Wednesday, September 14, 2022
यहाँ मेरा घर बन रहा है (मोहन मुक्त के कविता संग्रहः “हिमालय दलित है” पर कुछ नोट्स) : शिवप्रसाद जोशी
Sunday, May 15, 2022
एक सुबुक आवाज़ की फैलती स्याही
(अदनान कफ़ील दरवेश की कविताओं पर कुछ बातें)
शिवप्रसाद जोशी
XV
We, the mortals, touch the
metals, the wind, the ocean shores, the stones, knowing they will go on, inert
or burning, and I was discovering, naming all these things:it was my destiny to
love and say goodbye.
- Pablo Neruda (from Still Another Day) Trans. By William O’Daly
अदनान
कफ़ील दरवेश की कविताओं को पढ़ते हुए उपरोक्त कविता के अलावा चिली के महाकवि
पाब्लो नेरुदा का विख्यात नोबेल भाषण
भी याद हो आता है जिसमें उन्होंने
लातिन अमेरिकी भूगोल, लातिन अमेरिकी समय और संस्कृति के परतदार बहुआयामों, उसकी
बीहड़ताओं और स्वप्नों और रोमानो, पसीने धूल और गंध और ग्राम, नदी और पत्थरों
पहाड़ों और चट्टानों का रास्तों का लोगों की ज़िंदगियों का एक व्यापक चित्र प्रस्तुत
किया था. वो भाषण एक तरह से नेरुदा की कवि शख़्सियत को समझने की कुंजी भी है.
मेरा यक़ीन कीजिए
हर क्षण एक नया दृश्य उपस्थित हो रहा है
और मेरे आस-पास का भूगोल तेज़ी से बदल रहा है
जिसके बीच
मैं बस अपना घर ढूँढ रहा हूँ.
(मैं बस अपना घर ढूंढ रहा हूं, पृ. 61)
अदनान की कविताओं की किताब `ठिठुरते लैम्प पोस्ट` उनके कवि किरदार और शख़्सियत के बारे में बख़ूबी बता देती है. 175 पृष्ठों वाले अपने पहले कविता संग्रह की करीब 100 कविताओं के वितान से अदनान भी अपने कवि-पुरखों से जुड़ जाते हैं. और इस तरह पुरखों की आवाजाही से, स्मृति और प्रेम की और अनुभवों की आवाजाही से उनकी यह पुस्तक सम्पृक्त है, उससे रौशन है. `ठिठुरते लैम्प पोस्ट` के ज़रिए अदनान कविता के आंतरिक ताप की हिफ़ाज़त करते हैं. वह एक कांपती हुई सी रोशनी है, और अपनी डगमगाहट में भी बने रहने की ताब उसमें है. शांत और आहिस्ता. नाज़ुक सी है और जैसे मुंडेर पर आई चिड़िया की तरह एक मालूम-नामालूम से किसी अवर्णनीय सी स्पेस में स्थिर या उड़ान में लेकिन हमारी निगाह में स्थिर, अविचल. ‘तिल के भीतर भी एक जगह’ जैसी. "अंतःकरण के आयतन" की झलक दिखलाती रहती है. उसके बारे में बतलाती है.
अब नींद में मुलायम संगीत नहीं
है एक सुबुक आवाज़ की
फैलती स्याही
एक धुंध का साम्राज्य है चारों तरफ़
जहाँ नमक की बोरियों से
रिसता रहता है ख़ून...
(चमकती कटार, पृ 57)
ब्रिटिश
चिंतक जॉन बर्जर 2006 की अपनी किताब “कन्फ़ैब्यलेशन”
में विज़ुअल भाषा से आगे शब्द की दृश्यात्मकता की
अहमियत बताते हैं. बर्जर मानते हैं कि भाषा एक देह है, एक जीवित प्राणी...और इस
प्राणी का निवास अव्यक्त भी है और व्यक्त भी. उनके मुताबिक विश्वसनीयता में एक
अजीब तरह का द्वंद्व रहता है. किसी अनुभव की संदेहार्थकता और अनिश्चितता के प्रति,
यहां तक कि वो निश्चितता का अनुभव ही क्यों न हो, उसके प्रति लेखक का खुलापन ही है
जो लेखन को स्पष्टता और इसलिए एक क़िस्म का यक़ीन मुहैया कराता है. फ़ॉर्म और
कंटेट एक दूसरे से गुंथे हुए हैं, इस तरह
कि उनसे एक साथ ख़ून रिसता है. लेखन में प्रामाणिकता, अनुभव की संदेहार्थकता के
प्रति वफ़ादारी से ही आती है.
