(संदर्भ
एडवर्ड स्नोडेन, मास सर्विलांस और डिजिटल डैटा)
प्रस्तुत
आलेख माइक्रोसॉफ़्ट की वर्डफ़ाइल में उस कम्प्यूटर पर टाइप किया गया है जो डेल
नामक अमेरिकी कंपनी का एक उत्पाद है. जिस किताब के बारे में ये आलेख है वो अमेज़न
से ख़रीदी गयी है- ऑनलाइन. आलेख के लिए तथ्यों की जांच और कुछ जानकारी शामिल करने
के लिए भारतीय टेलीकॉम कंपनी आईडिया-वोडाफ़ोन की ओर से मोबाइल हॉटस्पॉट यानी
इंटरनेट की सुविधा सैमसंग मोबाइल फ़ोन के जरिए मिली है, कम्पयूटर खुला है, जीमेल
अकाउंट खुला है और कुछ समाचार साहित्यिक वेबसाइटें खुली हुई हैं जहां लेख के लिए
सामग्री देखने आवाजाही की गयी है. हो सकता है इस दौरान कुछ कहा बोला जा रहा हो.
किसी से फ़ोन पर कोई ज़िक्र किया जा रहा हो. किताबें जो हैं सो हैं. ये तमाम
ऑनलाइन और ऑफ़लाइन कार्य करते हुए क्या लेखक को कोई देख रहा या सुन रहा हो सकता
है. दरोदीवार से नहीं बल्कि इसी वर्चुअल दुनिया में उस पर आवाजाही पर नज़र बनी हुई
है. किसकी? कौन हैं वे? और आखिर
वे चाहते क्या होंगे? (उपरोक्त पैरा को इस सूचना के साथ जोड़ते हुए
पढ़ें कि पेंटागन का दस अरब डॉलर की क्लाउड कम्प्यूटिंग का करार जीतने में हाल ही
में माइक्रोसॉफ़्ट ने बाज़ी मारी है. ठेका हाथ से छूटने पर अमेज़न तिलमिलाया हुआ
है.)
लेख
को इस तरह इंट्रोड्यूस करने का उद्देश्य इस ओर इशारा करना है कि कैसे नवसूचना
प्रौद्योगिकी और भूमंडलीय निगरानी तंत्र का रिश्ता निरंतर गाढ़ा होता जा रहा है.
प्राइवेसी को तोड़ने की कोशिशों के बीच एक ओर कंपनियों और खुफिया सिस्टम की
सांठगांठ है तो दूसरी ओर संचार क्षेत्र की अन्य कंपनियां हैं जो खुफिया तंत्र की
नकेल को परे धकेलने की कोशिशों में लगी हैं क्योंकि उनके लिए अपने उपभोक्ताओं के
हितों की अनदेखी करना नामुमकिन है. वे
अपने प्लेटफॉर्मों पर संचार को इन्क्रिप्ट तो कर रही हैं लेकिन सरकारों के दबाव
बने हुए हैं कि ये इन्क्रिप्शन हटाओ. ये सवाल और दुश्चिंता आज के समय का यथार्थ
हैं जिसे एडवर्ड स्नोडन ने अपनी कुछ महीने पहले प्रकाशित आत्मकथा के ज़रिए
उद्घाटित करने का प्रयास किया है. सूचना प्रौद्योगिकी के इस घटाटोप में लिखा जाना
भी एक तरह से अपनी निजता को अनावृत्त करने की तरह है. क्योंकि बात क़ाग़ज और कलम
की ही नहीं, कम्प्यूटर और टंकन और नेट की भी हो चली है.
ब्रिटिश
प्रकाशक मैकमिलन से आयी इस तूफ़ानी किताब का नाम हैः पर्मानेंट रिकॉर्ड.
अमेरिकी खुफिया एजेंसियों से संबद्ध पूर्व इंजीनियर-जासूस एडवर्ड स्नोडेन के जीवन
का वृत्तांत जो उन्होंने ख़ुद दर्ज किया है. पैदाइश से लेकर 2017-18 तक के मॉस्को
(मस्कवा) में निर्वासित जीवन की कुछ आड़ीतिरछी, मार्मिक और यातना भरी झलकियों तक. स्नोडेन
से अपनी एक हाल की मुलाक़ाता का ज़िक्र लेखिका अरुंधति रॉय ने पहले द गार्जियन में
प्रकाशित और फिर किताब की शक्ल में आए संस्मरण में किया है. उनके मुताबिक, “मैंने जो सोचा था, एडवर्ड स्नोडेन क़द में उससे भी छोटा था. नन्हा सा,
नर्म, फ़ुर्तीला, साफ़ किसी पालतू बिल्ली की तरह. वो एकदम लिपटकर डैन (डैनियल
एल्सबर्ग- अमेरिकी एक्टिविस्ट और वियतनाम युद्ध के दौरान के व्हिसलब्लोअर) से मिला
और हमसे गर्मजोशी से. “मैं जानता हूं तुम यहां क्यों आई हो,” उसने मुझसे मुस्कराते हुए कहा. “क्यों?” “मुझे रेडिक्लाइज़ करने के लिए.”
