।
और फिर विहाग वैभव कविता सुनाने के लिए खड़े हुए। आह! इस वक़्त ऐसा साहसी कवि! कविता सुनने से पहले उन्हें देखकर ख़ुशी हुई। जैसे किसी ज़माने में किसी कवि या लेखक को देखने से होती थी कि ये है वो शख़्स जिसका लिखा मुझे इतना पसंद है। सामने विहाग थे कविता सुनाने के लिए और पीछे श्रोताओं में ऐसे ही प्रिय कवि उनके छोटे भाई पराग पवन।
विहाग की कविता का दुर्लभ सौंदर्य उसके खरेपन में है। उस साहस में जिसका इस फ़ासिस्ट दौर में लगभग अभाव है। वे रेटरिक के कई मशहूर पूर्ववर्ती कवियों से इस तरह अलग हैं कि वे फासिस्टों को फासिस्ट कहने के लिए प्रतीकों की ओट नहीं लेते। रेटरिक के फैशनेबल कवियों की तरह उनकी कविता कोरी गुस्सैल कविता नहीं है, वह बेहद मार्मिक, संवेदनशील, अपमान और व्यथा को वहन करने वाली और चुनौती पेश करने वाली कविता है। उनकी ताक़त, उनकी संवेदना, उनके हौसले का स्रोत दालित-उत्पीड़ित जन के संघर्षों, उनके अपमानों, उनके दुखों और उनके गुस्से में है। कवि वहीं पर है। विहाग ने 'लगभग फूलन के लिए' कविता भी सुनाई जिसमें वे यह भी पूछते हैं -
"अब जब अय्याश ज़ुबानों के कथकहे फूलन को हत्यारिन कहते हैं
तब मैं पूछना चाहता हूँ गुजरात की नदियों में जिसने पानी की जगह ख़ून बहाया, वह कहाँ है
कहीं वह देश का नेतृत्व तो नहीं कर रहा ?
मैं भोपाल और मुज़फ़्फ़रनगर पूछना चाहता हूँ
बाबरी और गोधरा पूछना चाहता हूँ
उन सभी हत्या-कांडों के बारे में पूछना चाहता हूँ
जो समाजसेवा की तरह याद किये जाते रहे हैं"
दिल्ली के त्रिवेणी में हुए भारत भूषण पुरस्कार से जुड़े रज़ा फाउंडेशन के इस कार्यक्रम की बदौलत मुझे 'उर्वर प्रदेश' पढ़ने की प्रेरणा भी हुई। मर्हूम कवि भारत भूषण अग्रवाल की बेटी अन्विता अब्बी ने इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की शुरुआत किस तरह हुई, किस तरह इस पुरस्कार से जुड़े कवि भविष्य के बड़े कवि साबित हुए और किस तरह पुरस्कृत कविताओं के संग्रह शोधार्थियों के लिए मानक रेफरेंस सामग्री बन चुके हैं, वगैरा बातों पर रोशनी डाली। उन्होंने मंच पर ही विराजमान अरुण कमल की तरफ़ इशारा करते हुए बताया कि पहली ही पुरस्कृत कविता 'उर्वर प्रदेश' नाम से ही पुरस्कृत कविताओं के संग्रह निकाले गए। अशोक वाजपेयी ने गर्व से कहा कि वे यह श्रेय लेना चाहेंगे कि 'उर्वर प्रदेश' को पुरस्कृत करने का फ़ैसला उनका था। उन्होंने चयन प्रक्रिया के उस नियम का हवाला भी दिया जिसके मुताबिक निर्णायक मंडल के किसी एक सदस्य को एक वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करना होता है और बाक़ी सदस्यों को उससे सहमत होना ही होता है।
इस कार्यक्रम से लौटते ही मैंने सबसे पहला काम 'उर्वर प्रदेश' को तलाश करके पढ़ने का किया। एक बार-दो बार और बार-बार। यह स्वीकार करते हुए भी कि कविता को समझ पाने की तमीज़ मुझे नहीं है, मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि इस कविता में ऐसा क्या है जो अशोक वाजपेयी अपनी पीठ थपथपा रहे थे। यह 1980 की सर्वश्रेष्ठ कविता कैसी थी? क्या 1980 कविता की दृष्टि से इतना बंजर था?
