मार्कंडेय काटजू ने मीडिया से जुड़ी
कमोबेश उसी क़िस्म की विचलित कर देने वाली बहस शुरू की है जो बड़े फलक पर और
व्यापक कथित लोकतंत्रीय राजनीति समाज और जनअधिकारों पर लेखिका अरुंधति रॉय बहुत
पहले से और बार बार उठाती रही हैं. ये अलग बात है कि मुख्यधारा के बौद्धिकों और
कॉरपोरेट मीडिया के एक हिस्से में उन्हें काफ़िर की तरह देखा जाता है.
काटजू ने मीडिया ख़ासकर टीवी मीडिया के लिए जो
आत्मनियमन की बात पर तीखे सवाल उठाए हैं, आखिर देश में उदारवाद के दो दशकों और
टीवी के डेढ़ दशक से कुछ ज़्यादा के वक्त के बाद उनके जवाब तो दिए ही जाने चाहिए.
मिलने ही चाहिए. काटजू के आक्षेपों पर आहत होने और मुंह बिसूरने और बुरा भला कहने
और बौद्धिक झुरझुरी से झनझनाने की शायद ज़रूरत नहीं है. समाज को दिशा देने की अपनी
कथित महानता के साए में किसी श्रेष्ठता ग्रंथि में फंस जाने की भी ये वक़्त नहीं
है.
आत्मनियमन क्या होता है. किस चीज़ का आत्मनियमन.
कहां से शुरू करेंगे कहां कहां करेंगे कहां तक जाएंगें. क्या टीवी मीडिया के
अंदरूनी हालचाल की टोह लेने का भी वक़्त नहीं आ गया है. वहां किसी बाहरी व्यक्ति
को झांकने देने का सवाल हटा दें क्या आत्मनियमन में आत्मनिरीक्षण भी आ रहा है.
क्या अपना काम अपनी शैली अपना दफ्तर अपने कर्मचारी अपना स्टाफ़ अपने लोग भी इस
निरीक्षण में दिख रहे हैं. आत्मनियमन की बहस को और आगे बढ़ाया जाना चाहिए.
अब टीवी स्टुडियो में आत्मनियमन पर गाल बजाने का
वक़्त भी नहीं रहा. चीज़ें बहुत तेज़ी से बदल रही हैं. टीवी मीडिया नया होता हुआ
भी 16 साल में अजीब ज़िद और सनक का शिकार होता हुआ बुढ़ाता जा रहा है. ठीक सामने एक
नया मीडिया उतर गया है. जो हमारा टीवी दिखाने से परहेज़ कर रहा है संकोच कर रहा है
दबाव में है उसे नया मीडिया दिखा रहा है. वहां ऑडियो वीडियो और प्रिंट का एक नया
पर्यावरण बन चुका है. केबल टीवी और मुद्रित शब्द जब थकान से भरे हैं तो वर्चुअल
स्पेस में शब्द और दृश्य और वास्तविकता का एक नयी संवेदना एक नई थरथराहट बन रही
है. वहां विखंडन और सृजन का द्वंद्व अपने कच्चेपन के साथ जारी है.
आत्मनियमन को टीवी न्यूज़ रूम के हालात से भी
जोड़िए. एक बेहद मुश्किल समय वहां पत्रकारों का बीत रहा है. रोज़गार की विवशता ने
टीवी मीडिया के कर्मचारी स्तर के पत्रकारों को एक क्रूर किस्म की विसंगति में डाल
दिया है. तर्क विवशता दबाव आकर्षण और छंटनी की मिलीजुली घंटियां ख़तरा है- 24 घंटे
यही बताती रहती हैं.
टीवी मीडिया के भीतर देखिए वर्चस्ववाद के कई
प्रेत मंडरा रहे हैं. वहां कॉरपोरेट पूंजीवाद और मुनाफ़ावाद के अलावा सामंतवाद है.
टीवी का एक सामंत कहता है कि वो सब कुछ जानता है आप लोग मूर्ख है नहीं पढ़ते नहीं
जानते संविधान क़ानून नहीं जानते समाज और आंकड़ें नहीं जानते. वो चिल्लाता जाता है
और पहले से भयभीत कर्मचारियों को डराता जाता है डराता जाता है. उन भय से भरे
चेहरों को देखिए. वे बहुत सारे हैं.