स्नोडेन
अभी भी रूस में निर्वासित जीवन जी रहे हैं. दो साल पहले ही उन्होंने अपनी लिव इन
पार्टनर लिंडसे से शादी कर ली थी. ये
किताब उन्हीं को समर्पित है और उनके संघर्ष को भी तहेदिल सलाम करती है. स्नोडेन के
देश छोड़ने के बाद उन पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा था लेकिन उन्होंने हिम्मत
नहीं हारी और अपने हमसफ़र का बख़ूबी साथ निभाया. 2013 में हांगकांग में स्नोडेन
पत्रकारों के समक्ष अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के मास सर्विलांस से जुड़े गोपनीय
दस्तावेज सार्वजनिक किए थे, जिनसे पूरी दुनिया में भूचाल सा आ गया और सत्ता
केंद्रों की दरोदीवार हिलने लगीं थी. स्नोडेन ने जो फ़ाश किया उसके मुताबिक
अमेरिकी खुफिया समुदाय, सीआईए और एनएसए जिसका हिस्सा हैं, किस तरह उन परियोजनाओं
की ओर प्रवृत्त हुए जिनका संबंध दुनिया के किसी भी कोने में होने वाले डिजिटल
संचार पर नज़र रखने, उसे पढ़ने, स्टोर करने और उसके साथ छेड़छाड़ करने से है. स्नोडेन
ने इसे पूंजीवाद, नव पूंजीवाद, क्रोनी पूंजीवाद से भी आगे का पूंजीवाद करार दिया
है. एक भयावह निगरानी पूंजीवाद (सर्विलांस कैपिटलिज़्म)!
अपनी
किताब की भूमिका में स्वीकारोक्ति के अंदाज़ में उन्होंने अपना परिचय कुछ यूं दिया
हैः “मेरा नाम एडवर्ड जोसेफ़ स्नोडेन है. मैं सरकार के लिए काम करता था, लेकिन
अब जनता के लिए करता हूं...मैं अब अपना समय जनता को उस शख़्स से महफ़ूज़ रखने में
खर्च करता हूं जो कि मैं हुआ करता था- केंद्रीय ख़ुफ़िया एजेंसी (सीआईए) और
राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) का एक जासूस, एक बेहतर दुनिया बनाने के बारे में
कृतसंकल्प एक नौजवान तकनीकिज्ञ. अमेरिकी ख़ुफ़िया समुदाय (इंटेलिजेंस कम्युनिटी)
में मेरा करियर महज़ सात साल का ही था. और मुझे ये जानकर हैरानी है कि ये पूरा
वकफ़ा उस अवधि से एक साल ज़्यादा है जो मुझे उस देश में निर्वासित रहते हो गया है
जिसका चुनाव मैंने नहीं किया था. उस सात साल के कार्यकाल के दौरान मैंने अमेरिका
के जासूसी इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण बदलाव में भागीदारी की थी- मैंने एक सरकार
के लिए तकनीकी रूप से ये आसान बनाया था कि वो पूरी दुनिया के डिजिटल संचार को
इकट्ठा कर सके, लंबे वक़्तों के लिए उन्हें स्टोर कर सके और जब मर्जी हो तब उनकी
तलाशी ले सके.”
इस
किताब से रोंगटे खड़े कर देने वाले उस भूमंडलीय दुष्चक्र को समझने का एक रास्ता
खुलता है जो आज अमेरिकी साम्राज्य की ख़ुफ़िया एजेंसियों का पूरी दुनिया में मास
सर्विलांस के नाम पर मचाया हुआ है और दुनिया के बहुत से देश, लोकतंत्र कहे जाने
वाले देश भी इसमें अपनी अपनी भूमिका निभा रहे हैं. आख़िर अमेरिकी एजेंसियां कैसे
मास सर्विलांस कराने के लिए उद्युत हुई. स्नोडेन अपनी भूमिका में बताते हैं, “9/11 के बाद, इंटेलिजेंस समुदाय अमेरिका को बचाने से
नाकाम रह जाने पर अपराधबोध से भरा हुआ था. पर्ल हार्बर के बाद देश पर ये सबसे
विध्वंसक और तबाह कर देने वाला हमला था. इसके जवाब में, नेताओं ने सोचा कि ऐसा
सिस्टम तैयार किया जाए कि हमें आइंदा कभी ऐसे औचक न पकड़ लिया जाए. इसकी बुनियाद
में प्रौद्योगिकी होनी चाहिए थी लेकिन राजनीति शास्त्र के उनके पंडितों और बिजनेस
प्रशासन के उस्तादों के लिए ये चीज़ परदेसी थी. सबसे गुप्त खुफिया एजेंसियों के
दरवाजे मुझ जैसे युवा टेक्नोलॉजिस्टों के लिए खुल गए. और इस तरह धरती पर कम्प्यूटर
के माहिर लोगों का अवतरण हो गया.”