नेट पर उपलब्ध जानकारी के मताबिक, इस कविता के पक्ष में अशोक वाजपेयी ने ये ख़ूबियाँ गिनाईं थीं - "सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, संयत कला अनुशासन, और आत्मीयता"।
यहां 'संयत कला अनुशासन' दिलचस्प है। 1980 इमरजेंसी के ठीक बाद का समय। अनुशासन इमरजेंसी का नियंत्रणकारी शब्द था। सन्त भी इमरजेंसी को अनुशासन पर्व कह रहा था और कवि भी संजय गांधी के लिए नारों में यही शब्द इस्तेमाल कर रहा था। 'दूरदृष्टि, कठिन अनुशासन...।' अशोक वाजपेयी अंतर्दृष्टि और संयत अनुशासन कह रहे हैं। सवाल यह है कि वे किस ख़तरे से घबराकर कला को कंट्रोल्ड डिसिप्लिन दायरे में देखने के हिमायती थे। उस वक़्त कविता में ऐसा क्या 'ख़तरनाक' घटित हो रहा था जो उन्हें संयत कला अनुशासन की दुहाई देकर ऐसी निष्प्राण, फुसफुसी, अनुर्वरता को मानक की तरह पेश कर पुरस्कृत करने की जरूरत पड़ी? 1980 से पहले और 1980 में कविता में देश-दुनिया में जिस तरह की सामाजिक-राजनीतिक हलचलें थीं, हिन्दी कविता में वे शानदार ढंग से मौजूद थीं। क्या यह चीज़ अशोक वाजपेयी को असंयत, अराजक, परायी और अंतर्दृष्टिविहीन लगी होगी और यह पुरस्कार 'कविता की वापसी' के नाम पर निष्प्राण-राजनीतिक दृष्टिविहीन कविता का स्पेस बनाने के लिए उठाया गया राजनीतिक पैंतरा था? ऐसा पैंतरा जिसके लिए प्रगतिशील-वाम खेमे के कहे जाने वाले उस समय के कई महत्वाकांक्षी कवियों का समर्थन आसानी से हासिल था।
नेट पर 'उर्वर प्रदेश' कविता की तारीफ़ और आलोचना में तरह-तरह की बातें मिलीं। यह भी कि कविता में अंकुर जहां नवजीवन के प्रतीक हैं, वहीं अंत में जलकुंभियां विनाशकारी-अनिष्टकारी। मैं शायद अपनी इलाक़े वाली भाषाई सीमाओं की वजह से शुरुआत में ही 'पोटली में बंधे बूटों ने फेंके हैं अंकुर' पर असहज हुआ। अपने यहां भी 'खाना डाल दो', 'बच्चे को स्कूल में डाल दो' जैसे भाषाई प्रयोग कोफ़्त पैदा करते हैं पर 'फेंके हैं अंकुर' मेरे लिए नया है। अंकुर फूटना, अंकुर निकलना और ये फेंकना! ख़ैर, ये बाल की खाल हो सकती है पर इस कविता को समझने की उत्सुकता मुझमें है और किसी अच्छे व्याख्याकार को पढ़ने की चाह भी।
कमाल की बात यह है कि 'उर्वर प्रदेश' के नाम पर जिस कविता की वापसी की कोशिश की गई होगी, वह कल मंच पर मौजूद तीनों पुरस्कृत कवियों की कविता नहीं थी। वह वही कविता थी शायद जिसे नियंत्रित-अनुशासित करने की चाह में 1980 में सारी कवायद की गई होगी।
***
अरुण कमल की कविता
उर्वर प्रदेश
मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बंधे हुए बूटों ने
फेंके हैं अंकुर
दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों, कपडों और निर्ज़न हवा की
फेंटी हुई गंध
पड़ी है चारों और धूल की एक पर्त
और जकडा है जग में बासी जल
जीवन की कितनी यात्राएं करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ।
तट की तरह स्थिर,पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल -
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बंधे हुए बूटों ने फेंके है अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
पोसते रहे ये अंकुर
खोलता हूँ खिड़कियाँ
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल-भरी तसली सा हिलाती
मुझसे बाहर
मुझसे अनजान जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है सारा संसार
आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद
आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रान्त का उर्वर प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जल्कुम्भियों का घना संसार भरे।
और फिर विहाग वैभव कविता सुनाने के लिए खड़े हुए। आह! इस वक़्त ऐसा साहसी कवि! कविता सुनने से पहले उन्हें देखकर ख़ुशी हुई। जैसे किसी ज़माने में किसी कवि या लेखक को देखने से होती थी कि ये है वो शख़्स जिसका लिखा मुझे इतना पसंद है। सामने विहाग थे कविता सुनाने के लिए और पीछे श्रोताओं में ऐसे ही प्रिय कवि उनके छोटे भाई पराग पवन।
विहाग की कविता का दुर्लभ सौंदर्य उसके खरेपन में है। उस साहस में जिसका इस फ़ासिस्ट दौर में लगभग अभाव है। वे रेटरिक के कई मशहूर पूर्ववर्ती कवियों से इस तरह अलग हैं कि वे फासिस्टों को फासिस्ट कहने के लिए प्रतीकों की ओट नहीं लेते। रेटरिक के फैशनेबल कवियों की तरह उनकी कविता कोरी गुस्सैल कविता नहीं है, वह बेहद मार्मिक, संवेदनशील, अपमान और व्यथा को वहन करने वाली और चुनौती पेश करने वाली कविता है। उनकी ताक़त, उनकी संवेदना, उनके हौसले का स्रोत दालित-उत्पीड़ित जन के संघर्षों, उनके अपमानों, उनके दुखों और उनके गुस्से में है। कवि वहीं पर है। विहाग ने 'लगभग फूलन के लिए' कविता भी सुनाई जिसमें वे यह भी पूछते हैं -
"अब जब अय्याश ज़ुबानों के कथकहे फूलन को हत्यारिन कहते हैं
तब मैं पूछना चाहता हूँ गुजरात की नदियों में जिसने पानी की जगह ख़ून बहाया, वह कहाँ है
कहीं वह देश का नेतृत्व तो नहीं कर रहा ?
मैं भोपाल और मुज़फ़्फ़रनगर पूछना चाहता हूँ
बाबरी और गोधरा पूछना चाहता हूँ
उन सभी हत्या-कांडों के बारे में पूछना चाहता हूँ
जो समाजसेवा की तरह याद किये जाते रहे हैं"
दिल्ली के त्रिवेणी में हुए भारत भूषण पुरस्कार से जुड़े रज़ा फाउंडेशन के इस कार्यक्रम की बदौलत मुझे 'उर्वर प्रदेश' पढ़ने की प्रेरणा भी हुई। मर्हूम कवि भारत भूषण अग्रवाल की बेटी अन्विता अब्बी ने इस प्रतिष्ठित पुरस्कार की शुरुआत किस तरह हुई, किस तरह इस पुरस्कार से जुड़े कवि भविष्य के बड़े कवि साबित हुए और किस तरह पुरस्कृत कविताओं के संग्रह शोधार्थियों के लिए मानक रेफरेंस सामग्री बन चुके हैं, वगैरा बातों पर रोशनी डाली। उन्होंने मंच पर ही विराजमान अरुण कमल की तरफ़ इशारा करते हुए बताया कि पहली ही पुरस्कृत कविता 'उर्वर प्रदेश' नाम से ही पुरस्कृत कविताओं के संग्रह निकाले गए। अशोक वाजपेयी ने गर्व से कहा कि वे यह श्रेय लेना चाहेंगे कि 'उर्वर प्रदेश' को पुरस्कृत करने का फ़ैसला उनका था। उन्होंने चयन प्रक्रिया के उस नियम का हवाला भी दिया जिसके मुताबिक निर्णायक मंडल के किसी एक सदस्य को एक वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कविता का चयन करना होता है और बाक़ी सदस्यों को उससे सहमत होना ही होता है।
इस कार्यक्रम से लौटते ही मैंने सबसे पहला काम 'उर्वर प्रदेश' को तलाश करके पढ़ने का किया। एक बार-दो बार और बार-बार। यह स्वीकार करते हुए भी कि कविता को समझ पाने की तमीज़ मुझे नहीं है, मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि इस कविता में ऐसा क्या है जो अशोक वाजपेयी अपनी पीठ थपथपा रहे थे। यह 1980 की सर्वश्रेष्ठ कविता कैसी थी? क्या 1980 कविता की दृष्टि से इतना बंजर था?
