बहुतेरे महापुरुषों को गीता ने अत्यंत प्रभावित किया है जैसे, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, 13वीं सदी के महाराष्ट्री सुधारक ज्ञानेश्वर, उनसे पूर्व के वैष्णव आचार्य रामानुज और उनसे भी पूर्व के शंकर। यद्यपि भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाने के लिए प्रचंड युद्ध तो श्री तिलक और महात्माजी दोनों ने किया, फिर भी, गीता से इन दोनों ने निश्चय ही एक सी कर्मप्रेरणा नहीं ग्रहण की। अरविंद घोष, भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम से विरत होकर गीता के एकाग्र अध्ययन में लग गए। लोकमान्य तिलक को गीता के ज्ञानेश्वरी भाष्य का ज्ञान था तो सही, किंतु उनका गीता रहस्य उस भाष्य पर आधारित नहीं है। स्वयं ज्ञानेश्वर ने भी अपने स्वतंत्र भाष्य में न तो गीता के शंकर भाष्य का अनुसरण किया न रामानुज का ही। परंपरानुसार वे तो नाथ संप्रदाय के थे। शंकर के उदय के साथ पूर्णवत शैवों की बढ़ती-चढ़ती हो गई। उन लोगों के साथ वैष्णवों का जो तीव्र विवाद हुआ उसे रामानुज द्वारा प्रतिपादित वैष्णव मत ने एक सुरक्षित आधार पर प्रतिष्ठित कर दिया। तब, प्रश्न यह उठता है कि शंकर भी क्यों भगवद्गीता की ओर उन्मुख हुए।
ऐसी कौन सी सर्वमान्य बात थी जिससे इन विशिष्ट विचारकों को भगवद्गीता का आश्रय ग्रहण करना पड़ गया जबकि सामान्यजन इससे कटे रहे, यहां तक कि उनके अपने वर्ग के भी सामान्यजन को इसकी कोई जरूरत महसूस नहीं हुई? ये सभी विचारक हिंदू थे और इत्मीनान की जिंदगी बिताने वाले वर्ग के थे। गीता के प्रति इनका ऐसा झुकाव गौर करने की बात है क्योंकि जब हम इनके मुकाबले में जनसाधारण वर्ग से आए हुए कवि उपदेशकों को देखते हैं तो पाते हैं कि उनका काम तो गीता का आश्रय लिए बिना ही बड़े मजे में चल गया। बनारस के जुलाहे कबीर को देखिए, जिनके अनुयायी हिंदू भी थे और मुसलमान भी, कितनी सरल भाषा का प्रयोग किया है, पर उपदेश कितना गहरा। तुकाराम को गीता का ज्ञान ज्ञानेश्वरी के जरिए हासिल हो चुका था लेकिन उनकी विष्णु उपासना का अपना ढंग था, वे इंद्रायणी और पावना नदियों के संगम के समीप स्थित प्राचीन (बौद्ध और प्राकृतिक) गुफाओं में बैठकर ईश्वर का ध्यान तथा समकालीन समाज विषयक चिंतन किया करते थे। जयदेव कृत गीत-गोविंद, जो इतनी संगीतात्मक और ऐसी उत्कृष्ट कोटि की ललित साहित्यिक कृति है (और जो कृष्णभक्ति धारा की प्रेमतरंग और रहस्यलीला के आवेग से पूर्ण है), तथा चैतन्य द्वारा प्रवर्तित वैष्णव भक्ति आंदोलन, जो बंगीय कृषक समाज को अपने प्रेम-प्रवाह में बहा ले गया, इन दोनों में से एक की भी स्थापना गीता की आधारशिला पर नहीं हुई। सिखों के गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहीत विभिन्न वचनावलियों में जयदेव के श्लोक और महाराष्ट्रीय नामदेव के छंद तो हैं लेकिन उसने सीधे गीता से कोई भी सारभूत ज्ञान ग्रहण किया है इसका पता मुझे नहीं। आलंदी में प्रचलित ब्राह्मण-विश्वास का विरोध करने के कारण, ज्ञानेश्वर को लगभग 1290 ई. में भाग कर, रामचंद्र यादव के राज्यांतर्गत गोदावरी के दक्षिण तट पर शरण लेनी पड़ी जहां उन्होंने आम जनता की भाषा में अपने प्रसिद्ध भाष्य की रचना की।