भूमंडलीय
जासूसी ने नागरिकों को पीड़ित ही नहीं वांछित भी बना दिया है. यही इस समय की
असाधरणता है या नव सामान्यता है जिसे स्नोडेन ने पहले अपने बेमिसाल नैतिक साहस के
ज़रिए और अब इस किताब के ज़रिए फ़ाश करने की कोशिश की है. वो कहते हैं, “मेरी पीढ़ी ने इंटेलिजेंस के काम को प्रौद्योगिकीकृत कर देने से कुछ अधिक
ही किया था, हमने इंटेलिजेंस की परिभाषा ही बदल दी थी.” यानी
ये पीछा करने, खुफ़िया सूचनाएं देनें या खुफ़िया जगहों पर ख़ुफिया चीज़ें छिपाने
जैसी पारंपरिक और पुरानी बातें नहीं रह गयी थीं. नये ख़ुफिया निजाम का संबंध डैटा
से था, वो बिग डैटा जो आज कॉरपोरेट से लेकर गर्वनेंस तक धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा
है, थोक की मंडी सजी हुई है, बोलियां और निवेश के सौदे सजाए जा रहे हैं और सूचनाओं
पर मुनाफ़ाख़ोर टूटे हुए हैं. ये बिग डैटा आता कहां से है. ये आता है हमारी डिजिटल
और इंटरनेट गतिविधियों, वॉट्सऐप से लेकर फ़ेसबुक तक, जीमेल से लेकर अमेजन तक.
ऑनलाइन शॉपिंग से लेकर ऑनलाइन डेटिंग तक. हमारी आदतों से लेकर हमारे डिजिटल
व्यवहार, हमारी पसंद नापंसद. कम्प्यूटर और
फोन से लेकर सीसीटीवी कैमरा तक और यही नहीं अपनी डिजिटल डिवाइसों और 24x7 की इंटरनेट उपलब्धतता के बीच हमारा अपना रोज़मर्रा का जीवन और संवाद भी
बहुत छनछन कर डिवाइसों में जा रहा है जहां पहले से किसी न किसी रूप में हमने उन तमाम ऐप्स या वेब
सेवाओं को टर्मस ऐंड कन्डीशन्स पर टिक किया हुआ है. अपनी निजता को अंशतः अनजाने ही
जारी करते हुए.
वेब
और तकनीकी से जुड़ी एजेंसियों के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में वॉटसऐप पर
रोज़ाना 65 अरब संदेश भेजे जाते हैं. फ़ेसबुक पर एक हज़ार टेराबाइट(टीबी) से
ज़्यादा का डैटा बन रहा है. ट्विटर पर 50 करोड़ ट्वीट हर रोज़ होते हैं औऱ करीब
300 अरब ईमेल यहां से वहां होते हैं. और भी सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर निर्मित हो रहा
डैटा या जिन वेबसाइटों को हम अपने कप्म्यूटरों पर या मोबाइल फ़ोन पर खोलते हैं,
देखते हैं, पढ़ते हैं, जो ऑनलाइन टिप्पणियां करते हैं, जो पसंद या नापंसद जाहिर
करते हैं वो सब बिग डैटा का हिस्सा बनता जाता है और संख्या कल्पनातीत है. एक
अनुमान ये है कि पूरी दुनिया में हर रोज़ साढ़े चार सौ एक्साबाइट (ईबी) से ज़्यादा
का डैटा पैदा होता है. ( “बाइट”
डिजिटल सूचना संग्रहण की इकाई है. एक “बाइट” आठ “बिट्स” की होती है.) एक एक्साबाइट का मतलब है एक अरब गीगाबाइट. यानी हर रोज़ 20
करोड़ से ज़्यादा डीवीडी पर भरा जा सकने वाला डैटा. इसी कल्पनातीत डैटा पर सेंध
लगाने की कोशिशें बहुराष्ट्रीय कंपनियां, ताकतवर कॉरपोरेट करते हैं और अब सरकारें
भी पीछे नहीं रहना चाहती हैं. अमेरिका ने निगरानी का नशा दिखा दिया है कितना सफल, और मुनाफ़े की खान सरीखा है. और देश पीछे क्यों
रहे. और इन तमाम अभियानों, दुष्चक्रों, वाणिज्यिक-सामरिक-प्रशासनिक-ख़ुफिया
मंतव्यों में नागरिकों की जगह कहां हैं. हम और आप कहां हैं और क्या हैं. उनके लिए हम
भी उत्पाद हैं.
