नव-उदारवादी धज के पूँजीवाद ने जो वायदे किए थे उनमें से अधिकतर पूरे नहीं हुए बल्कि इसने भारत के सबसे अधिक हाशिए के लोगों की मृत्युसंख्या में वृद्धि ही की. 1980 के दशक में आया नव-उदारवादी कॉरपोरेट पूँजीवाद पूँजी बाज़ार पर जाति नियंत्रण को कमज़ोर नहीं कर पाया. आर्थिक वैश्वीकरण का जहाँ स्वागत किया गया, वहीं अभिव्यक्तियों के सांस्कृतिक स्वरूप मसलन मुक्त-बाज़ार के सन्दर्भ में स्व की अभिव्यक्ति, वैयक्तिक उदारवाद और लैंगिकता, जेंडर और वर्ग जैसे सांस्कृतिक चिह्नक गहरे धँसे हुए जातिवाद को हिला नहीं पाए. पूँजीवाद के पक्ष और विपक्ष में होने वाली बहसों ने हाशिए के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी पर बेहद कम असर डाला क्योंकि वे पावर डायनामिक्स का शिकार हो गईं जिसके चलते वे चीज़ें सामने आईं जिन्हें तेलतुंबड़े ‘नापाक गठबंधन’ (अनहोली अलाइंसेस) कहते हैं.
पारम्परिक तौर पर सम्पन्न और ताक़तवर जातियों ने नव-उदारवादी युग में भारत में पूँजीवादी अन्वेषण के साथ बढ़िया संगति बिठा ली है. पश्चिमी और साम्राज्यवादी शोषणात्मक पूँजी के एजेंटों के तौर पर काम करते हुए व्यापारी जातियाँ मेहनतकश वर्ग और उत्पीड़ित जाति समूहों पर नव-उदारवादी मंशा थोपती हैं. भारत में नव-उदारवाद के ख़िलाफ़ बहसों में पश्चिमी पूँजीवादी संरचनाओं पर हमला करने से पहले देशी पूँजीवादी ताक़तों से निबटने की बात शायद ही कोई करता है. भारत में वाम आन्दोलनों की बहस सीधे-सीधे पश्चिमी साम्राज्यवादी व्यवस्था को केंद्रीय समस्या साबित कर नए पूँजीवादी जाति बाज़ार में किए जाने वाले रोज़मर्रा के जाति उत्पीड़नों की अनदेखी करती है. अन्य देशों के दीगर उत्पीड़ित समूहों के सिद्धांतों (थ्योरी) और अनुभवों को उधार लेकर यह मुमकिन किया जाता है. उनके अनुभवों को भारत के उत्पीड़ितों के अनुभवों के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है. इसलिए एक दलित को एशिया, अफ्रीका और नॉर्थ अमेरिका में उस जैसों के पूँजीवादी शोषण का दर्द महसूस करना होता है. वाम विमर्श में दलित कर्तृत्वहीन (एजेंटलेस) बना रहता है. होना यह चाहिए कि जब ज़मींदारों द्वारा किए जाने वाले उत्पीड़न के ख़िलाफ़ दलितों को संगठित किया जाता है तब जाति संरचनाओं के स्पष्ट वर्गीकरण को शुरुआत में ही स्वीकार किया जाना चाहिए जिनके अंतर्गत सामंती समाज परिचालित होता है. बजाय इसके होता यह है कि दलित के और संघर्ष के मनमस्तिष्क से जाति को मिटा दिया जाता है. इसलिए दलित दलित होने की वजह से कष्ट भुगतता है मगर दलित के तौर पर होने वाले उत्पीड़न को महसूस करने की अनुमति उसे नहीं होती. इसके बदले उसे एक ग़ैर-दलित, ग़ैर-जाति कर्ता बना दिया जाता है जो उसके श्रमजीवी स्वत्व मात्र तक सीमित है.
दलित कर्तृत्व (एजेंसी) के हनन से ऐसी चेतना-विहीन दलित कांस्टीट्यूएंसी का जन्म होता है जो अपने समुदाय के सामाजिक बदलाव के लिए काम करने में असमर्थ है. इसकी जगह वे अपने दबंग जाति कामरेडों के हितों के लिए लामबंद होते हैं जो दरअसल अपने ही समुदाय के बचाव का काम कर रहे होते हैं - उन्हें और उनके द्वारा होने वाले जातिगत उत्पीड़न को सामने न लाकर. वे ठीकरा फोड़ते हैं काल्पनिक-अवास्तविक बाहरी शै के सिर जिस तक एक दलित की पहुँच ही नहीं. यह उत्पीड़न एक दलित की कल्पना मात्र में बरकरार रहता होता है क्योंकि केवल एक ´कामगार´ के तौर पर उत्पीड़न का अनुभव एक दलित को विरले ही होता है. वाम आंदोलन में भी दलित अपने ऊपर दबंग जातियों की शक्ति महसूस करते हैं. इसी वजह से इन्क़लाबी प्रोजेक्ट में ठोस दलित सहभागिता कभी वास्तविक रूप नहीं ले पाती. दबंग जातियों के वामपंथियों ने अपने जाति भाइयों की उत्पीड़ित जाति-वर्ग जन की क्रांतिकारी परिणतियों से रक्षा की है. एक सचेत रैडिकल आम्बेडकरी दलित सहभागिता के बग़ैर वाम आन्दोलन एक नाकाम प्रोजेक्ट और मेहनतकश तबके की सच्ची मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में भारत के इतिहास का दुखद अध्याय है.
