आनंद पटवर्धन से जोसी जोसेफ़ की बातचीत
यह वाक़या 1988 में त्रिवेंद्रम में हुए भारत के अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के दौरान हुआ. दि गार्डियन अखबार के प्रतिष्ठित सिने समीक्षक डेरेक माल्कम द्वारा मलयालम सिनेमा पर लिखी हुई एक पुस्तक की पहली कॉपी एक सरकारी समारोह में स्वीकार करने के लिए मैं आनंद पटवर्धन को मनाने की कोशिश कर रहा था. उस पुस्तक का लेखक मेरा मित्र था. आनंद ने पुस्तक लेने के लिए स्वीकृति तो दे दी मगर एक सवाल पूछा: "डेरेक माल्कम क्यों? क्या वह गोरा है इसलिए?"
बहुत वर्षों बाद फ़िल्म्स डिविज़न ने एम आई एफ़ एफ़ ( मुम्बई इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल फ़ॉर डॉक्युमेंटरी, शॉर्ट अंड एनीमेशन फ़िल्म्स) के लिए फ़िल्म्स डिविज़न पर ही बन रही एक कर्टन-रेज़र फ़िल्म के लिए जब आनंद का साक्षात्कार लिया तो मैंने उन्हें कहते हुए सुना: "ये हमारी ख़ुशकिस्मती है कि गाँधी के लिए हमें बेन किंग्सले के हवाले की ज़रूरत नहीं क्योंकि फ़िल्म्स डिविजन के पास गाँधी का असली फुटेज है!"
आनंद अपनी फ़िल्मों द्वारा और व्यक्तिगत रूप से भी बेहद स्पष्ट बातें करते हैं. इसीलिए किसी सरकारी डॉक्युमेंटिंग संस्था के लिए काम करते हुए भी मैं भारत के इतिहास की असली लम्बाई और वज़न मापने के लिए मैं आनंद की फिल्में बार-बार देखता हूँ. जब भी सूर्योदय का शॉट लेने के लिए मैं जागता हूँ या साफ़ आसमान में सूर्यास्त को कैमरे में क़ैद करने का बड़े सब्र के साथ इंतज़ार करता हूँ, तो आनंद से जलन महसूस होती ही है. मुझे उनकी फ़िल्मों का एक भी 'सुन्दर दृश्य' याद नहीं पड़ता-- सिर्फ सुन्दरता हासिल करने के लिए तैयार किया गया दृश्य. उनके आसमानों में तो राजनीतिक विश्वास का उजाला फैला होता है और उसे अपनी स्वीकार्यता की ज़रा भी फ़िक्र नहीं होती, और यही बात बार-बार मेरे मन में आती है. आनंद की फिल्में वक़्त की कसौटी पर इतने आत्मविश्वास के साथ खरी साबित हुईं तो ऐसे ही नहीं. और जहाँ तक उनके और उनकी फ़िल्मों के प्रति नर्वस अधिकारी वर्ग के रोष का सवाल है, तो वह फलते-फूलते बहुतेरे दरबारी कवियों बनाम एक या दो होनहार कवियों की पुराने क़िस्सों में एक सिनेमाई इज़ाफा है.
"मेरे लिए फ़िल्म-निर्माण सिनेमा के प्रति प्रेम से नहीं उपजा था", आपने कहा था. आपने यह भी कहा था कि,"अगर आप फ़िल्म-निर्माण को कैरियर के तौर पर अपनाना चाहते हैं, तो मुझे लगता नहीं कि इसमें कोई मतलब है." और यहाँ हम फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन से बातचीत कर रहे हैं. फ़िल्म-निर्माण में आने के लिए आप को किसने प्रवृत्त किया?
मुझे स्टिल फोटोग्राफी पसंद थी और मेरी माँ ने मेरे लिए एक पुराना एन्लार्जर खरीदा था,जिसे हमने अपने बाथरूम में फिट किया था जब मैं पंद्रह साल का था, मगर सिनेमा के प्रति मेरा प्रेम मेरे फिल्में बनाना शुरू करने के बाद पैदा हुआ न कि उससे पहले. इस मायने में में एक्सीडेंटल फ़िल्मकार हूँ. मेरी पहली फ़िल्म फुटेज की वजह थी अमेरिका का वियतनाम युद्ध विरोधी आन्दोलन जिसका मैं खुद
हिस्सा बन गया था. मैं छात्रवृत्ति पाकर समाज विज्ञान की पढ़ाई के लिए ब्रैंडाइस विश्वविद्यालय गया था जो उस वक़्त युद्ध-विरोधी प्रदर्शनकारियों का गढ़ बना हुआ था. युद्ध के खिलाफ हमने कई कार्रवाईयाँ कीं जिन में से कुछ को मैंने एक कैमरा उधार लेकर शूट कर लिया. बाद में 1971 में बड़ी तादाद में मशरीकी पाकिस्तान से भारत आने वाले शरणार्थियों को लेकर जागरूकता जगाने और निधि तैयार करने के लिए मैंने एक शॉर्ट फ़िल्म भी बनाई. यह आज़ादी की उस लड़ाई के कुछ ही पहले की बात है जिसकी परिणिति बांग्लादेश के बनने में हुई. अमेरिका, जो उस समय पाकिस्तान का समर्थन कर रहा था, पाकिस्तानी सेना और उसके सहयोगियों द्वारा चलाये गए दमन और हत्याओं के दौर को स्वीकार ही नहीं कर रहा था, इसलिए हमारी फ़िल्म अमरीकी नीति का जो नतीजा हो रहा था उसी का तकाज़ा थी.
जब मैं 1972 में भारत वापिस आकर किशोर भारती नाम की स्वयंसेवी संस्था में काम करने लगा जहाँ हम ग्रामीण शिक्षा में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ खेती-बाड़ी के तरीकों को आधुनिक बनाने का भी काम कर रहे थे, उस समय भी फ़िल्म निर्माण मेरे दिमाग में दूर-दूर तक न था. रसौलिया में हमारे एक आनुषंगिक संगठन में एक चिकित्सा केंद्र था जहाँ के डॉक्टरों ने यह बात नोटिस की थी कि तपेदिक के मरीज़ ठीक तो हो जाते हैं मगर दीर्घकालिक देखभाल के अभाव में फिर उस से ग्रस्त हो जाते हैं. इसलिए मैंने अचल छायाचित्रों और ओपीडी के मरीज़ों के लिए कैसेट रिकार्डर पर एक साउंड ट्रैक चलाकर 20 मिनट की एक फ़िल्म
बनाई. संयोग से डॉ. विनायक सेन भी रसौलिया के उस चिकित्सा केंद्र से जुड़ गए थे और मेरे वहाँ से निकलने के बाद कई सालों तक वहाँ काम करते रहे.