स्नोडेन
बताते हैं: “ई-कॉमर्स कंपनियों के उत्तराधिकारी जो
इसलिए फेल हो रहे थे क्योंकि समझ नहीं पा रहे थे कि हमारी दिलचस्पी क्या खरीदने
में है, अब उनके पास बेचने के लिए नया उत्पाद आ गया था. वो नया उत्पाद हम थे.
हमारा ध्यान, हमारी गतिविधियां, हमारी लोकेशन, हमारी इच्छाएं- हमारे बारे में जो
भी सूचना या जानकारी हमने ही जाने या अनजाने ज़ाहिर की थीं या शेयर की थी, अब उन
सूचनाओं की निगरानी की जा रही थी और गुप्त ढंग से उन्हें बेचा जाने लगा था, ताकि
उल्लंघन के उस अवश्यंभावी अहसास को, जिसका अब जाकर हममें से अधिकांश लोगों को आभास
होने लगा है, टालते रह सकें. और ये निगरानी, मुस्तैदी से प्रोत्साहित की जा रही
थी, और सरकारों की फौज निगरानी के विशाल जखीरे के लिए इसे फंड भी कर रही थीं.
शुरुआती दिनों में लॉग-इन और वित्तीय लेनदेन को छोड़कर कोई भी ऑनलाइन संचार
इन्क्रिप्टेड नहीं था जिसका अर्थ ये है कि सरकारों को तब कई मामलों में कंपनियों
के पास ये पूछने के लिए जाने की जरूरत भी नहीं थी कि उनके ग्राहक क्या कर रहे थे.
वो किसी को भनक तक नहीं लगने देती और दुनिया की जासूसी करती रह सकती थी.”
एक
बात ग़ौरतलब है कि स्नोडेन के भंडाफोड़ के बाद खुफिया सिस्टम तो तिलमिलाया ही था,
मास सर्विलांस की परियोजनाओं को भी बड़ी हद तक झटका लग चुका था. जर्मनी जैसे देशों
ने सख्त आपत्तियां जताईं. खुद चांसलर आंगेला मर्केल के डिजिटल संचार हैक किए गए
थे. भारी विरोध और एतराज़ों के बीच कई देशों और निगमों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों
और टेलीकॉम क्षेत्र से जुड़े संस्थानों ने अपनी निजी और आंतरिक परिधियों को
प्रौद्योगिकीय लिहाज़ से मुस्तैद और सुरक्षित करने का सिलसिला शुरू किया. ये एक
अलग कॉरपोरेट एक्सरसाइज़ थी. बहरहाल कंपनियों को बिग डैटा हासिल करने की चाहत के
दूसरे सिरे पर ये भी देखना था कि उपभोक्ताओं का उनकी डिवाइसों और अन्य साजोसामान
पर विश्वास कहीं टूट न जाए, कहीं ऐसा न हो कि उपभोक्ता अपनी निजता से समझौता करने
वाली किसी कंपनी की डिवाइस से दूरी बना लें और बाजार में वो प्रोडक्ट पिटता चला
जाए. तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएं इस विश्वास बहाली के लिए भी ली गईं और एनक्रिप्टेड
सेवाएं सामने आई. ये डिजिटल सूचना जगत की अब तक की अभूतपूर्व और बहुत असाधारण
उपलब्धि रही है, एनक्रिप्शन हो जाने के बाद कोई संदेश या दस्तावेज या तस्वीर या
ग्राफ़िक विवरण चुरा लेना या हैक कर लेना या लीक होना कमोबेश असंभव हो गया बशर्ते
कि इंटरनेट का इस्तेमाल किसी एनक्रिप्टड एम्बियन्स में हो रहा हो.
डैटा
की निजता स्नोडेन घटनाक्रम के बाद थोड़ा बहाल हुई लेकिन इस पूरे उत्तर डिजिटल भूमंडल
में सेंध लगाने के लिए सिर्फ़ देशों की सरकारों, राजनयिकों, सेनाओं, संदिग्धों,
वांछितों का सूचना डैटा ही नहीं दूसरी तरह की बहुत सी सूचनाएं और सक्रियताएं हैं
जिनसे बिग डैटा का निर्माण होता है, जिनका
उल्लेख ऊपर किया गया है. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, अलेक्सा, स्मार्ट
वॉच, ब्लूटूथ, क्लाउड आदि ऐसी ही प्रविधियां हैं जिनके पीछे वहीं संस्थान हैं जो
संदेशों और संवादों के इन्क्रिप्शन की सुविधा देकर, अन्य तरीकों से संदेश और
व्यवहार रिकॉर्ड कर रहे हैं. कई कंपनियां इस गतिविधि में मुब्तिला हैं. सोर्स से
लेकर आखिरी रिसीवर तक. ये एक आक्रामक वाणिज्य
है. प्रकट तौर पर नागरिक उपभोक्ताओं पर ज़रा भी खरोंच नहीं आती. और गहराई से पता करेंगे तो निजता का अधिकार
धूलधूसरित हो चुका होता है. ई-कॉमर्स का
एक दैत्याकार स्वरूप जिसके जबड़े में सूचना, नागरिक, उत्पाद, मुनाफ़ा- सब समाहित
होता जाता था. स्नोडेन ने अपनी किताब में बताया है कि आखिर ये डिजिटल उपनिवेशीकरण
का सिलसिला कैसे शुरू हुआ.