शंकर और रामानुज ने कौन सा ऐतिहासिक कार्य किया या उसके लिए प्रेरित किया, इसका पता हमें नहीं के बराबर है। इसी तरह, हमें तिलक के बारे में भी कोई जानकारी नहीं होती अगर सिर्फ उनका गीतारहस्य बच रहा होता। बहरहाल, लगभग 800 ई. में शंकर किसी न किसी रूप में सक्रिय अवश्य थे जिसका परिणाम हुआ (जैसा कि परंपरा कहती है) कि बहुत से बौद्ध मठ उजड़ गए। हिंदू अब सामान्यत: ऐसा मानते हैं कि शंकर को ऐसी सफलता सिर्फ अपनी तीव्र तर्कशक्ति और विवादकुशलता से प्राप्त हुई। शंकर रचित ग्रंथावली से, और उसमें सिद्धांत खंडन के क्रम में उन्होंने बौद्धमत को जिस रूप में प्रस्तुत किया है उससे, बस एक बात साफ जाहिर होती है कि उन्हें गौतम बुद्ध के मूल उपदेशों की जरा भी जानकारी नहीं थी। बहरहाल, मठों में प्रचलित बौद्धमत भ्रष्ट होकर लामावाद में परिणत हो गया था तथा बौद्धों के आश्रम वैभवशाली विहार बन गए थे जिनके भारी खर्चीलेपन से देश की अर्थव्यवस्था बहुत ज्यादा पीडि़त हो उठी थी। जो साक्ष्य हमारे सामने है उससे यह निष्कर्ष निकालना उचित प्रतीत होता है कि शंकर की सक्रियता से बौद्ध मठों (या विहारों) को उजाड़ देने की पे्ररणा प्राप्त हुई तथा रामानुज की क्रियाशीलता से उन समृद्धतर सामंतों के विरोध को बल मिला जिनकी शिवोपासना जनमानस में दमनकारी भूमि लगान के साथ जुड़ी थी। अन्यथा, इस प्रश्न का समाधान मिलना मुश्किल है कि उग्र स्मार्त-वैष्णव कुलवेर में समृद्धतर अभिजातवर्गीय जमींदारों ने क्यों शिव को चुना एवं अपेक्षाकृत गरीब और निम्नवर्गीय लोगों ने बहुतायत से विष्णु को। अगर कहा जाए कि ये लोग विभिन्न धर्मदर्शन के चलते इस तरह लड़ पड़े तो यह विश्वास के योग्य बात नहीं है। शंकर ने उपनिषदों के भीतर से ज्ञान के दो अलग-अलग स्तर, उच्च और निम्न, खोज निकाले। इसके आधार पर हिंदू विश्वासों, समस्त उपकरणों को, चाहे उनका अर्थ कुछ भी रहा हो, उन्होंने निम्नतर पर रखा उन्हें मान्यता दी किंतु ज्ञान के उच्चस्तर में उन्हें कोई वास्तविकता नहीं दिखी। 'क या तो ख है या ख नहीं हैÓ शंकर का तर्क इस तर्क-वाक्य के पीछे छिपे सत्य को नकारने से शुरू होता है। - मृत्यु होने पर आत्मा जब शरीर से मुक्त होती है तब वह परब्रह्म में विलीन हो जाती है, उससे पृथक उसका कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। रामानुज का मत है कि यदि एक परब्रह्म की सत्ता है, जिससे सब कुछ उत्पन्न हुआ है, तो व्यष्टि आत्माओं एवं भौतिक द्रव्य (जड़ वस्तु) की भी अपनी-अपनी सत्ता है, और प्राणांत होने पर आत्मा परब्रह्म में विलीन नहीं हो जाती बल्कि अपना आनंदमय अस्तित्व कायम रखती है। यह अवस्था भक्ति अर्थात ईश्वर में आस्था और निष्ठा, द्वारा प्राप्त है। इस बात की कल्पना करना भी असंभव लगता है कि इन बारीक विचारों के खंडन-मंडन में उपस्थिति किए गए तर्कों से आम जनता आकृष्ट हो गई होगी और महज विशिष्टाद्वैत अथवा कट्टर द्वैतवाद की भावना ने लोगों को पागल बनाया होगा? फिर पागलपन से भरे संघर्ष यहां हुए और सदियों तक होते रहे। साथ ही साथ, यहां यह भी हुआ कि संघर्षरत दोनों में से किसी भी पक्ष को गोमांस-भक्षी मुसलमान अधिपतियों की निष्ठा सहित सेवा करने पर कोई आपत्ति नहीं हुई। उन्होंने जब ब्राह्मणों को रौंद डाला तो कहीं कोई खेद या प्रतिशोध का भाव प्रकट नहीं किया गया और मंदिरों को अपवित्र कर डाला तो उन्हें किसी दैवी प्रकोप का भाजन नहीं होना पड़ा।
इससे निश्चित रूप से हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं वह यह है: अगर कोई सिद्ध करने पर तुल जाए तो वर्गव्यवस्था की प्रामाणिक सत्ता को नकारे बिना, वह गीता से वस्तुत: कोई भी अर्थ निकाल सकता है। गीता ही ऐसा धर्मग्रंथ है जिससे, मान्य ब्राह्मण कर्मकांड का तिरस्कार किए बिना, किसी सामाजिक कार्रवाइयों के लिए प्रेरणा और औचित्य प्राप्त किया जा सकता था जो तत्कालीन ब्राह्मणों के आश्रयदाता शासकवर्ग की एक शाखा को किसी हद तक अप्रिय थीं। ऊपर उल्लिखित प्रत्येक स्थिति से यह तो स्पष्ट ही है कि ऐसी सामाजिक कार्यवाही महज वैयक्तिक अवसरवादिता नहीं थी। अब देखना यह है कि इस ग्रंथ को ऐसी बेजोड़ प्रतिष्ठा क्यों प्राप्त हुई।
