Thursday, January 17, 2013

शमशेर : कुछ निजी नोट्स - शुभा (दूसरी किस्त)


(पिछली पोस्ट से जारी)
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शमशेर अपने ढंग के मार्क्सवादी हैं। वे धर्म को बाई-पास नहीं करते। ख़ास तौर से इसलिए कि साम्प्रदायिक दंगे, विभाजन, हिंदी और उर्दू की त्रासदी उनके भावनात्मक ढांचे और संवेदना में घुल गयी थी। ये मामले उनके लिए सिर्फ़ वैचारिक मामले नहीं थे। उनके लिए उर्दू के छंद और हिंदी के छंद अलग नहीं थे। उनकी चेतना में हिंदी और उर्दू के बीच वह पार्थक्य नहीं था जो एक सामान्य बात होती जा रही है और लगभग सबने उसे ख़ामोशी से स्वीकार कर लिया है। शमशेर इसे जीवन भर स्वीकार नहीं कर सके। शमशेर को जीवन भर एक ही स्मृति आकर्षित करती है, जैसे यह शमशेर की स्मृति में बिंधा एक आद्य बिंब है :

                               जिसमें कल नहीं परसों
                               सब मिलकर हंसते थे किलकारी मारकर
                               हंसते थे
                               जब हमें दुनिया भर के बच्चे
                               अपने ही जैसे प्यारे
                               मासूम और पवित्र लगते थे


शमशेर के यहां अगला जनम, पिछला जनम, अल्लाह, ईश्वर, खुदा और भी बहुत से आध्यात्मिकता से जुड़े परिकल्पनात्मक शब्द एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक संदर्भ से जुड़े हैं। `ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की तो` कविता में ईश्वर, प्रार्थना और आस्था आदि शब्दों का एक ठोस संदर्भ है :
                                  
                                आज वो नहीं है जो सुना
                                और कंठस्थ किया जाता है!
                                छपे काव्य / लिपि संबंधी
                                दंगे
                                संस्कृति
                                बनने लगे हैं
                                जिसका शोध मेरे लिए दुरुहतम
                                साहित्य है
                                जन्म भर की आस्था के
                                बावजूद।

इन पंक्तियों में धर्म और ज्ञान के उस दौर की भी स्मृति है जब काव्य छपता नहीं था और ऋचाएं व आयतें कंठस्थ की जाती थीं।


कहीं  बहुत दूर से सुन रहा हूं (प्रथम संस्करण, 1995, राधाकृष्ण) शमशेर की अनुपस्थिति में छपा पहला काव्य संग्रह है। इसमें संपादिका द्वारा शमशेर का एक नया प्रोजेक्शन है। कविताओं के चयन में भी यही दृष्टि सक्रिय है। भूमिका में लिखा गया है : `शमशेर जी भीतर से गहरे तक कहीं आध्यात्मिक थे। संपूर्ण रचना-रूप भी अंदर-बाहर से ऐसा ही था। आज तक मार्क्सवाद और रूपवाद की लड़ाई में उनकी असली कविता मानो हमारे हाथों से फिसल गयी।`
`असली` का अर्थ यहां जो भी लिया जाये, शमशेर समृद्ध आत्मपक्ष रखने वाले सारपूर्ण कवि हैं और वे स्मृति के बीच एक द्वंद्वपूर्ण तनाव की रचना करते हैं। वे ठोस और अमूर्त के बीच ऐसा द्वंद्वात्मक संबंध कायम करते हैं जो हमारे दौर की विडंबना, एक स्वपन को व स्वपन से दूरी को एक साथ सामने लाता है। उनके संदर्भ में, और वैसे तो अधिकांश कवियों के संदर्भ में, आध्यात्मिक होना न होना एक अप्रासंगिक बात है। मीरा की आध्यात्मिकता के बावजूद उनकी पार्थिवता उनके काव्य में मौजूद है, उनके काव्य में पार्थिव स्त्रियों की गूंज मौजूद है, वे स्त्रियां जो सामंती समाज में क़ैद रहीं, जिन्होंने आज़ादी की इच्छा की, जो अकेलेपन से घिरी रहीं लेकिन उन्हें अपना एकांत उपलब्ध नहीं हुआ। उस काव्य में विधवा स्त्री की पार्थिव इच्छाएं और उनके लिए ठोस संघर्ष मौजूद है। यह सारवस्तु इतनी पार्थिव है, सामाजिक है, ठोस है, संसारी है कि मीरा की आध्यात्मिकता ही नहीं आध्यात्मिकता मात्र को एक लौकिक परिप्रेक्ष्य में पुनः परिभाषित करने की जरूरत है। आध्यात्मिकता एक लौकिक परिघटना है। देश और काल के अंदर, एक इतिहास के अंदर, ठोस भूगर्भों में ठोस जातियों, प्रजातियों, समूहों और समाजों के बीच ही ईश्वर और आध्यात्मिकता का जन्म हुआ है। इसमें इतनी विविधता इसलिए है कि यह साधारण मनुष्यों के दुखों, खुशी, एकांत और इच्छाओं से बने हैं।