“कॉमर्स को ई-कॉमर्स में बदलने की शुरुआती तेजी एक बुलबुले की ओर ले गई और
फिर सहस्रत्राब्दी के मोड़ पर ढह गई. उसके बाद कंपनियों ने पाया कि जो लोग ऑनलाइन
थे, वे खर्च करने में साझेदारी की अपेक्षा बहुत कम रुचि रखते थे. दूसरी बात
कंपनियों को ये पता चल गयी कि जो मनुष्य संपर्क इंटरनेट ने संभव किया था उससे पैसा
बनाया जा सकता है. अगर अधिकांश लोग इसलिए ऑनलाइन रहना चाहते थे कि अपने बारे में
अपने परिवार, दोस्तों और अजनबियों को बता सकें और बदले में परिवार, दोस्त और अजनबी
भी उन्हें बता सकें कि वे क्या कर रहे थे तो ऐसे में कंपनियों को सिर्फ़ ये पता
लगाना भर था कि इन सोशल आदानप्रदानों के बीच में खुद को कैसे स्थापित करें और कैसे
इस प्रक्रिया को लाभ में बदल दें.”
अमेरिकी
खुफ़िया सेवाओं, राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएएसए) और केंद्रीय जांच एजेंसी
(सीआईए)की निगरानी में स्नोडेन और उनकी टीम ने एक नयी तरह का कम्प्यूटिंग
वास्तुशिल्प तैयार किया था- एक “क्लाउड,” जिसकी बदौलत दुनिया में किसी भी कोने पर मौजूद हर एजेंट डैटा तक पहुंच
सकता था और खोज सकता था, दूरी भले ही कुछ भी हो. स्नोडेन के मुताबिक इंटेलिजेंस के
प्रवाह को मैनेज करने और उससे जोड़ने का काम, हमेशा के लिए उसका स्टोरेज कर सकने
के तरीके खोजने के काम में बदल गया था, और ये काम भी ये सुनिश्चित करने के काम में
तब्दील हो गया था कि इंटेलिजेंस सार्वभौम रूप से उपलब्ध और तलाशी के क़ाबिल रहे. “एक भूमिगत पर्ल हार्बर युगीन पूर्व विमान फ़ैक्ट्री- मैं टर्मिनल पर बैठता
था जहां से मुझे व्यवहारिक रूप से दुनिया के लगभग हर आदमी, औरत और बच्चे के संचार
तक असीमित पहुंच थी जिन्होंने कभी फ़ोन डायल किया होगा या कम्प्यूटर को छुआ होगा.
इन लोगों में मेरे 32 करोड़ सह अमेरिकी नागरिक भी शामिल थे जिनकी रोज़मर्रा की
ज़िंदगियों पर संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की ही नहीं बल्कि किसी भी मुक्त
समाज के बुनियादी मूल्यों की धज्जियां उड़ाते हुए निगरानी रखी जा रही थी.” स्नोडेन इसे ही निगरानी के पूंजीवाद (सर्विलांस कैपिटैलिज़्म) की शुरुआत
कहते हैं और इंटरनेट का अंत भी.
अरुंधति
रॉय ने स्नोडेन से अपनी मुलाक़ात में बताया कि सर्विलांस के बारे में एक सवाल के
जवाब में स्नोडेन ने कहा था- “अगर हम कुछ नहीं करते है,
तो हम एक संपूर्ण निगरानी राज्य के भीतर नींद में चलने जैसा व्यवहार कर रहे होते
हैं. हमारा एक सुपर स्टेट होता है जिसके पास दो तरह की असीमित क्षमताएं होती हैं-
ताक़त को आज़माने की और सब कुछ (लक्षित लोगों के बारे में) जानने की- और ये एक
बहुत ख़तरनाक काम्बनेशन है. ये एक अंधकार से भरा भविष्य है. वे हम सब के बारे में
सब कुछ जानते हैं और हम उनके बारे में कुछ नहीं जानते हैं- क्योंकि वे ख़ुफ़िया
हैं, राजनीतिक वर्ग हैं, संसाधनयुक्त वर्ग हैं- हम नहीं जानते कि वे कहां रहते
हैं, हम नहीं जानते हैं कि वे क्या करते हैं, हम नहीं जानते हैं कि उनके दोस्त कौन
हैं. उनके पास हमारे बारे में ये सब चीज़ें जानने की क्षमता है. भविष्य इसी तरफ़
बढ़ रहा है, लेकिन मैं समझता हूं कि इसमें बदलाव की संभावनाएं भी निहित हैं.”