कितनी आसानी से टीवी मीडिया के धुरंधर कही जाने
वाली दिल्ली बिरादरी इसे भूल जाती है कि उसके मीडिया पर इधर जो छींटे आए हैं वे एक
लंबे और गंभीर होमवर्क से निकले हैं. सिस्टम को सड़ांध से भरा हुआ देखना ही कि
क्या हमारी नियति है. अरुधंति ज़रूरी मसलों पर जब कुछ कहती हैं तो बाजु भौंहे और
कॉलर क्यों फड़फड़ाने लगते हैं. काटजू की टिप्पणियों पर इतनी बालनोचू क़िस्म की
प्रतिक्रिया के क्या माने हैं. हुसैन तो सिर्फ़ चित्र बना रहे थे, उन्हें तक असहज
कर बाहर धकेल दिया गया. वो एक लिहाज़ से निर्वसन और अफ़सोस में इस दुनिया से चले
गए.
अपने टीवी मीडिया की उपलब्धियों पर इतराने का भी
ये वक़्त नहीं है. हमारे सामने बहुत सारे सवाल हैं. बहुत सारे लोग हैं. वे देश की
अस्सी फ़ीसदी आबादी हैं. उनमें ग़रीब, वंचित, दलित, विस्थापित, अल्पसंख्यक आते
हैं. वे देख रहे हैं. बाबाओं से मुक्ति पा लेने से ही, फ़िल्मी सितारों की जगमग को
दिखाते रहने की आदतों से बाज़ आने को ही, अयोध्या फैसले पर संयमित रिपोर्टिंग करने
को ही और भी कथित धैर्य दिखाने की आत्मनियमित कैटगरी वाली रिपोर्टिंग को आत्मनियमन
नहीं कहते.
आत्मनियमन में बहुत सारी चीज़ें और आती हैं. आनी
चाहिए. हम श्रेष्ठ हैं कहने के बजाय या इस भावना के तहत प्रतिक्रिया करने से बेहतर
है ख़ुद को श्रेष्ठतर बनाना. प्रोफ़ेश्नल और नैतिक ऊंचाई, वैसी श्रेष्ठता. प्रेमचंद
के नमक का दारोगा बन सकते हैं आत्मनियमन का दारोगा मत बनिए. मीडिया में ये थानेदारी
बंद कीजिए. आप जिस टीवी लोकतंत्र की ओर इशारा कर रहे हैं बार बार- माफ़ कीजिए वो
गढ़ा हुआ है और उससे क्रूरता की गंध आती है. मीडिया की जिस आज़ादी की रक्षा का
परचम टीवी स्टुडियो में लहराया जा रहा है उसमें उस आज़ादी के निहितार्थ कोई तो
देखेगा. ऐसा नहीं हो सकता कि अंदर हम अनैतिक खलबली मचाए रखें और बाहर वाले से कहें
कि आप अपने मुंह और कान और आंख बंद रखें. मीडिया की नैतिकता को इस छद्म लोकतंत्र
के कांच में ज़्यादा देर तक रखना नामुमकिन है. अच्छा- अब आप..हमें बताएंगें कि
बापनुमा मानसिकता मत ढोइए. क्योंकि बहुत से मौक़े वाकए ऐसे हैं टीवी मीडिया के
इतिहास में जब वही किया जाता रहा है जो कोई बताता है. वह आत्मनियमन का कोई मौक़ा
इसलिए नहीं आने देता क्योंकि आत्मा पर उसका पहले से क़ब्ज़ा हो चुका होता है. इस
आत्मा में विचार शक्ति तर्कशक्ति और इमोश्नल इंटेलिजेंस सब आते हैं. मीडिया को
बौद्धिक और सामंती वर्चस्व का गिरवी नहीं रखा जा सकता. और जो अभी गिरवी हालात
दिखते हैं उसमें आत्मनियमन कैसे करेंगे.
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