`धार्मिक दंगों की राजनीति`, मुरादाबाद दंगों के संदर्भ में लिखी गयी `रुबाइयां`, `प्रेम की पाती (घर के बसंता के नाम)`, `आओ उनकी आत्मा के लिए प्रार्थना करें`, `हैवां ही सही`, `यह क्या सुना है मैंने` और `ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की तो` जैसी कविताओं, साम्प्रदायिक घटनाओं के संदर्भ में लिखी गयी कविताओं या दूसरी अनेक कविताओं में भी जगह-जगह साम्प्रदायिक परिघटना के संदर्भ और गूंज मौजूद हैं। इसके अलावा शमशेर के यहां हर कविता में लॉस (हानि) का जो एक अनुभव समाया हुआ है उसका एक महत्वपूर्ण केंद्र यह साम्प्रदायिक विभाजन है। `ओ मेरे घर` में पृथ्वी से शिकायत करते हुए वे कहते हैं :

                                         मुझे भगवान भी दिये कई-कई
                                                  मुझसे भी निरीह मुझसे भी निरीह!

उर्दू और हिंदी का मामला शमशेर के यहां दो भाषाओं के बीच झगड़े की तरह नहीं आता, वह एक आत्मीय संबंध और उस पर हुई चोट की तरह आता है :
                                               
                                               वो अपनों की बातें, वो अपनों की ख़ू-बू
                                               हमारी ही हिंदी, हमारी ही उर्दू!
                                                
                                               ये कोयल्-ओ-बुलबुल के मीठे तराने
                                               हमारे सिवा इसका रस कौन जाने!


अपनों की बातें, अपनों की खू़-बू, कोयल और बुलबुल के मीठे तरानों की याद के साथ उस पर हुई चोट, उसका दर्द, उसकी हानि शमशेर की कविता की बुनावट में मौजूद है। `टूटी हुई, बिखरी हुई` उर्दू की ज़मीन पर लिखी गयी कविता है जिसमें एक रूमानी अनुभव और उसकी हानि हर रेशे में मौजूद है। ज़ाहिर है, यह रोमान और हानि का एक ऐतिहासिक संदर्भ है जिसमें शमशेर का `निजी` अनुभव भी शामिल है।



3

शमशेर की एक कविता है `कन्या`। शुरू होती है यूं :

                सूरज जो
                         गुलाब बनने के सपने के
                         बीच से झांक रहा था
                 वह अल्हड़पन कहां से लाता
                         वह प्यारा कन्या रूप

कविता शुरू होते ही कन्या को सूरज से इस तरह अलग किया गया है कि न सूरज का मूल्य कम हुआ है न कन्या का। सूरज में भी गति है, उसके भी नये-नये रूप हैं, यह उसका सबसे कोमल रूप है। सुबह का सूरज जो गुलाब बनने का सपना देखते हुए उसके बीच से झांक रहा है। सपना खुद एक झिलमिलाहट की तरह होता है। सूरज साफ़ सामने नहीं आया है अभी तो वह `झांक` रहा है। यह कविता उस सुबह, उस दुनिया की कविता है जहां सूरज अपनी गर्मी आदि की शेख़ी में नहीं है। ऐसा मानवीय समय जब सूरज और गुलाब के बीच एक सपना है या कहें कि सूरज गुलाब बनने के सपने के समय में है। और यह परी का चित्र है :

                    मगर वह कोमलता
                              जो किरन को घुला रही थी
                              धूप को पानी कर रही थी
                     जो हंस रही थी


                      वह देवी का गुड़िया रूप
                                 जो आंख झपकाता था
                       और मक्खन सी गहरी गुलाबी हथेलियों को
                                  मुंडेर पर टिकाये हुए था
                        जहां उसके नन्हे पवित्र वक्ष
                                   दीवार को कंपा रहे थे
                        और उसकी आंखों से फूल बरस रहे थे


