दिल्ली से सटा हरियाणा देसी-ग्रामीण मिजाज वाले विकसित राज्य के तौर पर जाना जाता है। यहां की सड़कें, यहां के गबरू जवान, यहां की बोली-बानी, यहां के खिलाड़ी लड़के-लड़कियां, यहां के नेता, यहां तक कि यहां की बदतमीजियां सब कुछ ग्लेमर के साथ पेश की जाती हैं। अहा ग्राम्य जीवन के सुरूर में जीने वालों को ग्रामीण समाज की भयंकर विसंगतियां कभी विचलित नहीं करती हों तो हरियाणा में हाल-फिलहाल में हुई बलात्कार की एक के बाद एक करीब बीस वारदातों से भी उन पर कोई असर पडऩे वाला नहीं है। तब तो शायद बिल्कुल भी नहीं जबकि उत्पीडि़त परिवार दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हों। लेकिन हरियाणा की घटनाएं भारतीय लोकतंत्र के लिए भयंकर चेतावनी और चुनौती की तरह हैं। सबसे ज्यादा शायद इसलिए कि व्यवस्था ने न्याय करने के चिर-परिचित नाटक तक को जरूरी नहीं समझा। सत्ताधारी कांग्रेस और विपक्ष दोनों खुलकर उत्पीड़कों की हिमायत में खड़े हो गए। अधिकांश वारदातों में आरोपी युवक हरियाणा के समाज और राजनीति में मजबूत पकड़ रखने वाली किसान जाट जाति से ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में स्वाभावकि था कि कुख्यात खाप पंचायतें सक्रिय हो गईं और बलात्कारियों को कड़ी सजा देने और उत्पीडि़तों की सुरक्षा और विश्वास बहाल करने की मांग के बजाय बलात्कार की वजहों के बेशर्म विश्लेषण शुरू हो गए। पश्चिमी संस्कृति और लड़कियों की चाल-ढाल से लेकर युवाओं की बेरोजगारी तक तमाम वजहें गिनाकर अपराध को एक स्वाभाविक और अनिवार्य सी घटना की तरह पेश करने की होड़ लग गई। खाप प्रतिनिधियों ने लड़कियों का विवाह कम उम्र में कर देने की मांग करते हुए कानून में बदलाव की मांग की और इंडियन नैशनल लोकदल के मुखिया व पूर्व मुख्मंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने इसकी खुली हिमायत की। खापों को एनजीओ करार दे चुके और ऑनर किलिंग जैसे मामलों तक में खापों की भूमिका का बचाव कर चुके मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने चौटाला के बयान की भरपाई के लिए अपने सिपेहसालारों को आगे किया। कांग्रेस के एक जाट नेता धर्मवीर गोयत ने कहा कि रेप की वारदातें लड़कियों की मर्जी से होती हैं। वे अपने किसी प्रेमी के साथ कहीं चली जाती हैं और उनका प्रेमी अपने साथियों को बुलाकर लड़की को सामूहिक बलात्कार का शिकार बना लेता है। ऐसे बयानों से देश भर में प्रगतिशील तबका सन्न था लेकिन हरियाणा के मुख्यमंत्री को कोई फिक्र थी तो सिर्फ यह कि जाट उनसे नाराज न हों। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस सिलसिले में हरियाणा का दौरा किया तो हुड्डा उन्हें ऐसे गांव में ले गए जहां उत्पीडि़त और आरोपी दोनों दलित समुदाय से ताल्लुक रखते थे और इस तरह जाटों के नाराज होने का खतरा नहीं के बराबर था। इस बारे में आवाज उठाने वाले संगठनों को जातिवाद न फैलाने की चेतावनी दी गई और दलित संगठनों को गांवों का कथित भाईचारा कायम रहने देने की सलाह दी गई। जनवादी महिला समिति ने विभिन्न महिला संगठनों के साथ मिलकर रोहतक में प्रदर्शन किया तो पुलिस ने लाठियां बरसा दीं। कहने का मतलब यह कि डेमोक्रेसी में इंसाफ न करते हुए भी इंसाफ करने का जो प्रहसन मजबूरी माना जाता है उससे पूरी तरह मुक्ति पा ली गई।