नेट पर उपलब्ध जानकारी के मताबिक, इस कविता के पक्ष में अशोक वाजपेयी ने ये ख़ूबियाँ गिनाईं थीं - "सूक्ष्म अंतर्दृष्टि, संयत कला अनुशासन, और आत्मीयता"।
यहां 'संयत कला अनुशासन' दिलचस्प है। 1980 इमरजेंसी के ठीक बाद का समय। अनुशासन इमरजेंसी का नियंत्रणकारी शब्द था। सन्त भी इमरजेंसी को अनुशासन पर्व कह रहा था और कवि भी संजय गांधी के लिए नारों में यही शब्द इस्तेमाल कर रहा था। 'दूरदृष्टि, कठिन अनुशासन...।' अशोक वाजपेयी अंतर्दृष्टि और संयत अनुशासन कह रहे हैं। सवाल यह है कि वे किस ख़तरे से घबराकर कला को कंट्रोल्ड डिसिप्लिन दायरे में देखने के हिमायती थे। उस वक़्त कविता में ऐसा क्या 'ख़तरनाक' घटित हो रहा था जो उन्हें संयत कला अनुशासन की दुहाई देकर ऐसी निष्प्राण, फुसफुसी, अनुर्वरता को मानक की तरह पेश कर पुरस्कृत करने की जरूरत पड़ी? 1980 से पहले और 1980 में कविता में देश-दुनिया में जिस तरह की सामाजिक-राजनीतिक हलचलें थीं, हिन्दी कविता में वे शानदार ढंग से मौजूद थीं। क्या यह चीज़ अशोक वाजपेयी को असंयत, अराजक, परायी और अंतर्दृष्टिविहीन लगी होगी और यह पुरस्कार 'कविता की वापसी' के नाम पर निष्प्राण-राजनीतिक दृष्टिविहीन कविता का स्पेस बनाने के लिए उठाया गया राजनीतिक पैंतरा था? ऐसा पैंतरा जिसके लिए प्रगतिशील-वाम खेमे के कहे जाने वाले उस समय के कई महत्वाकांक्षी कवियों का समर्थन आसानी से हासिल था।
नेट पर 'उर्वर प्रदेश' कविता की तारीफ़ और आलोचना में तरह-तरह की बातें मिलीं। यह भी कि कविता में अंकुर जहां नवजीवन के प्रतीक हैं, वहीं अंत में जलकुंभियां विनाशकारी-अनिष्टकारी। मैं शायद अपनी इलाक़े वाली भाषाई सीमाओं की वजह से शुरुआत में ही 'पोटली में बंधे बूटों ने फेंके हैं अंकुर' पर असहज हुआ। अपने यहां भी 'खाना डाल दो', 'बच्चे को स्कूल में डाल दो' जैसे भाषाई प्रयोग कोफ़्त पैदा करते हैं पर 'फेंके हैं अंकुर' मेरे लिए नया है। अंकुर फूटना, अंकुर निकलना और ये फेंकना! ख़ैर, ये बाल की खाल हो सकती है पर इस कविता को समझने की उत्सुकता मुझमें है और किसी अच्छे व्याख्याकार को पढ़ने की चाह भी।
कमाल की बात यह है कि 'उर्वर प्रदेश' के नाम पर जिस कविता की वापसी की कोशिश की गई होगी, वह कल मंच पर मौजूद तीनों पुरस्कृत कवियों की कविता नहीं थी। वह वही कविता थी शायद जिसे नियंत्रित-अनुशासित करने की चाह में 1980 में सारी कवायद की गई होगी।
***
अरुण कमल की कविता
उर्वर प्रदेश
मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बंधे हुए बूटों ने
फेंके हैं अंकुर
दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों, कपडों और निर्ज़न हवा की
फेंटी हुई गंध
पड़ी है चारों और धूल की एक पर्त
और जकडा है जग में बासी जल
जीवन की कितनी यात्राएं करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ।
तट की तरह स्थिर,पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल -
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बंधे हुए बूटों ने फेंके है अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
पोसते रहे ये अंकुर
खोलता हूँ खिड़कियाँ
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल-भरी तसली सा हिलाती
मुझसे बाहर
मुझसे अनजान जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है सारा संसार
आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद
आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रान्त का उर्वर प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जल्कुम्भियों का घना संसार भरे।