अदनान
ने एक व्यापक संसार की बैचेनियों और मामूली ख़ुशियों की कविताएं लिखी हैं. इस
अकेले एक संग्रह में ही एक कवि के क़द का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. अदनान की
कविता जीवन की कविता है. वो एक उदास, थकी हुई, मेहनत से पस्त, दुखों और झंझटों में
लिथड़ी और अपने संघर्षों पर कभी हैरान तो कभी तैयार, आम नागरिक के अनुभवों के
पर्यवेक्षण से तैयार कविता है. इस नाते कहना चाहिए, हालांकि इस कहने में भी दुस्साहस या अतिरंजना भी माना जा सकता है
लेकिन ये ज़ोर देकर कहना ज़रूरी है कि हिंदी में नागरिक जीवन के बहुत मामूली और
बहुत अदेखे से लेकिन अपनी संवेदनशीलता में बहुत तीक्ष्ण और गहन वृत्तांतों वाली
कविता है जिसके यूं तो कई पुरोधा और शिरोमणि इधर भारतीय साहित्य के आसमान में
चमकते रहे हैं. लेकिन इस आसमान को अपडेट की सख़्त ज़रूरत है.
ये
कविताएं आठवें और नौवें दशक के कई कवियों की कविताओं से अलग मक़ाम रखती हैं. तो
इसकी भी वजह है. हमें नहीं पता वे अध्ययन कहां होते हैं और कब होते हैं जब हिंदी
में कविताओं की एक मुकम्मल, पारदर्शी छानबीन होती हो. या वही होता हो जैसा कि समरसेट
मॉग्घम ने एक जगह लिखा था और जिसका ज़िक्र लेखक द्वारा अन्यत्र किया जा चुका है. ब्रिटिश
उपन्यासकार और नाट्यकार विलियम समरसेट मॉग्घम “अ राइटर्स नोटबुक” में लिखते
हैः “साहित्यिक फ़ैसलों में नेकनीयती
हासिल करना कठिन होता है. ये लगभग असंभव है कि कोई व्यक्ति किसी रचना के बारे में
किसी आलोचनात्मक या सामान्य मत के न्यूनतम प्रभाव में आए बगैर अपना कोई मत बना ले.
इस कठिनाई को बढ़ाने वाली एक बात ये भी है कि महान स्वीकृत हो चुकी रचनाओं के संबंध
में आम राय या साधारण मत से भी उनकी महानता का कुछ हिस्सा बनता है. कविता पढ़ने
वाले पहले पाठक की नज़र से कविता पढ़ने की कोशिश करना एक लैंडस्केप को उस वातावरण
के बिना देखने की कोशिश करना है जो उसका आवरण है.”
तो आख़िरी लाइन की मदद से कहूं तो अदनान की कविता का पहला पाठ ही हमें उन
कविताओं के आवरणविहीन लैंडस्केप के सामने खड़ा कर देता है. अदनान ने इस मामले में
अपने पूर्ववर्तियों और अपने समकालीनों से एक अलहदा जगह हासिल की है. अदनान को आवरण
से अपने मंतव्य को और अपनी कविता को और अपनी अमूर्तता को ढकने का न कोई इरादा नज़र
आता है न कोई तरतीब. उसमें तो बसः
ऊपर पिघल रहा है आकाश
नीचे खदक रही है पृथ्वी
...और पीछे से
बस्ती के पर्दे को चीरती हुई
चली आ रही है
अजान की धुँधली आवाज़.