मास
सर्विलांस से पहले स्नोडेन के मुताबिक इंटरनेट एक साझा फ़्रंटियर हुआ करता था जिस
पर विविध प्रजातियों का निवास था, वे शोषक नहीं थे बल्कि एकदूसरे के साथ प्यार से
रहते थे, क्योंकि वो संस्कृति रचनात्मक और
सहयोगी थी, कमर्शियल और प्रतिस्पर्धी नहीं. बेशक एक टकराव था, लेकिन अच्छाई और
अच्छी भावनाएं उसे दरकिनार कर देती थीं- एक सच्ची पथ प्रदर्शक भावना. लेकिन “आज का इंटरनेट पहचान में नहीं आता. ये ग़ौर करने वाली बात है कि ये बदलाव
एक सोचसमझा विकल्प था, चुनिंदा प्रिविलेज्ड लोगों की ओर से सिस्टेमेटिक कोशिशों का
नतीजा.” सात साल की अपनी सीआईए वाया एनएसए वाया डेल की नौकरी
के दौरान स्नोडेन को धीरे धीरे ये समझ में आया की डैटा संग्रहण और उसे सुरक्षित
रखने की ये मारामारी क्यों की जा रही है. उन्हें इस बात का भी इल्हाम हुआ कि ये
नागरिक अधिकारों का दमन भी था जिसका उन्हें अंदाज़ा भी न था. खुद को कोसते हुए
स्नोडेन कहते हैं कि उनकी अंतरात्मा बार बार इस पूरे मामले को समझने और इससे बाहर निकलने
के लिए ही नहीं इसका प्रतिरोध करने के लिए कह रही थी. लेकिन कैसा प्रतिरोध, वो
क्या कर सकते थे कि इससे अलग हट जाएं या चुप होकर रिटायर हो जाएं या एक क्या करें
क्या न करें की दुश्चिंता हथौड़े की तरह बजती रहती थी क्योंकि उन्हें ये भी लगता
था कि दुनिया को ये जानने का हक़ था कि खुफ़िया एजेंसियां कितना बड़ा खिलवाड़ उनकी
निजता के साथ कर रही हैं. और ये सब कानून और देशहित में अपरिहार्य भी बताया जा रहा
था. स्नोडेन ने अपनी विचलित अवस्था का वर्णन कुछ यूं कियाः
“मैंने खुद सेवा की शपथ ली थी, किसी एजेंसी के लिए नहीं, न ही किसी सरकार
के लिए बल्कि जनता के लिए, संविधान के समर्थन और उसकी हिफ़ाज़त में, जिसकी नागरिक
आज़ादियों की गारंटी का इतना खुल्लमखुल्ला
उल्लंघन किया गया है. इस उल्लंघन का एक हिस्से से कुछ अधिक मैं भी थाः मैं इसमें
शामिल था. सारा का सारा वो काम, वे सारे वर्ष- मैं किसके लिए काम कर रहा था? अपनी सीक्रेसी का अनुबध मैं
उन एजेसिंयों के साथ कैसे संतुलित करता जिन्होंने मुझे काम पर रखा था और उस शपथ के
साथ जो मैंने अपने देश के बुनियादी आदर्शों के नाम पर ली थी. मैं आखिर किसके प्रति
और किस चीज़ के लिए ज्यादा जवाबदेह था. मैं आखिर किस मोड़ पर कानून तोड़ देने के
लिए नैतिक तौर पर उपकृत या विवश था.”
लेकिन
स्नोडेन के “अंतःकरण
का आयतन संक्षिप्त”
नहीं था. उनमें धीरे धीरे जमा हो रहा साहस ही था कि आख़िरकार एक रोज़ वो फैसला कर
पाए कि जीवन और घर परिवार को दांव पर लगाकर उन्हें क्या करना हैः “किसी देश की आज़ादी उसके
नागरिक अधिकारों के प्रति उसके सम्मान से ही मापी जा सकती हैं और मेरा दृढ़
विश्वास है कि ये अधिकार ही एक तरह से राज्य सत्ता की सीमाएं हैं जो ठीक यही
परिभाषित करती हैं कि सरकार कहां और कब निजी या वैयक्तिक आज़ादियों के डोमेन में
दख़ल नहीं दे सकती है जिसे अमेरिकी क्रांति के दौरान “लिबर्टी” कहा गया था और इंटरनेट क्रांति के दौर
में “प्राइवेसी” कहा जाता है.”
