Wednesday, September 14, 2022

यहाँ मेरा घर बन रहा है (मोहन मुक्त के कविता संग्रहः “हिमालय दलित है” पर कुछ नोट्स) : शिवप्रसाद जोशी

वो तुम थे एक साधारण मनुष्य को सताने वाले अपने अपराध पर हँसे ठठाकर, और अपने आसपास जमा रखा मूर्खों का झुंड अच्छाई को बुराई से मिलाने के लिए, कि न छंट सके धुंध, बेशक हर कोई झुका तुम्हारे सामने कसीदे पढ़े तुम्हारी शराफ़त और अक़्ल के तुम्हारे सम्मान में झलके गोल्ड मेडल जीवित रहे, ख़ुश हुए, न सोच लेना ख़ुद को महफ़ूज़. कवि को याद है. एक को मारोगे, और जन्म लेंगे सब कुछ हो गया है दर्जः शब्द, हरकतें और तारीख और तुम्हारे काम आ सकती है बेहतर एक सर्द सुबह एक रस्सी, और तुम्हारे भार से झुकी हुई एक डाल. पोलिश कवि चेस्लाव मिवोश की कविताः सताने वाला रिचर्ड लाउरी के अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित रूपांतर (साभारः द कलेक्ट्ड पोएम्सः 1931-1987, द एक्को प्रेस, 1988) युवा कवि मोहन मुक्त ने अपनी कविताओं से हिंदी कविता संसार में खलबली मचा दी है. मोहन के काव्य पर नोट्स लिखते लिखते, देहरादून स्थित समय साक्ष्य प्रकाशन से “हिमालय दलित है” (2022) का दूसरा संस्करण भी छप कर आ चुका है. हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में उनकी जगह क्या है, इस बारे में स्पष्ट रूप से कोई दलील यहां पर नहीं दी जा रही है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि ये रिश्ता शायद उतना सहज और गलबही वाला न हो क्योंकि मोहन साहित्य के मठाधीशों, और जातीय, सवर्णवादी, सामंती वर्चस्वों को न सिर्फ़ फ़ाश कर रहे हैं बल्कि उनकी धज्जियां भी अपनी कविता और विचारों के माध्यम से उड़ाते आ रहे हैं. दूसरा वो दलित साहित्य का वो स्वर है जो पहली बार इतने मुखर और बेबाक हैं कि अपने दलित होने की व्यथा-कथा नहीं बल्कि प्रखर अंदाज़ में आत्मसजगता और अंतर्विरोधों का वर्णन कर रहा है और दलितों और उत्पीड़ितों को अपने खोये सम्मान के लिए एक नयी भाषा में जगा रहा है. वो एक नयी पुकार के लिए उठा स्वर है. उसकी अदम्यता और हौसले का ही ये उन्मेष है कि वो ये कहने का साहस करता है कि हिमालय दलित है. और ‘वो ख़ुद जमा हुआ है, वो ख़ुद थमा हुआ है.’ (पृ 17, पृ 120) मोहन उस अनुनय विनय सत्कारी सद्भाव के छद्म वाली कुलीन, अभिजात सवर्ण दुनिया के सामने विनीत होकर अपनी बात नहीं रखते क्योंकि इस छद्म विनम्रता या कथित सौम्यता की आड़ में जो घटित होता आया है उससे भी वो बाख़बर हैं लिहाज़ा अपनी बात दो टूक रख देते हैं. इसका आशय ये नहीं कि मोहन भाषा में संयमी नहीं हैं और एक मानवीय गुण से वंचित हैं. आप उनकी कविताओं को पढ़कर जानेंगे कि दबेकुचले नागरिक समुदाय से समानुभूति यानी एम्पैथी का कैसा विरल संसार उन कविताओ में व्याप्त है. अपने जन की चिंता का ऐसा नागरिक उद्वेग ऐसी बेचैनी, सिर्फ किसी नारे या जोश की मोनोटनी नहीं हो सकती. इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं और ऐतिहासिक हैं. जब मैं कहता हूँ लौटों जड़ों की ओर तो उसका मतलब है लौटो जड़ की ओर जो एक है...केवल एक ही जब मैं कहता हूँ लौटों जड़ों की ओर तो मैं उस जगह की बात करता हूँ जहाँ विज्ञान और दर्शन में कोई विरोध नहीं (कविता जड़ों की ओर...पृ 71) मोहन सदियों के अत्याचारों और शोषणों से कराहती आ रही पीड़ित मनुष्यता का पक्षधर कवि है. वो सीधे उस जनता को संबोधित कवि है जो अदृश्य अप्रकट और अगोचर और अमूर्त नहीं है, बाकायदा उपस्थित है, हाड़मांस वाली है और प्राणवान है और रक्तरंजित है. सदियों के जख्मों की याद दिलाती, उन्हें भरते हुए भी न भूलने के लिए हमेशा जगाए रखती, प्रेरित करती रहती कविता है उनकी, उसमें शास्त्रीयता का, व्याकरण का कविता की अपनी छटाओं और विशिष्टताओं का बोलबाला नहीं है, वो सजीधजी बनीठनी नहीं है वो बिल्कुल खुरदुरी सख्त और बाज़दफा शुष्क है. कविता के पंडितो और मान्यवरों को ये कविताएं शायद स्वीकार्य न हो, हो सकता है इसमे हज़ार कमियां गल्तियां कमज़ोरियां और काव्यगत विशेषताओं-ख़ूबियों का अभाव या कमी बताई जाए या बताई जा रही हो लेकिन यहां तो ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि मोहन की कविताओं की विशिष्टता उनका वो उबड़खाबड़ स्वर ही है. वो शुष्कता और खुरदुरापन ही उनकी कविता की ज़मीन है और उनकी सादगी और सच्चाई मौलिक है, ठीक जैसे एक धरती होती है जिसमें अपनी प्यास बुझाने के लिए नागरिकों को भटकना और तड़पना पड़ता है. मोहन इस धरती के संसाधनों पर मजलूमों और वंचितों, दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, और समाजों-संस्कृतियों-राजनीतियों से बेदखल लोगों के हक के लिए जगह बनाती, आवाज़ उठाती, लड़ती भिड़ती, चोट खाती, गिरती फिर उठती कविता के शिल्पकार हैं. जब भी पहाड़ी सीढ़ीनुमा खेतों की बात होती है उनके सौंदर्य की बात होती है तो मुझे उनमें दर्जे दिखाई देते हैं इंसानों के दर्जे ऊपर और नीचे तक फैले अपनी अपनी जगह स्थिर जब उन खेतों के किनारे की पगडंडियों का ज़िक्र होता है तो मुझे डोलियाँ याद आती हैं अरे सुहागनों और दुल्हनों वाली डोलियाँ नहीं अजन्मे बच्चों के साथ तड़पती अपने जिस्म से बहते ख़ून की तरह बर्बाद हो चुकी औरतों की डोलियाँ रोगियों की डोलियाँ (कविताःनिराश, पृ 101) चिली (चीले) के कवि पाब्लो नेरुदा ‘इम्प्योर पोएट्री’ यानी अशुद्ध या मैलीकुचैली, खुरदुरी कविता के पक्षधर थे. इसे लेकर उन्होंने 1935 में एक छोटा सा लेकिन तीक्ष्ण निबंध भी लिख डाला था. निबंध क्या है गद्य कविता जैसा एक लंबा थरथराता नोट है. नेरुदा के इस नोट को उनके चाहने वाले उनका एक घोषणापत्र भी कहते हैं. “दिन और रात के कुछ खास पलों में स्थिर चीज़ों के संसार को क़रीब से देखना अच्छा है. खनिजों और सब्जियों का बोझ ढोते हुए लंबी धूल भरी दूरियों को पार करने वाले चक्के, कोयले के ढेरों से निकले बोरे, पीपे और टोकरे, कारपेंटर के औजारों के बक्से के हत्थे और कुंदे. आदमी का धरती से संपर्क का बहाव इन तमाम चीज़ों से होता है जैसे कि तमाम संकटग्रस्त गीतकारों का एक पाठ...” “…वही हो वो कविता जिसकी हमें तलाश हैः हाथ के अहसानों से उधड़ी हुई, जैसे कि एसिडों से, पसीने और धुएं मे तरबतर, लिली और पेशाब की गंध से सराबोर, हमारी रोज़ीरोटी के कारोबारों में अलग अलग ढंग से छितरी हुई, कानून के भीतर और उससे आगे कहीं. कविता हो इतनी बेरौनक, इतनी मैली, इतनी अशुद्ध जैसे कि हमारे पहने हुए कपड़े, या हमारी देहें, सूप के दाग से भरे, हमारे शर्मनाक व्यवहार में धूल-धूसरित, हमारी त्यौरियां और हमारी झुर्रियां और हमारे रतजगे और हमारे सपने, पर्यवेक्षण और भविष्यवाणियां, नफ़रत और प्रेम के हमारे ऐलान, हमारी मौजें और दरिंदगी, मुठभेड़ के धक्के, राजनीतिक वफ़ादारियां, इंकार और संदेह, अभिपुष्टियां और आज़माइशें और वसूलियां.” इस तूफ़ानी नोट के अंत में नेरुदा लिखते हैं, “जिन्हें चीज़ों के बुरे स्वाद से परहेज़ है वे मुंह के बल बर्फ़ पर गिरेंगे.“ (https://penguin.co.in/toward-an-impure-poetry-by-pablo-neruda/) नेरुदा ने कहा था कि, “मैं अपनी कविता में हमेशा लोगों के हाथों को देखना चाहता हूं...मैंने हमेशा ऐसी कविता को तरजीह दी है जिसमें अंगुलियों के निशान दिखाई देते हैं- दोमट जैसी उपजाऊ मिट्टी की कविता जिसमें पानी गा सकता है, रोटी की कविता जिसमें हर कोई खा सकता है.” बर्तोल्त ब्रेख़्त की ‘बुरे वक्तों में क्या होगा गान’ वाली प्रसिद्ध और लीजेन्डरी कविता को भी हम यहां पर याद कर सकते हैं. भाषा अगर दमन और सामाजिक कलंक का ठिकाना है तो वो प्रतिरोध और संघर्ष का ठिकाना भी है. ये प्रतिरोध ऐसी मुखर, बेबाक, ठोस, और गैरकुलीन, गैर अभिजात, गैर पवित्रतावादी, गैर शुचितावादी, गैर शुद्धतावादी, गैर संस्कारवादी भाषा में प्रकट होता है जिसका कोई सानी नहीं. ये हमें फिर संगीत में उपजे प्रतिरोधों और बेचैनियों की ओर ही ले जाता है जो हम आदिवासियों के गीतों से लेकर कालों के जैज़ में कांपता उठता थरथराता देख सुन सकते हैं. वो संगीत के अलावा कला में भी मौजूद है. इस लिहाज़ से देखेंगे तो अमूर्तता कोई बुरी चीज़ नहीं है. अन्यायों के खिलाफ दलित चेतना एक अमूर्त बुलंदी में भी अपना आकार पा सकती है- एक ठोस अमूर्तता, एक अमूर्त