1974 में मैं जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार आन्दोलन में शामिल हुआ जिसकी परिणति सम्पूर्ण क्रान्ति की मांग में हुई. नवम्बर 1974 में जब पटना में एक बड़े विरोध प्रदर्शन की योजना बनी तब मैं फिर से फ़िल्म-निर्माण से जुड़ गया. पुलिस हिंसा की सम्भावना को देखते हुए आन्दोलन ने मुझे उस दिन तसवीरें खींचने को कहा. ऐसा करने की बजाय मैं दिल्ली गया और इस काम के लिए अपने मित्र राजीव जैन को ले आया जिसके पास एक सुपर 8 कैमरा और एक आठ मिमी कैमरा था. तो इन शौकिया उपकरणों की सहायता से हमने 4 नवम्बर को पटना में हुई विशाल रैली और उसके बाद के पुलिसिया दमन को कैमरे में क़ैद किया. मैं फिर दिल्ली गया और 8 मिमी फुटेज को एक छोटे परदे पर प्रोजेक्ट किया और एक अन्य मित्र ने अपने 16 मिमी कैमरे की सहायता से इस परदे को शूट करके किंचित बड़ी तस्वीरें क़ैद कीं. फिर मैं एक और मित्र प्रदीप कृशन को लेकर बिहार लौटा जिसने
उसी समय एक पुराना बैल एंड हौवेल 16 मिमी कैमरा खरीदा था, इस कैमरे में एक बारी में 30 सेकण्ड की शूटिंग करने के लिए आपको रील हाथ से लपेटनी पड़ती है. इस सारी खटपट से "वेव्ज़ ऑफ़ रेव्ल्यूशन" नाम की फ़िल्म तैयार हुई जो बनते ही
भूमिगत हो गई क्योंकि जून 1975 के आते-आते इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी.
तो फ़िल्मों में आपके प्रवेश और एक फ़िल्मकार के तौर पर आपके अस्तित्व को काफी हद तक आपकी राजनीति ने आकार दिया है. सिनेमा के अपने मुहावरे की तलाश और आपकी राजनीति क्या आपस में गुंथे हुए हैं? थोड़ा और विवरण देने की कोशिश करता हूँ.
हालाँकि आप को "भारत का माइकल मूर" कहलाने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन मुझे सिनेमा के आपके मुहावरे में माइकल मूर की तकनीकों में एक बड़ा फर्क नज़र आता है. आपने भी अभिव्यक्त किया है कि -"अपने प्रतिद्वंदी के धूल चाटते होने पर भी बहुत ज्यादा घूंसे मारने के वे दोषी हैं." उसी तरह फर्नांदो सोलानस की 'आवर ऑफ़ दि फर्नेसेस' के बारे में आपके विचार- "फिल्म के दोटूकपन और संवेदनाओं की मैं सराहना करता हूँ, मगर याद पड़ता है कि मुझे उसका शिल्प बहुत पसंद नहीं आया था क्योंकि वह दर्शक पर नारों, तेजी से काटे गए दृश्यों और अधिकारपूर्ण वाचनिक हस्तक्षेपों की बमबारी करती है." यहाँ असर करने वाले शब्द हैं घूंसे, बमबारी और अधिकारपूर्ण. क्या आपके भीतर का गांधीवादी सिनेमा के माध्यम से शांतिपूर्ण हस्तक्षेप की तलाश करता है? क्या सिनेमा के आपके मुहावरे की यही परिभाषा है?
ये सच है कि मैं इंसाफ़ के लिए अहिंसक संघर्षों की ओर अधिक आकर्षित हुआ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि अच्छे उद्देश्य के लिए की गई हिंसा भी अंततः हमें अमानवीय बनाती है, लेकिन मैं इस बात से वाकिफ़ नहीं था मेरी ये तरजीह सिनेमा के प्रति मेरे अप्रोच को और सिनेमा के शिल्प के मेरे मूल्यांकन को प्रभावित करती है. लेकिन अब आप जो ऐसा कह रहे हैं, ये बात सच प्रतीत होती है. मैं कभी अपने दर्शकों के सिर पर हथौड़ा लेकर प्रहार नहीं करना चाहता लेकिन मुझे ख़ुशी होती है अगर मेरी फ़िल्म उन्हें सही/राइट (या कहें लेफ्ट) दिशा दिखाकर यह अहसास कराती है कि वे अपने-आप किसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं. तो मेरा काम किसी दादा का काम नहीं है जो उन्हें अपने अधीन कराकर उनका ब्रेनवाश कर दे, बल्कि उस वकील की तरह है जो सामने रखे गए सुबूतों के पुख्तापन और वज़न से उन्हें धीरे धीरे राज़ी करता है.
लातिन-अमेरिकी विचारधारा के 'इम्परफेक्ट सिनेमा' (त्रुटिपूर्ण सिनेमा) के प्रति उसके झुकाव और वर्तमान दौर के बहुप्रचारित 'आर्टिस्टिक सिनेमा' (कलात्मक सिनेमा) की पृष्ठभूमि में आपके सिनेमा को दर्शक कहाँ रखे? ये जवाब ज़रा विस्तार से दीजिये क्योंकि ये सौन्दर्यशास्त्रीय प्रश्न फ़िल्मकारों की राजनीतिक अवस्थिति और उनके दौर से काफी जुड़े हुए हैं?
जैसे मैं अपने आप को गांधीवादी, मार्क्सवादी या अब आम्बेडकरवादी के विचारधारात्मक और राजनीतिक लेबल लगाने से बचता हूँ, उसी तरह सिनेमा के प्रकार को दिए गए इन लेबलों को कुछ हद तक दमघोंटू और क्लॉस्ट्रफोबिक पाता हूँ. लातिन अमेरिका में साठ और सत्तर के दशक में फ़िल्म निर्माण की जो परिस्थितियाँ थीं उनमें से 'इम्परफेक्ट सिनेमा' का सिद्धांत उभरा था- तब बर्बर और दमनकारी सत्ताओं के खिलाफ लड़ने वाले धन और अच्छे उपकरणों के बिना काम करते थे और हमेशा पकडे जाने, प्रताड़ित किये जाने या मार डाले जाने के खतरे में रहा करते. तो उस सिनेमा पर उसके जन्म के निशान मौजूद थे जिसकी वजह से खरोंचें लगी हुई फ़िल्में, बिना फ़ोकस वाली, जल्दबाज़ी में लिए गए शॉट और झटकेदार हरकतें विपत्ति के दौर में दिखाए गए साहस के लिए मिले तमगे की तरह शान से धारण किये जाते थे. भारत में काम करते हुए जान का ख़तरा उतना अधिक नहीं था मगर उपकरणों और निधि का वैसा ही अभाव मैंने झेला है, गिरफ़्तार होने के डर से डर से छुप कर काम करना पड़ा और मेरी शुरूआती फ़िल्में यही दर्शाती हैं. आगे चलकर जब मैंने बेहतर उपकरण खरीदे या उधार लिए और 'करत करत अभ्यास' के मेरा अपना तकनीकी हुनर बेहतर हुआ, तो मेरी फ़िल्में भी देखने-दिखाने में अलग लगने लगीं. आज तकनीकी इतने नाटकीय ढंग से बदल गई है कि सिनेमा का नवतुरिया भी अपेक्षाकृत कम खर्चे पर बेहद स्पष्ट और आकर्षक तस्वीरें खींच सकता है. कोई इम्पर्फेक्शन बचा नहीं है सिवाय उसके जो सायास डाला जाता है और बिलकुल बनावटी होता है.