उत्पीड़कों को राजनीतकि संरक्षण के असर के लिहाज से अकेले हिसार जिले की कुछ वारदातों पर नज़र डालना मददगार हो सकता है। 21 अप्रैल 2010 को हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में जाट समुदाय के लोगों ने बाल्मीकि समुदाय के लोगों के घरों में आग लगा दी थी। एक विकलांग युवती सुमन और उसके पिता ताराचंद की मौके पर ही मौत हो गई थी। इस रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना में सरकार और उसकी मशीनरी का रवैया बेहद शर्मनाक रहा। खापों और जाट महासभा ने बाकायदा बयान जारी कर दलितों को मुकदमे वापस लेने की धमकियां दीं और आरोपियों के पक्ष में खूब हंगामा किया। आखिर, दलितों को गांव से पलायन करना पड़ा। मिर्चपुर के बहुत सारे दलित परिवार आज भी हिसार में वेदपाल तंवर नाम के एक चर्चित व्यापारी के फार्म हाउस पर झोपडिय़ां डालकर रहने को मजबूर हैं। मिर्चपुर कांड के एक प्रमुख गवाह विक्की के पिता धूप सिंह के मुताबिक, करीब एक साल पहले विक्की की भी हत्या कर दी गई है लेकिन इस बारे में कोई मुकदमा तक दर्ज नहीं है। इसी फार्म हाउस पर खरड़ अलीपुर गांव से जाट किसानो द्वारा खदेड़ दिए गए कुछ बावरिया परिवार भी शरण लिए हुए हैं। दलितों का
मानना है कि मिर्चपुर की घटना में सरकार के रवैये ने उत्पीड़कों के दुस्साहस को दोगुना कर दिया। बाद में जाटों को आरक्षण की मांग को लेकर हिसार से सटे मइयड गांव में जाटों ने रेलवे ट्रेक पर डेरा डाल दिया। महीनों तक रेलवे लाइन पर कब्जा जमाए रखने और जमकर तोडफ़ोड़ करने के बावजूद उत्पातयिों के प्रति सरकार पूरी तरह नरम रही। मइयड ताकतवर जाटों के लिए एक सफल प्रयोग साबित हुआ और इसके बाद गांवों में दलितों पर उत्पीडऩ की वारदातें और तेज हो गईं। सदियों से चुपचाप सहते चले आने वाले दलितों की युवा पीढ़ी में प्रतिरोध की जिद ने भी प्रतिहिंसा को बढ़ावा दिया। हिसार में मिनी सेक्रेट्रिएट परिसर में लंबे समय से धरने पर बैठे भगाना से खदेड़े गए दलितों की यही कहानी है।
भगाना गांव में जाटों ने करीब 280 एकड़ शामलात की जमीन पर कब्जे के साथ ही खेल के मैदान पर भी कब्जे की कोशिश की तो दलित युवकों ने इसका विरोध किया औप प्रशासन को शिकायत भेज दी। जाटों ने पंचायत कर दलित युवकों के पिताओं को सख्त चेतावनी दी जिसे युवाओं ने मानने से इंकार कर दिया। आखिरकार, दलितों के घरों में तोडफ़ोड़ कर दी गई, उनके सामाजिक बहिष्कार का ऐलान कर उन्हें गांव से खदेड़ दिया गया। कुछ दलितों के घरों के दरवाजों के बाहर दीवारें चुनवा दी गईं। गांव से पलायन कर मिनी सेक्रेट्रिएट पहुंचे दलितों के पशु जब्त कर गौशाला भेज दिए गए और छह दलितों के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा कायम कर दिया गया। भगाना के दलित अभी तक मिनी सेक्रेट्रिएट परिसर में डेरा डाले हुए हैं और वे दिल्ली में भी प्रदर्शन कर चुके हैं लेकिन इंसाफ मिल पाना तो दूर की बात उनके सम्मान व सुरक्षा के साथ गांव लौट पाने की संभावनाएं