Sunday, January 22, 2012

कुमार अम्बुज की एक कविता


कुमार अम्बुज की यह कविता 2009 में उनके ब्लॉग पर पढ़ी थी। मेरी यह अत्यंत प्रिय कविता और इस कविता के बाद में उनकी टिपण्णी वहीं से साभार है।



मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर की रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान-सा था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट 
जो इस वक्‍त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा 
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए

वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ़ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश 
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश 
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होठों पर धुएँ के साँवले निशानों को छूकर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच 
संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से

कविता पढ़ते हुए वह 
बार-बार वज़न रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)
उसके माथे पर साढ़े तीन सलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक

मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी - 
जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन अचानक उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना 
वह एक कवि का गाना था 
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा

एक घूँट लेकर उसने कहा 
कि तुम देखना मैं अगला आलाप लूँगा
और सुबह हो जाएगी

अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा मैं बहुत कुछ न कर सका इस संसार को बदलने के लिए
मैं शायद ज्‍यादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा

उधर मेरा प्रिय कवि 
मंच से उतर कर 
चला आ रहा था अपनी ही चाल से।
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दस बरस पहले की इस कविता के बारे में अनेक पाठकों-मित्रों-आलोचकों की राय रही है कि यह हिन्दी के किसी कवि विशेष को केन्द्र में रखकर लिखी गई है। आज कुछ मुखर होने का जोखिम लेकर मैं कहना चाहता हूँ कि यह कविता किसी कवि को केन्द्र में रखकर नहीं है बल्कि उसके बहाने `समकालीन कविता के पाठ` -रिसाइटल- के पक्ष में लिखी गई है।


कविता को गाकर, चीखकर या अभिनय के साथ पढ़ने की पक्षधरता के बरअक्स यह मानवीय दुर्बलताओं के पाठ के साथ कविता का पक्ष रखने की भी एक कोशिश है। दूसरे, इसमें किसी कवि विशेष की नहीं बल्कि हमारे समय के अनेक कवियों की काव्यपाठ करने की स्मृतियाँ और बुदबुदाहटें हैं।

2 comments:

अजेय said...

अद्भुत कविता. ज़िन्दा बिम्ब, शुद्ध सम्वेदनएं....... मेरे भीतर भी एक लहर उमड़ी, लेकिन मेरे आस पास ऐसा कोई कवि नहीं. अपनी रुलाई किसे दिखाऊँ ??

लीना मल्होत्रा said...

jeevant kavita.. jaise ke chitr dekh rahi thi.. achanak jab vah ruka to chaha ki ise aur dekhna chahiye tha..