जहाँ तक कलात्मक सिनेमा का सवाल है, असल में मुझे तो इस पद से ही एलर्जी है. कला जैसी कोई चीज़ अगर है, तो वह एक सचेतन क्रिया न हो कर अवचेतन काम है. मेरे लिए कला का सचेतन सृजन कला नहीं है, आम तौर पर ऐसा करना तो जुगाली है. आदिवासी जो अपनी मिट्टी से बनी कुटियों को रंगते हैं या दस्तकार अपने आप को कलाकार नहीं कहते. उन चीज़ों को एक फ्रेम में रखने के बाद और एक विशिष्ट दृष्टि को आमंत्रित करने के बाद उस काम को कला का दर्जा दिया जाता है. तो अपने आप को कलाकार कहने वाले लोगों से में ज़रा बचकर रहता हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि कला नाम की कोई अव्याख्येय चीज़ अस्तित्व में हो तो सकती है, मगर उसे चीन्हने का काम इतिहास और भूगोल का है. जब कोई चीज़ देश या काल को ट्रांसेंड कर जाती है और दशकों और सदियों तक विभिन्न संस्कृतियों और राष्ट्रों द्वारा सराही जाती है, तो ज़रूर उसने किसी सार्वभौमिक सत्य को छू लिया होता है, जिसे हम किसी अच्छे पद के अभाव में कला कहते हैं.
बिहार में जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के आप हमसफ़र रहे हैं और एक 8 मिमी कैमरा की सहायता से आपने उसे एक श्वेत-श्याम फिल्म 'वेव्ज़ ऑफ़ रेव्ल्यूशन' में दर्ज भी किया है. आपके इस सवाल पर कि गांधीवादी तक वर्ग के प्रश्न को मानते हैं और उस पर बल देते हैं, जेपी का जवाब क्या था. चूँकि आपने जेपी आन्दोलन को भीतर से देखा है, लाजिमी है कि मैं आप से जेपी के और अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के मूल अंतर को लेकर सवाल पूछूँ. क्या, कैसे और क्यों?
एक 24 वर्षीय युवा के लिए वे नशीले दिन थे जो अमेरिका में एक आदर्शवादी शांति आन्दोलन से लौटा था और फिर कुछ साल उस अड़ियल ग्रामीण क्षेत्र में बिताये थे जहाँ बदलाव की रफ़्तार बेहद कम थी. उसके विपरीत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्रान्ति के अपने वादे के साथ बिहार आन्दोलन उत्तेजित करने वाला था. मैंने देखा था कि लोगों ने अपने जनेऊ तोड़े, जमींदार परिवारों ने अपनी ज़मीनें छोड़ दीं, छात्रों ने कभी दहेज़ न लेने का प्रण किया. ख़तरे के संकेत मगर मौजूद थे. जेपी ने आरएसएस के पुनर्वास की कोशिश की थी क्योंकि उन्होंने कुछ सालों पहले अकाल राहत कार्य में उनका समर्पण और प्रतिबद्धता देखी थी. राष्ट्र के मानस में आरएसएस फिर भी वह वैचारिक शक्ति थी जिसने महात्मा गाँधी को मारा था. मगर जेपी का यह दृढ़ मत था कि वे और बिहार आन्दोलन आरएसएस को अल्पसंख्यकों के प्रति धार्मिक घृणा से दूर ले जाकर सामाजिक परिवर्तन हेतु युवाओं का एक जोशपूर्ण आन्दोलन विकसित कर लेंगे. मुझे इसमें संदेह था और आरएसएस के प्रवेश को लेकर आगाह करने वाले कुछ लेख मैंने एवरिमन में लिखे जो आन्दोलन द्वारा चलाया जा रहा पत्र था. इतिहास ने दिखा दिया है कि जहाँ आरएसएस को बदलने में जेपी कोई असली प्रगति नहीं कर पाए वहीं आरएसएस ने जेपी को इस्तेमाल करके अपना पुनर्वास करवा लिया और गंभीरता से लिए जाने लायक राष्ट्रीय शक्ति बन गया. फिर भाजपा का गठन होने, बाबरी मस्जिद के ढहा दिए जाने के बाद से ध्रुवीकरण की प्रक्रिया से भारत कभी उभर ही नहीं पाया.
आपातकाल के बाद वाले दौर में जेपी ऐसे नेता रह गए थे जिसकी कोई नहीं सुनता. वर्ग संघर्ष की बात करने वाले और नक्सलियों, नगा और मिज़ो सभी राजनीतिक क़ैदियों की रिहाई के लिए बहस करने वाले वे खुद एक कुछ-कुछ वामपंथी समाजवादी बने रहे, मगर उन्हें जल्द ही हाशिये पर डाल कर अप्रासंगिक बना दिया गया.
अण्णा हजारे के आन्दोलन के साथ क्या समानता है? अपने क़द और बौद्धिक क्षमता में जहाँ अण्णा की जेपी से कोई बराबरी नहीं है और जेपी के विपरीत अन्ना शायद 'ईमानदार' उपभोक्ता पूँजी (वादी) विकास के समर्थक हैं, वहीं कुछ सुस्पष्ट समानताएँ हैं और पूरी सम्भावना है कि अतीत की गलतियों को देखा जाए. 1974 की तरह आज भी ऊँचे और निचले स्तर के भ्रष्टाचार को लेकर जनता में जो वितृष्णा है उस से इनकार नहीं किया जा सकता. एक तरफ तो प्रतिष्ठाप्राप्त ईमानदार वृद्ध है जो प्रतिरोध का प्रतीक है. दूसरी तरफ आरएसएस तैयार ही बैठी है, वही एकमात्र संगठित शक्ति है जो इस से फ़ायदा उठा सकती है. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अन्ना के साथ हैं और उन्हें आरएसएस की चाल में फंसने से आगाह कर रहे हैं. आगे आगे देखिये होता है क्या.
अब आपकी नवीनतम फिल्म 'जय भीम कॉमरेड' में आपने कवि और एक्टिविस्ट वरवर राव से कहा कि वर्ग के सवाल का समाधान ढूँढते हुए, वामपंथियों ने जाति के सवाल को नज़र-अंदाज़ कर दिया. इतना ही नहीं, आपकी फिल्म वामपंथी नेतृत्व में ऊँची जातियों के दबदबे को लेकर भी टिप्पणी करती है. भारत में 'जातिगत नियति के साथ मुलाक़ात' (ट्रिस्ट विद कास्ट डेस्टिनी) और लम्बी खोज को आप 'जय भीम कॉमरेड' द्वारा कैसे आगे बढ़ाते हैं?
मैं किसी व्यक्ति या पार्टी के बारे में फैसला सुनाने की कोशिश नहीं कर रहा और न ही मैं उन लोगों के महान योगदान का अवमूल्यन करना चाहता हूँ जिन्होंने और गरीबी और कलंकित परिस्थितियों में पैदा न होने के बावजूद उत्पीड़ितों का पक्ष चुना. यह फ़िल्म एक प्रयास है जाति के मुद्दे पर संवाद के लिए स्पेस तैयार करने का, न केवल वाम पक्ष के अनगिन स्वरूपों के अंतर्गत बल्कि दलित आन्दोलन में भी और उच्च जाति तत्वों के साथ जिन्हें पता ही नहीं है कि इस देश में जाति की समस्या है. मुझे लगता है विभिन्न प्रकार के लोग इस फ़िल्म से विभिन्न चीज़ें ग्रहण करेंगे. मैं इस बात से खुश हूँ कि मुख्तलिफ वर्ग, जाति और राजनीतिक विचारधारा से आने वाले बहुत सारे लोगों ने मुझसे कहा कि फ़िल्म देखने के बाद रात भर वे सो नहीं पाए.
