Wednesday, November 3, 2021

पता नहीं चलता कि कब किस ने पाला बदल लिया है



प्रिय कवि लाल्टू का नया कविता संग्रह `कौन देखता है कौन दिखता` परिकल्पना प्रकाशन से छप कर आया है। इस संग्रह से कुछ कविताएँ यहाँ देते वक़्त इंटरनेट पर घूमते हुए प्रिय कवि नरेंद्र जैन की यह टिप्पणी मिली। उसे भी यहाँ दोहरा  रहा हूँ।

 “लाल्टू की कविताओं से रूबरू होते हुए ऐसे कवि से साक्षात्कार होता है जो सत्ता और व्यवस्था की कौंध से दूर जैसे अज्ञातवास में डूबा इस बुरे वक़्त को रेखांकित कर रहा है। ...कवि कर्म की सबसे बुनियादी और प्रामाणिक कसौटी वह निभा रहा है...जहाँ जीवन, कर्म और कविता, दोनों ही एक-दूसरे के पर्याय हैं। ...अपनी प्रेम कविताओं में भी वे घोर राजनैतिक होते हैं...। लाल्टू की कविताएँ बाज़वक़्त हमें अपना सही चेहरा भी दिखलाती हैं...। एक ऐसी कविता जहाँ विचार, अनुभव, कल्पना और अतियथार्थवाद का अद्भुत सम्मिलन है, इसमें हम लाल्टू को आर-पार और सरापा देख सकते हैं। लाल्टू का काम एक दुर्लभ अनुभव की तरह हमारे साथ जी रहा है...।” - नरेन्द्र जैन

लक्षणा व्यंजना का जुनून


लिखे गए लफ़्ज़

बूढ़े हो जाते हैं

सफल कवियों की संगत में पलते हैं सफल कवि

अकेला कहीं कोई मुग़ालते में लिखता रहता है


घुन हुक्काम-सी लफ़्ज़ों को कुतर डालती है

जैसे बुने गए इंक़लाब और कभी पहने नहीं गए

एक दिन सड़क पर फटेहाल घूमता है असफल कवि

एक फ़िल्म बनाकर सब को भेज देता है

कि इंक़लाबी लफ़्ज़ चौक पर

बुढ़ापे में काँपते थरथराते सुने गए


बरसों बाद कभी इन लफ़्ज़ों को

एक सफल कवि माला सा सजाता है

और कुछ देर लक्षणा व्यंजना का जुनून

दूर तक फैल जाता है।


चिड़ियाघर


किसका घर और किसका क़ैदखाना

सोचता

भीड़ में क़ैद शख़्स खड़ा है

ज़हन का कमाल है

या हैवानियत

बसा देते हैं चिड़ियाघर

अपने अंदर इस तरह के सवाल


गिरियाता है जिस्म के तिलिस्म में

मरियल अफ्रीकी बब्बर शेर

नसों में दौड़ती है

साइबेरिया के सारस की चीख

देर रात जगा हुआ

ढूँढता है घासफूस या कि गोश्त

यही सच है

कायनात के इस कोने में

पिंजड़ों में चकराते हैं हम

सूरज तारे हमें देखने आते हैं

अपने पुच्छल बच्चों के साथ

कौन देखता है

कौन दिखता है।


बच्चों सा खेल


तुमने देखा?

उन्होंने तोड़ डाले खिड़कियों के काँच

जैसे बच्चों सा खेल खेल रहे हों

वे एक नई कला के झंडाबरदार हैं

सुंदर को चुनौती दे रहे हैं

गर्व से शैतान का कलमा पढ़ रहे हैं


उनकी भी धरती है,

उनका अपना आस्मां है

सृजन के अपने पैमाने हैं

ज़हनी सुकून के शिखर पर होते हैं

जब किसी का क़त्ल करते हैं

या कहीं आग लगा देते हैं


बड़े लोग समझाते हैं कि रुक जाओ

सब कुछ तबाह मत करो

ऐसा कहते हुए कुछ लोग उनके साथ हो लेते हैं

पता नहीं चलता कि कब किस ने पाला बदल लिया है


टूटे काँचों को

समझाया जाता है

विकास, परंपरा, इतिहास जैसे शब्दों से

इसी बीच कुछ और क़त्ल हो जाते हैं

कुछ और उनके साथ हो जाते हैं

दिव्य-गान सा कुछ गूँजता रहता है


तुमने देखा?


डर-1


मैं सोच रहा था कि उमस बढ़ रही है 

उसने कहा कि आपको डर नहीं लगता

मैंने कहा कि लगता है

उसने सोचा कि जवाब पूरा नहीं था

तो मैंने पूछा - तो।

बढ़ती उमस में सिर भारी हो रहा था

उसने विस्तार से बात की -

नहीं, जैसे ख़बर बढ़ी आती है कि 

लोग मारे जाएँगे।

मैंने कहा - हाँ।

मैं उमस के मुखातिब था

यह तो मैं तब समझा जब उसने निकाला खंजर

कि वह मुझसे सवाल कर रहा था।


डर-2


दिल्ली में हूँ तो अमदाबाद

और अमदाबाद में दिल्ली

कहीं मेरठ, कोलकाता, दीगर शहर

ढूँढता हूँ अपने अंदर


डरता हूँ ख़ुद ही से

इतना पी चुका ज़हर।

***

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