लेकिन यह परी का चित्र नहीं है। परियों के पंखों की बात की जाती है। यहां हथेलियां हैं, मुंडेर पर टिकायी हुई और नन्हे पवित्र वक्ष हैं जिनमें ऐसा गुण है (मैं शक्ति शब्द छोड़ रही हूं) कि जो दीवार को कंपा रहा है। दीवार कांप नहीं रही, उसे कंपाया जा रहा है और यह `गुण` अकेला नहीं है। इसी गुण की अभिव्यक्ति आंखों से फूलों के बरसने में हो रही है, जो `अल्हड़पन` में भी अभिव्यक्त हो रहा है। और यह गुण है, ऐसी कोमलता जो किरणों को घुला रही है, धूप को पानी कर रही है यानी सभी को बदल रही है। जिसको कविता के शुरू में ही `वह प्यारा कन्या रूप` कहा गया या `देवी का गुड़िया रूप` कहा जा रहा है, लेकिन यह रूप `आंख झपकाता था`, इसलिए यह न देवी है न गुड़िया।


यह वास्तव में देवी नहीं, परी नहीं, गुड़िया नहीं बल्कि एक `सुकुमार स्वस्थ बाला` है जो `यों ही मुक्त अकारण हंसी हंस कर, अंदर चली गयी ओट में।` यहां एक किशोरी को देखने के सभी स्टीरियोटाइप्स को तोड़ दिया गया है तभी यह `स्वस्थ बाला` दिखायी पड़ रही है।

ज़ाहिर है, यह कोई आध्यात्मिक कविता नहीं है। एक युवा होती किशोरी लड़की की सुबह, उसका उल्लास, उसमें छिपी ऊर्जा और उसके गुणों की एक तस्वीर है। एक स्वस्थ बाला को ऐसी तटस्थता से देखकर शमशेर बड़ा ज़रूरी काम कर रहे हैं। यह 1959 में लिखी गयी कविता है। आज युवा लड़कियां जिस बड़े पैमाने पर हिंसा और यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं और कन्या भ्रूण हत्या के कारण लिंग अनुपात ही गड़बड़ा गया है, ऐसे समय में कविता का बड़ा भारी मूल्य है। एक रुग्ण समाज में `यह सुकुमार बाला` जनतंत्र के लिए एक चुनौती है।


इस कविता में मौजूद इंद्रियबोध न तो पुरुष-दंभ और उद्दंडता के रूप का है और न किसी भावभीने मानवतावादी गीतिवाद का। यह इंद्रियबोध ऐसे व्यक्ति का इंद्रियबोध है जो एक किशोरी की स्वतंत्रता का क़ायल है, जिसके यहां नैतिकता और इंद्रियबोध अलग-अलग अपवर्जी चीज़ नहीं है। यह सौंदर्य दृष्टि शमशेर की मौलिक देन है। वे मार्क्सवादी हैं और उनकी सौंदर्य दृष्टि एक `वल्नरेबिल`को उसके स्पेस में उसके गुण सहित दिखाती है और इस तरह दिखाती है कि वह प्रतिष्ठित हो जाये। यह जगह शमशेर की कविता कई तरह से बनाती है। `अमन का राग`, `टूटी हुई, बिखरी हुई`, `नीला दरिया बरस रहा है` जैसी कविताएं ही नहीं, शमशेर का अधिकांश काव्य यह काम करता है।


इस `वल्नरेबिल` की जो समृद्धि शमशेर के यहां मौजूद है, उसी के कारण शमशेर की कविता एक रंगशाला और चित्रशाला की तरह है। उसमें एकांत है उजाड़ नहीं। उसमें उदासी है निराशा नहीं। उसके सभी रंगों में एक लॉस का, खोने का रंग मिला है, इसलिए उनकी कविता किसी समाप्त हो गयी प्रेमकथा की तरह न होकर एक ऐसी प्रेमकथा की तरह है जिसमें आश्रय और आलंबन के बीच एक गहरा एवं गाढ़ा रिश्ता है। इसके रास्ते में मुश्किलें हैं जिन्हें हम कह सकते हैं अमल की मुश्किलें :

                     हक़ीकत को लाये तख़ैयुल से बाहर
                     मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाये

जारी (एक और क़िस्त बाक़ी)...
(शुभा का यह लेख `नया पथ` के जुलाई-सितंबर : 2011 से साभार) 

ऊपर- शमशेर की तस्वीर लक्ष्मीधर मालवीय के कैमरे से जो असद ज़ैदी के जरिये मिली।

नीचे - शुभा की करीब 30-35 बरस पुरानी तस्वीर।

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