ये हताशाजनक स्थिति है कि महाराष्ट्र का दलित आन्दोलन टुकड़े-टुकड़े हो गया है और दलित अस्मिता को छोड़ दिया जाए तो इनका पास कोई विजन नहीं है. एक समय के विद्रोही कवि नामदेव ढसाल और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया के रामदास आठवले को हिंदुत्ववादी शक्तियों अपनी तरफ कर लिया. आपके मित्र और कवि विलास घोगरे की आत्महत्या और भाई सांगरे नाम के तेज़तर्रार नेता की नृशंस हत्या के आपकी फ़िल्म में कई सच्चे प्रसंग हैं जो बहुत अवसादकारी हैं. दीगर 'समारोह क्षेत्र फिल्मकारों' के विपरीत आप अपनी फ़िल्म के अवसाद को उसका प्रीमियर वहाँ (जैसे मुंबई में बीआईटी चाल और रमाबाई कॉलोनी) करवा कर सीधे जनता तक ले गए. ऐसा करके आपने अपनी फ़िल्म और दलित एकता दोनों में ही इस अवसादकारी स्थिति की ओर ध्यान दिलाया है और उसके साथ सीधी मुठभेड़ की है. अब इसके बाद?
कुल मिलाकर दलित समुदाय का रेस्पांस अद्भुत था. दर्शकों की संख्या ज़्यादा थी जैसे बीआईटी चाल में 800 और रमाबाई कॉलोनी में 1500, इतना ही नहीं लोग साढ़े तीन घंटों तक खड़े रहे क्योंकि कुर्सियाँ उपलब्ध नहीं थीं. राज्य के और देश के विभिन्न हिस्सों से स्क्रीनिंग की मांग करते हुए रोज़ फोन आते हैं.
ज़ाहिर है कि यह फ़िल्म एक महसूस की जा रही ज़रूरत को पूरा कर रही है. लोगों ने अपने नेताओं को बिकते हुए और समझौते करते हुए देखा है और फिर भी उनके पास ऐसी ही किसी समझौता कर चुके राजनीतिक संस्था से जुड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. तो असंतोष बड़ा गहरा है. पिछले 40 सालों में मेहनतकश वर्ग के दर्शकों को मैंने कई फ़िल्में दिखाई हैं. मगर यह फ़िल्म भीड़ खींचती है और उनकी तवज्जो हासिल करती है. शायद यह भाषा मतलब उस इलाके में जिस तरह की मराठी बोली जाती है उस कारण है, शायद यह संगीत के कारण है पर बहुत संभव है कि यह इसलिए है क्योंकि लोग अपने-आप को नेताओं द्वारा ठगा गया पाते हैं और बिना किसी समझौते के रैडिकल बदलाव की बात फिल्म में करने वाले डाइनेमिक युवाओं की साफ़ आवाज़ के साथ जुड़ाव महसूस करते हैं.
अब ज़रा साहित्य के बारे में बात करते हैं. बंगाली साहित्य के विपरीत महाराष्ट्र में दलित लेखन की जड़ें खासी मज़बूत रहीं हैं. 'दलित' शब्द ही बंगाली शब्दकोष के लिए अनजाना है. हालाँकि पलाश चन्द्र बिस्वास जैसे मेरे मित्र बंगाली साहित्य में जातिगत वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं, आम समझ यह है कि उत्तर-टैगोर कालखण्ड में हाशिये के लोगों को मुख्यधारा के विमर्श में लाने का काम महाश्वेता देवी जैसे लेखकों ने किया है. लेखक जन बुद्धिजीवी (पब्लिक इंटेलेक्च्युअल) होते हैं. मराठी में क्या स्थिति हैं? आपकी फिल्म 'जय भीम कॉमरेड' में नाटककार विजय तेंडुलकर आम आदमी की भाषा और लहजे में शिवसेना पर प्रहार करते हैं. क्या लेखक सार्वजनिक जीवन में अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं? क्या मराठी दलित लेखन साहित्यिक हलकों से बाहर असर रखता है?
यहाँ मैं एक चीज़ स्वीकार करना चाहता हूँ. मैं बड़ी मुश्किल के साथ और कभी-कभार ही मराठी साहित्य पढ़ता हूँ. घर पर मेरे माता-पिता कभी मराठी में बात नहीं करते थे क्योंकि मेरी माँ सिंध के हैदराबाद से थीं. तो करीब-करीब अंग्रेज़ी ही मेरी वह मातृभाषा थी (सिवाय उस समय जब मैं अपने पिता के रिश्तेदारों से बात कर रहा होता था) जिसके साथ मैं बड़ा हुआ और जिन स्कूलों में पढ़ा वहाँ भी शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी थी. असल में मैंने अच्छी तरह हिंदी सीखना और बोलना तब शुरू किया जब मैं मध्य प्रदेश के ग्रामीण प्रोजेक्ट किशोर भारती से जुड़ा और फिर उसके बाद बिहार आन्दोलन के दौरान भी. मराठी का मेरा ज्ञान अब भी प्राथमिक स्तर का है मगर इस फ़िल्म को बनाने में लगे चौदह वर्षों में उसमें सुधार आया है, हालाँकि अब भी मराठी में भाषण देते समय मुझे शब्दों के लिए मशक्कत करनी पड़ती है.
तो यह मानना ठीक नहीं है कि इस फिल्म को मैंने साहित्यिक परिप्रेक्ष्य से अप्रोच किया है. इसका शुरूआती कारण था खासकर विलास की कविता और संगीत को लेकर प्रेम और फिर उस जैसे दूसरों की कविता और संगीत, जैसे डाइनेमिक कबीर कला मंच.
जहाँ तक मराठी लेखकों की सार्वजनिक भूमिका की बात है, तो हाल के दौर में बहुत से लोग बहादुरी के इम्तहान में उत्तीर्ण नहीं हुए हैं. जबकि अतीत में एक शानदार दौर ऐसा भी था जब मराठी लेखक,विशेषकर दलित लेखक,जनता के पक्ष में और अन्याय के खिलाफ़ बोला करते, बाद के वर्षों में बहुत से तथाकथित प्रगतिशील लेखक जो अपने लेखन में रैडिकल रहे थे, सत्ता में आनेवाली पार्टी के आगे सिर नवाते पाए गए. विजय तेंडुलकर और पी.एल. देशपांडे उन अपवादों में हैं जिन्होंने बिना झुके बिना डरे फासीवादी शक्तियों का सामना किया.
"मुझे साहित्य पसंद था मगर जब मैंने उसे अकादमिक तौर पर पढना शुरू किया तो मुझे उस से ऊब हो गई." क्या यही स्थिति आपके साथ अब भी है? अगर हाँ, तो क्यों? क्या आपको लगता है कि अकादमिक जन उबाऊ होते हैं?
