Saturday, November 13, 2010

एक षड़यंत्र की गाथा - असद ज़ैदी

1949 की सर्दियों में (22 -23 दिसंबर) इशां की नमाज़ के कुछ घंटे बाद, आधी रात के वक़्त, एक साज़िश के तहत चुपके से बाबरी मस्जिद में कुछ मूर्तियाँ रख दी गईं. इस बात का पता तब चला जब हस्बे-मामूल सुबह फ़जर के वक़्त मस्जिद में नमाज़ी पहुँचे. तब तक यह 'ख़बर' उड़ा दी गयी थी कि मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं और कुछ 'रामभक्त' वहाँ पहुँचना शुरू हुए. इस वाक़ये की ख़बर मिलते ही प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविन्दवल्लभ पन्त से कहा कि ये मूर्तियाँ फ़ौरन हटवाइये. पंडित नेहरू का पन्त जी से इस आदेश के पालन उम्मीद करना ऐसा ही था जैसा एक बैल से दूध देने की उम्मीद करना. पन्त जी के इशारे पर फ़ैज़ाबाद के ज़िला मजिस्ट्रेट के के नायर ने 'विवादित स्थल' को सील कर दिया. इस तरह बाबरी मस्जिद में, जिसमें 422 साल से नमाज़ पढ़ी जा रही थी, अब मुसलमानों का प्रवेश वर्जित हो गया. नेहरू खुद अयोध्या आना चाहते थे पर पन्त जी ने किसी तरह इस मंसूबे को भी टलवा दिया. कुछ हताश होकर नेहरू ने संयुक्त प्रान्त के गृहमंत्री लालबहादुर शास्त्री से भी कहा कि वे कुछ करें, और खुद अपने गृहमंत्री सरदार पटेल से कहा कि पन्त को समझाएँ. अंत में नेहरू जी ने देखा कि वे इस मामले में अल्पमत में हैं तो उन्होंने भी हाथ झाड़ लिए.

अयोध्या इतनी "हिन्दू नगरी" कभी न थी जितनी आज है. मौर्यकाल में यह मुख्यतः एक बौद्ध नगरी थी. इसके क़रीब एक हज़ार साल बाद आए चीनी यात्री फ़ाहियान (पांचवीं सदी) और ह्वेन-सांग (सातवीं सदी) ने भी इसे एक प्रमुख बौद्ध नगर ही पाया और कुछ ग़ैर बौद्ध आबादी और प्रार्थना स्थलों का भी ज़िक्र किया. कालान्तर में यहाँ बौद्ध धर्मावलम्बी और बौद्ध धर्मस्थल क्रमशः विलुप्त होते गए (यह वाक़या सिर्फ अयोध्या ही नहीं पूरे उपमहाद्वीप में घटित हुआ) और विभिन्न मत-मतान्तर के लोगों का, जिन्हें आज की भाषा में मोटे तौर पर हिन्दू कहा जा सकता है, बाहुल्य हो गया. अयोध्या जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण नगरी रही है – उनके दो तीर्थंकर यहीं के थे. सल्तनत (मुग़ल-पूर्व) काल में अयोध्या में सूफ़ी प्रभाव भी बहुत बढ़ा. यानी अयोध्या में रामभक्ति के उद्भव से दो सदी पहले ही यहाँ सूफी-मत पहुँच चुका था. हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के ख़लीफ़ा ख़्वाजा नासिरुद्दीन महमूद 'चिराग़े देहली' यहीं के थे और चालीस साल की उम्र तक यहीं रहे. मुगलों के आने से पहले ही अयोध्या अपनी मिली-जुली संस्कृति और धार्मिक बहुलता के लिए जाना जाता था.