अमूर्तता नहीं. ये थोड़ा पेचीदा सी बात है और मोहन की कविताएं समाज और समय और संस्कृति की पेचीदगियों को अपने ढंग से उद्घाटित करती है. ये भाषा सजीधजी नही है, सजावट और ऋंगारिक उपायों का रुख नहीं करती है. विषय को दबाती छिपाती या न्यूट्रलाइज़ नही करती है. ब्राह्मनवादी संस्कृति के अनाचारों को उद्घाटित अनावृत्त कर देने वाली भाषा है. तमिल लेखक बामा ने कहा था, दलित को दलित की तरह लिखना चाहिए. और इस नाते यथास्थिति की सतही स्वच्छता और सुव्यवस्था को, व्याकरण, वाक्य-विन्यास और छंद के नियमों, शुद्ध, दैवीय और संस्कारी भाषा की कथित श्रेष्ठता को छिन्नभिन्न कर देना चाहिए. मैं गड़ता रहूँगा तुम्हारी आँखों में मैं चुभता रहूँगा तुम्हारे जबड़ों में तुम्हारे हर मज़े को मैं बेमज़ा कर दूँगा घृणा से जब थूक दोगे तुम मुझे तो मैं थालियों में संगीत बनकर बज उठूँगा जिसकी आवृत्ति ज्वालामुखी के गहरे हृदय को झकझोर देगी कंकड़ हूँ मैं... (कविताः कंकड़, पृ 264) *** बाज़दफ़ा ये भी महसूस होता है कि मोहन की ये कविताएं मेरी लिखी कविताओं को आईना दिखाती हैं. वे मेरी कविताओं से सवाल पूछती और उनके आसमान पर मंडराती छायाओं की तरह है. बाज़दफा ये साए मेरे दिल में उतर आते हैं और वहां उत्पात मचाते हैं. एक दलित वेदना या अपमान या संघर्ष क्या मेरी कविता समझ सकती है. क्या वो उसका बखूबी और इन्टेन्स वर्णन कर सकती है, क्या मैं एक दलित आह के भीतर झांक सकता हूं कि वहां कितना गहन और विराट अंधकार है क्या मैं उस अंधकार को पहचानता हूं, क्या मैं उस चेतना को ग्रहण कर सकता हूं जो एक दलित होने से निबद्ध रहती है. मेरे पास ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो मुझे झिंझोड़ते और फटकारते आए हैं और मोहन मुक्त की कविताएं नये अंदाज़ में नयी भाषा में लेकिन एक ऐतिहासिक क्षोभ और पीड़ा के साथ याददिहानी के लिए मेरे पास आई हैं. भाई तुम कहां हो. तुम्हारी कविता क्या कर रही है, हिंदी की कविता का सवर्ण कुलीन संसार क्या कर रहा है. क्या तुम उसमें जगह रखते हो अगर नहीं रखते हो तो फिर कौनसी जगह के आकांक्षी हो फिर कौन सा नया रास्ता तुमने अख़्तियार किया है या बनाया है. हिंदी के भीतर इतनी सारी हिंदियां किस हाल में हैं. तुम कौनसी हिंदी के प्रतिनिधि हो और मोहन मुक्त कौनसी हिंदी का. क्या तुम दोनों एक ही हिंदी लिखते हो बोलते हो सोचते हो अमल में लाते हो. अगर नहीं तो ऐसा क्यों हैं और इसके पीछे कौन है. क्या तुम उस शक्ति को पहचानते हो क्या उसे टोक सकते हो क्या मोहन की कविता उस शक्ति को पहचानती है और उसे चेलैंज करती है और उसकी आवाज़ की निर्मितियां इतनी व्यापक हैं कि अनुगूंज की तरह सदियों से तुम्हारे और तुमसे पहले के लोगों, पूर्वजों के कानों से गुज़रती आई हैं. क्या तुम अनसुने के कवि हो. या जो अनसुना रहता आया है उसका कवि मोहन मुक्त है, तुम नहीं या तुम्हारे जैसे लोग नहीं है. मोहन की कविताएं सहसा एक स्थानीय दंश से उठकर वंचितों की सर्वकालिक और विश्वव्यापी व्यथा, यातना और प्रतिरोध की कविता बन जाती है. फिर हमारे सामने एक बड़ा भूमंडल ज़ाहिर होने लगता है, वही वैश्विक सवर्णों का, कुलीन अधिपतियों का, साम्राज्यवादियों और नवपूंजीपतियों का, एक चाटुकार और ढहे हुए मध्यवर्ग का, लिबर्टी और लड़ाई और धन और ऐश्वर्य को एक साथ साधते एनजीओवादियों का. और इसी भूमंडल के किनारों से धधकती रौशनियों की प्रखरता और ज्वालाओं की तपिश हमें महसूस होने लगती है. अफ्रीकी महाद्वीप के जनसंघर्ष, ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों का दमन, औपनिवेशक कॉमनवेल्थ की क्रूरताएं और लोकतंत्र की आड़ में चली आ रही धूर्तताएं, अमेरिका के कालों का आंदोलन, लातिन अमेरिकी समुदायों का पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा संघर्ष- मोहन मुक्त की कविताओं में ये सारी छवियां अपना आकार बनाती हुई हमारे समक्ष उपस्थित हो जाती हैं और अपने अपने सवालों से हमें सराबोर और परेशां और बेचैन करती हैं. इसी सिलसिले मे भारतीय उपमहाद्वीप में वंचितो की लडाई को भी देखना चाहिए. श्रीलंका और म्यांमार के बौद्धों का आंतक, पाकिस्तान में उपजातीयताओं और दबेकुचलों पर वहां के कुलीनों और अभिजातों के प्रहार, और भारत में हिंदी पट्टी के अलावा, देश भर में दलितों और गैर सवर्णों पर पीढ़ियों के ज़ुल्म. पंजाब की दलित चेतना में चमार पॉप और रैप का उभार एक तरह से मोहन मुक्त की कविता संसार में भी धड़कता है. संग्रह में एक महत्वपूर्ण कविता ऋंखला है “लोक संस्कृति.” 