Thursday, December 10, 2009

व्यथा के भार से थका नागरिक /(रघुवीर सहाय पर मनमोहन)



(मैं यह लेख कल ९ दिसंबर को सहाय जी के जन्मदिन पर देना चाहता था पर यह मुमकिन न हो पाया। सहाय जी पर यह संभवतः सबसे अच्छे आलोचनात्मक लेखों में से है। यह सहाय जी के निधन के बाद लिखा गया था और बाद में असद जैदी और विष्णु नागर द्वारा संपादित पुस्तक `रघुवीर सहाय` में संकलित किया गया. लम्बा है, इस वजह से थोड़े धैर्य की अपेक्षा तो है ही। )


पिछले एक अरसे से हमारी पीढ़ी के लगभग सभी महत्वपूर्ण रचनाकार इस बात को जान रहे थे कि रघुवीर सहाय की रचनाशीलता उनकी दुनिया में न सिर्फ़ किसी न किसी तरह शामिल हो गयी है बल्कि उसका एक ऐसा जीवंत हिस्सा बन गयी है जिससे उनका वास्ता अब बार-बार पड़ता है। रघुवीर सहाय कोई ऐसे लेखक न थे जो अपनी बात कह चुका हो, अपनी कारगुजारी दिखा चुका हो और अब जल्दी से उसका साहित्यिक मूल्यांकन कर डालना या स्मारक बना देना शेष रह गया हो। उनका निधन सिर्फ़ उस तरह असामयिक नहीं है जिस तरह कहने का चलन है। वह ज्यादा गहरे, ऐतिहासिक अर्थों में असामयिक है।



रघुवीर सहाय हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन के पिछ्ले४०-४५ वर्ष के इतिहास की उलझनों से गुजरकर रचनातमक अभिव्यक्ति का निरंतर संघर्ष करते हुए उस जगह आ पहुंचे थे जहाँ कोई कवि फिर से अपने तमाम पिछले अनुभव पर एक बड़ी नज़र डालता है। उनका रचनात्मक संघर्ष अभी समाप्त नहीं हुआ था, बल्कि जैसा वे महसूस भी करते थे, एक नए, विषम और कठिन दौर में दाखिल हो रहा था। इस तरह उनकी रचा अभी बीचोंबीच और अधूरी थी क्योंकि वे वास्तव में इसी नए दौर के रचनाकार थे जो एक अर्थ में अभी-अभी शुरू हुआ है।



रघुवीर सहाय उस पीढ़ी के सदस्य थे जो आजादी की लड़ाई के ख़त्म होने के बाद (या लगभग उसके दौरान) सजग और रचनाशील हुई थी। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि उनकी संवेदनशीलता के बहुत से अंदरूनी सूत्र इसी दौर की खूबियाँ लिए हों। मसलन, एक तरह की स्वचेतनता और एक व्यक्ति, एक नागरिक होने का अहसास जो उनमें भरपूर था, शायद इसी दौर की देन था। लेकिन अब यह बात स्पष्ट हो गए है कि आजादी के बाद जो नयी काव्यधारा उभरकर सामने आयी उसमें कई तरह के मध्यवर्गीय तत्व शामिल थे,जो अपने-अपने कारणों से एक जगह आ मिले थे। उनका एक साथ होना लगभग एक तरह का ऐतिहासिक संयोग था। इतनी सहमति जरूर थी कि ये सभी तत्व नयी aइतिहासिक परिस्थिति में एजेंडे को पुनर्परिभाषित करना चाहते थे। इस धुंधली इच्छा में एक बड़ी ऐतिहासिक जरूरत भी शामिल थी। लेकिन प्रबल यह इच्छा नहीं, सामजिक शक्तियों का नया संतुलन सिद्ध हुआ जो इसके कुहासे में बन रहा था और जो बाद के वर्षों में धीरे-धीरे व्यवस्थित होता चला गया और इन तत्वों के भवितव्य को भी अपनी तरह तय करता चला गया। पिछले ३० साल की परीक्षाओं में यह भी स्पष्ट हो गया कि स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद के समझौते की विरासत की तरह सामने आए इन मध्यवर्गीय तत्वों में जनतांत्रिक सारवस्तु और जीवनी शक्ति एक जैसी नहीं है। रघुवीर सहाय के बारे आज शायद यह अलग से प्रमाणित नहीं करना होगा कि वे उस दौर में सामने आयीं उन विरल प्रतिभाओं में थे जिनका रचनात्मक व्यक्तित्व जनतांत्रिक प्रेरणाओं और अनुरोधों के ज्यादा मौलिक, विकासमान और वास्तविक अंशों को आत्मसात करते हुए बना था। मेरे विचार से वे उस दौर के उन सबसे अधिक संवेदनशील, आधुनिक, विवेकशील और प्रबुद्ध मध्यवर्गीय तत्वों में थे जिनमें राष्ट्रीय नवजागरण की विकासशील, जीवित और श्रेष्ठ परम्पराओं का खोजपूर्ण और रचनाशील उपयोग करके उसे आगे विकसित करने की योग्यता और इच्छा इतनी थी कि उसे आसानी से कुचला नहीं जा सकता था।