स्नोडेन
ने भीषण आंतरिक आपाधापी, यातना, उधेड़बुन, डर, चिंता और अनिद्रा और मिरगी के
आघातों के बीच एक रोज़ दफ्तर से मेडिकल इमरजेंसी के नाम पर कुछ दिनों का अवकाश ले
लिया. इससे पहले अपनी लाइफ़ पार्टनर को कहा कि वो कुछ दिन के लिए एक प्रोजेक्ट के
सिलसिले में बाहर रहेंगे. लिंडसे को जिस दिन दूसरे शहर निकलना था उसी दिन स्नोडेन
ने अपने बैंक खाते से सारे पैसे निकाले. कुछ घर पर ही एक जगह ऐसे रख दिए जहां घर
के लोगों को आसानी से मिल जाएं, अपने कम्प्यूटर और अन्य उपकरणों के सारी सूचनाएं
हमेशा के लिए इरेज़ कर दीं. अपने डेस्कटॉप और अन्य डिजिटल चीज़ों को इन्क्रिप्ट
किया अपने साथ वो चिप रख ली जिस पर लाखों करोड़ों बाइट्स की वे सूचनाएं थीं जो
स्नोडेन ने एजेंसियों के कम्प्यूटरों और सर्वरों से कई दिनों की भयावह मशक्कत के
बाद स्टोर कर लेने में सफलता हासिल कर ली थी और जिन सूचनाओं को सबूत के तौर पर उन
पत्रकारों को दिया जाना था जिनके चयन में भी स्नोडेन की रातों की नींद कई कई तक
गायब रही थी. आखिरकार वे दो पत्रकार चुन पाए थे, जिनके ज़रिए पूरी दुनिया के
मीडिया में खबर ब्रेक हो पाई थी. तीन चार लैपटॉप और बहुत चतुराई और सावधानी से चिप
को अपने शरीर में रखकर स्नोडेन एयरपोर्ट को निकले, हॉंगकांग का टिकट लिया, चेकइन
कराते हुए विमान पर बैठ गए और एक लंबी गहरी सांस ली. पकड़े न जाने की, मुक्त हो
जाने की और घर परिवार देश से दूर एक नये लेकिन अनिश्चित और संभावित डरावने अंजाम
की ओर रवाना होने की.
स्नोडेन
कम्प्यूटरविद् हैं लेकिन उनकी भाषा सपाट , बहुत अधिक तेज़ी से भागती, अपना गुणगान
करती हुई, ख़ुद से चमत्कृत होती हुई और तकनीकी भारीपन से घिरी हुई भाषा नहीं है.
वे मंझे हुए शांतचित्त गंभीर और ज़िम्मेदार लेखक की तरह अपनी दास्तान को
प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के साथ सुना पाते हैं. और ये कहानी एक थरथराते हुए
रोमांच से आपको रूबरू कराती है, और पूरी किताब एकबारगी पढ़ने को विवश करती है.
संघर्ष की समझ की और चेतना की रूपरेखाओं का निर्माण किसी व्यक्ति के भीतर किस तरह
होता है- उसकी जटिल बारीक और पारदर्शी प्रक्रिया समझने के लिए ये भी किताब कारगर
है. स्नोडेन अपनी भूमिका में एक जगह लिखते हैं- “पत्रकारिता को अवैद्य बनाने की चुने हुए नेताओं
की कोशिशों को सच्चाई के सिद्धांत पर चौतरफा हमले से मदद और हवा मिली है. जो सच है
उसे जानबूझकर एक मक़सद के साथ, जो फर्जी है, उसके साथ मिलाया जा रहा है, उन
प्रौद्योगिकियों के ज़रिए जो उस मिलावट को एक अभूतपूर्व और अविश्वसनीय वैश्विक
असमंजस के स्तर तक पहुंचा देने में समर्थ हैं. मैं इस प्रक्रिया को बहुत क़रीब से
जानता हूं. क्योंकि काल्पनिकताओं का निर्माण, इंटेलिजेंस समुदाय की हमेशा से सबसे
काली कला रही है.”
स्नोडेन
की किताब के कुछ हिस्सों को पढ़ते हुए हिंदी कवि वीरेन डंगवाल की कविता “राम सिंह” की याद भी सहसा आ जाती है. भारत में
इंटरनेट युग के आगमन से बहुत पहले (संभवतः 1970 में) की इस कविता में रामसिंह नामक
फ़ौज़ी किरदार से कवि पूछ रहा हैः
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह?
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उंगुली हो?
किसका उठा हुआ हाथ?
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस
दस्ताना?
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार?
कौन हैं वे, कौन?
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते
हैं
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए
शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते
हैं....