27-28 पेजों में फैली इस सीरीज की कविताएं, अलग से ही एक ज़ोरदार कलेक्शन की तरह हैं. पहाड़ी मुख्यधारा के समाज में व्याप्त जातीय विभाजनों और विमर्श की चालाकियों पर इन्हें एक लंबे निबंध की तरह भी पढ़ा जा सकता है. लोक संस्कृति को लेकर जो रवैया आदिवासी, पहाड़ी, मूलनिवासी समुदायों के इर्दगिर्द निर्मित हो चुके हेजेमनी के समाजों का बन चुका है, मोहन बहुत बेबाकी और तीक्ष्णता से ही नही बल्कि एक शोधपरक निरीक्षण, अध्ययन और सजगता के साथ उसकी तफ़्सील सामने रखते हैं. लोक संस्कृति ऋंखला की शुरुआत से पहले मोहन ने एक छोटा सा नोट भी दिया है. पाठकों की सुविधा के लिए ताकि वे एक अंदाज़ा लगा सकें कि जिस लोकसंस्कृति को लेकर वे वाह-वाह या हाय-हाय करते आए हैं वो असल में कितनी साज़िशी चीज़ है और आखिर किन उद्देश्यों, इरादों, स्वार्थों का पोषण करती हुई पाई जाती है. जब संस्कृति ही एक पिरामिड हो तो इसके पहले लोक लिख देने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता जैसे तंत्र के पहले लोक होने का मतलब लोकतंत्र तो नहीं होता... (पृ 201) मेवों की सस्ती से दिक्कत डुमड़ों की मस्ती से दिक्कत मुसलमान हस्ती से दिक्कत तुम्हें नहीं आराम गुमानी, सुनो गुमानी (सुनो गुमानी, पृ 205) उपयोगी लोग जो सब जगह...सभी जगह हैं मार्क्सवादी प्रतिबद्ध मार्क्सवादी दलित पेशों को बताते हैं लोककलाएँ और बन जाते हैं कलावादी प्रतिबद्ध कलावादी... (पृ 225) 2020 में हार्पर कोलिंस से मलयाली लेखक एस हरीश के चर्चित और सवर्ण, ब्राह्मणवादी हल्कों में विवादास्पद उपन्यास “माशी” का मलयालम से अंग्रेज़ी अनुवाद “मस्टैश” (मूँछ) के नाम से प्रकाशित हुआ था. जयश्री कलाथिल ने ये अद्भुत अनुवाद संभव किया है. किताब के प्रारंभ में अपने उपन्यास की पृष्ठभूमि, संदर्भ और भूगोल के बारे में सूक्ष्मता से बताते हुए हरीश केरल समाज में सदियों से व्याप्त जाति प्रथा और जाति टकराहटों और दलितों पर घिनौनी कब्जेदारी का चिंताजनक ब्यौरा भी देते हैं. वो बताते हैं कि अपने उपन्यास के लिए जब वो अपने जन्मस्थान कुटनाड जिले के बीहड़ दलदली भूगोल का दौरा कर रहे थे और लोगों से मिल रहे थे तो उन यात्राओं और मुलाकातों ने उनके अपने नज़रिए और समझ में गहरा बदलाव कर दिया था. हरीश के मुताबिक, “उपन्यास लिखने की तैयारी करते हुए मुझे समझ में आया कि दलित इतिहास को, उस इतिहास के बारे में दलितों के खुद के ज्ञान को और नतीज़तन कुटनाड की जातीय राजनीति के इतिहास को किस तरह गहनता से सुनना चाहिए.” ***
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट के निवासी और रैबासी मोहन मुक्त, इस पर्वतीय भूगोल के दलित इतिहास को लेकर एक सचेत और सुचिंतित और सुपठित अध्ययन करते आ रहे हैं और सोशल मीडिया में अपनी छाप छोड़ चुके हैं. उन्होंने अपने अध्ययन से हासिल तर्कों और दलीलों से पहले तो माननीय, महानुभाव समुदाय को चकित किया फिर उन्हें खिन्न भी किया. एक सजीसजायी भव्य फुलवारी में ये नाक़ाबिलेबर्दाश्त हस्तक्षेप था. भारत में बेशक दलित कविताएं लिखी जाती रही हैं और अपनी प्रखरताओ के लिए जानी भी जाती रही हैं. मेरे प्रिय लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं आज भी अपना एक महत्व रखती हैं. उसी आग की ताप में मोहन जैसे कवि भी बने हैं, इस बात से कोई क्यों इंकार करेगा. दलित साहित्यकारों और एक्टिविस्टों ने आधुनिकता के मुहावरे और ढांचे में अपने संघर्ष को स्थापित किया है. मूल्यों के असमान हिंदू सिस्टम के खिलाफ उन्होंने तार्किकता और सार्वभौमिकता के विचार निबद्ध किए हैं. वे दलित चेतना में बाहरी घुसपैठ या दलित संघर्षॆं पर लिखने वाले या उनकी पैरवी करने वाले या