भी नहीं बन पा रही हैं। इसी जिले के डावडा गांव की नाबालिग दलित छात्रा के साथ गांव के ही किसान परिवारों के करीब 12 युवकों ने 9 सितंबर को न केवल सामूहिक बलात्कार किया बल्कि मोबाइल से फिल्म बनाकर एमएमएस भी जारी कर दिए। करीब नौ दिन बाद लड़की के पिता ने आत्महत्या कर ली और दलितों ने बलात्कारियों की गिरफ्तारी तक शव का पोस्टमार्टम न होने देने की चेतावनी दी तो हडकंप मच गया। पांच दिनों तक शव रखा रहा और खासी जद्दोजहद के बाद एक आरोपी पकड़ा गया तो 23 सितंबर को शव का अंतिम संस्कार किया गया। अभी तक सारे आरोपी गिरफ्तार नहीं हो पाए हैं और दलितों के खिलाफ जाटों का ध्रुवीकरण हो चुका है। उत्पीडि़त परिवार आतंक के साये में हैं। प्रशासन कुछ युवकों को बचाना चाहता है जिनमें से एक राजकुमार की मां उत्पीड़ित छात्रा को धमकी देने के लिए उसके मामा के हिसार स्थित घर ही जा पहुंची। आरोपियों में इनेलो और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के नेताओं से जुड़े युवा हैं और इस बात की संभावनाएं कम हैं कि लंबी लड़ाई में उत्पीड़ित को इंसाफ मिल पाएगा।
इसमें कोई शक नहीं है कि अपराधों में बढ़ोतरी के पीछे आर्थिक वजहें भी हैं। आज़ादी के बाद हरियाणा में भूमि वितरण कानून लागू नहीं हो सका था। यही वजह रही कि पड़ोसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान बीघे को मानक मानते हुए बात करता है तो हरियाणा में किल्ले (एकड़) को मानक मानकर। यहां किसान खुद को जमींदार कहना ही पसंद करता रहा है। अब खेती की जोतें छोटी हो रही हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है तो युवा अपराधों की तरफ बढ़ रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति ने लुंपनिज़्म को बढ़ावा दिया है और आखिरकार लुंपन समूहों की मार औरतों और दलित औरतों पर सबसे ज्यादा पड़ रही है जिन पर पहले ही ज़मीन के नाम पर कुछ नहीं था। जाहिर है कि कोई भी विश्लेषण जातीय पहलू को शामिल किए बिना नाकाफी है क्योंकि सबसे ज्यादा आसान शिकार व नाइंसाफी के लिए अभिशप्त दलित तबका ही है और दलितों के प्रति उत्पीडऩ में शामिल तबके के युवाओं के पास ही प्रदेश में नौकरी की गारंटी सबसे ज्यादा है जिसे अब आरक्षण की मांग के साथ और पुख्ता करने की कोशिश की जा रही है। हरियाणा की सांस्कृतिक परंपरा की बात की जाए तो यहां नवजागरण का असर नहीं के बराबर रहा। आर्य समाज के असर वाले इस इलाके ने बंटवारे के खूनखराबे के साथ ही मिलीजुली सेक्युलर संस्कृति से भी रिश्ता खत्म कर डाला। बाद में इसके असर को पूरी तरह धो-पोंछ कर नया हरियाणा खड़ा किया गया। यहां बीजेपी खुद अकेली बड़ी राजनीतिक ताकत भले न हो लेकिन आरएसएस का नेटवर्क पूरे प्रदेश में बेहद मजबूत है। गाय के सहारे गांवों खासकर जाटों में सक्रिय रहने वाले आर्य समाज के साथ आरएसएस ने भी गांवों में असर बढ़ा लिया है। दुलीना में पांच दलितों को गाय के नाम पर जिंदा जला दिया गया था तो आर्य समाज और आरएसएस दोनों ने खाप-पंचायतों के साथ मिलकर हत्यारों के पक्ष में आवाज उठाई थी। दलित उत्पीडऩ की ताजा घटनाओं में भी आरएसएस की संदिग्ध सक्रियता से इंकार नहीं किया जा सकता है। दिल्ली में भी आरएसएस के राकेश सिन्हा जैसे प्रवक्ता टीवी बहसों में खाप प्रतिनिधियों के सुर में सुर मिला ही रहे हैं।
