Thursday, February 13, 2014

पेंगुइन को अरुंधति की फटकार



अमेरिकी लेखक वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को पेंगुइन ने एक अनजान से कट्टर हिंदू संगठन के दबाव में `भारत` के अपने ठिकानों से हटाने का फैसला किया है। मशहूर लेखिका-एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय जिनकी खुद की किताबें भी इस प्रकाशन से ही आई हैं, ने पेंगुइन को यह कड़ा पत्र लिखा है जो Times of India में छपा है।पत्र का हिंदी अनुवाद:

तुम्हारी इस कारगुजारी से हर कोई स्तब्ध है। तुमने एक अनजान हिंदू कट्टरवादी संस्था से अदालत के बाहर समझौता कर लिया है और तुम वेंडी डॉनिगर की `द हिन्दू: एन ऑलटरनेटिव हिस्ट्री` को भारत के अपने किताबघरों से हटाकर इसकी लुगदी बनाने पर राजी हो गए हो। कोई शक नहीं कि प्रदर्शनकारी तुम्हारे दफ्तर के बाहर इकट्ठा होकर अपनी निराशा का इजहार करेंगे।

कृपया हमें यह बताओ कि तुम इतना डर किस बात से गए? तुम भूल गए कि तुम कौन हो? तुम दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शानदार प्रकाशकों में से हो। तुम प्रकाशन के व्यवसाय में बदल जाने से पहले और किताबों के मॉस्किटो रेपेलेंट और खुशबुदार साबुन जैसे बाज़ार के दूसरे खाक़ हो जाने वाले उत्पादनों जैसा हो जाने से पहले से (प्रकाशन में) मौज़ूद हो। तुमने इतिहास के कुछ महानतम लेखकों को प्रकाशित किया है। तुम उनके साथ खड़े रहे हो जैसा कि प्रकाशकों को रहना चाहिए। तुम अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे हिंसक और भयावह मुश्किलों के खिलाफ लड़ चुके हो। और अब जबकि न कोई फतवा था, न पाबंदी और न कोई अदालती हुक्म तो तुम न केवल गुफा में जा बैठे, तुमने एक अविश्वसनीय संस्था के साथ समझौते पर दस्तखत करके खुद को दीनतापूर्ण ढंग से नीचा दिखाया है। आखिर क्यों? कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए जरूरी हो सकने वाले सारे संसाधन तुम्हारे पास है। अगर तुम अपनी ज़मीन पर खड़े रह पाते तो तुम्हारे साथ प्रबुद्ध जनता की राय और सारे न सही पर तुम्हारे अधिकांश लेखकों का समर्थन भी होता। तुम्हें हमें बताना चाहिए कि आखिर हुआ क्या। आखिर वह क्या है, जिसने तुम्हें आतंकित किया? तुम्हें अपने लेखकों को कम से कम स्पष्टीकरण देना तो बनता ही है।

चुनाव में अभी भी कुछ महीने बाकी हैं। फासिस्ट् अभी दूर हैं, सिर्फ अभियान में मुब्तिला हैं। हां, ये भी खराब लग रहा है पर फिर भी वे अभी ताकत में नहीं हैं। अभी तक नहीं। और तुमने पहले ही दम तोड़ दिया।

हम इससे क्या समझें? क्या अब हमें सिर्फ हिन्दुत्व समर्थक किताबें लिखनी चाहिए। या `भारत` के किताबघरों से बाहर फेंक दिए जाने (जैसा कि तुम्हारा समझौता कहता है) और लुगदी बना दिए जाने का खतरा उठाएं? शायद पेंगुइन से छपने वाले लेखकों के लिए कुछ एडिटोरियल गाइडलाइन्स होंगी? क्या कोई नीतिगत बयान है?
साफ कहूं, मुझे यकीन नहीं होता, यह हुआ है। हमें बताओ कि यह प्रतिद्वंद्वी पब्लिशिंग हाउस का प्रोपेगंडा भर है। या अप्रैल फूल दिवस का मज़ाक था जो पहले ही लीक हो गया। कृपया, कुछ कहिए। हमें बताइए कि यह सच नहीं है।
अभी तक मैं से पेंगुइन छपने पर बहुत खुश होती थी। लेकिन अब?
तुमने जो किया है, हम सबके दिल पर लगा है।
-अरुंधति रॉय

2 comments:

शिवप्रसाद जोशी said...

पेंग्विन की "अधीरता" इन दिनों के माहौल में समझी जा सकती है. अमेरिका और नैंसी पावेल की तरह, मिलने मिलाने और आने वाले दिनों की समीकरणें देखी जा रही हैं. सब जैसे मान ही बैठे हैं. नवफ़ासीवाद के अजगर का निवाला बनने को तैयार. फिंकवा दिए जाने को तैयार. फ़ाशिस्टों के लिए मंच तैयार किए जा रहे हैं. सारा खुरदुरापन मिटाया जा रहा है. बाज़ार और बहुसंख्यकवाद के हमलों का अगला फ़ेज़.

shashi said...

someone has the guts to speak for the true facts!