21वीं
सदी का दूसरा दशक ख़त्म होते होते एक कम्प्यूटरविद् और टेक्नोलॉजिस्ट और भूतपूर्व
जासूस एडवर्ड स्नोडेन ने अपनी किताब के ज़रिए कुछ जवाब निकाले हैं. लेकिन इसके लिए
अपना जीवन अनिश्तितताओं और अवश्यंभावी ख़तरों के प्रछन्न भूगोलों में डुबो दिया
है. उन्हें ढूंढने के लिए कलेजा चाहिए. स्नोडेन कहते हैं, “अपने प्रियजनों की निजता का बचाव करते
हुए और वैधानिक सरकारी गोपनीयताओं को भंग किए बिना अपनी जीवनी लिखना साधारण कार्य
नहीं है. लेकिन यही मेरा काम है. इन दो जिम्मेदारियों के बीच की किसी जगह पर मुझे
ढूंढा जा सकता है.”
ऐसा
नहीं है कि सरकारों को खुफ़िया सूचनाएं लेने का अधिकार नहीं हैं. कानून व्यवस्था
के लिए अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए और शांतिपूर्ण व्यवस्था बनाए रखने के लिए
स्नोडेन के मुताबिक सब जानते हैं कि सरकार कुछ सूचनाओं को छिपाए रख सकती है. यहां
तक कि दुनिया के सबसे पारदर्शी लोकतंत्र को भी कुछ सूचनाओं को क्लासीफाइड करने की
इजाज़त दी जा सकती है, उदाहरण के लिए, अपने अंडरकवर एजेंटों की पहचान और युद्ध के
मैदान पर अपनी फ़ौज की मूवमेंट को ज़ाहिर नहीं कर सकते. स्नोडेन कहते हैं कि उनकी
किताब में वैसा कोई सीक्रेट नहीं है. उनकी किताब बस यही बताती है कि कैसे अपने
संविधान की अवहेलना कर लोगों की निजता से खिलवाड़ किया गया. ये वे एजेंसियां हैं
जो अपहरण को “असाधारण
प्रस्तुतिकरण,”
टॉर्चर को “परिष्कृत
पूछताछ” और
जन-निगरानी (मास सर्विलांस) को “थोक
सूचना संग्रहण” कहती
हैं और
युद्धों के झूठ को महिमामंडित करने में सरकारों की मदद करती हैं. ठीक उसी तरह जैसे लातिन अमेरिकी देश, उरुग्वे के
महान लेखक पत्रकार एदुआर्दो गालियानो ने अपनी किताब डेज़ ऐंड नाइट्स ऑफ़ लव ऐंड
वॉर में सत्ता समय पर अपनी शार्प भाषा-निगाह में लिखा था, “मेरे देश में “आज़ादी”
राजनैतिक क़ैदियों के लिए जेल का नाम है और “लोकतंत्र” आतंक के विभिन्न साम्राज्यों का एक टाइटल है, “प्रेम” से तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति का अपनी कार से क्या रिश्ता है. और “क्रांति” वो है जो एक डिटर्जेंट आपकी किचन में कर
सकता है, “महिमा” एक मुलायम से साबुन का
प्रभाव है जो इस्तेमाल करने वाले के भीतर पैदा होता है. और “ख़ुशी” वो उत्तेजना है जो हॉट डॉग खाते हुए अनुभव की जाती है. लातिन अमेरिका में
“एक शांतिपूर्ण देश” का अर्थ है- एक “सुव्यवस्थित क्रबिस्तान” और बाज़दफ़ा “तंदुरस्त आदमी”’ से आशय होता है एक “कमज़ोर आदमी.”
घोर
वाणिज्यिक अंधकारों में भटकती और रोज़ नयी चुनौतियों का सामना करती पत्रकारिता और
नये मीडिया के छात्रों, शोधार्थियों, साहित्यकारों, विद्वानों और डिजिटल मीडिया के
पेशेवर उस्तादों के लिए भी ये किताब एक रेफ्रेंस का काम कर सकती है. इसे नागरिक
सजगता के साथ और एक पेशेवर नैतिकता के हवाले से भी पढ़ा जा सकता है. निजता की
हिफ़ाज़त की लड़ाई अब अधिक कठिन हो चुकी है. इसे व्यापक होना था लेकिन सूरतेहाल
दिखाते हैं कि नागरिक चिंताएं सिकुड़ रही हैं, स्पेस सिकुड़ रहा है, जनता को एक
आकर्षक, लुभावने और सैन्यपराक्रम से सज्जित विभूषित वितंडाओं में उलझाया जा चुका
है. अपनी लड़ाइयां और अपने अधिकार ऐसे किनारे रख दिए जा रहे हैं जैसे उनके बारे
में सोच लेना भी जघन्यता हो या किसी अनिष्ट को न्यौता. लेकिन इन्हीं डरी हुई
अवस्थाओं और अवधियों से ऐसे साहसी भी निकल रहे हैं, जिनकी झलक हम निर्वासित
स्नोडेन में देख सकते हैं. और साहस और नैतिक आदर्शों के ऐसे ही उदाहरण भूमंडलीय
सत्ता-निरंकुशताओं को चुनौती दे रहे हैं.
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