बा ख़ुदा दीवाना बाशद
बा मुहम्मद होशियार
अपने पिता या किसी पुराने अध्यापक से फ़ारसी की यह मशहूर और दिलचस्प कहावत बहुत से लोगों ने सुनी होगी। मतलब कि ख़ुदा के बारे में कुछ कहा तो फिर भी चलेगा मगर होशियार, पैगंबर मुहम्मद के बारे में कुछ कहा तो। रामचंद्र शुक्ल को लेकर कवि विहाग वैभव की एक सर्वथा उचित टिप्पणी के विरोध में शर्मनाक उत्पात की वजह संक्षेप में और ठीक-ठीक समझनी हो तो ये दो नन्ही पंक्तियां पर्याप्त हैं। जिन अमानवीय और घृणित संस्कारों ने इतने सारे देवपुत्रों को अपने जनतांत्रिक, जनवादी, प्रगतिशील और उदार होने के मुखौटे झटके में फेंककर निर्लज्ज ट्रोल बन जाने के लिए प्रेरित किया, उन संस्कारों को शिक्षा के मूल्य बनाकर हिन्दी भाषा, साहित्य और इसके सत्ता प्रतिष्ठानों में प्रवाहित करने वाले रामचंद्र शुक्ल या भारतेंदु जैसे देवों के बारे में कोई `मलेच्छ` कुछ कहे और इतना भी न हो?
विहाग वैभव पर एक साथ इतने हमले किए गए हैं कि उन पर विस्तार से लिखा जा सकता है। गाली-गलौज़ वाले हमलों से ज़्यादा भयानक उपदेश, प्यार और नसीहतों से भरे बाण हैं। इन्हें चलाने वाले हिन्दी की मुख्यधारा के जाने-पहचाने प्रतिष्ठित बूढ़े, अधेड़ और युवा इज़्ज़तदार लोग हैं। ख़ुद को मार्क्सिस्ट, लोकतांत्रिक, उदार और क्रांतिकारी कहने वाले भी। इनमें से ही कुछ यह लानत लगाते हुए कि एक अभूतपूर्व संकट के समय ऐसा विवाद शोभा नहीं देता, इस विषय पर लंबे प्रवचन झाड़ दे रहे हैं। पता नहीं ये देख पाते हैं या नहीं कि इनके लंबे, थोथे और बेईमानी भरे प्रवचन ही इनके सवाल का शर्मिंदगी भरा जवाब हैं। अगर, इन्हें किसी संकट काल से कोई फ़र्क़ पड़ता होता तो ये एक छोटे से स्टेटस पर इतना बवाल क्यों मचाते हैं? ये सारे के सारे एकमत होकर अपने उत्पात के लिए विहाग वैभव को ज़िम्मेदार और जातिवादी ठहराना नहीं भूलते हैं। कोई पहली ही लाइन से तो कोई सारी बात कह लेने के बाद अंतिम निष्कर्ष के तौर पर। ये सभी रामचंद्र शुक्ल को या तो सीधे या घुमा-फिराकर ज़रूरी घोषित करना नहीं भूलते हैं। तुर्रा यह कि ख़ुद को बहुत ज्ञानी-न्यायप्रिय होने का अभिनय करते हुए औऱ विहाग को अनपढ़, अनुचित, सनसनीबाज़ बताते हुए। ऐसे में इनका प्रतिकार ज़रूरी क्यों नहीं है? क्या जिस संकट की दुहाई ये लोग दे रहे हैं, यह सांस्कृतिक फ़ासीवाद उसी का हिस्सा नहीं है?
`गार्बेज इन-गार्बेज आउट`। हिन्दी के इन उपदेशक प्रोफेसरों-कवियों-लेखकों-विशेषज्ञों के प्रवचन इस अंग्रेजी मुहावरे से बाहर नहीं जाते। इनमें कोई जेएनयू में पढ़ा है, कोई दिल्ली, कोई इलाहाबाद सॉरी प्रयाग, कोई बनारस सॉरी कासी या पटना में पढ़ा या पढ़ाता हुआ हो सकता है। इन सभी की ख़ास बात यह है कि ये मनुष्य से बहुत ऊपर उठकर देवपुत्र की जगह खड़े होकर बात करते हैं। उपदेश, आदेश और तिरस्कार की भाषा में। `बहस के मूल में अनपढ़पन और सनसनाहट` मानने वाले विद्वान कहते हैं कि जातिवादी और कुलीन ब्राह्मण समुदाय को शुक्ल जी पसंद हैं तो यह दोनों का दुर्भाग्य है और इसी कारण दलित को शुक्ल जी से घृणा है तब भी दोनों की बदनसीबी है। आपको ` शुक्ल जी` के लिए इतनी बैटिंग करनी पड़ रही है और अपको वे इतने पसंद हैं तो क्या इसलिए ही नहीं कि आप एक जातिवादी और कुलीन समुदाय से हैं? शुक्ल जी की घृणा का शिकार दलित को `शुक्ल जी` से घृणा है तो उनकी बदनसीबी क्यों हैं? क्या बदनसीबी है? वे धमकियां जिन पर इतने न्याय के योद्धाओं ने लाइक और स्माइली चिपकाईं कि हम से नौकरी लोगे, हम से ईनाम, हम से शिक्षा? दलित क्यों घृणा करेंगे, यह तो आप इसलिए नहीं समझना चाहते हैं कि आप उत्पीड़क संस्कारों से पोषित-पल्लवित हैं और उस सेंसेबिलटी से आप बहुत दूर हैं जो दलितों के पास है या फिर आप सचेत रूप से उत्पीड़क ही बने हुए हैं, अपने मुखौटे धारे हुए। जहाँ तक पढ़ने की बात है तो आपके देवता जो लिख गए हैं, साफ़ लिख गए हैं, पर्दे आप डाल रहे हैं। जो