ऐसा कह सकते हैं. कभी-कभी ज़रूरी नहीं कि वे उबाऊ हों ही लेकिन उनका काम ज़रूरी उबाऊ होता है. पादटिप्पणियों के साथ या उनके बिना प्रतिनिर्देश (क्रॉस-रेफरन्सिंग) करने वाली ललित कला उन्हें आ गई है. मेरे लिए साहित्य या साहित्यिक आलोचना तब बेमतलब हो जाती है जब वह पूरी तरह किसी और ज्ञान सूत्र पर निर्भर हो जाती है जिसका वह हवाला देती रहती है. टी. एस. इलियट को समझने के लिए आपको इज़रा पाउंड को पढ़ना होगा और पाउंड को समझने के लिए आपको कुछ चीनी पुस्तकें पढ़नी होंगी और यह सिलसिला चलता रहता है. मगर क्यों? मैं चाहता हूँ कि रचनाएँ यहीं इसी जगह और इसी वक़्त मुझसे संवाद करें, मैं उन्हें महसूस करना, सूँघना और चखना चाहता हूँ. फिर उसके बाद अगर मैं समुचित उत्साह से भर जाऊं, तब मैं पूर्व-पीठिकाओं के बारे में सोचूँगा.
अकादमिकों की दुनिया में जो होता है वह कला की दुनिया से बहुत अलग नहीं है. भारी-भरकम शब्दों और अनाकलनीय वाक्यों को प्रतिभा का सूचक मान लिया जाता है. मैं मानता हूँ कि शुरू-शुरू में किसी कृति को बेनिफिट ऑफ़ डाउट देते हुए मैं चक्कर में पड़ जाता हूँ, फिर धीरे-धीरे अपने को खीजता हुआ पाता हूँ क्योंकि मुझे इस तथ्य पर भरोसा है कि मैं निपट मूर्ख नहीं हूँ और मुझे कोई बात समझ में आ ही नहीं रही है तो संभव है कि उस में कोई महत्त्वपूर्ण बात रखी ही नहीं जा रही; और यह कि सबको विस्मित करने वाली सुन्दरता असल में सिर्फ दिखावा है.
डॉक्युमेंटरी फ़िल्मकार के तौर पर मुझे लगातार इस बात से जूझना पड़ता है कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का जटिल यथार्थ पेश कैसे किया जाए. अगर मैं सिनेमा की वह भाषा या कोड इस्तेमाल करूँ जो चुनिन्दा लोगों की समझ में आती है तो ऐसी एप्रोचॉ पसंद करने वाले हलकों में तनिक सफल साबित हो जाऊँगा. मगर ऐसा करके मैं उन लोगों हैरान और अपने से दूर कर दूँगा जिन तक मैं पहुँचना चाहता हूँ. इसलिए जहाँ मैं अपने देखे का अति सरलीकरण करने का प्रयास नहीं करता, वहीँ मैं किसी सिचुएशन के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं को सिनेमा की ऐसी भाषा में सामने लाने की पूरी-पूरी कोशिश करता हूँ जो साफ़ और स्पष्ट हो ताकि मैं तभी उलझन में डालूँ जब आपके सामने चीज़ सचमुच उलझाऊ हो.
क्या आप अनीश्वरवादी हैं?
मैं संशयवादी (एग्नौस्टिक) हूँ. मुझे नहीं पता कि कोई विचारपूर्ण सृष्टिकर्ता है या यह सब संयोग से हुआ. जब हम प्रकृति को देखते हैं और किस जटिलता से सारे जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, तो इसकी खालिस प्रतिभा को देखकर भरोसा होने लगता है कि हम किसी वृहत अभिकल्प का हिस्सा हैं. दूसरी तरफ लगता है कि सृष्टिकर्ता ऐसा कितना विचारपूर्ण है कि उसने बुराई और दुख और कष्ट और मृत्यु भी रची? अगर उसके पास ऐसी अलौकिक शक्तियाँ थीं तो उसने तनिक खुशहाल दुनिया क्यों नहीं बनाई? जय भीम कॉमरेड के पहले हिस्से के अंत में बुद्ध को उद्धृत करते हुए भाई सांगरे जो कहते हैं, वह मुझे अच्छा लगता है." अगर ईश्वर का अस्तित्व है तो तुम्हें उस से कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर उसका अस्तित्व नहीं है तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इसलिए बुद्ध ने ईश्वर के या आत्मा के या परमात्मा के बारे में कुछ नहीं कहा. वे मनुष्य के अस्तित्व के बारे में बोले. मृत्यु के बाद क्या होता है इस बारे में भी वह कुछ नहीं बोले. जन्म और मरण के बीच की यात्रा में हम कैसा व्यवहार करें सिर्फ इसी बारे में बुद्ध कहते हैं."
मुझे नहीं लगता कि नरक की परिकल्पना ईश्वर की रची हुई है और इसीलिए स्वर्ग और नरक का द्वैत मेरे लिए अर्थहीन हो जाता है. ईसा एक अनुभव हैं जो व्यग्रतापूर्ण दुनियावी क्षणों में, जैसे हवाई जहाज़ के उड़ान भरने या उतरने के लम्हों से लेकर जीवन की समस्त यात्राओं तक, मददगार साबित होते हैं. एक फ़िल्मकार के तौर आप कठिनाई के क्षणों में अपने आप पर काबू कर सकते हैं, जैसे 'राम के नाम' फिल्म का सबसे मानवीय चेहरा जिसे याद करना अच्छा लगता है, अयोध्या मंदिर के प्रमुख पुजारी जो इतने सुस्पष्ट, विश्वसनीय और करुणामय थे- महंत लालदास- जिनकी बाद में हत्या कर दी गई और खबर जब आप तक पहुँची होगी..जितनी बार मैं यह फिल्म देखता हूँ, मैं उस टेक-ऑफ और लैंडिंग के समय होने वाली थरथराहट से भर जाता हूँ. मगर ईसा वाले अनुभव से मदद होती है. आपके साथ क्या होता है?
मेरे विचार में धार्मिक हुए बिना भी आध्यात्मिक और ज़हनी तौर पर नींव बनाये रखना संभव है. मेरे पिता ऐसे ही थे. वे किसी अतार्किक धार्मिक विश्वास को नहीं मानते थे और इसके बावजूद 94 बरस की उम्र में भी, जब मृत्यु करीब थी, मैंने उनसे ज्यादा निश्चिंत कोई और नहीं देखा. उन्हें ज़िन्दगी से प्यार था लेकिन बिना किसी रंज के वे मौत को गले लगाने को तैयार थे. मैं ऐसा नहीं हूँ. मुझे लगता है कि आध्यात्मिक विचारों का अभाव मुझे वल्नरेबल बनता है और उसके बावजूद मैं महज सुकून की खातिर उसे छोडूँगा नहीं.
दूसरी तरफ, भले ही मैंने धार्मिक कट्टरता के खिलाफ कई फिल्में बनाई हैं लेकिन मैं उन लोगों के प्रति असहिष्णु नहीं जो सचमुच धार्मिक होते हैं और खासकर अगर उनका धर्म उन्हें न्यायी और दूसरों के प्रति सहिष्णु होना सिखाता हो जैसा कि धर्म के बारे में गांधी के विचारों से हुआ, या लिंकन के विचारों से हुआ.