प्रवक्ता बनने वालों का भी विरोध करते हैं. “कास्ट एज़ द बैगेज ऑफ द पास्ट, ग्लोबल मॉडर्निटी एंड द कॉस्मोपॉलिटन दलित आइडेन्टिटी” शीर्षक से अपने एक निबंध में के सत्यनारायण लिखते हैं कि सबअलटर्न अध्येताओं पर भी अक्सर ये तोहमत लगती है. उदाहरण के लिए गायत्री स्पीवाक पर कि दलितों और आदिवासियों पर उनका का व्यापक रूप से, अपरकास्ट लेखिका महाश्वेता देवी की रचनाओं पर आधारित है. (दलित लिटरेटर्स इन इंडिया, संपादन- जोशिल के अब्राहम और जूडिश मिसराही-बराक, रूटलेज, 2018) दलित इस बात का इंतज़ार नहीं करते हैं कि कोई उनके लिए लिखे या उनकी ओर से बोले, बल्कि वे लगातार अपनी आवाज़ को न सिर्फ बुलंद करते आ रहे हैं बल्कि उसका असर भी होते देखना चाहते हैं. ये लड़ाई उनकी अपनी लड़ाई है. इसीलिए वे दया या सहानुभूति के वायुमंडल से निकलकर खुली हवा में सांस लेते हुए लड़ना चाहते हैं. मोहन मुक्त की कविताओं पर लिखते हुए ये एक नैतिक चुनौती भी है कि क्या ऐसा करना सही है, क्या मुझे ऐसा करने का हक़ है. क्या एक सवर्ण बामनवादी पर्यावरणों में पोषित व्यक्ति, इन कविताओं के बारे में लिखने की जुर्रत कर सकता है. जो अभिलाषा बताई गई वो चतुर्वेदी की अभिलाषा थी वो फूल की अभिलाषा नहीं थी फूल की कोई चाह नही थी उसे तो खिलना था... (पुष्प की अभिलाषा...पृ 119) के सत्यनारायण लिखते हैं कि इसीलिए दलित लेखकों में अपनी आत्मकथा लिखने की एक एक लंबी समृद्ध परंपरा रही है. असहाय बनकर वे अपने उद्धार का इंतज़ार नहीं करते रह सकते और ना ही एक सुधार में रत वृहद हिंदू समाज में घुलमिल जाने की प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं. दीपेश चक्रवर्ती के हवाले से लेखक कहते है कि दलित इतिहास के वेटिंग रूम में नहीं पड़े रह सकते. अगर कोई रूम या कक्ष उनके लिए मुकर्रर है या ऐसे किसी कक्ष में उन्हें घुस पाने या बैठने की अनुमति भी नहीं है. हालांकि इतिहास के वेटिंग रूप की अपेक्षा ये कहना सही होगा कि वे इतिहास के किनारों और हाशियों पर पड़े नहीं रह सकते. लिहाज़ा में अपनी स्थिति को सुव्यवस्थित कर रहे है और तमाम प्रभुत्वशाली विमर्शों के बाहर अपनी आवाज़ को पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. वे जाति प्रथा को दमनकारी मानते हुए उसका खात्मा चाहते हैं लेकिन दलित के तौर पर अदृश्य होकर हिंदु मुख्यधारा में अपने विलय से उन्हें इंकार है. आंबेडकर इस बारे में अंतर्निहित सच्चाई को पहले ही उजागर कर चुके हैं. ‘नो नेम इज़ युअर्स अनटिल यू स्पीक इट’ नामक निबंध में लेटिशिया ज़ेकिनी (Laetitia Zecchini) लिखती हैं कि दलितों में भी दलित औरतों की स्थिति शोचनीय है जो जाति और पितृसत्ता का कहर झेलती आ रही हैं. मराठी कवि ज्योति लेंजवार ने कहा है, स्त्रीत्व भी दलित्व है. (वुमनहुड टू, इज़ दलितहुड) मीना कंडासामी तो इस मामले में और मुखर होकर बोलती हैं कि आदमी के लिए, औरत घर की दलित है. मोहन इस विडंबना से पूरी तरह वाकिफ़ ही नहीं ज़िम्मेदारीपूर्वक सचेत भी हैं. 264 पृष्ठों और 97 कविताओं वाले इस संग्रह में औरतों के अधिकारों, संघर्षों पर तो कविताएं हैं ही, हिंदी में ये पहला कविता संग्रह है जिसे उन बेमिसाल पांच औरतों को समर्पित किया गया है जिन्होंने इंसानी हकहकूक की लड़ाई में और जातिवादी, पितृसत्ता के वर्चस्व को तोड़ने में अपना जीवन खपा दिया. मोहन की याददिहानी में ये चुनिंदा विलक्षण और साहसी औरतें हैं- नंगेली जिन्होंने ब्रेस्ट टैक्स भरने से इंकार करते हुए अपने प्राण दे दिए, मुक्ता साल्वे जो सावित्रीबाई फुले के स्कूल में पढ़ने वाली पहली दलित लेखिका थीं और 14 साल की उम्र में ब्राह्मणवाद पर तीखा लेख लिखा था, लक्ष्मी टम्टा जो कुमाऊं की पहली महिला ग्रेजुएट और पहली महिला संपादक थीं और दलित अधिकारों के पत्र सामना का संपादन किया था, फूलन देवी जिन्होंने व्यवस्थागत जातीय और मर्दवादी हिंसा का प्रतिकार कर खुद को न्याय दिलाया, और गेल ओमवेट जिन्होंने जाति, वर्ग, पितृसत्ता और इनके ख़िलाफ़ बाबासाहेब के लोकतांत्रिक इंकलाब को समझने के बुनियादी सैद्धांतिक सूत्र तैयार किये. एक कविता