एक विशिष्ट क्षेपक
साफ जाहिर है कि भगवद्गीता उच्च-वर्गों के लिए ब्राह्मणों द्वारा, और उन्हीं के द्वारा दूसरों के लिए भी गाई गई है। स्वयं कृष्ण ने कहा है (गीता 9-32): 'उनके लिए जो मेरी शरण में आते हैं, भले ही वे पापयोनिवाले क्यों न हों, जैसे, स्त्रियां, वैश्य और शूद्र...।` तात्पर्य यह है कि सभी स्त्रियां और श्रमजीवी तथा उत्पादी वर्गों के सभी पुरुष अपने जन्म से ही कलुषित हैं, लेकिन वे भी उस ईश्वर में, जो अपनी मर्जी से उन्हें ऐसी नीच योनि में गिरा देता है, निष्ठा रखकर अगले जन्म में मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। यही क्यों गीता में तो यह भी कहा गया है कि, ऐसे भेदभाव की सृष्टि स्वयं ईश्वर ने ही की है (गीता 4-13): 'चातुर्वण्यैमया सृष्टं (अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों के रूप में मनुष्य जाति का वर्ग विभाजन मैंने ही किया है) यह उद्घोषणा महान उपलब्धियों की सूची में है।
दो टूक कहा जाए तो गीता की अपनी जो विलक्षण मूलभूत त्रुटि है, अर्थात असंगति में संगति की प्रतीति कराने का कौशल, वही उसकी उपयोगिता का हेतु भी है। भगवान कृष्ण ने बारंबार अहिंसा के महात्म्य पर बल दिया है तथापि उनका संपूर्ण प्रवचन युद्ध को बढ़ावा देने वाला ही है। गीता 2-19 में और उसके परवर्ती श्लोकों में बताया गया है कि आत्मा न मरती है न मारी जाती है, आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को उसी प्रकार धारण करती है जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्रों को धारण करता है, इस आत्मा को न तो शस्त्रादि काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी भिगो सकता है, न हवा सुखा सकती है। गीता, अध्याय 11 में भयभीत अर्जुन देखता है कि दोनों पक्ष के समस्त योद्धागण विश्वरूप विष्णु - कृष्ण के विकराल दाढ़ों वाले अनगिनत भूखों में प्रवेश करते हैं और निगले जाने या चूर-चूर होने वाले हैं। निष्कर्ष ऐसे दर्शन और प्रदर्शन का क्या है यह तो विश्वरूप भगवान ने स्वयं ही इस प्रकार कहा है (गीता, 11-33) कि युद्धक्षेत्र में उपस्थित ये सारे शूरवीर तो मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं, अत: हे अर्जुन, तू ऐसे संहार के लिए बस निमित्तमात्र हो जा और शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से संपन्न राज्य का भोग कर। इसी तरह, गीता में यद्यपि यज्ञ का तिरस्कार या उपहास किया गया है तथापि अध्याय 3 के श्लोक 14 में कहा गया है कि यज्ञ से वृष्टि होती है जिसके बिना अन्न तथा जीवन संभव नहीं है। यह चपल अवसरवादिता इस संपूर्ण ग्रंथ का विशिष्ट लक्षण है। अत: अगर इतने-इतने लोग गीता के प्रेमी और उसके प्रभाव से अभिभूत हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। एक बार जहां यह मान लिया गया कि भौतिक जगत घोर भ्रम है, माया है, फिर तो द्वैध की ही दुनिया रह जाती है जहां एक साथ दो परस्पर विरोधी विचार विश्वास के पालने में पलते रहते हैं।
स्पष्टत: गीता एक नई रचना है, प्राचीन पाठ में अपेक्षाकृत संक्षिप्त रूप में दिए हुए किसी धर्मोपदेश का विस्तार नहीं। आगे मैं यह दिखाऊंगा कि यह नई गीता अपनी रचना के बाद कई सदियों तक प्रभावहीन ही बनी रही।