'वार एंड पीस' को छोड़कर अपनी सारी फिल्मों में आप प्रथम पुरुष एकवचन अर्थात 'मैं' को लेकर खासे कंजूस रहे हैं. 'वार एंड पीस' में आप राष्ट्रीय राजनीति में अपने परिवार की जड़ों और तदुपरांत हुए मोहभंग का ज़िक्र करते हैं. तब पहली बार दर्शकों को पटवर्धन परिवार के साथ पटवर्धन संसार देखने को मिला. मगर अपने लेखन में (मसलन: कमिटेड टू द यूनिवर्सल, इण्डिया एंड पाकिस्तान: फिल्म फेस्टिवल्स इन कॉन्ट्रास्ट, दि बैटल ऑफ़ चीले, टेरर: दि आफ्टरमैथ, दि गुड डॉक्टर इन छत्तीसगढ़, दि मेसेंजर्स ऑफ़ बाद न्यूज़, हाउ वी लार्नड तो लव दि बॉम्ब और रिपब्लिक डे शराड) नरेटर और पाठक के बीच का सम्बन्ध 'आप' के (या 'मेरे') वहाँ होने से बड़े आराम से स्थापित हो जाता है. मैं समझता हूँ कि सारी फिल्मों के नरेशन में आपका होना ज़रूरी नहीं, क्योंकि उनमें अपने सवालों और खींची गई तस्वीरों के द्वारा आप बहुत कुछ मौजूद होते ही हैं- क्योंकि आप कैमरा सँभालते हैं और संपादन करते हैं. फिर भी यह संदेह बना रहता है. सिनेमा और लेखन इन माध्यमों के बीच के अंतर से क्या इसका कोई लेनादेना है? सिनेमा में आपके पास विभिन्न औज़ार होते हैं और लेखन में बस शब्द ही एकमात्र औज़ार हैं. और 'आप' स्वयं को ठोस रूप में रख पाते हैं. क्या मैं ठीक कह रहा हूँ?
जब-जब संभव हुआ मैंने कमेंटरी और नरेशन से बचने या उसे एकदम कम रखने की कोशिश की. मैं पसंद करता हूँ कि जो तस्वीरें और आवाज़ें मैंने क़ैद की हैं वे अपनी कहानी खुद कहें, अगरचे जिसमें संपादन के रूप में मैं थोड़ी मदद कर दूँ. बहुत कम मौकों पर मैं ऐसा कर पाया जैसे कि "बॉम्बे अवर सिटी" में जहाँ पूरे 82 मिनटों तक बिलकुल कोई वॉइस-ओवर नहीं है. दीगर मौकों पर जब मेरी क़ैद की हुई तस्वीरों और आवाज़ों को कुछ वर्णन या महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि की ज़रूरत थी, तब मैंने यह नरेशन के द्वारा उपलब्ध करवाया. "इन मेमरी ऑफ़ फ्रेंड्स" में अस्सी के दशक के पंजाब और भारत पर टिप्पणी करने के लिए मैंने शहीद भगत सिंह के शब्दों का इस्तेमाल किया था.
वार एंड पीस में प्रथम पुरुष नरेटिव का इस्तेमाल करने की ख़ास वजह थी. भाजपा सत्ता में थी और मुझे पता था कि भारत के परमाणु राष्ट्रवाद पर सवाल उठाने वाली फ़िल्म बनाने पर मुझे राष्ट्र-विरोधी करार दे दिया जाएगा. इसलिए मैंने फ़िल्म दर्शकों को यह बताते हुए आरम्भ की मेरे चाचा-ताऊ भारत की आज़ादी के लिए लड़े थे और अंग्रेज़ों की जेलों में उन्होंने कई साल बिताये थे मतलब मुझे गद्दार कह कर खारिज कर देने से पहले ज़रा सोचो.
फिर 'जय भीम कॉमरेड' बनाते समय मैंने वॉइस-ओवर नहीं रखने का फैसला किया और पूरी फ़िल्म के दौरान सूचना और संकेत देने के लिए इंटर-टाइटल्स का इस्तेमाल किया जो अधिक अव्यक्तिगत होते हैं. वह इसलिए कि मैं इस फ़िल्म का फ़ोकस नहीं बनना चाहता था क्योंकि कहीं अधिक महत्वपूर्ण घटनाएँ और लोग तवज्जो के लायक थे. बेशक, जैसा कि आप कहते हैं मैं फ़िल्म में होता ही हूँ, सवालों के द्वारा, कैमरे के द्वारा, सम्पादन के द्वारा और उन दोस्तियों के द्वारा जो मैं बनाता हूँ.
शीत युद्ध के दौरान जो 'आयर्न कर्टन' (लोहे का पर्दा) हुआ करता था, उसके बाद अब विश्व मीडिया में 'वेलवेट कर्टन' (मखमली पर्दा) है जो बड़ा पेचीदा है. राज्य की सेंसरशिप के खिलाफ आपने कई लड़ाइयाँ लड़ीं और जीतीं और आपने वेलवेट कर्टन के बारे में लिखा- "आज के लोकतन्त्रों द्वारा जैसा सेंसरशिप व्यवहार में लाया गया है वह कई तरहों से बहुत ज़्यादा घातक है क्योंकि जनता उस से पूरी तरह अनजान होकर भी मस्त है. एक सौ चैनलों की 'चॉयस' है जो उनकी खिदमत में लगी है और जो उन्हें एक सा भोजन परोसते हैं, वही साबुन और कोला बेचते हैं, और लगभग वही इन्फोटेंमेन्ट और सप्ताह के चौबीसों घंटे वही पेज थ्री न्यूज़ उपलब्ध कराते हैं. वे इस भोजन से इतने अनुकूलित हो गए हैं कि हमारे समय की ज़रूरी दास्तानों के पूर्णतः अभाव से उन्हें कोई परेशान नहीं होती और न ही उन्हें इस बात का अहसास है. इस वेलवेट कर्टन को कैसा फाड़ कर दूर किया जाए? अथक उत्साह के साथ पिछले लगभग चार दशकों से गुमशुदा कहानियाँ रिकार्ड करने के बाद भी क्या अपने आप को उलझन में नहीं महसूस करते या कुछ-कुछ ऐसा नहीं लगता कि ज्ञानियों को अरदास सुना रहे हैं?
बिल्कुल नहीं. हर रोज़ और हर सार्वजनिक प्रदर्शन जिसमें मैं जाता हूँ उसमें इस बात की पुष्टि होती है कि यह सारी मेहनत काम आई है. दर्शकों से मुझे बहुत सारी सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं. मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि निराश करने वाली बात यह है कि डॉक्युमेंटरी फ़िल्मों को आम तौर पर उपलब्ध वितरण (डिस्ट्रीब्युशन) का स्तर बहुत कम है और इस का परिणाम यह हुआ कि दसियों लाख हिन्दुस्तानियों ने ये फ़िल्में देखी ही नहीं. देखते हैं आगे क्या होता है. मुझे लगता है कि 'जय भीम कॉमरेड' के साथ कम से कम इस फ़िल्म को जनता तक पहुँचाने के मामले में हम एक असली और महत्वपूर्ण काम कर सकते हैं.
"उपयोगी होने के लिए कला का महान या हाई आर्ट होना ज़रूरी नहीं", आप ने कहा था. अगर मैं आप से यह कहूँ कि मेरे अनुभव में आपकी फिल्म "वार एंड पीस" हाई आर्ट को ट्रांसेंड कर जाती है, तो क्या आप को अजीब लगेगा?