उन्हें पढ़ेगा, आप जैसा हुआ तो उन्हें अपना देवता पाएगा, आप जैसा नहीं हुआ तो उसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा जिस पर विहाग पहुँचे हैं। विहाग से पहले कितने ही शूद्रों, मुसलमानों और `प्रविलेज्ड कास्ट` से आए उन लोगों ने जिनके लिए न्याय की चेतना सर्वोपरि रही, यही कहा जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने जिन्हें वाम और प्रगतिशील परपंरा के ही पुरोधा कहा जाता रहा, दबाते जाने का काम किया। इसी तरह, जिस तरह इस वक़्त हल्ला किया जा रहा है और कई बड़े लेखकों के लेखों को सामने रखने पर उन्हें ओबीसी साजिश क़रार दिया जा रहा है। हिन्दी के अन्यायी सामंतो! हर कोई कुतुबन, राही मासूम रज़ा या असग़र वजाहत नहीं होता जिसमें तुम अपने रीझने और उसका ज़िक्र कर ख़ुद को संरक्षक-सेकुलर कहने के दंभ की वजहें तलाश सको।
धोती-कुर्ता, कोट-पैंट से क्या बनता-बिगड़ता है? कोई आंबेडकर और शुक्ल की तुलना पहनावे से, तस्वीर से या औपनिवेशिक पाश्चात्य चेतना का प्रभाव बताकर करे और बेसिरपैर के बामन पतरों की शैली में कुछ भी सिद्ध करने लगे तो क्या कहा जाए? परंपरा विच्छेद का अभियान किसने चलाया? परंपरा क्या है? परंपरा तो वर्णाश्रम भी है और प्रतिरोध भी। किसी भी बराबरी के विचार को विदेशी या परंपराविरोधी कहकर निरस्त करना भी हमारी परंपरा है। भगत सिंह ने भी अपने छोटे से जीवन में इसे साफ़ तौर पर और ज़ोर देकर कहा था। आंबेडकर तो उन परंपराओं के ग्रंथों से जूझते हुए, उन पर लिखते हुए आगे बढ़े। लेकिन, उपनिवेशवाद से ही जोड़कर बात की जाए तो 1857 के बाद `मिलीजुली परंपरा` के विच्छेद का अभियान कौन चला रहा था और कौन जातिवाद व साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष भाषा और शिक्षा तक में घुसा रहा था? नफ़रत और ग़ैरबराबरी को मूल्यों की तरह पेश कर कौन हिन्दी भाषा का गठन कर रहा था? रामचंद्र शुक्ल के इतिहास को जाने दीजिए, भारतेंदु औऱ उनके मंडल के लेखकों के यहां जिन्हें नवजागरण के अग्रदूत कहा जाता है, इस विषवृक्ष का पौधारोपण और उसको ख़ाद-पानी देकर तेज़ी से बड़ा करने का `सत्कर्म` देख लिया जाए। प्रेमचंद न आते और संविधान व बराबरी की लड़ाइयों के असर वाले लोग न आते तो आज जहाँ हिन्दी के प्रगतिशील देवपुत्र खुलकर खड़े हैं, उस राह में बाधाएं ही न होतीं। अफ़सोस कि न रामविलास, न नामवर, न मैनेजर, न विश्वनाथ ख़ुद को इस वृक्ष के विष से बचा सके।
`ऐसे समय` का वास्ता तभी कोई अर्थ रखता है जब इसके पीछे मन साफ़ हो। जाति की श्रेष्ठता के आधार पर पक्षधरता तय कर बना हमलावर गिरोह एक युवा कवि का आखेट करे, अश्लील अट्टहास करे और उपदेशक हमले का शिकार बनाए जा रहे लोगों को यह उपदेश दें तो कैसा लगेगा? ये वही तर्क हैं जो आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी दिए जा रहे थे। इस तरह फुले दंपती औऱ उनके सहयोगियों का सारा संघर्ष बेमानी हो जाए। कांग्रेस के 80 फीसदी दक्षिणपंथी आंबेडकर पर भी यही सवाल उठा रहे थे। उनका सारा संघर्ष, उनका सारा लिखा-पढ़ा रुक जाना चाहिए था?
शुक्ल ने क्या लिखा, क्या कहा, अब उससे पहले बात यह है कि आप क्या कर रहे हैं? आप कहाँ खड़े हैं? वह कौन सा धागा है जिसने आप को ऐसी प्रतिगामी एकता में बाँध दिया? आप साहित्य में पेशवाई क्यों लागू करना चाहते हैं कि आपके सामने `शूद्र` गले में बर्तन और कमर में झाड़ू बाँध कर निकलें? आप दास प्रथा चाहते हैं? क्योंकि आपको अचानक समय अपने बहुत अनुकूल लगने लगा है?
अहंकार, निर्लज्जता और घृणा में डूबे हिन्दी के पवित्र जन, आप यह क्यों नहीं समझते कि आप अपनी किताबों, अपनी नौकरियों और अपने रट्टों पर कितना भी इतराते घूमो, एक साधारण सी लेकिन सबसे ज़रूरी चीज़ से वंचित हो, मनुष्यता से? कभी यह बात आपको रुलाती नहीं? आप पर तरस भी आता है कि आप कभी मनुष्य नहीं हो सकते क्योंकि आप मनुष्य होना ही नहीं चाहते।
-धीरेश सैनी