प्रयोजन की पूर्ति के लिए अपर्याप्त श्रोता के रूप में निम्नतर वर्गों के लोग आवश्यक थे, और प्राचीन युद्ध की वीरगाथाएं उन्हें आकर्षित करती रहीं। इससे यह हुआ कि ब्राह्मण लोग जिस किसी सिद्धांत को जोड़ लेना चाहते थे उसे सन्निविष्ट कर लेने के लिए पुराणों के पुनर्लेखन या पुरातन पंथों के समर्थन में जाली नए पुराण रच लेने से भी अच्छा और सबसे सुविधाजनक साधन महाकाव्य ही बन गया। प्राकृत भाषाएं तो बहुसंख्यक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में टूट-बिखर रही थीं, अत: अभिव्यक्ति के लिए सुगम संस्कृत भाषा ही सुविधाजनक थी। उच्च वर्ग ने भी संस्कृत का अधिकाधिक उपयोग करना आरंभ कर दिया था। कुशाण और सातवाहन शिलालेख उस समय भिक्षुओं और व्यापारियों में प्रचलित देश-भाषा में ही हैं। किंतु, 150 से, एक नए प्रकार का सरदार (रूद्रदामन के समान संभवत: विदेशज) ऐतिहासिक मंच पर आता है जो अपनी उपलब्धियों के विषय में यहां तक कि संस्कृत-ज्ञान के बारे में भी, अलंकृत संस्कृत में शेखी बघारता है। भगवान बुद्ध ने आदेश दिया था कि जनसामान्य की भाषा का व्यवहार किया जाए, लेकिन बौद्ध लोग इसकी उपेक्षा करने लगे थे, उन्होंने भी संस्कृत को अपना लिया। श्रेष्ठ संस्कृत साहित्य का उत्कर्ष-काल तो धार्मिक भाव प्रधान नाटकों और काव्य की रचना से आरंभ हुआ, जैसे, अश्वघोष कृत नाटक और काव्य। एक संस्कृतानुरागी कुलीन वर्ग, साथ ही संस्कृतज्ञ पुरोहितवर्ग भी, उस समय विद्यमान था।
अगर कोई आख्यान या घटना कहीं क्षेपक करके जोड़ दी गई तो इस पर किसी को आपत्ति हो ही कैसे सकती थी? आखिर, महाभारत एक कथा ही तो है! संजय ने धृतराष्ट्र से जो कहा था उसे ही व्यास ने जनमेजय को सुनाया और व्यास के इस प्रवचन को उग्रश्रवस् नामक चारण ने नैमिषारण्य में एकत्रित ऋषि-मुनियों को गाकर सुनाया। ब्राह्मण गण गीता के फल-निष्कर्ष से असंतुष्ट थे न कि उसकी प्रामाणिकता से। इसी का परिणाम है अनुगीता, जो 14वें सर्ग (अश्वमेध पर्व) में एक विशिष्ट उत्तर कथा के रूप में है। अर्जुन स्वीकार करता है कि युद्ध आरंभ होने के पूर्व जो भी दिव्य उपदेश दिए गए थे वे सब विस्मृत हो गए और इसीलिए वह एक बार और प्रवचन के लिए प्रार्थना करता है। कृष्ण उत्तर देते हैं कि उनके लिए भी यह असंभव है कि उस समय उन्होंने जो उपदेश दिया था उसे फिर अपनी स्मृति से दुहरा सकें। इस तरह, यहां पूरा प्रयास किया गया कि पुनरुक्ति न होने पाए। बहरहाल, एवज में एक दूसरी बिल्कुल घटिया गीता प्रस्तुत की गई जिसमें बस ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों का गुणानुवाद किया गया है। पहली गीता से इसकी तुलना जरा भी नहीं की जा सकती, और अब इसे कोई पढ़ता भी नहीं है, लेकिन जिन पाखंडियों ने इसे इस तरह घुसेड़ दिया उन्हें उस समय ऐसा करना जरूरी जान पड़ा था।
साभार: यह अंश डी.डी. कोसाम्बी की पुस्तक `मिथक और यथार्थ` के पहले अध्याय 'गीता का सामाजिक और आर्थिक पक्ष` से लिया गया है। सन 1976 में भारतीय अनुसंधान परिषद के सहयोग से पहली बार इसे मैकमिलन द्वारा प्रकाशित किया गया था। इसके अनुवादक थे नंदकिशोर 'नवल`।
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प्रसिद्ध इतिहासकार, गणितज्ञ, सांख्यिकीविद् कोसांबीजी (July 31, 1907 – June 29, 1966) भारतीय प्राचीन साहित्य-दर्शन के गहन अध्ययन के लिए भी जाने जाते हैं। उनका यह लेख `समयांतर` के जनवरी 2012 अंक में प्रकाशित हो चुका है। इसी संबंध में इससे ठीक पहली पोस्ट भी देखें - गीता के बहाने धर्म पर कुछ बातें - पंकज बिष्ट
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