मुझे लगता है कि कला अगर है तो रोज़मर्रा के जीवन में है. कभी-कभी आदमी की किस्मत अच्छी होती है और वह इन क्षणों को क़ैद करने में कामयाब हो जाता है. "वार एंड पीस" में परमाणु युद्ध के बारे में बहस करती हुईं पाकिस्तान की स्कूली लड़कियों की मिसाल दी थी. मेरे कैमरे की आँख काम नहीं कर रही थी. इसलिए मैंने कैमरा ऑटो-फ़ोकस और वाइड एंगल पर सेट किया और जहाँ जहाँ से आवाज़ आती उस तरफ कैमरे बिना देखे घुमा देता. वह उस फिल्म का सबसे अच्छा दृश्य बन पड़ा.
आप सोचते हैं कि भारत में फासीवाद हमारी सदियों पुरानी लोकतांत्रिक परम्पराओं के कारण एक पूर्ण-विकसित रूप नहीं ले पायेगा और अरुंधती रॉय मानती हैं कि लोकतंत्र तो कुछ ख़ास नहीं मगर एक किस्म की अन्तर्जात अराजकता भारत को बचाएगी. फासीवाद को पनपने के लिए जिस व्यवस्था और संगठन की ज़रूरत होती है वह हमारे यहाँ है ही नहीं. लेकिन जब अरुंधती बड़ी हताशा के साथ आज के लगभग सारे अहिंसक आन्दोलनों के बारे में बोलीं और महात्मा गाँधी को 'शायद हमारा पहला एनजीओ' करार दिया तो आपने उस पर तीव्र प्रतिक्रिया दी. आप मार्क्स के लिए गाँधी को नहीं नकारते और न ही गाँधी के लिए मार्क्स को. आपने स्वीकार किया है कि आपका आदर्श हमेशा से मिलाजुला रहा. फ़ेनॉन और गांधी को समाहित करते हुए आपने 1971 में एक परचा लिखा था, फ़ेनॉन के अनुसार अपने अन्दर समाहित हीनता की भावना से उबरने हेतु कालों के लिए हिंसा ज़रूरी थी और गाँधी के यहाँ आप सिर्फ अहिंसा से हीनता को दूर कर सकते हैं. क्या आपको नहीं लगता कि आज का आदिवासी विद्रोह, भले ही देखने में वह माओवादी हिंसा है मगर मूलतः वह उस रूप में वह डेस्परेट है, डेस्परेट है उस राज्य से समझौता वार्ता करने के लिए जो सिर्फ हिंसा का प्रत्युत्तर देता है? आपको नहीं लगता कि हिंसा अभिव्यक्ति का तरीका है, एक गुणधर्म है, सार नहीं. अयोध्या के महंत लालदास की ही तरह हमारे पैस्टर जॉन आर हिगिंस को उद्धृत करें- "पानी का सार एचटूओ है; मगर पानी का गुणधर्म पारदर्शिता है." शायद अरुंधती माओवादी मुद्दे के इस 'गुणधर्म-सार' तत्व के बारे में अपनी बात ज़ोरदार तरीके से रखना चाह रही थीं. आप क्या सोचते हैं?
अरुंधती के साथ मेरे कोई मूलभूत मतभेद नहीं हैं सिवाय इसके कि मुझे बंदूकों से बिलकुल प्यार नहीं. जहाँ हिंसा के प्रति मेरा विरोध भावनात्मक और स्वाभाव प्रेरित है वहीं मुझे नहीं लगता कि हिंसा का कोई व्यावहारिक मूल्य भी है. मुझे नहीं लगता कि जंगलों के बीच से छेड़े गए सशस्त्र संघर्ष द्वारा इक्कीसवीं सदी में एक उन्नत भारतीय राज्य को उखाड़ कर फेंका जा सकता है. इसलिए मैं अपने उन बहादुर और प्रतिभाशाली लोगों की फ़िक्र करता हूँ जो हथियारों के माध्यम से क्रान्ति लाने का रास्ता चुनते हैं क्योंकि मुझे लगता है यह आत्महत्या का तरीका ही है. राज्य की हिंसा और माओवादियों की हिंसा के बीच मैं आदिवासियों को फँसा हुआ पाता हूँ. लोगों की ज़मीनें और रोज़गार छीन लेने का ज़्यादातर दोष बेशक राज्य के सिर जाना चाहिए. मगर माओवादियों द्वारा दिए गए जवाब से कोई दूरगामी राहत नहीं मिलेगी. व्यवस्था की हिंसा का प्रतिरोध करने वाले आम लोगों, जिनमें अधिकतर दलित, आदिवासी मेहनतकश वर्ग के दीगर हिस्से शामिल हैं, को माओवादी करार दिया जा रहा है जैसा कि कबीर कला मंच के साथ हुआ.यह एक त्रासदी बन रही है.
अब मैं अपनी गति थोड़ी धीमी करता हूँ और आपसे छोटे और व्यक्तिगत सवाल करता हूँ; ओडेसा कलेक्टिव के साथ आपके सम्बन्ध के बारे में और जॉन अब्राहम और फिर शरत (सी. शरतचंद्रन) के साथ आपकी मित्रता के बारे में बताइए.
जॉन ने मेरी फ़िल्में प्रिज़नर्स ऑफ़ कॉनशंस और अ टाइम टू राइज़ देख रखी थीं और मुझे अपनी ओडेसा टीम से जुड़ने और 16 मिमी प्रोजेक्टर लेकर गाँव-गाँव में फिल्में दिखाते केरल भर में घूमने की दावत दी. फिर मैंने बॉम्बे अवर सिटी के मामले में वैसा ही किया. वह एक अद्भुत अनुभव था हालांकि जॉन के साथ मेरी बातचीत हमेशा मज़ेदार होती क्योंकि वह अक्सर शराब पिए हुए होते और उसके बावजूद उनकी बातों में कहीं तो गहरा अर्थ होता.
शरत के साथ किंचित लम्बा वास्ता रहा जो उपजा था सिनेमा को लोगों तक ले जाने की हम दोनों की साझा तमन्ना से. शरत मेरे देखे हुए सबसे निस्वार्थ फिल्मकारों में है, दूसरों को प्रमोट करना अपने बेहद ज़रूरी काम का ज़िक्र किये बिना जिसमें उन्होंने केरल के सभी प्रमुख पर्यावरण सम्बन्धी और जनता के संघर्षों को दर्ज किया था. इसमें कोका कोला को प्लाचीमाडा से बाहर करने वाला संघर्ष भी शामिल है. मेरी फिल्मों की स्क्रीनिंग के लिए शरत मुझे कई बार केरल लाये और अपने सीमित संसाधनों के साथ उन्होंने मेरी फिल्म राम के नाम का मलयाली संस्करण भी बनाया.
मैं जानता हूँ की अरविन्दन की 'तम्बू' आपकी पसंदीदा फिल्मों में है. मेरे पास उसकी एक बिना सब-टाइटल वाली कॉपी है जो मैं आपको तोहफे में दूंगा. आपको 'तम्बू' क्यों पसंद है?