(एक नीरस शाम की सिम्फ़नी, पृ 50-51)
जैसे मुझे
इस बात की ख़ुशी है कि एक कवि के तौर पर मैं खुद को उस लैंडस्केप का ही एक रहबर
पाता हूं. और मानता हूं कि ये मेरी ही कविता है. वे मेरी ही लाइनें हैं जिन्हें
कवि अपने संताप में और अपनी कुछ मीठी कुछ दर्द भरी कुछ बेकल कर देने वाली
स्मृतियों में ढाल रहा है.
जिस दिन हमारे भीतर
लगातार चलती रही रेत की आँधी
जिसमें बनते और मिटते रहे
कई धूसर शहर
उस रोज़ मैंने देखा
ख़ौफ़नाक चीखती सड़कों पर
झुके हुए थे
बुझे हुए
ठिठुरते लैम्प पोस्ट...
(ठिठुरते लैम्प पोस्ट, पृ 65-66)
अदनान
ने ग्राम्य और कस्बाई जीवन के इतने सूक्ष्म बिंबो को उकेरा है जो बहुत विरल हैं और
वैसी तहकीकात कम नज़र आती है. तुलनाएं अपेक्षित नहीं हैं और ना ही हमारा ऐसा इरादा
है. बल्कि हम ध्यान ये दिलाना चाहते हैं कि कविता में लालटेन के अलावा एक ढिबरी की
याद भी है.
ये बात है उन दिनों की
जब रात का अँधेरा एक सच्चाई होता था
और रौशनी के लिए सीमित साधन ही मौजूद थे मेरे गाँव में
जिसमें सबसे इज़्ज़तदार हैसियत होती थी लालटेन की
जिसे साँझ होते ही पोंछा जाता
और उसके शीशे चमकाए जाते
हर रोज़ राजा बेटा की तरह माँ और बहनें तैयार करती थीं उसे
लेकिन मुझे तो वो बिल्कुल मुखिया लगता था
शाम को, घर के अँधेरों का.
बेशक “पहाड़ पर लालटेन” और “लालटेन की तरह जलना,” हमारे दो अत्यंत प्रिय कवियों मंगलेश डबराल और
विष्णु खरे की अत्यंत महत्त्वपूर्ण, मानीख़ेज़ और
लोकप्रिय कविताएं हैं लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक के आख़िरी साल यानी 2019 में
लिखी अदनान की ढिबरी कविता जैसे एक आख़िरी लौ की तरह जलती रहती है. यह ख्याति की
विराट रोशनी में तब्दील नहीं हो जाती बल्कि ढिबरी ही बनी रहती है. एक कोने में
सांस लेती हुई, हिलती कांपती हुई लौ. लेकिन अपने प्रिय कवि को अदनान लालटेन के हवाले से याद करते हैं. मंगलेश डबराल की याद में लिखी
कविता “लालटेन और कवि” में वो कहते हैं- कवि नहीं मरते वे महज़ ओझल हो जाते हैं हमारी
कमख़ाब नज़रों से.
अदनान
की कविता की एक ख़ूबी ये भी है या एक साहस कह लीजिए कि वो अपनी बिरादरी अपने
परिवार अपने समाज और अपनी क़ौम के आह्लाद, राग, दुख और बेचैनी के बारे में बताते
हुए संकोच नहीं करते हैं. वे नमाज़ी की एक भावना को व्यक्त कर देते हैं जैसी कि वो
है चाहे वो नन्हा नमाज़ी क्यों न हो जिसके लिए घर का बूढ़ा फाटक भी धीरे धीरे
खुलने लगता है. अदनान उन्हें खोलकर आगे जाते हैं और खुलकर बताते हैं कि इस देश में
नागरिक जीवन कितनी विविधताओं और कितने विविध क्लेशों और यातनाओं में व्याप्त है. “अपने गांव को याद करते हुए” शीर्षक से कविता इसका एक उदाहरण कही जा सकती है.