इस तरह के मामलों में एक बड़ी बाधा संगठित प्रतिरोध का अभाव है। हिसार जिले का ही उदाहरण लें तो अलग-अलग धरनों के बावजूद एक सामूहिक संघर्ष खड़ा नहीं हो पाया है। यूं भी दलितों की चमार, धानक और बाल्मीकि जातियों में खासी दूरियां हैं और तीनों के ही पास न सामूहिक और न अलग-अलग विश्वसनीय नेतृत्व है। ऐसी परिस्थितियों में सबसे आसान माहौल जाट बनाम गैर जाट की सियासत करने वालों को नज़र आ रहा है। भजनलाल और देवीलाल परिवार लंबे समय तक इसी आसान सियासत का फायदा उठाते रहे। यह साफ है कि जाटों की तरह ही दूसरी ताकतवर जातियां भी अपने-अपने असर वाले इलाकों में दलितों और औरतों के साथ दुश्मनी का सलूक ही करते आए हैं। जहां तक नवजागरण और प्रगतिशील बदलाव की कोशिशों में जुटी ताकतों को सवाल है तो वे काफी बेबस नज़र आती हैं। लगातार मोर्चा लेने के बावजूद नई परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए,इसकी तैयारी और समझ दोनों का अभाव साफ नज़र आता है।
खेत मजदूर सभा और ट्रेड यूनियन के सहारे सीपीएम ने हरियाणा के किसानों-मजदूरों के बीच खासा काम किया है और हिसार में अभी तक इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। जनवादी महिला समिति ने भी उत्पीडऩ के मामलों में प्रतिरोध की भूमिका अदा की है। लेकिन, नया दलित उभार वाम ताकतों के साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार नहीं है और खुद वाम ने इतने लंबे समय तक दलित कार्यकर्ताओं के साथ काम करते हुए दलित नेतृत्व तैयार नहीं किया।
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हरियाणा में दलित उत्पीड़न की वारदातों पर एक आधी-अधूरी टिपण्णी जो समयांतर नवंबर 2012 अंक में छपी है।
3 comments:
सच्चे दलित चिंतकों, वामपंथी धुरंधरों और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को दलित प्रश्न और वामपंथी आंदोलन के रिश्ते, संभावनाओं आदि पर गहरायी से सोच-विचारना और उसे अमल में लाना होगा।
अब ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति से हटकर भी सोचा जाना चाहिए और निस्संदेह हरियाणा की विशेष स्थितियों को ध्यान में रखकर ही कोई साझा रणनीति बनाई जानी चाहिए और उसे संकीर्ण संगठनवादी राजनीति से दूर रखकर अमल में लाना चाहिए।
आपने अपनी इस आधी-अधूरी टिप्पणी में भी कई विचारणीय बिंदुओं को रेखांकित किया है जिन पर ज़रूर गौर किया जाना चाहिए।
Dalit are well down troddern peopel on this indian land since thousand decades. But Dalit will have to understand that they do not byfercate themselves in Chamar,Dharank and Balmiki.They are only Dalit in eyes of all farward castes. As you have written that VAM Dal has done some work.But Dheeresh there may be some JAT in VAM Dal too who are showing there sympathy only.- (Soraj Singh, Muzaffarngar) soraj@mrt.jagran.com
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