इस बारे में कभी सोचा नहीं, मगर पहले शायद इसलिए अच्छी लगी होगी क्योंकि यह डॉक्युमेंटरी से बहुत मिलती है. नाटकीय श्वेत-श्याम में उसे खूबसूरत ढंग से फ़िल्माया गया था, वह प्राकृतिक प्रकाश की तरह लगता था, कथावस्तु बेहद कम थी मगर फिर भी इस मेहनतकश वर्ग की चलती-फिरती सर्कस के किरदार आप पर छा जाते हैं.
कला और राजनीति दोनों का ही आपके परिवार से सम्बन्ध था. आपकी माँ शान्तिनिकेतन में प्रशिक्षित मिट्टी के बर्तन बनाने वाली कलाकार थीं और आपके पिता अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में रत एक समाजवादी परिवार से थे. पंडित भीमसेन जोशी के कार्यक्रमों में मैंने आपको अपने पिता के साथ जाते हुए देखा है. हाल ही में आपने दोनों को खो दिया. आपका अपनी फ़िल्म 'जय भीम कॉमरेड' को शरत, तारिक़ मसूद और अपने माता-पिता की स्मृति में समर्पित करना दिल को छू लेता है. अपने माता-पिता और स्वयं की परवरिश के बारे में हमें बताइए.
अपने माता-पिता के बारे में बात करना मेरे लिए मुश्किल है क्योंकि ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रता जब मैं यह न कामना न करूँ कि काश वे मेरे साथ होते. मुझे सांत्वना देते हुए हर कोई कहता है कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि वे इतने लम्बे समय तक मेरे साथ रहे मगर जब आप अपनी ज़िन्दगी के साठ साल किन्हीं दो लोगों के संग बिताते हैं तो उनकी एकाएक अनुपस्थिति सहना बहुत मुश्किल हो जाता है. 2008 में 80 की उम्र में मेरी माँ कैंसर से चल बसीं और मैंने अब तक उनकी चीज़ें नहीं हटाईं, और न ही उनकी स्मृति में वेबसाईट बनाई जैसा कि मैं करना चाहता था. वह भारत में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले शुरूआती कलाकारों में थीं जिनकी विशेषता ग्लेज़िंग में थी. उनकी पुस्तक 'हैण्डबुक फॉर पॉटर्स' आज भारत के सभी ग्लेज़ वाले मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कलाकारों के पास मिल जाएगी क्योंकि उन्होंने रसायनशास्त्र के अपने उत्तम ज्ञान और शारीरिक श्रम के द्वारा हजारों ग्लेज़, मिट्टियों और तापमानों के साथ प्रयोग किये. और स्वयं द्वारा मालूम किये गए 'रहस्यों' को अपने तक सीमित रखने की बजाय उन्होंने अपनी मेहनत का फल उन प्रयोगों पर लिखी अपनी रेसिपी बुक में औरों के साथ साझा किया.
पिता की अनुपस्थिति की अहसास ज़्यादा तीव्र है मेरे लिए. 2010 में 94 बरस की उम्र में वे चल बसे, शायद सर्दी-ज़ुकाम से, जो शायद निमोनिया में बदल गया होगा क्योंकि उनका बूढ़ा हृदय कमज़ोर हो गया था. वह आखिर तक प्रफुल्लित बने रहे और हमें ज़रा भी अंदाज़ा ना हुआ कि ये उनके आखिरी दिन थे. वह हमेशा कहते थे कि जब जाने का वक़्त आएगा तो वह एक क्षण में चले जायेंगे और उन्होंने वैसा ही किया. आखिर तक उनका दिमाग़ मुझसे ज़्यादा तेज़ बना रहा. सिर्फ एक बार जोर से बोल देने पर उन्हें लोगों के मोबाइल नंबर याद हो जाते, इसलिए वह हमारी डाइरेक्टरी और हमारे एन्साइक्लोपीड़िया थे. वह फिल्में देखते हुए रो पड़ते और टोपी के गिर जाने पर भी ठठा कर हँस पड़ते, बावजूद इसके मैंने उनसे ज़्यादा शांत और भला आदमी नहीं देखा, जिसने कभी गुस्से में तेज़ आवाज़ में बात नहीं की.
कहना न होगा कि ऐसे माता-पिता की संतान होना मेरा सौभाग्य था. अभी एक दिन मेरी नज़र अपने जन्म प्रमाणपत्र पर पड़ी जिस पर फ़रवरी 1950 की तारीख़ डली है. जहाँ जाति लिखी जाती है वहाँ लिखा था- भारतीय.
एक आखिरी सवाल और फिर विस्तृत जवाब की उम्मीद है- फिल्मों में आप इकबालिया (कन्फ़ेशनल) नहीं बल्कि डायरी फॉर्म पसंद करते हैं. "मैं अभी उस स्तर तक नहीं पहुंचा कि अपना अन्तरंग कैमरे के सामने उघार दूँ." कन्फ़ेशन को लेकर ऐसी विमुखता क्यों? क्या आपको लगता है कि कन्फ़ेशनल होना 'कलात्मक सिनेमा' का फ़ैशन है और आपके 'त्रुटिपूर्ण सिनेमा' में यह नहीं चलता? मगर गाँधी भी कन्फ़ेशनल थे. रिचर्ड एटनबरो ने शायद इन पहलुओं को छुपाया था. 'इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली' में "गाँधी: फ़िल्म ऐज़ थियोलॉजी' शीर्षक से छपी आपकी समीक्षा में भी एक फ़िल्मकार की ओर से आने वाला अन्तरंग किस्म का कन्फेशनल लेखकीय गुण था. अपना अन्तरंग कैमरे के सामने क्यों न उघारें?
न तो मैं गाँधी जितना ईमानदार हूँ और न अपने आप के प्रति उतना सचेत. न ही मैं यह मानता हूँ कि जो भी मैं करता हूँ, अच्छा या बुरा, उस से दूसरे कोई सीख हासिल कर सकते हैं. इसलिए मैं अपनी व्यक्तिगत ज़िन्दगी को सार्वजनिक नहीं करना चाहता. मैं उस मछलीघर में नहीं रहना चाहता जहाँ लोगों की आँखें आपको हमेशा ताकती रहें.मेरी फ़िल्मों की बात अलग है. मैं चाहता हूँ कि लोग उन्हें ताकते रहें. यही फ़र्क है.
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अंग्रेजी से अनुवाद भारतभूषण तिवारी ने किया है। `समयांतर` अक्तूबर 2012 में प्रकाशित।
5 comments:
शुरू कर दिया, आगे समय निकाल के पढूंगा. अच्छा होगा इसमें स्नादेह नहीं.
Thanks for availing this translation...
साक्षात्कार पसंद आया.
Tarun Bharteey Filmmaker hain, unhone yh tippani Facebook par is link ko share karte hue ki hai- `Nice conversation with Anand Patwardhan - the pioneer of Independent Indian Documentary. Although I'm bit uncomfortable with Manichaean form and politics of his films - I wouldn't be here without his lonely struggles to establish political documentary tradition in India. Have always dreamed of editing with him - more to soak in the lore.`
bahut achchha. anand ji ke bare mein bahut pahle se sunta raha hun, constitution club mein "ram ke nam" premier ke samay bhi tha. lekin is interview ke jariye unhen thik se dekhne ka mauka mila. is post ke liye apka bahut-bahut abhar.
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