संग्रह इस तरह, अपने पुरखों की लड़ाइयों की याददिहानी का एक बड़ा दस्तावेज भी बन जाता है. “मेरे पुरखे” कविता में मोहन के स्वर में खीझ, उदासी, आक्रोश और संघर्ष घुलामिला हुआ है. अपने पुरखों को याद करते हुए और एक तरह से उनकी याददिहानी को समकालीन यातना का बिंब बनाते हुए मोहन बताते हैं कि इतिहास विजेताओं का, जातीय श्रेष्ठियों का होता है, दलितों का इतिहास कौन लिखेगा और कौन जानेगा. मैं ख़ुश हूं कि मैं अपने पुरखों के बारे में नहीं जानता मैं नहीं जानता क्योंकि वो इतिहास में नहीं हैं वो इतिहास में नहीं हैं क्योंकि वो आक्रमणकारी नहीं थे उन्होंने कोई नगर नहीं जीते कोई गाँव नहीं जलाये उन्होंने औरतों के बलात्कार नहीं किये उन्होंने अबोध बच्चों के सर नहीं काटे वो धर्माधिकारी नही थे वो ज़मींदार नहीं थे निश्चित ही वो लुटेरे नही थे. (मेरे पुरखे...पृ 111) *** समयांतर पत्रिका के दिसंबर 2021 अंक में, क्रिस्टॉफ़ जाफ्रलां की किताब के राजकमल से प्रकाशित अनुवाद- “भीमराव अंबेडकरः एक जीवनी, जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण” की, समीक्षा में मोहन मुक्त ने लिखा कि “भारत के बौद्धिक वर्ग मे डॉ भीमराव आंबेडकर के व्यक्तित्व और उनके अवदान को लेकर आमतौर पर दो तरह का नज़रिया देखने को मिलता है. पहला उनकी उपेक्षा करता है और उन पर बात ही करना चाहता है, दूसरा उन्हें भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान साम्राज्यवाद का पक्षधर और भारतीय संविधान में मामूली अथवा जमींदारो पूंजीपतियों के पक्ष की भूमिका निभाने वाला बौद्धिक मानता है...एक तीसरा नजरिया भी है तो आंबेडकरवादी और कुछ नवबौद्ध दलित लेखको द्वारा स्थापित होने की जद्दोजहद में है...लेकिन इस नजरिए के साथ सबस बड़ी समस्या इसका आंबेडकर के आभामंडल से अत्यधिक प्रभावित होकर उनके प्रति अनालोचनात्मक हो जाना और तटस्थ न रह पाना है.” लेखक का कहना है कि आंबेडकर पर अपेक्षाकृत अधिक ठोस काम विदेशी अथवा विदेशी मूल के लेखकों द्वारा किया गया है. मोहन मुक्त पहाड़ से और हिंदी में युवा दलित कविता के प्रखर स्वर के तौर पर जाने जा चुके हैं लेकिन इससे पहले, जैसा कि ऊपर एक जगह उल्लेख किया गया है कि वो पहाड़ी समाज में और वृहद् भारतीय समाज में दलितों की स्थिति और उनके ऐतिहासिक दमन और उन पर होते आ रहे सांस्कृतिक-राजनीतिक हमलों के बारे में शोधपूर्ण विशद् अध्ययनों, लेखों और सोशल मीडिया पोस्टों, ऑनलाइन वक्तव्यों के ज़रिए भी एक सार्थक धूम बनाते आ रहे हैं. उत्तराखंड के पहाड़ों मे तो उन्होंने जो तीक्ष्ण और भेदक प्रस्थापनाएं दी हैं और इतिहास में दफ्न तथ्यों को जिस मेहनत और तर्क के साथ सबके सामने रखा है, वो बहुत सिग्नीफिकेंट है और उस पर ग़ौर किया जा रहा है. लेकिन इससे भी अधिक नाइंसाफ़ी में साझेदार समझौतावादियों और यथास्थितिवादियों को चुनौती भी मिल रही हैं. ये अकेला बीड़ा मोहन ने उठाया है. ऐसा पहले उत्तराखंड में कभी नहीं हुआ. चुनौतियों और ढोल की सही मायनों में गूंज अब पता चली है. वरना तो पुरोहितगण ढोल को भी अपने कृत्रिम सागरों में हस्तगत कर बैठे थे. ओह... मेरे पास मेरी अपनी कोई संस्कृति नहीं तीज त्यार मेले संस्कार देखा देखी नकल उधार कोई उत्सव नहीं यहाँ जो मेरे आह्लाद को व्यक्त कर सके ये संस्कृति तो फिर मेरी संस्कृति नहीं होगी. (कविता- मूल अधिकार, पृ 107) *** पोस्टकलोनियल नज़रियों से दलित संघर्षों की छानबीन करने वाले निबंधों के सिलसिले में एक लेख गोपाल गुरू का है. “फॉर दलित हिस्ट्री इज़ नॉट पास्ट बट प्रेज़ेंट” शीर्षक वाले इस लेख में गोपाल गुरू कहते हैं कि दलितों का विस्थापन सिर्फ भौतिक या भौगौलिक (टैरीटोरियल) विस्थापन नहीं है और न ही ये सामाजिक और आर्थिक प्रभुत्व की हानि है, ये असल में उनके इंसानी वजूद का एक वृहद मॉरल नुकसान है. ब्राह्मनवाद की शुद्धता की प्रदूषित वैचारिकी ने दलितों को अभिशप्त बनाए रखने की साज़िशें की हैं. वे उनसे काम भी लेते हैं और उनसे नाक भौं सिकोड़ते हैं. और साया भी छू जाए तो कोहराम मचा देते हैं. ये जातिवाद के साथ साथ रंगभेद भी है. मोहन मुक्त की “काला बामण” कविता सात हिस्सों में बंटी हुई एक लंबी कविता है जिसमे दलित पुरोहित कहे जाने वाले दलितों के राग और उनकी वंचना और और विडंबना को उजागर करते हैं जिनके जजमान केवल दलित होते हैं, कथित ऊंची जातियां उनकी सेवाएं नहीं लेती हैं. मोहन बताते हैं कि उत्तराखंड में दलित शिल्पकार समुदाय को ब्राह्मणीय सांस्कृतिक व्यवस्था में जकड़ने के लिए काला बामण संस्था बहुत अधिक ज़िम्मेदार प्रतीत होती है. अरे यह तो ग़ज़ब हो गया लोकतंत्र के दौर में ओड़, ल्वार, बारुड़ी बनने लगा है बामण ख़ास किस्म का बामण...