जब मुल्क की हवाओं में
चौतरफ़ा ज़हर घोला जा रहा है
ठीक उसी बीच मेरे गाँव में
अनगिनत ग़ैर-मुस्लिम माँएँ
हर शाम वक़्ते-मग़रिब
चली आ रही हैं अपने नौनिहालों के साथ
मस्जिद की सीढ़ियों पर
(पृ 18)
वेनेज़ुएला के अप्रतिम कवि और गद्यकार इयुखेनियो मोंतेहो
(Eugenio Montejo, 1938-2008) ने कविताओं पर अपने नायाब छिटपुट नोट्स में एक जगह लिखा
हैः “उस कविता से पहले, जो हर हाल में और लाज़िमी
तौर पर हमारी अपनी कविता होती है, उससे पहले हम कमज़ोर होते हैं. एक सर्वोच्च
शक्ति उसके भीतर निवास करती है. कविता को घुसपैठ के लिए कमज़ोरी की दरकार है,
इसीलिए तर्क शक्ति या विचार शक्ति कमोबेश
हमेशा ही उसके आगे एक अवरोध होती है. प्रामाणिक कवि इस प्रतिरोध को खाली कर देते हैं, उसे गिरा देते हैं (उसे लैस नहीं
करते, जैसी कि साहित्यिक नियमावलियों की सलाह होती है), ऐसे कवि असहायता की प्रविधियों
और प्रतिबिम्बों का सृजन करते हैं ताकि कविता उनमें अपनी घुसपैठ कर सके. इस लिहाज से सृजनात्मकता भी निश्चेष्ट तौर पर स्त्रैण या स्त्रियोचित
है, वो जितनी निश्चेष्ट होगी उतना ही गहराई से वो काव्यात्मक आवाज़ को
जन्म देने में योगदान करेगी.”
इन
दिनों जब पत्रकारिता में वस्तुनिष्ठ कहने की याद दिलाई जाती है जिसके मायने तटस्थ
या निरपेक्ष रहने से भी बाज़दफ़ा होते हैं, तो कविता में भी इस ‘तटस्थता’ की लाभ
उठाए जा रहे हैं और कविता से मज़े लिए जा रहे हैं, लगता है. ये उसका ‘नव-कौशल’ है. ज़ाहिर है यह कौशल कोई आज ही तो जन्म नहीं लेता, उसकी भी एक
धारा, एक परंपरा और पदानुक्रम और पीढ़ी है. अदनान की सबसे महत्त्वपूर्ण कविताओं
में से एक “तारीख़ी फ़ैसला” इसे फ़ाश करती है. 2019 में लिखी ये कविता बताती हैः
एक उदार सुब्ह
मुल्क की आलातरीन अदालत ने
जैसे ही अपना तारीख़ी फ़ैसला आम किया
मस्जिद का चौथा गुम्बद
आप ही बे-आवाज़ ज़मीन पर गिरा
जिसमें क़ैद थी मस्जिद की आख़िरी
लहूलुहान अज़ान
जो मुल्क के हर मज़लूमों-इंसाफ़पसन्द फ़र्द के भीतर
सत्तर बरस बाद गूँज उट्ठी
ये कैसा राज है मियाँ?
लोग बतलाते हैं
मस्जिद में तो केवल तीन गुम्बद थे.
(पृ 98)
जर्मन
चिंतक वुल्फ़गांग आइज़र (1996-2007) ने साहित्यिक रचना पर ग़ौर फ़रमाने के तरीके
सुझाते हुए कहा था कि न सिर्फ़ वास्तविक टेक्स्ट पर ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि
उस टेक्स्ट के प्रतिक्रियास्वरूप होने वाले ऐक्शन को भी देखना चाहिए. “वुल्फ़गांग आइज़र के मूल सिद्धांत” नामक लेख में नसरुल्लाह माम्ब्रोल लिखते हैं कि आइज़र के मुताबिक
साहित्यिक रचना के दो छोर हैः एक कलात्मक जो लेखक के रचित पाठ से बनता है, और
दूसरा एस्थेटिक जिसका आकार पाठक बनाता है. पाठ और पाठ के वास्तविकीकरण से साहित्यिक
रचना को नहीं पहचाना जा सकता बल्कि उन दोनों के बीच किसी स्थिति में ही उसे आंका
जा सकता है. यानी ऐसी स्थिति जब पाठ और पाठक का विलय हो जाए. यानी रीडिंग अपने आप
में एक सक्रिय और रचनात्मक प्रक्रिया है.