रामभक्ति की परम्परा उत्तर भारत में मुग़ल काल से ज़्यादा पुरानी नहीं है. पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रामानंदी प्रभाव दिखना शुरू हुआ, पर बाबर के समय तक यह बहुत ही सीमित था. रामभक्ति का हिन्दू जनता के बीच लोकव्यापीकरण अवध के इलाक़े में अकबर के समय से होता है और इसमें अकबर के समकालीन तुलसीदास 'रामचरितमानस' की केन्द्रीय भूमिका है. सत्रहवीं सदी से पहले उत्तर भारत में कहीं भी कोई राम मंदिर नहीं था, और हाल तक भी बहुत ज़्यादा मंदिर नहीं थे. तुलसीदास और वाल्मीकि की अयोध्या मिथकीय नगरी है और सरयू एक मिथकीय नदी, लिहाज़ा ये जन्मस्थान को भौगोलिक रूप से फ़ैज़ाबाद में चिह्नित करने की कोशिश नहीं करते (वैसे भी इस देश में एकाधिक अयोध्या और सरयू मौजूद हैं, और अयोध्या ही में अनेक स्थलों के जन्मभूमि होने का दावा किया जाता है). यह भी विचारणीय है कि धार्मिक परम्परा की एक ऐतिहासिकता ज़रूर होती है पर धार्मिक, पौराणिक चरित्रों या महाकाव्यों के नायकों को ऐतिहासिक चरित्रों का दर्जा देने और 'पौराणिक काल' को ऐतिहासिक समय की तरह देखने से आस्तिक मन में उनकी मर्यादा और विश्वसनीयता बढ़ने के बजाय घटती ही है. जहाँ तक इतिहास और पुरातत्व का सवाल है, यह एक स्थापित तथ्य है कि अयोध्या इलाक़े में छः हज़ार वर्ष से पहले मानव सभ्यता या किसी भी तरह की इंसानी मौजूदगी थी ही नहीं. स्थापत्य की नज़र से देखें तो अयोध्या की हर पुरानी इमारत भारतीय-मुग़ल (इंडो-मुग़ल) तर्ज़ पर बनी हुई है, भले ही हनुमानगढ़ी हो या सीता की रसोई.

फिर हम कहाँ जा रहे हैं? यह सचमुच आस्था का प्रश्न है या धोखाधड़ी और धींगामुश्ती के बल पर फहराई गयी खूनी ध्वजा को आस्था की पताका कहने और कहलवाने का अभियान?

क्या हिन्दुत्ववादी गिरोह और आपराधिक पूंजी द्वारा नियंत्रित समाचारपत्रों और टी वी चैनलों और उनके शिकंजे में फंसे असुरक्षित, हिंसक और लालची पत्रकार और 'विशेषज्ञ' अब इस कल्पित और गढ़ी गयी आस्था के लिए परम्परा, ज्ञान, इतिहास, पुरातत्व, क़ानून, इंसाफ़, लोकतंत्र और संवैधानिक अधिकारों की बलि देंगे? यह अधिकार इन्हें किसने दिया है?
मेरे ख़याल से यह 'अधिकार' इन्हें पिछले पच्चीस साल में उभरे उभरे नए मध्यवर्ग और नवधनाढ्य तबक़े ने दिया है. ये नव-बर्बर समुदाय इस मुल्क के नए मालिक हैं, अनियंत्रित आर्थिक नव-उदारवाद इनकी मूल विचारधारा है और इसे मुल्क पर थोपने के लिए इनकी सेवा में दोनों मुख्य राजनीतिक गठबंधन (कांग्रेस और भाजपा और इनके सहयोगी दल) मुस्तैद हैं जिन्हें ये एक दूसरे के विकल्प की तरह पेश करते हैं. मुल्क के भीतर कभी कठोर तो कभी नर्म हिंदुत्व, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की गुलामी, सार्वजनिक संसाधनों की निजी लूट इसके बुनियादी लक्ष्य हैं.

दरअसल यह नई पूंजी और नव-उदारवादी आर्थिक दर्शन भारतीय मध्यवर्ग के मूलगामी पुनर्गठन और एकीकरण में व्यस्त है. यह एक प्रतिक्रियावादी और फाशिस्ट एकीकरण है जो मध्यवर्ग और व्यापक जनसमुदाय के भीतर अब तक मौजूद लोकतांत्रिक प्रतिरोध और वैचारिक अंतर्विरोधों की परम्परा को मिटा देना चाहता है. ये उसके रास्ते की रुकावटें हैं. और साम्प्रदायिक बहुमतवाद इस प्रतिक्रियावादी एकीकरण का मुख्य उपकरण है. नव-उदारीकरण इस मुल्क में कभी राजनीतिक बहुमत प्राप्त नहीं कर सकता, साम्प्रदायिक बहुमत का निर्माण ही उसकी एकमात्र आशा है क्योंकि इसका नियंत्रण असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक, धर्मांध, हिंसक और भ्रष्ट तत्वों के हाथ में होता है.