इस प्रकार भारत में क्रोनी लेफ़्टिस्टों का विजन मार्क्स, लेनिन और माओ द्वारा प्रस्तुत सैद्धांतिक समझ तक सीमित रहा. भारतीय समाज के दुखों को कहीं गहरे तौर पर जीने और समझने वाले देशज क्रान्तिकारियों को उन्होंने आँख मूँद कर अस्वीकार कर दिया. भारत में मार्क्सवादी फ़्रेमवर्क में जाति-आधारित पूँजीवादी शोषण पर कम ही फ़ोकस है. फुले और आम्बेडकर उपेक्षित और तिरस्कृत हस्तियाँ रही आई हैं और निहित ब्राह्मणीय राज्यव्यवस्था से भारत को उबार पाने वाली असुविधाजनक रामबाण भी.
सबआल्टर्न जातियों (दलित और अन्य उत्पीड़ित जातियाँ) के शोषण का शिरोमणि साहूकार, ब्राह्मण के साथ-साथ पहला ‘वर्ग शत्रु’ है जो हमारी चेतना पर अपनी शर्तें थोपता आया है. दलितों से मानवी गरिमा और आत्मसम्मान छीन लेने के ब्राह्मणीय विचार-आरोपण द्वारा हुई दलित दासता से इस चेतना की दूरी ने हमारे दुखों को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया को अवरुद्ध किया और इस तरह अंततः क्रान्ति की राह में रुकावट डाली है. सबआल्टर्न जातियों के होने को पहला विद्रोही ढाँचा प्रदान करने व्यक्ति थे फुले. सामूहिक उत्पीड़ित, जिसे बड़े प्यार से उन्होंने ‘बहुजन’ का नाम दिया था, के अंतर्गत व्यापक दलित, शूद्र, मुस्लिम और सभी जातियों की महिलाओं को शामिल कर उसकी चेतना का उन्होंने विन्यास किया. फिर आम्बेडकर ने इसमें साहसिक अमल जोड़ा और मानव अधिकारों और नागरिक अधिकारों की भाषा में प्रस्तुत किया. वे इतने पर ही नहीं रुके बल्कि यह दावा करने लगे कि राजनीतिक अधिकार उनके द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के केंद्र में है जो मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन और भौतिक प्रक्रियाओं से सम्बद्ध है. भारत की समस्याओं के प्रति उनकी वर्ग-आधारित एप्रोच को कम करके आँका गया और यह एक ऐसा अवसर है जो बहुत पहले चूक गया. सारी दुनिया पर और इस प्रकार आम्बेडकर पर मार्क्स का गहरा प्रभाव ज़ाहिर है अनेकों मार्क्सवादी पुस्तकों से जो उनकी लाइब्रेरी में पाई गईं.
कट्टर हिन्दू धर्म-सिद्धांतों के खिलाफ आम्बेडकर की लड़ाई और उसके साथ-साथ चलाया गया जाति-प्रेरित वर्ग संघर्ष उन्हें विशिष्ट जगह प्रदान करता है. वे एक परिष्कृत विचारक की जीती-जागती मिसाल और अंतर्विरोधों से ग्रस्त भारतीय समाज के लिए गंभीर ख़तरा थे. शायद यही वजह है कि आम्बेडकर एक ऐसी शख्सियत है जिससे सबसे ज़्यादा प्यार भी किया जाता है और नफ़रत भी. आम्बेडकर के प्रति भावनाएं, चाहे सकारात्मक हों या नकारात्मक, यथास्थिति को बदलने या बनाए रखने की इच्छा से ही उपजती हैं.
(सूरज येंगड़े की किताब ´कास्ट मैटर्स´ के चैप्टर ´दलित कैपिटलिज़्म´ सब-चैप्टर ´कास्ट इन दि निओलिबेरल एजेंडा´ से उद्धृत.)
हिन्दी अनुवाद : भारत भूषण तिवारी
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