अनेक सामाजिक-राजनीतिक कारणों से आजादी के बाद हमारे शासकों को यह जरूरत महसूस हुई कि वे नए मध्यवर्ग मध्यवर्ग की आदर्श भावना और जनतांत्रिक आकांक्षाओं को सामाजिक रूपांतरण के बड़े उद्देश्य से काट दें। `विकास` का नक्शा वे खुद बनाकर दें और बाके लोग उसी में रंग भरें। इस नयी ऊर्जा को अनुकूलित करने के लिए उन्होंने बड़े कौशल से इसे इसी की सीमा में बांधकर छोड़ दिया। इस तरह इन तत्वों को आत्म-परिष्कार के संघर्ष में भी अलग और लगभग मुक्त कर दिया गया। अब यह एक तथ्यहै कि नए मध्यवर्ग का यह जो नमूना तैयार करके सामने रखा गया उसकी नाप में उस दौर की अनेक समा ठीक-ठीक समा गयीं बल्कि उसी में मरखपकर सम्पूर्ण भी हो गयीं. लेकिन रघुवीर सहाय का मामला ऐसा नहीं था. उस दौर के अनेक कवियों की तरह अपने सामाजिक सरोकारों को धो-पोंछकर `आधुनिक` बनने के बजाय उन्होंने ज्यादा मुश्किल रास्ता चुना. मुफ्त की आधुनिकता और जाहिल आत्मप्रेम के जिस मकड़जाल में उस युग की अनेक प्रतिभाओं ने अपनी उम्र सुखपूर्वक गुजार दी, उसके प्रति रघुवीर सहाय शुरू से ही सशंकित और सावधान थे. बल्कि उसके साथ उनकी कुछ बुनियादी शत्रुता थी। उन्होंने अपनी मनुष्यता और अपनी रचना को समाज के बीचोंबीच, उसके भीतर और उसके साथ-साथ ही पहचाना और साथ-साथ ही बचाना चाहा. आजादी के बाद के दौर की यह हकीकत एक बड़ी दुर्घटना की तरह हमेशा उनकी स्मृति में जीवित रही कि हमारे शासक वर्गों ने सत्ता का निरंकुश संचय करने के क्रम में जनता के व्यापक हिस्सों से यह अधिकार भी छीनकर अपने पास रख लिया है कि वे अपने मानवीय अस्तित्व को खुद पहचान और बदल सकते हैं. संस्कृति और समाज की संस्कृति और समाज की रचना के अधिकार से साधारण जनता को वंचित करने और अभिव्यक्ति के तमाम उपलब्ध साधनों पर धीरे-धीरे कब्जा जमाते हुए ही सत्ताधारी वर्गों के लिए यह संभव हो सका है कि वे विकृति और विनाश की आक्रामक मुहिम को बिना किसी बड़े प्रतिरोध का सामना किये चला सकें. रचना को रघुवीर सहाय ने इसी खोयी हुई पहलकदमी को छीनने के अर्थ में पहचाना था.
            (जारी)... 

9 comments:

Rangnath Singh said...

अगली किस्त की प्रतीक्षा है।

शिरीष कुमार मौर्य said...

......तो धीरेश भाई आपने अपने कहे अनुसार इस लेख को लगाने का काम शुरू कर दिया.... मनमोहन की कविताएँ पढ़ीं हैं पर वैचारिक गद्य पहली बार पढ़ रहा हूँ - बेहद सधा हुआ, एकाग्र और समर्पित....जनता और समाज के पक्ष में सहाय जी की कविता को पहचानने की एक "खोयी हुई पहलक़दमी"... आगामी किस्तों की उत्सुकता-प्रतीक्षा है. ब्लॉग पर लेख लगाना काफ़ी मेहनत का काम है...आपको शुक्रिया जैसा कुछ कह दूं क्या.....

उम्मतें said...

ज़रा अगली किश्त भी पढलें !

सागर said...

इधर हम भी मुन्तजिर हैं ...

अर्कजेश said...

जैसा बताया वैसा ही है । अगला भाग भी पढेंगे ।

तसलीम अहमद said...

aap blog ke madhhyam se achha kaam kar rahe hain. bahoot pahle raghu dada ko padha tha. lekh bahoot sarthak hai.

शरद कोकास said...

यह श्रम्साध्य कार्य है इसके लिये साधुवाद।

Arun Aditya said...

रघुवीर सहाय की कविता अपने समय का एक जरूरी दस्तावेज ही नहीं आने वाले समय की वसीयत जैसी भी है। मनमोहन की अपनी कविता भी रघुवीर सहाय की कविता की ही तरह दिल-दिमाग को झनझना देने वाली है। इसमें उनके गद्य और विचार दोनों की ऊंचाई देखी जा सकती है।
आज बड़े देशों की राजनीति देखकर रघुवीर सहाय जी की एक पुरानी कविता याद आ गई :


बड़े देशों की राजनीति

देश पर मैं गर्व करने को कहता हूं
उनसे जो अमीर हैं बड़े स्कूलों में पढ़े हैं
पर उन्हें गर्व नहीं है
गर्व है भूखे प्यासे अधपढ़े लोगों में

राष्ट्रीय गौरव रह गया है
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में
मोहरा बनकर पड़ोसी को हराने में
यह गर्व मिटता है
यदि पड़ोसी और हमारी जनता की दोस्ती बढ़ती है
बड़े देशों की राजनीति करने के लिए
अपनी जनता को
तनाव में रखना पड़ता है।

-रघुवीर सहाय

Unknown said...

प्रिय धीरेश जी,

मनमोहन का आलोचनात्मक लेखन निधि लगता रहा है. उसमें कितनी अर्जेंसी है. वह बहुत प्रकाशित नहीं है लेकिन प्रकाशमान है.

और नयी कविता के हुजूम को अंततः इस तरह से विखंडित करके देख सकना - उस दौर का एक नैतिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक वर्णक्रम तैयार करना - इसकी ज़रूरत तो हमें शिद्दत से थी.

उस स्वप्नमय किताब (रघुवीर सहाय) के सारे पृष्ठ नेट पर होने चाहिए. मैंने वह किताब देखी भी नहीं है, लेकिन अक्सर लगता है कि पास है. आपसे यह उम्मीद कोई ज़्यादा उम्मीद नहीं है और हमलोग मिलकर उसे टाइप कर लेंगे.