यह समझ भी कि यह मंडल के जवाब में भाजपा मंदिर लेकर आई (मंडल बनाम कमंडल) पूरी तरह ठीक नहीं है. हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना पुरानी है और दो राष्ट्रों का सिद्धांत जिन्ना और मुस्लिम लीग की देन ही नहीं है, सावरकर से पहले भी इसके अनेक मज़बूत प्रवक्ता रहे हैं, जिनमें से कुछ तो हमारी राष्ट्रीय देवमाला में शामिल हैं. मंडल आयोग की सिफारिशों के विश्वनाथप्रताप सिंह सरकार द्वारा लागू किये जाने से सवर्ण हिन्दू समाज में खलबली ज़रूर मची और अनुभव के स्तर पर सवर्ण वर्गों को अपना वर्चस्व और रोज़गार के अवसर संकट में पड़ते दिखाई दिए, दूसरी और मध्य जातियों के राजनीतिक दलों की ताक़त बढ़ी और हिन्दुस्तानी राजनीति में अब तक छाया भद्र-सर्वानुमातिवाद टूटा. लेकिन इससे आर्थिक नव-उदारीकरण और निजीकरण की कार्यसूची को कोई खतरा नहीं हुआ, बल्कि शासक तबक़ों ने यह पाया कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दुत्ववादी अभियान से मध्यवर्ग के एकीकरण में मदद मिलेगी. चूंकि मध्यवर्ग का विशालतम लगभग 98 प्रतिशत हिस्सा हिन्दू, जैन और सिख समुदायों से आता है इसलिए मुस्लिम-विरोधी बाड़ेबंदी के तहत इन्हें एक करना अपेक्षाकृत आसान और सुरक्षित और आज़मूदा नुस्खा है, तो क्यों न ऐसा ही हो! यह सैम हंटिंगटन और जार्ज बुश और उनके उत्तराधिकारियों की नीतियों से भी मेल खाता है और इस बात का कोई खतरा भी नहीं कि "अंतर्राष्ट्रीय समुदाय" (जिसका मतलब हमारे यहाँ अमरीका और यूरोप होता है) भारत पर पिछड़ी और अलोकतांत्रिक नीतियाँ अपनाने का इलज़ाम लगाएगा. एक प्रकार से मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिकता और बर्बर हिंसा को सिर्फ संघ परिवार के मुख्यालय नागपुर की ही नहीं, वाशिंगटन कन्सेंसस की भी शह प्राप्त है।

(समयांतर के नवम्बर 2010 अंक से साभार)

5 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

असद भाई आज आपका पहला लेख पढ़ा ।

DR. ANWER JAMAL said...

लेकिन भाई ईमानदारी की बात यहाँ सुनता कौन है ?

DR. ANWER JAMAL said...

लेकिन आप सत्य सामने लाते रहें ।

PAWAN VIJAY said...

वाह क्या कहने इस ज्ञान के......
आपको इसके लिए विशेष पुरस्कार मिलना चाहिए.
एक ही उल्लू काफी है बरबाद गुलिस्ता करने को
हर शाख पे उल्लू बैठे है अंजाम ए गुलिस्ता क्या होगा
मै ये सिद्ध कर सकता हूँ की काबा को अगस्त ऋषी ने बसाया है पर क्या उससे कोई मानव कल्याण हो सकेगा. संग ए अवसद शिवलिंग है इससे कुछ मिलेगा क्या. अरे प्यार की बाते करो श्रीमान जी. तोगड़िया और बुखारी काम है क्या जो लाइन में आप भी लग गए
टिप्पणी डिलीट ना करने का अनुरोध ...............

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

असद भाई ने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है. अकल के अंधों को असलियत हजम नहीं होती. उन्हें अकल का अंधा बनाया ही इसी उद्देश्य से गया है.