Sunday, June 10, 2012

हुसेन की पहली पुण्यतिथि और शर्मिंदगी गहरी -शिवप्रसाद जोशी



मक़बूल फ़िदा हुसेन को गुज़रे एक साल हुआ. कल्पना करें कि याद में एक खुली प्रदर्शनी लगाई है और हुड़दंगियों की धमकी भी आ गई है. वे कहेंगे हुसेन मत दिखाओ. आयोजन को भंग कर देंगे, हिंसा करेंगे. धमकाएंगें. फिर आने को कहेंगे. तो आप रस्मी तौर भी अगर हुसेन को याद करेंगे तो ज़रा देखसंभाल कर करना होगा. कहीं आपको या आपके आयोजन को चोट न आए. ये अच्छा हुआ और सोचिए कितना अच्छा हुआ कि हुसेन को यहां हिंदुस्तान में दफ़ना देने की कुछ नकली उत्साही प्रगतिशीलों की मांग न मानी गईं. वे कुछ कभी न करते अपमान हो जाने देते, मरकर भी पीछा करते रहने वालों के पीछे दुबक जाते या घर चले जाते. आवाजाही का ढोल बेशक बजता रहता. इस शोर में तो फेफड़े तक सिकुड़ जाते हैं. क्या ये महज़ किसी बीमारी का जानलेवा लक्षण है. 95 साल के हुसेन को फेफड़ों में संक्रमण हो गया था. बीमारियां और भी थीं. एक तरह का देश निकाला और अपमान- अफ़सोस और उदासी ने हुसेन को जकड़ लिया था.

हुसेन का कांटा इस राष्ट्र से निकल गया. जुनूनियों को ये सुकून हो चला था. लेकिन उसे हमारी सामुहिक स्मृतियों से कैसे निकालेंगे. उस बूढ़े दाढ़ी वाले नंगे पांवों वाले लंबी कूची हाथ में लेकर डोलते से रहने वाले शख़्स को. उसकी छवि ही समाई हुई है याद में ही नहीं परंपरा में लोक में कला में जीवन में मिट्टी में. कहां कहां से क्या क्या उखाड़ेगें. फेंकेंगे. उसके रंग तो जहांतहां बिखरे हैं. अपना पीछा करने वालों का पीछा अब हुसेन कर रहा है. अपनी उम्र से भी लंबी ख़ामोशी में और एक बहुत गहरी निश्चल नींद में.

ये करेंगे संवाद. हुसेन को देश छोड़ने पर विवश कर देंगे, उन्हें जान से मारने की फ़िराक में घूमेंगे और कहेंगे हम तो सभी विचारों सभी विवादों पर संवाद करने वाली जमात हैं. विराट हिंदु दर्शन के हम प्रतिनिधि. कितना नकली भोथरा और बेशर्मी से भरा हुआ समय है. अश्लील. सरेआम घिनौना. मंचों पर आवाजाही की बात करते हैं. कि बात बनेगी, नवसाम्राज्यवाद का मुक़ाबला होगा. विचारों की धूल छंटेगी. विचारों का विकास होगा. एक ही धुन में क्यों बोले चले जा रहे हैं. सांप्रदायिकता पर चोट करेंगे या छोड़ो कल देखते हैं कहेंगे. एक साल पहले देश के एक सम्मानित बुज़ुर्ग रचनाधर्मी के निधन की वजहें गिनने जाएंगे तो हमारी कायरता का भी नंबर आता है.

किस प्रतीक की रक्षा पहले करेंगे. धार्मिक या आस्था का भावनापरक होगा वो प्रतीक या वो आत्मा का प्रतीक होगा. नैतिकता का. मनुष्यता के प्रतीक की रक्षा होगी या नहीं. एक साल बाद कहां से कहां पहुंच गए हम. अग्नि पांच हो गई. आईपीएल पांच हुआ. इतने नामुराद घोटाले हो गए. चंद गिरफ़्तारियां और रिहाइयां हो गईं. सरकारें बदल गईं, अण्णा आंदोलन का मोह हुआ फिर भंग हो गया. बड़े हिस्से में लाचारी और वेदना बढ़ गई तो एक हिस्से में खुमारी और डकारें घनी हुई.

लिहाज़ा ऐसे इस बेरहम वक़्त में हुसेन की इस पहली पुण्यतिथि पर उनका ख़ामाख़्वाह शोक और भाषण न करें, आवाजाही रोक दें, ख़ातिर जमा रखें और कुछ इतना भर ऐसा करें कि हुसेन की बनाई छवियों को फिर से देखें दिखाएं, समझे समझाएं. हमसे छूटती जाती हुई मनुष्यता शायद इस तरह कुछ रुके. शायद हमारे पास ही रह जाए.
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(हुसेन की पहली पुण्यतिथि कल 9 जून को थी। शिवप्रसाद जोशी कई दिन पहले ही यह लेख मेल कर चुके थे पर मेल देरी से देख पाने की वजह से यह पोस्ट एक दिन की देरी से लगा पा रहा हूं।- धीरेश)

2 comments:

अजेय said...

हुसैन , और वो सब बचा रहेगा /जो ज़रूरी है जीवन के बचे रहने के लिए . बना रहेगा हमारी स्मृतियों मे / हसैन / जैसे आकाश मे हवा / पृथ्वी मे नमी / वनस्पति मे हरा ताप आग में

Shekhar Suman said...

निःसंदेह वो एक अच्छे चित्रकार थे...बस कुछ मौलिकताएं भी निभानी चाहिए थीं...