काला बामाण अरे तो क्या जातियां हो जाएंगी ख़त्म गर्म उबलता बहता हुआ लावा जब दुनिया की सबसे ठंडी चीज़ से टकराता है तो ख़ुद भी हो जाता है ठंडा फिर वह कुछ नहीं जलाता ना टूटता है ना तोड़ता है बेडौल सा पड़ा रहता है हो जाता है इतना सख़्त कि... ल्वार का आफर भी पिघला नहीं सकता उसे शिल्पकार नहीं बना सकता इसमें कोई मूरत जनेऊ के दायरे के भीतर खदबदाने वाले लावे किए लिये गाय का पेशाब ही सबसे ठंडी चीज़ होता है... (पृ 128) मीना कंडासामी ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद एक क्षुब्द आलेख में कहा था कि जब कोई दलित, कोई शूद्र, कोई आदिवासी, कोई बहुजन, कोई औरत अकादमिक जगत में अपना दावा ठोके तो हर एक घिनौनी जातिवादी शक्ति को सिहर कर सिकुड़ जाने दो, उन्हें महसूस होने दो कि हम उस सिस्टम को नेस्तनाबूद करने आए हैं जो हर हाल में हमारे लिए हर दरवाजा बंद करना चाहता है, कि हम अपने सपनों को छीनने की हिम्मत करने वालों को दुःस्वप्न देने आए हैं. उनका बौद्धिक वजूद भी वर्चस्ववादियों और वर्चस्वप्रेमियों को परेशान करता रहता है. उन्हें लगता है कि आखिर कोई दलित कैसे अकादमिक जगत की धवल शुद्ध प्रकांड ज्ञान से सिंचित भूमि पर आकर खड़ा हो सकता है. “मेरा पहाड़???” कविता मे मोहन मुक्त बताते हैं- मुंडा कोल गोंड नाग बौद्ध द्रविड़ या हड़प्पन बाद के जो कोई भी थे मेरे पुरखे उन्होंने कभी नहीं कहा...मेरा पहाड़ कम से कम रिकॉर्ड तो यही बताते हैं अगर कहा भी हो तो कैसे जानें उनकी तो बची नहीं भाषा भी कोई जो कुछ बच गया उनकी भाषा का वो गाली बन गया... (पृ 63) तो आखिर, मेरा पहाड़ मेरा पहाड़ की रट लगाते आ रहे लोग कौन हैं. मोहन मुक्त अपनी जातीय स्मृति और ऐतिहासिक सच्चाइयों से पर्दा उठाते हुए बताते हैं- जो भी कहता है ‘मेरा पहाड़’ वो प्यार नहीं करता वो जताता है दावा जीती गई लूटी गयी छीनी गयी कब्ज़ाई गयी और बांटी गयी ज़मीनों पर जागीरों पर... (पृ 64) मलयाली और अंग्रेजी के वरिष्ठ कवि, के सच्चिदानंदन ने फिलस्तीनी युवा कवि आस्मा अज़ाज़ेह को एक साक्षात्कार में कहा कि हम जानते हैं साहित्य ने अरब क्रांतियों, कालों की जागरूकता, नारीवादी चेतना और फासीवाद विरोधी संघर्षों में अहम भूमिका निभाई थी. (https://www.modernliterature.org/poet-first-and-last-k- satchidanandan/) वो कहते हैं कि कविता कोई सीधी अपील की तरह काम नहीं करती बल्कि वो एक प्रति चेतना को आकार देती है और अप्रत्यक्ष रूप से अपना एक खास सौंदर्यबोध निर्मित करती है. अपनी मां को संबोधन, अपनी प्रेमिका को चिट्ठी, या एक पेड़ के गिरने पर कविता- ये सब एक राजनीतिक बयान भी हो सकते हैं. लेकिन जाहिर है समय समय पर कविता को प्रत्यक्ष और सीधा भी होना पड़ता है जैसे निजार कब्बी या नाजिम हिकमत की कविता है. “कहाँ” कविता में कवि प्रेमिका से पूछता है- वो कौन सी जगह है इस धरती पर जहाँ कुछ न हो जात जैसा कृत्रिम अनश्वर और स्थायी निरोध... (पृ 57) मोहन की एक बेमिसाल कविता कुंवर प्रसून पर है. कुंवर जी उत्तराखंड के जानेमाने यायावर पत्रकार एक्टिविस्ट थे. और सही मायनों में बहुजन चेतना के प्रतिनिधि थे. मोहन ने उन्हें बड़ी मोहब्बत से और गंभीरता से याद किया है और उनकी शख़्सियत के बहाने अपने परिचित अंदाज़ में पहाड़ के मठों, मठाधीशों और ब्राहमणवादियों की ख़बर भी ली है. यकीनन कुंवर प्रसून पहाड़ के एक गुमनाम नायक थे, संघर्षकर्ता थे और उन्हें परवाह नहीं थी सफलता या पद या धन या विलास या पुरस्कार की. कविता की