इन
कविताओं को पढ़ते हुए मैं जैसे खुद के भीतर भी झांक रहा हूं और देख रहा हूं कि मैं
ही तो हूं वो. और इन कविताओं में जो दुख, उदासी और आंतरिक वेदना से भीगा हुआ जो साहस है जो
उत्तेजना है वो उन्हें और प्रखर बनाता है. यह समय में आवाजाही भर नहीं है, न समय यहां विभाजक रेखा है, बस जो
है वो अंतर्तम है. “वहां जहां कहां” कविता में आख़िरी पंक्ति है- “मैं हूं वहां जहां मैं क़तई नहीं हूं...”
हृदय
एक सहमा प्रदेश
जिसके असंभव दिगंत में
लटकी है धूल से बनी तुम्हारी तस्वीर
मेरी तिरछी टोपी के असम्भव द्वार में खुँसे हैं
तुम्हारे भेंट किए हुए पिछली सर्दियों के मुरझाये फूल
मैं हूँ वहाँ जहाँ मैं क़तई नहीं हूँ...
(वहाँ जहाँ कहाँ, पृ 120)
एक अच्छी कविता का बुनियादी गुण उसमें
निहित ईमानदारी नहीं तो और क्या है. फिर ये बात कविता ही नहीं तमाम विधाओं पर भी
लागू होगी. फिर विधाएं और कलाएं ही क्यों, मनुष्य पर भी तो यही लागू होगा. तो इस बुनियादी
गुण के थ्रेड के सहारे देखें कि वो कविता से लेकर मनुष्य होने तक और मनुष्य से
कविता तक जाता है. दूसरे शब्दों में कविता में निहित ईमानदारी में रचनाकार ही
रिफ़लेक्ट होगा. या रचनाकार का ईमान कविता में रिफ़लेक्ट होगा. हिंदी की
महत्त्वपूर्ण कवि कात्यायनी की एक कविता के हवाले से एक अहम बात को याद करें-
फ़िलहाल कुछ निराशा-भरी कविताएँ/ लिखी जानी चाहिए/ और ग़लत समझे जाने का जोखिम/ मोल लिया जाना चाहिए/ ईमानदारी एक बार फिर कविता की/ बुनियादी शर्त बनाई जानी चाहिए.
अदनान
के इस संग्रह में ऐसी कविताएँ हमें पढ़ने को मिलती है जो अपने अतीत अपने घर गांव
देहात और मां और अब्बा और बच्चों और ग्राम्य संसार की कोमल, मर्मस्पर्शी स्मृतियों
का स्वप्नलोक सी बुनती है. और इसकी एक स्वप्नकथा भी है जिसमें वो कहते हैं- घर
एक सूखा पत्ता जो रात भर खड़खड़ाता है मेरे सिरहाने...यह लंबी कविता अपने
अंतर्निहित सौंदर्य से नहीं अपने संगीत से भी हमें हैरान करती रहती है. एक घर की
कथा एक जीवन और स्मृतियों का एक जीवंत समुच्चय जैसे यातना और ख़ुशी का एक मिलाजुला
गान है, जिसमें कई तानें निबद्ध हैं. एक दूसरे को ओवरलैप करती हुई. एक दूसरे में
गुम होती हुई और फिर से प्रकट होती हुई. और फिर हमें सुनाई देती है एक नीरस शाम की
सिम्फ़नी.
एक नीरस शाम की सिम्फ़नी बज रही है जैसे
अँधियारा, जूँ बिहान का धोखा दे रहा है...