शुरुआती लाइनें ही हमें, हम मगन कुलीनों को हिलाने के लिए काफ़ी हैं- कुंवर प्रसून... एक ही तस्वीर मिल पाई है आपकी हर किसी के पास एक ही तस्वीर एक ही याद एक ही चित्र इस चित्र को मैं और बड़ा नहीं करूँगा नहीं तो ये धुंधला जाएगा... (पृ 58) मोहन की करीब पांच पेज की ये कविता उत्तराखंड में जल, जंगल, ज़मीन के आंदोलनों, अभियानों और दूसरे जनांदोलनों की सच्चाइयों से रूबरू कराती है और बहुत से अदेखे अज्ञात छिपा दिए गए कोनों खुंजो तक बेधड़क जाती है. कुंवर प्रसून को किसी बड़े नामचीन की तरह नही बल्कि एक आदमी की तरह याद करती है, वो कुंवर प्रसून ‘जो आखिर तक आदमी ही बना रहा.’ *** पोलिश कवि चेस्लाव मिवोश ने कहा था, एक कमरे में जहां लोग साज़िशी चुप्पी ओढ़े रहते हैं, सच्चाई का एक शब्द पिस्तौल दागने जैसी आवाज़ करता है. मोहन की विख्यात कविता है नाज़ी.. जिसमें वो बताते हैं कि नाज़ी जल्लाद नही होते जल्लाद नाज़ी नहीं होते जल्लाद श्रमिक होते हैं नाज़ी श्रमिक नहीं होते नाज़ी कसाई नहीं होते कसाई नाज़ी नहीं होते कसाई हमें भोजन देते हैं नाज़ी भोजन नहीं देते इसी कविता में वो आगे चलकर कविता के सरमाएदारों और अधिपतियों और सुभद्रजनों को ललकारते हुए कहते हैं- अरे कविता के कब्ज़ेदारों ओ भाषा के ज़मींदारो अपने बिम्ब दुबारा देखो जो इतिहास में हारा देखो (पृ 50-51) मोहन मुक्त की एक कविता है “स्मृति”. वो लिखते हैं. वो क्या था... कि चार होंठ पूरी कोशिश के बाद भी उसे गीला नहीं कर पाये वो बहुत रूखा है होंठो की आंसुओं की ज़िन्दगी की या ख़ून की नमी भी उसे नम नहीं कर पाती वो जो नहीं होता नम और नम्र प्यार और वासना की विभाजक लेकिन साझी नदी में डूबकर भी क्या वो इस धरती की चीज़ है? (पृ 47) *** एक दिलचस्प चीज़ की ओर इस संग्रह को पढ़ते हुए ध्यान जाता है. मोहन अपनी कविताओं के शीर्षकों के बाद, और हर कविता के अंत में तीन डॉट लगाते है...मानो ये शीर्षक या वर्णन के कभी न खत्म होने वाले सिलसिले की ओर इशारा है, मानो ये है कि ये तीन बिंदु किसी नयी ज़मीन नये आयाम की ओर पाठकों का ध्यान दिला रहे होते हैं. मानो इन कविताओं की आस है ये, नये सिलसिलों की तलाश, नये दर्द नये सवालों की तलाश...मोहन मुक्त ने दलित मुखरता को नया आयाम दिया है. जैसे पंजाब मे चमार पॉप के ज़रिए लाल धीर और कुछ साल पहले गिनी माही ने एक नया दलित तूफ़ान खड़ा कर दिया था. उनके गाये गीत देश भर में दलित आंदोलनों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और विदेशों में वे भी बड़े लोकप्रिय हैं. मोहन मुक्त के तीन डॉट मानो अमेरिकी जैज़ की तड़प को जगाती, सैक्सोफोन की फूंक हैं. मानो वो जैज और कालों की मिलीजुली पुकार के बिंदु हैं जो कई भाषाओं में, कई बोलियों में, कई अनाचारों और कई शोषणों में उद्दाम तौर पर हिलतेडुलते रहते हैं. उनका मॉमेंटम नहीं टूटता, गति भंग नहीं होती. दलित प्रश्न को निर्भीक और निस्संकोच होकर सामने लाने वाले कवि के रूप में मोहन पहले कवि-चिंतक नहीं हैं, उनकी विशिष्टता और ख़ूबी ये है कि उन्होंने अपने समय के महत्वपूर्ण दलित कवियों की परंपरा से होते हुए अपना एक अलग रास्ता अख़्तियार किया है जो जाति के सवालों पर अपर कास्ट से चुभते हुए और मर्मभेदी सवाल करता है, संस्कृति और वर्चस्व और ज्ञान और भाषा के स्थापित प्रतीकों और बिंबों को ध्वस्त करने का माद्दा रखता है और उसमें अहंकार नहीं खुदमुख्तारी है. वो पहाड़ और हिमालय की दलित जड़ों को तलाशता-भटकता, हिमालय की दलित पहचान को सामने लाता, तमाम हेजेमनीज़ को फटकारता, चुनौती देता, अपने अंतर्विरोधों और अपनी दुश्वारियों की शिनाख़्त करता एक कवि-योद्धा है, आत्मविश्वास और अध्ययन ही जिसके सबसे सशक्त हथियार हैं. मोहन लिखता है- ज़िंदगी में सब कुछ हो लेकिन इंतज़ार ना हो दुख ना हो मलाल न हो पछतावे की कुछ सिलवटें ना हो तो समझना कि ज़िंदगी अभी शुरू नहीं हुई... (कविताः तत्व, पृ 110) शुक्रिया मोहन. तुम्हारी कविताएं, प्रकट-प्रछन्न जंज़ीरो से दबीकुचली इंसानियत की, मुक्ति का गान हैं.
(कवि-पत्रकार-विचारक शिवप्रसाद जोशी देहरादून में रहते हैं)