(पृ
50)
अदनान
की अपने अब्बा की स्मृति में लिए लिखी “छाता” कविता पढ़ते हुए एक देहरी पर दीवार के सहारे रखा मक़बूल फ़िदा हुसैन
का ‘छाता’ यादा आ जाता है और याद ही क्यों वह खुलने लगता है और अपने ज़माने की
बेरहमी पर तना काला छाता बन जाता है. इसी तरह हमारा साबका एक और असाधारण कविता से
होता है. जिसका शीर्षक है “गमछा.” ऐसे समय में जब पराजित, हताश, कुछ घोषित-अघोषित
समझौतों की ओर बढ़ती, बदली हुई मनःस्थितियों के सेमेन्टिक्स, संकेत और प्रकट
व्यवहार, साहित्यिक-सांस्कृतिक मुख्यधारा में सघन होने लगे हैं, तब अदनान की 2015
में लिखी की ये कविता एक ख़ास याददिहानी की तरह आती है. जिसकी आख़िरी लाइनों में
वो कहते हैं-
गांव से हज़ारों मील दूर
इस महानगर में
जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ
तो उदास और कड़े दिनों के साथी
अपने गमछे को उठाता हूँ
और उसे ओढ़ लेता हूं
क्यूँकि मुझे यक़ीन है
इस गमछे पर
इसके एक-एक रेशे पर
जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है
और सच कहूँ
तो एक पुरबिहा के लिए गमछा
महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर नहीं है
बल्कि उसके कंधों पर
बर्फ़ की तरह जमा
उसका समय भी है.
(पृ 17)
अदनान के काव्यात्मक स्वर की ईमानदारी का निर्माण करने वाले तत्व आख़िर कौन से
हैं. बहुत सारी कविताओं से भरे इस संग्रह को बार बार उलटने पलटने कविताओं को बार
बार देखने के बाद ये तत्व हमें नज़र आते हैं- सबसे पहला है साहस, मासूमियत, सच्चाई
को बयान करने का हुनर, अपनी पहचान के प्रति एक अटूट ज़िद, अपने मुलुक अपने देस अपनी
मिट्टी के प्रति गहरा प्रेम, गहरी अंतर्दृष्टि, एक व्यापक समझ, भाषा की सादगी और
विचार की दृढ़ता. एक अदद ईमानदारी का निर्माण हंसी-ठट्ठा नहीं है, अनगिनत अणुओं से
उसकी रचना होती है. वे अणु जो शब्द, भाव, दृष्टि, बोध और विवेक में निहित होते हैं.
और वे उन अलग अलग तत्वों के निर्माता
होते हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया हैं. कविता में ईमानदार हो पाना
बहुत पेचीदा बहुत कठिन सा काम है और लिहाज़ा दुर्लभ भी. अदनान को इस लिहाज़ से
सचेत भी रहना चाहिए और होशमंद भी कि वे इस दुर्लभ भूगोल के चुनिंदा कवि-नागरिकों
में से एक हैं. उनके रास्ते और चक्करदार होंगे और इम्तहान और कड़े. फिर एक रोज़ वह
क्षण कला का प्रकाशित हो उठेगा जैसे हमारे प्यारे हमारे वरिष्ठ कवि इब्बार रब्बी अपनी एक कविता “कोरा
काग़ज़” में बताते हैं- आज कवि नहीं रहा
मनुष्य बन गया/
साधारण हो गया हो गया सादा/ कोरा
कागज रह गया.
और आख़िर में अदनान के संग्रह
“ठिठुरते लैम्प पोस्ट” की पहली कविता “फ़जिर” की चंद
लाइनें उस अज़ान के नाम जिसके बारे में कभी
सुदीप बैनर्जी ने लिखा
था कि समतल नहीं होगा कयामत तक/ पूरे मुल्क की छाती पर फैला मलबा/ ऊबड़-खाबड़ ही रह जाएगा यह प्रसंग/ इबादतगाह की आख़िरी अज़ान/ विक्षिप्त अनंत तक पुकारती हुई.
फ़ज़िर की अज़ान
बस होने ही वाली है
और मैं सोच रहा हूँ
कि ऐसा कब से है
और क्यूँ है
कि मेरे गाँव के तमाम-तमाम लोगों की घड़ियाँ
आज भी
फ़ज़िर की अज़ान से ही शुरू होती हैं.
***
शिवप्रसाद जोशी
कवि-पत्रकार-विचारक शिवप्रसाद जोशी देहरादून में रहते हैं।